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देवकांता संतति भाग 7

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : तुलसी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2050
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

(पाठको, इस जन्मपत्री को समझना आपके लिए एक प्रश्न था। इसका जवाब भी तीसरे-चौथे भाग के अंत में लिखा जा चुका है। मगर फिर भी सहूलियत के लिए हम यहां भी लिखे देते हैं। )

उसका मतलब समझते ही बांड उछल पड़ा। उसके निर्जीव-से जिस्म में जैसे जान पड़ गई। वह फिर ध्यान से उसे देखने लगा। सबसे पहले उसने अंत के खाने का अक्षर लिया 'हं' फिर उससे ऊपर के खाने का 'स' फिर दायें से बायें क्रॉस लाइन बनाता हुआ पढ़ता चला गया। अक्षरों का तालमेल मिलता गया और यह वाक्य उभर आया-'हंस की दायीं टांग की दूसरी उंगली का नाखून शेर की दायीं आँख में डालकर दबाओ।' बांड ने ध्यान से इस सन्देश को अपने दिमाग में रख लिया। जब उसने इस वाक्य पर अमल किया तो अचानक एक भयानक दहाड़ के साथ शेर का मुंह खुलता चला गया। इतनी भयानक दहाड़ सुनकर एक बार को तो बांड जैसे आदमी का भी कलेजा दहल गया। थोड़ी ही देर बाद वह दहाड़ बन्द हुई, लेकिन शेर का मुंह इतना खुल चुका था कि एक आदमी बड़ी आसानी से शेर की जीभ पर से रेंगता हुआ अन्दर जा सकता था। बांड ने ऐसा ही किया। शेर के मुंह में वह संगमरमर की जीभ पर लेटा हुआ था - मगर अब उसे ऐसा बिल्कुल भी महसूस नहीं हो रहा था कि वह किसी शेर की आकृति के अन्दर है। इस वक्त ठीक उसे ऐसा महसूस हो रहा था - जैसे कि एक छोटी-सी सुरंग में रेंगता जा रहा हो। उसके चारों तरफ अन्धेरा था - मगर इस बात की चिन्ता किये बिना वह अंधेरे में ही रेंगता चला जा रहा था। कोई दस गज रेंगने के बाद उसे किसी लोहे की सीढ़ी का एहसास हुआ। वह हाथ से टटोलकर उसी सीढ़ी पर उतरता चला गया। पहले तो वह गिनता रहा कि यह कितनी सीढ़ियां उतर रहा है। मगर इतनी उतरा कि गिनती भी भूल गया। अचानक उसका पैर अंधेरे में जमीन से टकराया। अच्छी तरह से टटोलकर और यह तय करके कि नीचे जमीन है उसने सीढ़ी का डण्डा छोड़ा। जहां इस वक्त वह खड़ा था, वहां हाथ को हाथ सुझाई न देने वाला अन्धेरा था। जिधर उसका मुंह था, वह धीरे से उसके विपरीत दिशा में मुड़ा। मुड़ते ही एक सायत के लिए तो उसकी आंखें चुंधिया गयीं।

अंधेरे के बीच दूर एक दीवार पर चमचमाते हुए हीरे चमक रहे थे। (पाठकों, यह वही जगह है जहां पांचवें भाग के पाचवें बयान के अंत में हुचांग अटक गया। यह वही जगह है जहां हीरों के जरिये दीवार पर हिन्दी के अक्षरों की वह आकृति बनी हुई है, जिसके बारे में पाठकों से सवाल पूछा गया था। पाठक सावधान हो जायें-अब उस सवाल का भेद आने वाला है।)

बांड की नजर उन जगमगाते हीरों के पास खड़े एक आदमी के साये पर पड़ी। बांड एकदम उतावला होकर उन हीरों की तरफ बढ़ा। अब इस तिलिस्म मे फंसे बांड का दिमाग कदम-कदम पर बहुत सतर्क था। एकदम वह उन हीरों की तरफ इसलिए नहीं बढ़ा - क्योंकि उसके बीच का रास्ता अंधेरे में डूबा हुआ था। मुमकिन था कि बीच में कहीं से जमीन ही गायब हो और वह किसी नई मुसीबत में फंस जाये। हिम्मत कर उसने उस साये की तरफ मुंह करके कहा- कौन है?', आवाज अंधेरे को चीरती हुई गूंज उठी।

सुनते ही हीरों के पास खड़े साये ने चौंककर बांड की दिशा में देखा। बांड समझ गया कि उसे अंधेरे के कारण इधर कुछ भी नजर नहीं आयेगा। मगर उसने हीरों की जगमगाहट में हुचांग का चेहरा साफ देख लिया। एकदम बोला-'' अरे, हुचांग तुम यहां?''

''कौन?'' हुचांग अंधेरे में देखने की कोशिश करता हुआ बोला-''क्या तुम जेम्स बांड हो?''

''हां, मैं बांड ही हूं।''

''लेकिन तुम अंधेरे में हो कहां?'' हुचांग ने कहा- ''कुछ नजर नहीं आता!''

''तुम वहीं ठहरो, मैं वहीं आ रहा हूं।'' बांड ने कहा। यहां अंधेरे में गूंजती उन दोनों की आवाज बड़ी रहस्यमय लग रही थी। कहने के बाद बांड ने आगे का रास्ता पैर से टटोला और ठीक पाकर बढ़ गया। इसी तरह कदम-कदम पर रास्ता टटोलता हुआ वह आगे बढ़ रहा था। थोड़ी देर बाद वह हुचांग के पास पहुंच गया। दोनों इस तरह गले मिले, मानो बचपन में बिछड़े दो बहुत प्यारे दोस्त अचानक जवानी में मिल गये हों। मिलते भी क्यों नहीं? असल बात तो ये है कि दोनों ही इन तिलिस्मी मुसीबतों को झेलते-झेलते परेशान हो चुके हैं। मुसीबत में घिरे कोई भी आदमी अगर एक से दो हो जाते हैं, बरबस ही उनका साहस बढ़ जाता है - यही हाल इन दोनों का भी हुआ। हालांकि इस वक्त भी वे एक ऐसी जगह फंसे हुए थे - जहां से निकलने का कोई भी रास्ता उनमें से किसी को भी पता नहीं था। मगर फिर भी आपस में मिलकर एक-दूसरे की बातों में कुछ देर के लिए वे इस गम को भूल गये। काफी देर तक इधर-उधर की बातों के बाद बांड ने पूछा--

''तुम यहां तक कैसे पहुंचे?''

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