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देवकांता संतति भाग 7

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : तुलसी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2050
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

थोड़ी ही देर बाद पाठकों को इस बाग की कैफियत से बहुत कुछ काम पड़ेगा, इसलिए सारा हाल अच्छी तरह से पढ़ लेना चाहिए। हम यहां बाग की कैफियत अच्छी तरह से समझाकर लिखे देते हैं - बाग कोई पांच बीघे का है। जगह जगह दरख्त हैं. बीच में तालाब। बाग के चारों तरफ कोई तीन सौ हाथ ऊंची अजीब-सी मुड़ाव लिए हुए दीवारें। एक तरफ की दीवार के ऊपर उन कोठरियों की कतारें। जिधर से वे चारों आए हैं, उस दीवार के ऊपर तीन सौ हाथ ऊपर बारादरी चमक रही है और ऐसा अनुमान होता है कि बारादरी के पीछे उसी इमारत की छतें हों, जिसमें से वे बड़े-बड़े अजूबे देखने के बाद यहां तक पहुंचे हैं। बाकी दो तरफ केवल दीवारें ही हैं, दीवारों के ऊपर किसी तरह की कोई इमारत देखने में नहीं आती। बस-फिलहाल आगे का हाल जानने के लिए पाठकों का काम बाग के बारे में इतनी ही जानकारी से बखूबी चल सकता है, अब हम खास तौर पर अपने कथानक और पात्रों पर आते हैं।

बाग की कैफियत अच्छी तरह से देखने के बाद बागारोफ बोला- ''एक बार फिर मानना पड़ेगा चमगादड़ो कि वो चटनी का तिलिस्म को बनाने वाला भी पक्का हरामी था। घूमने के लिए बाग भी बनाया तो वह भी ऐसा कि कोई हजार कोशिशों के याद भी बाग से बाहर नहीं जा सके। साथ ही इस बात का भी खास ख्याल रखा है कि तिलिस्म में फंसने वाला भूखा भी न मर जाए। देखो, इन दरख्तों पर खाने के फल और मेवों के कितने पेड़ हैं? भूख लगे तो फल और मेवे खाओ और तालाब में पानी पीकर सेहत बनाओ।''

इस तरह से-उन तीनों ने भी अपनी पेट-पूजा करके पानी पिया।

इसके बाद वे उसी जगह आराम से बैठकर बातें करने लगे - सभी के दिमाग में एक सबसे प्रमुख सवाल ये था कि वे लोग इस जंजाल से छुटकारा कैसे पाएंगे? उन्होंने चारों ओर घूम-घूमकर बाग को खूब अच्छी तरह से देखा - मगर बाहर निकलने का कोई भी रास्ता उन्हें नजर नहीं आया। इस बाग को अगर किसी जेल का मैदान कहा जाए तो ठीक होगा। रात होने पर वे उसी मैदान में सो गये।

और-इसी तरह से उन्हें उसी बाग में तीन रातें गुजर गईं।

आज इस जगह उन्हें चौथा दिन था। सूर्य की पर्याप्त धूप बाग में पड़ रही थी। दोपहर के वक्त वे बाग की एक दीवार की आड़ में छाया में बैठे थे। इन चारों के दिमागों में यह उथल-पुथल होने लगी थी कि इस तरह से कब तक चलेगा? वे कब तक इस बाग में यूं ही दिन गुजारते रहेंगे? इन सबके दिमाग-यहां से निकलने का कोई उपाय सोच रहे थे। चिलचिलाती धूप से भी वे परेशान थे। उस वक्त जेम्स बांड कह रहा था-''कदाचित हमारी जिंदगी में ऐसा मौका पहली दफा आया है। जब हम किसी दुश्मन के चगुल में भी नहीं है। किन्तु फिर भी शायद इन दिनों पूरे जीवन में सबसे ज्यादा मजबूर रहे हैं। हमारा कोई भी जानदार दुश्मन हमारे सामने नहीं है। फिर भी हम जिंदगी में पहली बार ऐसे फंसे हैं कि निकल नहीं सकते। हमारे दुश्मन हैं तो ये निर्जीव दीवारें - ये बेजान मकान और ये प्राणहीन तिलिस्म। हम पर किसी का भी पहरा नहीं है - लेकिन, फिर भी हम यहां से निकल भी नहीं सकते।''

''हम चारों तो फिर भी इतना भटकने के बाद आपस में मिल गए'', हुचांग बोला-''लेकिन मैं कभी-कभी माइक के बारे में सोचता हूं तो न जाने क्या-क्या ख्याल आने लगते हैं। सोचता हूं कि न जाने वह किन हालातों में कहां फंसा हुआ होगा। उसकी तो मदद के लिए भी हममें से कोई नहीं है। ऐसा न हो कि वह इस तिलिस्म की किसी कोठरी में फंसकर ही जान दे दे!''

''तू साले हमेशा अपशकुन की बात सोचा करता है।'' बागारोफ दहाड़ा-''उल्लू के पट्ठे, दुआ मना कि हमारा दोस्त सलामत हो। कसम तुम सबकी अम्माओं की - मेरे बच्चे पर अगर कोई बुरा वक्त आए तो उस पर अपनी जान न्यौछावर कर दूं। वो हरामजादा मेरी आंखों के सामने तो पड़े। अगर तलवार के नीचे भी हो तो फिर मैं अपनी गर्दन को ही अड़ा दूं।''

अभी बागारोफ की बात ठीक से पूरी भी नहीं हो पाई थी कि- -''चचा.. चचा!'' पूरा बाग इस आवाज से गूंज उठा। एक साथ चारों ने नजर उठाकर आवाज की ओर देखा। देखा तो देखते रह गए। चारों के दिल दहले - बागारोफ की आखों में तो आंसू आ गए।

जिस दीवार के नीचे बैठे थे - उनके ठीक सामने वह दिशा थी, जिधर की दीवार के ऊपर एक कतार में ग्यारह कोठरियां वनी हुई थीं।

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