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देवकांता संतति भाग 7

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : तुलसी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2050
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

 

आठवाँ बयान


काले चौकोरों पर पैर रखते हुए ये तीनों बड़े आराम से पत्थर के पास पहुंच गए। इस बार किसी भी पुतले ने कोई हरकत नहीं की थी। इस बात का सबने विशेष ध्यान रखा था कि गलती से किसी का पैर सफेद चौकोर पर न पड़ जाए। पत्थर काफी भारी था - मगर फिर भी अगर ये तीनों मिलकर उसे उठाने लगें तो कोई भारी नहीं था, परन्तु उसे उठाने के साथ-साथ उन्हें इस बात का भी खास ख्याल रखना था कि किसी का भी पैर सफेद चौकोर पर न पड़ सके और इस सबब से पत्थर गैलरी से कमरे तक लाने में काफी मेहनत करनी पड़ी, पत्थर कमरे में रखकर वे आराम से सुस्ताने लगे। सुस्ताने के बाद जब वे वहां से चले तो अकेले टुम्बकटू ने ही पत्थर उठाकर अपने सिर पर रख लिया। वह यहां से उस जगह का रास्ता बखूबी जानता था, जहां बागारोफ कैद था। हुचांग और जेम्स बांड उसके साथ चलते रहे। थोड़ी ही देर बाद वे उस कमरे के सामने पहुंच गए। कोठरी का दरवाजा खुला हुआ था और सामने ही चबूतरे पर बागारोफ आराम से लेटा कोई रूसी गाना गाने में मस्त था। उन्हें देखते ही वह एकदम उठकर बैठता हुआ बोला-

''अबे चोट्टी वालो, तुम्हें एक पत्थर इतनी देर में मिला है?'' -''मियां बुजुर्गवार!'' टुम्बकटू गन्ने की तरह लहराकर अपनी ही टोन में बोला-''साले इस पत्थर को लाने में कितने पापड़ बेलने पड़े हैं, तुम्हें क्या पता? तुम तो आराम से पड़े यहां गाना गा रहे हो।''

''अबे चुप भूतनी के!'' बागारोफ ने डांटा-''तुझसे कौन बातें करता है उल्लू की दुम फाख्ता? मैंने यहां लेटकर फैसला किया है कि इस साले चीनी चमचे का अन्त तो मैं चीन की दीवार से धक्का देकर ही करूंगा। साला हमें यहां फंसाकर खुद इस मुसीबत से निकल गया। कसम हलवाई की कड़ाही की, इस कोठरी से तो साली कब्र अच्छी होगी।

''चचा तुम्हारी कसम, अगर पत्थर लेने आप जाते तो पता लगता कि ये कोठरी तो कुछ भी नहीं, यहाँ ऐसी-ऐसी नायाब चीजे हैं कि अगर हम लोग कुछ और दिन यहां फंसे रहे तो निश्चय ही पागल हो जाएंगे।

''अबे हरामी के पिल्लो! अब यूं ही डायलॉग बोलते रहोगे या मेरा भी कुछ इंतजाम होगा? '' बागारोफ की इस बात पर तीनों मुस्कराए, तीनों ने मिलकर पत्थर उठाया और कमरे में आ गए। अब हम इस हाल को ज्यादा विस्तार से लिखने की जरूरत नहीं समझते। इतना ही काफी है कि पत्थर को चबूतरे पर रखकर वे बागारोफ को भी बाहर ले आए। टुम्बकटू और बागारोफ की तू-तू-मैं-मैं बराबर चलती रही। साथ ही वे चारों आराम से चले जा रहे थे। मगर हां, अब वे जहां भी कदम रखते सतर्क होकर रखते।

विभिन्न दालानों, कोठरियों और हॉलों में से गुजरकर वे एक बाग में आ गए। बाग काफी हरा-भरा था। उसमें जगह-जगह फल और मेवों के दरख्त थे। चारों तरफ ऊंची-ऊंची दीवारें थीं। दीवारें इतनी ऊंची थीं - मानो किसी महल की दीवारों से मुकाबला करना चाहती हों। किसी भी तरीके से उस दीवार पर से चढ़कर बाग से बाहर निकलने अथवा दीवार के दूसरी तरफ से बाग में आना नामुमकिन था। दीवारें कुछ इस तरह के कटावों का सहारा लेकर बनाई गई थीं कि किसी भी तरह का कमन्द उन पर काम नहीं कर सकता था। बाग के ठीक बीच में एक स्वच्छ जल का तालाब था। चारों ने बड़े ध्यान से उस बाग की कैफियत को देखा - उस बाग में से खुला आकाश चमक रहा था - मगर मुसीबत ये थी कि उस बाग से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं था। हां, जिस रास्ते से वे आए थे, एकमात्र वह रास्ता जरूर था। मगर उन्हें यह भी अच्छी तरह से मालूम था उस रास्ते से अंदर जाकर आदमी किस जंजाल में फंस जाता है और उस जंजाल में उलझने की ताकत अब उन तीनों में से किसी में बाकी नहीं रह गई थी। अत: एक तरह से वे इस बाग में कैद थे। चारों तरफ घूम-घूमकर देखने पर उन्होंने जाना कि बाग के दाहिनी तरफ की दीवार के ऊपर एक कतार में बहुत-सी कोठरियां वनी हुई हैं। उन कोठरियों में बाग की तरफ खुलने वाले दरवाजे थे, मगर किस काम के? बाग की जमीन से तो वे कोठरियां और दरवाजे कोई तीन सौ हाथ ऊपर थे। हां कोठरियों के दरवाजों में किसी तरह के किवाड़ नहीं थे। अगर उस कोठरी में कोई आदमी हो तो न डतने ऊंचे से वह बाग में ही आ सकता है न ही बाग में मौज़ूद कोई आदमी इनमें से किसी कोठरी तक पहुंच सकता है।

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