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अष्टांगहृदय

वाग्भट

प्रकाशक : खेमराज श्रीकृष्णदास प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :350
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15769
आईएसबीएन :1234567890

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आयुर्वेद के स्तम्भ ग्रंथ अष्टांगहृदय का पहला भाग

द्वितीयोऽध्यायः


अथातो दिनचर्याध्यायं व्याख्यास्यामः।
इति ह स्माहुरात्रेयादयो महर्षयः।


अब हम यहाँ से दिनचर्या नामक अध्याय का वर्णन करेंगे, इस विषय में आत्रेय आदि महर्षियों ने इस प्रकार कहा था॥१॥

उपक्रम—दिनचर्या शब्द से रात्रिचर्या, ऋतुचर्या आदि का भी ग्रहण कर लिया जाता है। दिनचर्या शब्द में इतने अर्थ छिपे हैं-'दिने-दिने चर्या, दिनस्य चर्या किं वा दिनानां चर्या = दिनचर्या'। इस प्रकार परिभाषित करने पर उक्त सभी अर्थों का इसमें समावेश हो जाता है। इस अध्याय में उन आचरणों की चर्चा की जायेगी जो नर-नारी के लिए दोनों लोकों में हितकर होती है। हमारा यह आयुर्वेद इस लोक और परलोक को मानता है। आपको इसके अनेक प्रमाण मिलेंगे, अस्तु। विशेष देखें—इसी अध्याय के ४८वें पद्य को।

निरुक्ति—गति तथा भक्षण अर्थ में प्रयुक्त चर् धातु से यत् + टाप् प्रत्यय करने पर चर्या शब्द निष्पन्न होता है। इसका अर्थ है- -आहार-विहार तथा आचरण विधि। संक्षिप्त सन्दर्भ-संकेत–च.सू. ५, ७, ८; सु.चि. २४ तथा अ.सं.सू. ३ में देखें।

ब्राह्मे मूहूर्त उत्तिष्ठेत् स्वस्थो रक्षार्थमायुषः।

ब्राह्ममुहूर्त में जागना—स्वस्थ (नीरोग) स्त्री-पुरुष को अपनी आयु (सुखायु-हितायु) की रक्षा करने के लिए प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्त में उठना चाहिए।

वक्तव्य-ब्राह्ममुहूर्त-रात के पिछले पहर की दो घड़ी या दो दण्ड। श्रीअरुणदत्त ब्राह्ममुहूर्त की व्याख्या करते हुए कहते हैं—'रात्रेश्चतुर्दशो मुहूर्तो ब्राह्मो मुहूर्तः', किन्तु 'मुहूर्तचिन्तामणि' के विवाह-प्रकरण में दिये गये ५३वें पद्य में दिया गया रात्रि का १४वाँ मुहूर्त 'त्वाष्ट्र' है, जिसका स्वामी चित्रा नामक नक्षत्र है। हाँ, आठवें मुहूर्त का नाम 'ब्रह्मा' है, जो प्रसंगोचित नहीं है। इसके आगे वे कहते हैं—

ब्रह्म-ज्ञानं  तदर्थमध्ययनाद्यपि ब्रह्म, तस्य योग्यो मुहूर्तो ब्राह्मः'।

यह व्याख्या युक्तियुक्त प्रतीत होती है। अन्यत्र कहा गया है—'रात्रेस्तु पश्चिमो यामो मुहूर्तो ब्राह्म उच्यते'। यह नियम केवल स्वस्थ पुरुष के लिए है। सूर्योदय से पहले रात्रि के अन्तिम प्रहर की चार घड़ियों को 'ब्राह्ममुहूर्त' माना गया है। सुश्रुत ने केवल 'उत्थायोत्थाय सततं' (सु.चि. २४।३) में प्रतिदिन प्रातःकाल उठकर, इतना ही कहा है।

शरीरचिन्तां निर्वर्त्य कृतशौचविधिस्ततः॥१॥
अर्कन्यग्रोधखदिरकरञ्जककुभादिजम्।
प्रातर्भुक्त्वा च मृद्वग्रं कषायकटुतिक्तकम् ॥२॥
कनीन्यग्रसमस्थौल्यं प्रगुणं द्वादशाङ्गुलम्।
भक्षयेद्दन्तपवनं दन्तमांसान्यबाधयन् ॥३॥


दतवन का विधान—उठते ही शरीर की चिन्ता से निवृत्त होकर अर्थात् मैं उठने योग्य हूँ या नहीं—ऐसा विचार करके यदि वह अपने को दिनचर्या करने योग्य समझे तब वह शौचविधि (मल-मूत्र त्याग कर मल-मूत्र स्थानों को मिट्टी, जल आदि से शुद्ध करने के बाद अर्क, बरगद, खैर या बबूल, करञ्ज (डिठौरी),ककुभ (अर्जुन) आदि वृक्षों में से किसी की पतली शाखा को लेकर दतवन (दातौन) करे।

दतवन करने के दो समय होते हैं- १. प्रातःकाल और २. भोजन कर लेने के बाद। इससे मुख की मलिनता दूर होती है और भोजन करने के बाद दाँतों या मसूड़ों में फंसे हुए अन्नकण आदि निकल जाते हैं।

दतवन करने की विधि—दतवन के अगले भाग को दाँतों से चबाकर अथवा कूटकर मुलायम कर लेना चाहिए, नहीं तो उसकी रगड़ मसूड़ों में लग सकती है। इस (दतवन) का रस कसैला (खैर या बबूल का जैसा) या कटु (तेजबल या तिमूर का जैसा) अथवा तिक्त (नीम का जैसा) होना चाहिए। इसकी मोटाई कनीनिका (सबसे छोटी पाँचवीं अंगुली) के समान तथा लम्बाई बारह अँगुल होनी चाहिए। इस प्रकार की दतवन को लेकर दाँतों पर इस प्रकार घिसें जिससे मसूड़ों पर खरोश न लगे और दाँत स्वच्छ हो जायें॥१-३॥

वक्तव्य—वाग्भट ने 'अर्क' (मदार) की दतवन करने का विधान किया है, तथापि दूध सहित इसकी शाखा को मुख में न डाले, अन्यथा मुख पक जायेगा, घाव हो जायेंगे। अतः इसकी बाहरी त्वचा को छीलकर तथा पानी से धोकर ही इसका दतवन के लिए प्रयोग करें। आजकल अनेक चूर्णों तथा मञ्जनों का दाँत साफ करने के लिए प्रयोग होने लगा है। इसका प्रयोग उँगली या ब्रश से किया जाता है, अतः ब्रश का मुलायम होना अति आवश्यक है। दूसरी ओर 'कोलगेट' आदि टूथपेस्टों का प्रयोग चल पड़ा है।

जहाँ उचित गुण वाली दतवन सुलभ नहीं है वहाँ सुलभ विकल्पों का प्रयोग कर लेना चाहिए। ध्यान रहे—दाँत जिससे साफ हों, मसूड़ों को हानि न पहुँचे उसका उपयोग करें। इसका प्रयोग करने से मुखरोग नहीं होते और मुख साफ बना रहता है।

सुश्रुत ने चि.२४|४-१२ में जो मधुर रस वाली दतवन का विधान किया है, उसका तात्पर्य है—मुखपाक (सर्वसर) या मुखदाह आदि पित्तज विकारों में इसका प्रयोग करना चाहिए। इसके अतिरिक्त ऐसे अवसरों पर फिटकरी का चूर्ण डालकर तैलगण्डूष भी अत्यन्त हितकर होता है।

जिह्वानिर्लेखन—इस प्रसंग में दतवन कर लेने के बाद जीभी का प्रयोग भी कर लेना चाहिए। इसका वर्णन चरक, सुश्रुत, वाग्भट (अष्टांगसंग्रह) ने किया है, किन्तु अष्टांगहृदय में नहीं हुआ है। इसकी हम सुश्रुतोक्त विधि कह रहे हैं—जीभ को साफ करने (उसमें जमे हुए मैल को खुरचने) के लिए सोने, चाँदी या लकड़ी की जीभी बनवा लेनी चाहिए। आजकल बाजार में ताँबा या स्टील की भी जीभी मिलती है। दतवन करने वाले उसी को दाँतों से चीर कर जीभी बना लेते हैं। वास्तव में यह जीभी 'वार्थ' (वृक्ष से सम्बन्धित) है। इस विषय को च.सू. ५।७४-७५ में देखें।

नाद्यादजीर्णवमथुश्वासकासज्वरार्दिती।
तृष्णास्यपाकहृन्नेत्रशिरःकर्णामयी च तत्॥४॥


दतवन का निषेध-अजीर्ण होने पर, छर्दिरोग में, श्वासरोग में, कासरोग में, ज्वररोग में, अर्दित (मुख का लकवा) रोग में, तृषारोग में, मुखपाकरोग में, हृदयरोग में, नेत्ररोग में, शिरोरोग में तथा कर्णरोग में दतवन न करें॥४॥

वक्तव्य-दतवन करने की क्रिया को आयुर्वेदशास्त्र में दो नामों से कहा गया है—१. दन्तपवन और २. दन्तधवन। इनमें 'पवन' का अर्थ है—पवित्र करना और 'धवन' का अर्थ है-धोना या साफ करना। अष्टांगसंग्रह-सू. ३।२०-२२ में निषिद्ध दतवनों का परिगणन इस प्रकार विस्तार से किया है—१. लिसोड़ा, २. रीठा, ३. बहेड़ा, ४. धव, ५. करीर, ६. बबूल, ७. सम्भालू, ८. सहजन, ९. लोध, १०. तेन्दू, ११. कचनार, १२. शमी, १३. पीलू, १४. पीपल, १५. इंगुदी (हिंगोट), १६. गूगल, १७. फरहद, १८. इमली, १९. मोच, २०. सफेद शाल्मली, २१. सेमल तथा २२. शष (सनई) की दतवन न करे। इनके अतिरिक्त जिन वृक्षों का रस मीठा, खट्टा अथवा नमकीन हो उनकी भी दतवन न करे। जो दतवन सूखी, खोखली, दुर्गन्धयुक्त तथा लसीली हो उसका भी निषेध किया है और पलाश तथा विजयसार की दतवन एवं खड़ाऊँ का परित्याग करे।

सौवीरमञ्जनं नित्यं हितमक्ष्णोस्ततो भजेत्।

अञ्जन-प्रयोग—मुखशुद्धि करने के बाद प्रतिदिन सौवीर अञ्जन को आँखों में लगाना चाहिए। यह आँखों के लिए हितकर होता है।

वक्तव्य-सुवीर (सिन्धु) देश में प्राप्त होने वाला यह अञ्जन (काला सुरमा) आँखों के लिए हितकर होता है। इसका विशेष विवेचन देखें—अ.सं.सू. ३२१७-८। स्वस्थ आँखों में प्रतिदिन लगाने वाले अञ्जन को प्रत्यञ्जन कहते हैं। श्रीभावमिश्र ने इस सौवीराजन को 'सफेद सुरमा' स्वीकार किया है। यह काला सुरमा से अधिक सौम्य होता है। इन दोनों सुरमों का प्रयोग नेत्रप्रसादन के लिए किया जाता है। सुश्रुत ने भी इस अञ्जन की प्रशंसा की है। देखें—सु.चि. २४।१८-१९।

चक्षुस्तेजोमयं तस्य विशेषात् श्लेष्मतो भयम्॥५॥
योजयेत्सप्तरात्रेऽस्मात् स्रावणार्थं रसाञ्जनम्।


रसाजन-प्रयोगविधि-म्रावण अञ्जन का प्रयोग चक्षु (आँख) तेजोमय अर्थात् अग्निगुण-प्रधान अवयव है। उसे (चक्षु को) विशेष करके शीतगुण-प्रधान कफ का भय रहता है। अतएव आँख से कफदोष को निकालने के लिए सप्ताह में एक बार रसाञ्जन का प्रयोग अवश्य करना चाहिए।।५।।

वक्तव्य-उक्त रसाञ्जन के साप्ताहिक प्रयोग से आँखों में से संचित कफदोष निकल जाता है, अतः कफदोषजनित कोई भी नेत्ररोग नहीं हो पाता। विशेष करके काच (मोतियाबिन्द) रोग का भय नहीं रहता है। सुश्रुत ने 'काच' रोग को 'नीलिका' तथा 'लिंगनाश' भी कहा है। देखें—सु.उ. ७।१८। 'काच' को सफेद मोतिया और 'नीलिका' को नीला या काला मोतिया भी कहते हैं। यह कफदोष आँख में संचित होते-होते मोती जैसा दिखलायी देता है, तब इसे मोतियाबिन्द कहते हैं। आपरेशन करके निकालने के बाद यह आकार में मसूर की दाल जैसा होता है। चरक ने उक्त स्रावणांजन का प्रयोग प्रतिदिन या पाँचवें अथवा आठवें दिन करने की सलाह दी है। चरक ने अंजन-प्रयोग का समय रात्रि में बतलाया है। यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि जब प्रतिदिन लगाये जाने वाले अंजन को छोड़कर प्रात:काल रसाञ्जन का प्रयोग किया जायेगा तब प्रतिदिन लगाये जाने वाले अंजन को रात में लगाना चाहिए, यह चरक के वचन का अभिप्राय है। इसी प्रसंग में मनु ने कहा है—'मैत्रं प्रसाधनं स्नानं दन्तधावनमञ्जनम्। पूर्वाह्न एव कुति देवतानाञ्च पूजनम्'।। (मनु० ४।१५२) यहाँ 'मैत्र' का अर्थ है—सूर्य की आराधना, उपासना या पूजा। इसलिए रसवत अथवा किसी स्रावण अंजन का प्रयोग सदा करता रहे।

ततो नावनगण्डूषधूमताम्बूलभाग्भवेत्॥६॥

नस्य आदि सेवन-निर्देश—अंजनप्रयोग करने के बाद नस्य (सुंघनी), गण्डूष (कुल्ली, देखें—बृहत् हिन्दी-कोश), धूम्रपान तथा ताम्बूल का सेवन करे।।६।।

वक्तव्य-उक्त नस्य आदि की विस्तृत सेवनविधियाँ क्रमशः इस प्रकार अष्टांगहृदय में दी गयी हैं। देखें—१. नस्यसेवनविधि अ.हृ.सू. २०।१-२। धूमपानविधि वहीं २१ तथा ३. गण्डूषादि विधि वहीं २२। ताम्बूलभक्षण की विस्तृत विधि अ.सं.सू. ३।३६-३८ देखें।

ताम्बूल-सेवनविधि-भोजन के प्रति इच्छा अधिक हो, मुख स्वच्छ एवं सुगन्धित रहे, ऐसी इच्छा रखने वाले को घुला-घुलाकर पान खाना चाहिए। इसे भोजन की भाँति मुख में रखकर तत्काल निगलना नहीं चाहिए। पान के मसाले—जावित्री, जायफल, लौंग, कपूर, पिपरमेण्ट, कंकोल (शीतल चीनी), कटुक (लताकस्तूरी के बीज) तथा इसमें सुपारी के भिगाये हुए टुकड़े भी रखें। इस प्रकार सेवन करने से पान हृदय को प्रिय लगता है और यह शक्तिवर्धक होता है। इसका सेवन सोकर उठने के बाद स्नान एवं भोजन करने के बाद तथा वमन करने के पश्चात् करना चाहिए। एक बार में अधिक-से-अधिक दो बीड़ा पान लें, जिसमें चूना, कत्था लगा हो और सुपारी के टुकड़े पड़े हों।

विशिष्ट अवसर–राजसम्मान, विद्वत्सम्मान, रतिकाल, युद्ध आदि में जाते समय इसके सेवन का विशेष महत्त्व है। अन्य अवसर भी अनेक हैं, उन्हें लोकव्यवहार से समझें।

सेवनविधि—पान के जड़ की डण्डी और आगे का भाग काट देना चाहिए, तभी उसमें चूना-कत्था लगाकर सुपारी आदि मसाले डालकर मुख में लें। इसकी पहली पीक को थूककर फिर इसका रसपान करते रहें। सुर्ती आदि आधुनिक मसाले हानिकर होते हैं, इनसे दाँत कमजोर हो जाते हैं और इनसे मुख का अल्सर होता देखा गया है। देखिए ‘भावप्रकाश'—दिनचर्या-प्रकरण'।

ताम्बूलं क्षतपित्तास्ररूक्षोत्कुपितचक्षुषाम्।
विषमूर्छामदार्तानामपथ्यं शोषिणामपि ॥७॥


ताम्बूलसेवन-निषेध—ऊपर छठे पद्य में ताम्बूल का सेवन सभी को करना चाहिए, ऐसा निर्देश करने के बाद अब यहाँ इसका सेवन किनको नहीं करना चाहिए, इस विषय का निर्देश किया जा रहा है—क्षत तथा उर:क्षत से पीड़ित, पित्तविकार, रक्तविकार (रक्तपित्त) से पीड़ित, रूक्ष शरीर वाले, नेत्ररोगी, विषविकार से पीड़ित, मूर्छा एवं मदात्यय आदि रोगों से पीड़ित तथा शोषरोगी को ताम्बूल का सेवन नहीं करना चाहिए।॥७॥

वक्तव्य–ताम्बूलसेवन का निषेध जिन रोगियों के लिए किया गया है, उसमें कारण हैं ताम्बूलपत्र के ये गुण-धर्म होते हैं—तीक्ष्ण, उष्णवीर्य, रुचिकारक, कषाय, सर, तिक्त, क्षारीय गुणयुक्त, चरपरा तथा लघु। यह कामवासना, रक्तधातु तथा पित्तधातु को बढ़ाता है। इसका अधिक सेवन करना एक प्रकार का दुर्व्यसन है। इसे भूखे पेट में तथा शौच के अन्त में कदापि सेवन न करें।

अभ्यङ्गमाचरेन्नित्यं, स जराश्रमवातहा।
दृष्टिप्रसादपुष्टयायुःस्वप्नसुत्वक्त्वदाढर्यकृत् ॥८॥


अभ्यङ्गसेवन-विधान-प्रतिदिन अभ्यंग (मालिश) करना या कराना चाहिए, क्योंकि वह जरा(बुढ़ापा), श्रम (थकावट) तथा वातज विकारों को नष्ट करता है, दृष्टि को स्वच्छ करता है, शरीर को पुष्ट करता है, आयु को बढ़ाता है, गहरी नींद लाता है, त्वचा के सौन्दर्य को स्थिर बनाये रखता है और मांसपेशियों को दृढ़ एवं सुडौल (गठीली) बनाता है।॥८॥

वक्तव्य-अभ्यंग = मालिश, उबटन, फोहा रखना, कान में तेल डालना तथा लेप लगाना, इसे अलंकरण भी कहा गया है। इसका विस्तृत क्षेत्र इस प्रकार है—दाँतों या आँखों पर तेल लगाना, स्नेहमिश्रित काजल लगाना, स्नेहमय लेप या मलहम लगाना आदि। उक्त विषय के लिए देखें—सु.सू. २१।१० तथा सु.चि. २४।३०-३७। साथ ही उक्त श्लोकों पर आचार्य डल्हण द्वारा लिखी गयी टीका को भी देखें। अभ्यंग के लिए घी से आठ गुना अधिक तेल लाभदायक होता है, अवसर-विशेष पर घी आदि अन्य स्नेहों द्वारा भी मालिश की जाती है।

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