स्वास्थ्य-चिकित्सा >> अष्टांगहृदय अष्टांगहृदयवाग्भट
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आयुर्वेद के स्तम्भ ग्रंथ अष्टांगहृदय का पहला भाग
सुश्रुत-चि. २४।३० श्लोक पर की गयी आचार्य डल्हण की टीका में अभ्यंग के सम्बन्ध में ये तीन पद्य मिलते हैं—
रोमान्तेष्वनुदेहस्य स्थित्वा मात्राशतत्रयम्।
ततः प्रविशति स्नेहश्चतुर्भिर्गच्छति त्वचाम्।।
रक्तं गच्छति मात्राणां शतैः पञ्चभिरेव तु।
षड्भिर्मासं प्रपद्येत मेद: सप्तभिरेव च ॥
शतैरष्टाभिरस्थीनि मज्जानं नवभिव्रजेत्।
तत्रास्थाञ् शमयेद्रोगान् वातपित्तकफात्मकान्।
अर्थात् प्राचीन विद्वानों का अनुमान है और अभ्यंगप्रिय पहलवानों का अनुभव है कि अभ्यंग द्वारा प्रयोग किया गया तेल ३०० मात्रा समय तक वह रोमकूपों में रहता है; फिर ४०० मात्रा समय तक त्वचा में, फिर ५०० मात्रा समय तक रक्त में, फिर ६०० मात्रा समय तक मांस में, ७०० मात्रा समय तक मेदस् में, ८०० मात्रा समय तक अस्थि में और ९०० मात्रा समय तक मज्जा में व्याप्त होकर उन-उन धातुओं में उत्पन्न वातज, पित्तज तथा कफज रोगों को शान्त कर देता है। उक्त डल्हण कृत टीका से मालिश के सम्बन्ध में उद्धृत श्लोकों में व्याकरण की दृष्टि ये प्रयोग महत्त्वपूर्ण हैं। देखें त्वचाम्, रक्तं, मांस, मेदः, अस्थीनि तथा मज्जानं। आप ध्यान दें—'कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे द्वितीया' (अ. २।३।५) सूत्र के नियमानुसार 'त्वचाम्' आदि प्रयोग बतला सिर तथा रहे हैं कि मालिश ऐसी होनी चाहिए कि मसलते-मसलते उस तेल का अत्यन्त संयोग उन-उन धातुओं तक हो जाय, तभी मालिश का पूरा-पूरा लाभ मिलता है।
यहाँ जो ३०० तथा ५०० आदि मात्रा शब्द का प्रयोग किया है, इस मात्रा नामक काल की अवधि का प्रमाण है—ह्रस्व स्वर अ, इ या उ आदि किसी एक को उच्चारण करने में जितना समय लगता है, उतने मात्र समय को कालविभागज्ञों ने मात्रा' कहा है। ध्यान दें—मात्रा ह्रस्व, दीर्घ तथा प्लुत भेद से तीन प्रकार की होती है। यहाँ केवल ह्रस्व स्वर वाली मात्रा से तात्पर्य है। अभ्यंग का रहस्य पहलवान लोग जानते हैं, वे बड़े चाव से मालिश करते तथा कराते हैं और उसका लाभ भी उठाते हैं। अभ्यंग कराने वाले को चर्मरोग कभी नहीं होते हैं।
शिरःश्रवणपादेषु तं विशेषेण शीलयेत्।
अभ्यंग के प्रमुख स्थान-अभ्यंग सम्पूर्ण शरीर में करना चाहिए, यह आठवें पद्य में कह दिया है। अब अभ्यंग के विशेष स्थलों का निर्देश किया जा रहा है। यथा—सिर, कानों तथा पैरों के तलुओं में विशष रूप से अभ्यंग करना चाहिए।
वक्तव्य—यहाँ 'शीलयेत्' क्रिया का अर्थ है-'अभ्यसेत्' अर्थात् बार-बार इसका अभ्यास करे। इस निर्देश की गुणवत्ता वाग्भट ने अष्टांगसंग्रह-सू. ३१५९-६० में इस प्रकार बतलाई है—'सिर पर तेलमालिश करते रहने से वह केशों का हित करता है अर्थात् उन्हें बढ़ाता है, मुलायम तथा चिकना बनाये रखता है। इससे शिरः कपालास्थियों और इन्द्रियों (आँख, कान, नाक) का तर्पण होता रहता है। कान के छेद में गुनगुना तेल डालते रहने से हनुसन्धियों (गण्ड, कर्ण, शंख, वर्त्म, नेत्र तथा हनु से सम्बन्धित १२ अस्थियों) का, मन्याओं (गरदन के अलग-बगल में दिखलायी देने वाली दोनों ओर की धमनियों) का, कानों का शूल शान्त हो जाता है। पैरों पर अभ्यंग करते रहने से पाँवों में स्थिरता आती है, निद्रा आती है और दृष्टि प्रसन्न रहती है। पैरों का सुन पड़ जाना, श्रम, स्तम्भ (जकड़न), सिकुड़न, विवाई फटना—ये कष्ट दूर हो जाते हैं।
वर्णोऽभ्यङ्गः कफग्रस्तकृतसंशुद्धयजीर्णिभिः॥९॥
अभ्यंग का निषेध–प्रतिश्याय आदि कफज विकारों से पीड़ित रोगी, जिन्होंने शरीरशुद्धि के लिए वमन-विरेचन आदि किया हो तथा जो अजीर्णरोग से ग्रस्त हों, वे अभ्यंग का प्रयोग न करें।।९।।
वक्तव्य-शास्त्रीय विचार विधि-निषेधमय होते हैं, क्योंकि उनके निर्देश सभी अवस्थाओं के लिए दिये जाते हैं, अतएव वे सर्वांगीण होते हैं। इस प्रकरण में सबसे पहले प्रतिदिन अभ्यंग करने का सामान्य निर्देश दिया था, यह निषेधात्मक निर्देश विशेष परिस्थिति के लिए है। सुश्रुत का अनुसरण करने वाले आचार्य हेमाद्रि ने कहा है-'कृतसंशुद्धेस्तदहरेव निषिद्धः'। अर्थात् जिसने वमन आदि का जिस दिन प्रयोग किया हो उस दिन अभ्यंग न करे। इसी विषय को स्पष्ट रूप से सुश्रुत ने चिकित्सास्थान २४।३५-३७ में कहा है।
लाघवं कर्मसामर्थ्य दीप्तोऽग्निर्मेदसः क्षयः।
विभक्तघनगात्रत्वं व्यायामादुपजायते॥१०॥
व्यायाम का विधान—व्यायाम करने से कार्य करने की शक्ति बढ़ती है, जठराग्नि या पाचकाग्नि प्रदीप्त होती है, मेदस् (स्थूलता) का क्षय होता है अर्थात् मोटापा घटता है, अंग-प्रत्यंग (मांसपेशियाँ) स्पष्ट दिखलायी देते हैं और वे ठोस हो जाते हैं।।१०।।
वक्तव्य-अष्टांगसंग्रह में इसकी परिभाषा इस प्रकार दी है—'शरीरायासजनकं कर्म व्यायाम उच्यते'। (अ.सं. ३।६२) अर्थात् जिससे शरीर में थकावट पैदा हो, उसे 'व्यायाम' कहते हैं। इस परिभाषा से सभी शारीरिक परिश्रम व्यायाम कहे जा सकते हैं, किन्तु भगवान् पुनर्वसु के शब्दों में व्यायाम की परिभाषा इस प्रकार है—
शरीरचेष्टा या चेष्टा स्थैर्यार्था बलवर्द्धिनी।
देहव्यायामसङ्ख्याता मात्रया तां समाचरेत्।।
(च.सू. ७।३१) अर्थात् जो भी शरीर की चेष्टा (कर्म) अपने मन को अच्छी लगे, जो शरीर को स्थिरता प्रदान करती हो और बल को बढ़ाती हो, उसे 'व्यायाम' कहते हैं। उसे मात्रा के अनुसार करना चाहिए। यह व्यायाम की परिभाषा सर्वोत्तम है।
संसार में व्यायाम के अनेक प्रकार देखे जाते हैं, वे भी विभिन्न दृष्टियों से व्यायाम ही हैं। यथा—दण्ड, बैठक, शीर्षासन, कुश्ती, तैरना, हाकी, क्रिकेट आदि। इसी प्रसंग में आगे कहा जायेगा कि किनको व्यायाम नहीं करना चाहिए। पहलवान बनने की इच्छा हो तो उत्तम (पौष्टिक) खान-पान की व्यवस्था होनी चाहिए। जो प्रत्येक नर-नारी घरेलू कार्य करते हैं उनसे भी थकावट आती ही है, किन्तु वास्तव में इनकी गणना व्यायाम के रूप में नहीं होती। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए शारीरिक श्रम अति आवश्यक है।
वातपित्तामयी बालो वृद्धोऽजीर्णी च तं त्यजेत्।
व्यायाम का निषेध–वातज तथा पित्तज रोगों से पीड़ित रोगी, बालक, वृद्ध तथा अजीर्णरोग से पीड़ित मनुष्य 'व्यायाम' न करें।
वक्तव्य—यहाँ बालक तथा वृद्ध के लिए व्यायाम करने का निषेध किया है, अतः इनकी आयुसीमा का निर्देश करते हुए वाग्भट के टीकाकार श्री अरुणदत्त कहते हैं—'बाल: आषोडशवर्षात्', 'वृद्धः सप्ततेरूध्वम्' अर्थात् सोलह वर्ष तक की अवस्था वाला बालक कहा जाता है और सत्तर वर्ष से ऊपर की अवस्था वाला वृद्ध होता है।
अर्धशक्त्या निषेव्यस्तु बलिभिः स्निग्धभोजिभिः ॥११॥
शीतकाले वसन्ते च, मन्दमेव ततोऽन्यदा।
अर्धशक्ति तथा काल-निर्देश—बलवान् तथा स्निग्ध (घी-तेल आदि से बने हुए तथा बादाम, काजू आदि) पदार्थों को खाने वाले मनुष्य शीतकाल (हेमन्त-शिशिर ऋतु) में एवं वसन्त ऋतु में आधी शक्ति भर व्यायाम करें, इससे अन्य ऋतुओं में और भी कम व्यायाम करें।। ११।।
वक्तव्य—अर्धशक्ति का परिचय–व्यायाम करते-करते हृदयस्थान में स्थित वायु जब मुख की ओर आने लगे अर्थात् जब व्यायाम करने वाला हाँफता हुआ मुख से साँस लेने लगे तो यह बलार्ध या अर्धशक्ति का लक्षण है। इस स्थिति में यह सोच लेना चाहिए कि इस समय आधा बल समाप्त हो चुका है। देखें-सु.चि. २४/४७। और लक्षण भी देखें—काँखों में, माथे पर, नासिका के ऊपर, हाथों-पैरों तथा सभी सन्धियों में पसीना आने लगे और मुख सूखने लगे तब समझना चाहिए कि आधी शक्ति समाप्त हो चुकी है। उस समय व्यायाम करना छोड़ दे। स्वयं बैठकर अपने शरीर के अवयवों को मसलें। सर्दी के दिनों में अर्धशक्ति पर्यन्त व्यायाम करने की शास्त्र की आज्ञा है, उसके बाद और भी कम व्यायाम करना चाहिए, यही ‘मन्दमेव' शब्द का अभिप्राय है।
तं कृत्वाऽनुसुखं देहं मर्दयेच्च समन्ततः॥१२॥
शरीरमर्दन-निर्देश—व्यायाम के बाद का कर्म—व्यायाम कर लेने के बाद सम्पूर्ण शरीर का अनुलोम सुखद मर्दन कर्म चारों ओर से करना चाहिए अथवा क्रमशः सभी अंगों को मसलना चाहिए।। १२।।
वक्तव्य-सुश्रुत के टीकाकार जैज्जट का कथन है कि मर्दन (मसलना) यह क्रिया भी व्यायाम का ही एक अंग है। यह मर्दन कर्म भी ऐसा न हो जो शरीर को कष्टकारक हो, अतएव महर्षि वाग्भट ने इसका एक विशेषण 'अनुसुखं' दिया है अर्थात् जो सुख के अनुकूल हो।
तृष्णा क्षयः प्रतमको रक्तपित्तं श्रमः क्लमः।
अतिव्यायामतः कासो ज्वरश्छर्दिश्च जायते ॥
अतिव्यायाम से हानि-अधिक व्यायाम करने से प्यास का लगना, क्षय (राजयक्ष्मा), प्रतमक श्वास, रक्तपित्त, श्रम (थकावट), क्लम (मानसिक दुर्बलता या सुस्ती), कास, ज्वर तथा छर्दि (वमन) आदि रोग हो जाते हैं अथवा हो सकते हैं।।१३।।
वक्तव्य-प्रायः देखा गया है कि जो बहुत दिनों तक व्यायाम करते रहे, बाद में जिन्होंने एकाएक व्यायाम करना छोड़ दिया, उन्हें वृद्धावस्था में आमवात, ऊरुस्तम्भ, अर्शरोग (बवासीर) अथवा अण्डवृद्धि (पोता का बढ़ जाना) आदि रोग हो जाते हैं।
व्यायामजागराध्वस्त्रीहास्यभाष्यादि साहसम्।
गजं सिंह इवाकर्षन् भजन्नति विनश्यति ॥१४॥
व्यायाम आदि का निषेध–व्यायाम, जागरण, मार्गगमन, मैथुन, हँसना, बोलना (जोर-जोर से चिल्लाना) तथा साहसिक कार्यों का अधिक सेवन करने से शक्ति युक्त मनुष्य का भी उस प्रकार विनाश हो जाता है जैसे सिंह अपने द्वारा मारे हुए हाथी को खींचकर ले जाने का दुःसाहस करता है, तो वह स्वयं मर जाता है।।१४।।
वक्तव्य—व्यायाम आदि का युक्तियुक्त सेवन सुखद होता है, किन्तु इनका अधिक सेवन न करे, यही ग्रन्थकार का अभिप्राय है। इसीलिए शक्तिमान् सिंह भी यदि अपने द्वारा मारे गये हाथी को खींचकर ले जाना चाहेगा तो वह भी मर जायेगा। यह एक दुःसाहस का उदाहरण है। जागरण (रात में अधिक जागना), अधिक मार्ग चलना, जो कभी नहीं चलता उसके लिए थोड़ा चलना भी बहुत है, इस प्रकार विचार कर लें। ऐसे ही अन्य उदाहरण भी हैं। दुःसाहस का अधिक प्रयोग करने से उरःक्षत हो जाता है।
अधिक व्यायाम करने से 'क्षय' हो जाता है, यह ऊपर कहा गया है। तन्त्रकार की एक अपनी शैली होती है, वह है—सूत्र तथा व्याख्यान शैली। क्षय या राजयक्ष्मा के सम्बन्ध में महर्षि पुनर्वसु के उद्गार—'राजयक्ष्मा रोगसमूहानाम्' तथा 'अयथाबलमारम्भः प्राणोपरोधिनाम्'। (च.सू. २५/४०) उक्त १४ वें श्लोक का आधार है—'व्यायाम'' ''मात्रया' (च.सू. ७३४)।
उद्वर्तनं कफहरं मेदसः प्रविलायनम्।
स्थिरीकरणमङ्गानां त्वक्प्रसादकरं परम् ॥ १५॥
उबटन के गुण-व्यायाम के बाद उबटन करना चाहिए, इससे कफ का नाश होता है। यह मेदोधातु को पिघला कर उसे सुखा देता है, अंगों को स्थिर (मजबूत) करता है और त्वचा को कान्तियुक्त करता है।। १५॥
वक्तव्य-जौ या चना का आटा अथवा सरसों को पीसकर उसमें तेल तथा हल्दी मिलाकर शरीर पर मसलने को उद्वर्तन, उत्सादन या उबटन कहा जाता है। इस विधि से रोमकूपों में जमी हुई मैल भलीभाँति निकल जाती है। इससे त्वचा चिकनी तथा कोमल हो जाती है। इसका प्रयोग छोटे बच्चों के शरीर पर भी किया जाता है। इसके बाद गुनगुने पानी से स्नान करना चाहिए। परन्तु इस वैज्ञानिक युग में ये सात्त्विक सुख कहाँ सुलभ है ?
दीपनं वृष्यमायुष्यं स्नानमूर्जाबलप्रदम्।
कण्डूमलश्रमस्वेदतन्द्रातृड्दाहपाप्मजित्।। १६।
स्नान के गुण-स्नान करने से जठराग्नि प्रदीप्त होता है, यह वृष्य (वीर्यवर्धक) है, आयु को बढ़ाता है, उत्साहशक्ति तथा बल को बढ़ाता है; कण्डू (खुजली), मल (त्वचा का मैल), थकावट, पसीना, उँघाई, प्यास, दाह (जलन) तथा पाप (रोग) का नाश करता है।।१६।।
वक्तव्य-स्नान करने से ऊपर जिन लाभों का वर्णन किया है, उनका यहाँ स्पष्टीकरण प्रस्तुत किया जा रहा है। स्नान वृष्य है, देखें—अ.हृ.उ. ४०।३५। स्नान कर लेने से मन प्रसन्न होता है, अतः यह वृष्य है।
उष्णाम्बुनाऽधःकायस्य परिषेको बलावहः।
तेनैव तूत्तमाङ्गस्य बलहृत्केशचक्षुषाम् ॥ १७॥
उष्ण-शीत जलप्रयोग-उष्ण (गरम) जल से अधःकाय (गरदन से नीचे के शरीर) का परिषेक (स्नान) बल को बढाता है। यदि उसी (गरम जल) से सिर को धोया जाय अर्थात् गरम पानी से शिरःस्नान किया जाय तो इससे बालों तथा आँखों की शक्ति घटती है।।१७।।
स्नानमर्दितनेत्रास्यकर्णरोगातिसारिषु।
आध्मानपीनसाजीर्णभुक्तवत्सु च गर्हितम् ॥१८॥
स्नान का निषेध–अर्दित (मुखप्रदेश का लकवा), नेत्ररोग, मुखरोग, कर्णरोग, अतिसार, आध्मान (अफरा), पीनस, अजीर्ण रोगों में तथा भोजन करने के तत्काल बाद स्नान करना हानिकारक होता है।।१८।।
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