ई-पुस्तकें >> आरोग्य कुंजी आरोग्य कुंजीमहात्मा गाँधी
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गाँधी जी द्वारा स्वास्थ्य पर लिखे गये लेख
ऐसे महान तत्त्व का अभ्यास और उपयोग जितना हम करेंगे, उतना ही अधिक आरोग्यका उपभोग कर सकेंगे।
पहला पाठ तो यह है कि इस सुदूर और अदूर तत्त्वके और हमारे बीचमें कोई आवरण नहीं आने देना चाहिये। अर्थात् यदि घरबारके बिना, अथवा कपड़ोंके बिना हम इस अनन्तके साथ सम्बन्ध जोड़ सकें, तो हमारा शरीर, बुद्धि और आत्मा श्री तरह आरोग्यका अनुभव कर सकेंगे। इस आदर्श तक हम भले ही न पहुंच सके, या करोड़ोंमें एक ही पहुंच सके, तो भी इस आदर्श को जानना, इसे समझना और इसके प्रति आदरभाव रखना आवश्यक है। और यदि यह हमारा आदर्श हो, तो जिस हद तक हम इसे प्राप्त कर सकेंगे, उसी हद तक हम सुख, शान्ति और सन्तोष का अनुभव कर सकेंगे। इस आदर्शको मैं आखिरी हद तक पेश कर सकूं तो मुझे यह कहना पड़ेगा कि हमें शरीरका अन्तराय भी नहीं चाहिये अर्थात् शरीर रहे या जाये, इस बारेमें हमें तटस्थ रहना चाहिये। मनको हम इस तरहका शिक्षण दे सकें, तो शरीरको बिषय-भोगका साधन तो कभी नहीं बनायेंगे। तब अपनी शक्ति और अपने ज्ञानके अनुसार हम अपने शरीरका सदुपयोग सेवाके लिए, ईश्वरको पहचाननेके लिए, उसके जगतको जाननेके लिए और उसके साथ ऐक्य साधनेके लिए करेंगे।
इस विचारसरणी के अनुसार घरबार, वस्रास्त्रादिके उपयोगमें हम काफी अवकाश रख सकते हैं। कई घरोमें इतना साज-सामान देखनेमें आता है कि मेरे जैसे गरीब आदमीका तो उसमें दम ही घुटने लगता है। उन सब चीजोंका जीवनमे क्या उपयोग है, यह उसकी समझमें ही नहीं आता। उसे वे सब धूल और जन्तुओंको इकठा करनेके साधन ही मालूम होंगे। यहां जिस जगह मैं रहता हूँ वहा तो मैं खो ही जाता हूँ। यहांकी कुर्सियां, मेजें, अलमारियां और शीशे मुझे खानेको दौड़ते हैं। यहांके कीमती कालीन केवल धूल इकट्ठी करते हैं और सूक्ष्म जन्तुओंका घर बने हुए हें। एक बार एक कालीनको झाड़नेके लिए निकाला गया था। वह एक आदमी का काम नहीं था। छह-सात आदमी उसमें लगे। कमसे कम दस रतल धूल तो उसमें से निकली ही होगी। जब उसे वापस उसकी जगह रखा गया, तो उसका स्पर्श नया ही मालूम हुआ। ऐसे कालीन रोज थोड़े ही निकाले जो सकतें हैं? अगर निकाले जायं तो उनकी उमर कम हो जायगी और मेहनत बढ़ेगी। यह तो मैं अपना ताजा अनुभव लिख गया। मगर आकाशके साथ मेल साधनेके खातिर मैंने अपने जीवनमें अनेक झंझटें कम कर डाली हैं। घरकी सादगी, वस्त्रकी सादगी ओर रहन-सहनकी सादगीको बढ़ाकर, एक शब्दमें कहूँ और हमारे विषयसे सम्बन्ध रखनेवाली भाषामें कहूँ तो मैंने अपने जीवनमें उत्तरोत्तर खालीपनको बढ़ाकर आकाशके साथ सीधा सम्बन्ध बढ़ाया है। यह भी कहा जा सकता हे कि जैसे-जैसे यह सम्बन्ध बढ़ता गया, वैसे-वैसे मेरा आरोग्य भी बढ़ता गया, मेरी शान्ति बढ़ती गई, सन्तोष बढ़ता गया और धनेच्छा बिलकुल मन्द पड़ती गई। जिसने आकाश के साथ सम्बन्ध जोड़ा है, उसके पास कुछ नहीं है, और सब-कुछ है। अन्नमें तो मनुष्य उतनेका ही मालिक है न, जितनेका वह प्रतिदिन उपयोग कर सकता है और जितने को वह पचा सकता है? इसलिए उसके उपयोगसे वह आगे बढता है। सब कोई ऐसा करें तो इस आकाश-व्यापी जगतमें सबके लिए स्थान रहे और किसीको तंगीका अनुभव ही न हो।
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