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देवकांता संतति भाग 7

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : तुलसी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2050
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

 

पाँचवाँ बयान


हम इस बयान में संतति के कौन-से पात्र से ताल्लुक रखने वाला कथानक लिख रहे हैं-यह भेद हम शुरू में बिल्कुल नहीं खोलेंगे, क्योंकि अगर हमने ऐसा किया तो इस बयान की दिलचस्पी आपके लिए विल्कुल ही खतम हो जाएगी। यह दावा हम कर सकते हैं कि आप इस बयान को जितना भी आगे तक पढ़ते जाएंगे, दिलचस्पियाँ उतनी ही बढ़ती चली जाएंगी। आइए, हम कथानक पर आते हैं। वह देखिए, चांदनी रात में हम एक आदमी को देख रहे हैं।

यह रात का कोई तीसरा पहर है। पूर्णमासी में दो-एक दिन की ही कसर रह गई है, यानी आकाश पर चमकते चांद का अपना गोलाकर हासिल करने में थोड़ी ही कसर है। हालांकि वह अभी अपने पूरे आकार में नहीं आया है, किंतु अपनी चांदनी उसने भरपूर तरीके से जमीन को दान दे रखी है। हम इस वक्त उस जंगल का हाल बयान कर रहे हैं जिसमें दरख्तों की बहुतायत है।

चांद की चांदनी को ज्यादातर दरख्तों के पत्तों और डालियों ने जमीन तक पहुंचने की अनुमति नहीं दी है। इसके बावजूद चांदनी जगह-जगह से जगह बनाकर जमीन तक पहुंचने में कामयाब है। जमीन पर बिखरे सूखे पत्तों को अपने पैरों तले रौंदकर चरमराहट की आवाज पैदा करता हुआ वह बढ़ा चला जा रहा है। उसका कद लम्बा है और इसी सबब से वह लम्बे-लम्बे कदमों के साथ बढ़ रहा है। कभी-कभी एक सायत के लिए जब उसका चेहरा दरख्तों के बीच से छनती चांदनी में आता है तो हमें यह चेहरा जाना-पहचाना-सा लगता किन्तु जैसे ही हम उसे पहचानने की कोशिश करते हैं, चेहरा पुन: छांव में विलीन हो जाता है।

हम अच्छी तरह देख चुके हैं कि उसके कंधे पर एक गठरी लटक रही है। वैसे गारंटी से तो हम कुछ नहीं कह सकते-लेकिन हमारा ख्याल है कि गठरी में इंसान का बेहोश जिस्म है-- उसका रुख चमनगढ़ की ओर है।

कुछ ही देर बाद वह महल के मुख्य दरवाजे पर पहुंच जाता है। वहां तैनात पहरेदारों से कुछ बातें करता हे। कुछ देर बाद उनमें से एक पहरेदार महल के अंदर चला जाता है। हमारा यह शख्स अपने कंधे पर गठरी लादे दूसरे पहरेदारों से बातचीत में मशगूल है। कुछ ही देर बाद यह पहरेदार वापस आता दिखाई दिया। करीब आकर बोला-''राजा सा'ब अपने शयनकक्ष में आपका इंतजार कर रहे हैं। उन्होंने फौरन आपको तलब किया है।''

इतना सुनते ही वह शख्स अपने कंधे पर पड़ी गठरी को संभालकर महल के अंदर दाखिल हो गया। जिस वक्त वह राजा उमादत्त के कमरे में पहुंचा तो उसने देखा-उमादत्त के खूबसूरती से सजे शयनकक्ष में उनके अलावा और भी कई ऐयार विराजमान हैं।

हमारे पाठक-इन ऐयारों को बखूबी पहचानते हैं। इनके नाम इस तरह हैं-विक्रमसिंह, रूपलाल, गोमती. सारंगा और बलभद्र। उनके बैठने के अंदाज से ही साफ जाहिर होता है कि वे रात के इस वक्त यहां बैठे हुए किसी बहुत ही जरूरी मसले पर बातचीत कर रहे हैं। हमारे पाठकों को ऊपर लिखे पांचो ऐयारों के कारनामे बखूबी याद होंगे। रूपलाल का सिर तो बख्तावरसिंह की कृपा से हंडिया बन ही चुका है। मुंह पर अभी तक कालिख पुती हुई है। विक्रमसिंह के बारे में आप दारोगा के साथ पढ़ आए हैं। गोमती, बलभद्र और सारंगा राजनगर गए ही थे। आगे के हमारे पाठकों को यह नोट कर लेना चाहिए कि ये पांचों ही ऐयार उमादत्त के खास ऐयार हैं। इस वक्त यहां दारोगा मेघराज मौजूद नहीं है।

खैर... अब हमारा वह शख्स शयनकक्ष में दाखिल हो जाता है।

आओ, गोवर्धनसिंह! विक्रमसिंह अपनी जगह से खड़ा होकर उस शख्स की आगवानी करता हुआ बोला- 'ये तुमने अपनी क्या हालत बना रखी है और फिर ये कंधे पर किसे लाद लाए?

जब से हमारी नजर इस शख्स पर पड़ी है-तब से अब ही यह भरपूर रोशनी में आया है और अब हम भी इसे बखूबी पहचान सकते है। वह गोवर्धनसिंह ही है। उसके कपड़े जगह-जगह से फटे हुए हैं। जिस्म पर घाव है-आंख के नीचे किसी तीखी चोट का काला निशान है। उसकी कैफियत देखकर साफ जाहिर होता है कि वह कोई बड़ा वखेड़ा तय करके यहां पहुचने में कामयाब हुआ है। गोवर्धनसिंह उमादत्त को सलाम करके कंधे से उस गठरी को उतारकर-एक तरफ बैठ गया और बोला- ''आजकल हमें बड़े तरद्दुदों का सामना करना पइ रहा है महाराज।''

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