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देवकांता संतति भाग 7

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : तुलसी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2050
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

यह बात कोई गारंटी की नहीं है कि निशान फासफोरस का ही बना हुआ हो - पता नहीं उस जमाने में कोई फासफोरस जैसे गुण की ही कोई चीज रही हो! ये भी मुमकिन है कि उस युग के लोग फासफोरस को ही कुछ और बोलते हों! खैर-जो भी कुछ रहा हो, हम इतना कह सकते हैं, अंधेरे में चमकता ये तीर का निशान साफ तरीके से उन्हें रास्ता दिखा रहा था। वे उधर ही बढ़ गए - अब हम इस किस्से को ज्यादा लम्बा न करके इतना कह सकते हैं कि वे इस तरह अंधेरे में बढ़ते रहे। तिलिस्म बनाने वाला उन्हें अंधेरे में रास्ता दिखाता रहा। काफी आगे जाकर उन्होंने यह महसूस किया कि वे चढ़ाई पर चढ़ते जा रहे हैं। यह चढ़ाई एक ऐसी सुरंग में जाकर खत्म हुई, जिसमें न जाने किस तरह रोशनी हो रही थी। बांड और हुचांग काफी देर तक यह पता लगाने की कोशिश करते रहे कि इस सुरंग में ये रोशनी कहां से आ रही है - मगर नाकामयाब रहे।

फिर काफी देर तक साथ रहने के बाद - यहां आकर पहली बार ठीक से उन्होंने एक-दूसरे का चेहरा देखा। यहां उन्हें ऐसा लगा - मानो कई दिन तक उनकी आंखें बराबर कुछ काम करती रही हों और बहुत दिनों बाद उन्हें आराम मिला हो। कुछ देर सोचने-विचारने के बाद वे सुरंग में एक तरफ को बढ़ गए। काफी आगे जाकर सुरंग एक हॉल में खत्म हुई। हॉल में उन्होंने देखा कि वहां कोई बीस गाडियां खड़ी थीं। गाड़ियां इस तरह की थीं, मानो दो कुर्सियों को एक जगह जोड़कर दोनों तरफ दो-दो पहिये लगा दिये गये हों। जिधर गाड़ियों के मुंह थे, उधर हॉल में से निकलकर दूर तक सुरंग चली गई हो। यह सुरंग किसी बड़े शहर की चौड़ी सड़क के बराबर थी। सारी सुरंग में लोहे की बीस पटरियां थीं। इन्हीं बीस पटरियों के ऊपर वे बीस गाड़ियां खड़ी थीं। कदाचित हम ये लिखना भूल गए हैं कि इन गाड़ियों के जो छोटे-छोटे पहिये थे वे लोहे के थे। पहिये लोहे की पटरी पर स्थिर थे। हर गाड़ी की पीठ पर लिखा था-

मसलन एक पर-'जंतर-मंतर', दूसरी पर-'खुशनुमा-बाग', तीसरी पर-'हवामहल', चौथी पर-'शीशमहल', पांचवीं पर-'दिलचस्प गैलरी' इत्यादि। इसी तरह से हर गाड़ी की पीठ पर कुछ-न-कुछ लिखा था। साफ जाहिर था कि इनमें से किसी भी गाड़ी पर एक बार में दो आदमी बैठ सकते हैं। उन्हें देखने के बाद बांड बोला-

''आया कुछ समझ में?''

''मुझे लगता है कि ये गाड़ियां इन पटरियों पर फिसलती हुई कहीं जाती हैं।''

''इसका मतलब - इन लोगों ने एक तरह से बहुत पहले रेलगाड़ी का आविष्कार कर लिया था।'' बांड बोला-''जेम्स वॉट (रेल इंजन का आविष्कारक) समझता होगा कि यात्रा करने का उसी ने ऐसा जरिया निकाला है जो लोहे की पटरियों पर दौड़ता है। इस बात में तो कोई शक-शुबहा है ही नहीं कि यह तिलिस्म जेम्स वॉट के जमाने से बहुत पहले का है और यहां अपनी रेलगाड़ियों का ये छोटा रूप हम देख रहे हैं। ये जो नाम इन गाड़ियों की पीठ पर लिखे हैं, लगता है कि वे इस तिलिस्म की खास जगह हैं। ये गाड़ियां वहीं जाती होंगी जहां का जिसकी पीठ का नाम है। कदाचित ये तिलिस्म में फंसे आदमी की सैर के लिए हैं।''

''वो तो ठीक है - लेकिन हमें क्या मालूम, ये स्टार्ट कैसे होती हैं?'' हुचांग ने कहा।

''हां!'' बांड ने कहा-''सवाल तो तुम्हारे दिमाग में काम का ही उपजा है। किसी-न-किसी तरीके से ये स्टार्ट भी होती होंगी - मगर सवाल यही है कि हमें इन्हें स्टार्ट करने का तरीका किस तरह मालूम होगा?'' कुछ देर तक वे इसी बारे में बातचीत करते रहे - आखिर में बांड ने कहा-

''क्यों न किसी एक गाड़ी में बैठकर इसके इंजन को समझने की कोशिश करें?

''असल में पूछो तो मेरी तबीयत भी यही कह रही थी।'' हुचांग बोला-''काफी देर से खड़े-खड़े और चलने के कारण थकान-सी महसूस हो रही है। कुछ और न सही - गाड़ी में कुछ देर बैठकर सुस्ताने के साथ-साथ उसकी मशीनरी को समझने की कोशिश की जाएगी।'' यही फैसला करके वे उस गाड़ी में बैठ गए। जिस पर लिखा था, 'दिलचस्प गैलरी'।

अभी वे उसमें बैठे ही थे कि बहुत तेज झटका लगा। अभी वे ठीक से समझ भी न पाए थे कि गाड़ी अपनी पटरी पर तेजी से फिसलने लगी। गाड़ी में से किसी तरह की कोई आवाज न निकल रही थी। ऐसा कुछ महसूस नहीं हो रहा था कि उसमें कोई इंजन फिट है। सुरंग में सिर्फ पटरी और पहियों से पैदा होने वाली आवाज गूंज रही थी। देखते-ही-देखते गाड़ी की रफ्तार इतनी तेज हो गई कि बांड और हुचांग के चेहरे पर हवा के थपेड़े पड़ने लगे। वे कसकर अपनी-अपनी कुर्सियों के हत्थे पकड़े बैठे थे। तेजी से भागती हुई गाड़ी एक चौराहे पर आ गई जहां से चारों तरफ को पटरियां जा रही थीं। ठीक किसी रेल की भांति गाड़ी ने पटरी बदली और फिर दाहिनी तरफ को जाती हुईं-पटरी पर दौड़ पड़ी।

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