लोगों की राय

स्वास्थ्य-चिकित्सा >> अष्टांगहृदय

अष्टांगहृदय

वाग्भट

प्रकाशक : खेमराज श्रीकृष्णदास प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :350
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15769
आईएसबीएन :1234567890

Like this Hindi book 0

5 पाठक हैं

आयुर्वेद के स्तम्भ ग्रंथ अष्टांगहृदय का पहला भाग


षड़विंशोऽध्यायः

अथातः शस्त्रविधिमध्यायं व्याख्यास्यामः।

इति ह स्माहुरात्रेयादयो महर्षयः।

अब हम यहाँ से शस्त्रविधि नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे। जैसा कि इस विषय में आत्रेय आदि महर्षियों ने कहा था।

उपक्रम—इसके पहले अध्याय में यन्त्रों का वर्णन किया जा चुका है, तदनन्तर अब इस अध्याय में शस्त्रों का भेद-उपभेद सहित वर्णन किया जायेगा।

संक्षिप्त सन्दर्भ-संकेत—सु.सू. ८ तथा १३ में और अ.सं.सू. ३४ एवं ३५ में देखे। चरकसंहिता में शस्त्रों का वर्णन नहीं किया गया है, तथापि च.चि. २५ में षड्विध शस्त्रकर्म का उल्लेख श्लोक ५५ से ६० तक किया गया है।

षड्विंशतिः सुकर्मारैर्घटितानि यथाविधि।
शस्त्राणि रोमवाहीनि बाहुल्येनाङ्गुलानि षट् ॥१॥
सुरूपाणि सुधाराणि सुग्रहाणि च कारयेत् ।
अकरालानि सुध्मातसुतीक्ष्णावर्तितेऽयसि॥२॥
समाहितमुखाग्राणि नीलाम्भोजच्छवीनि च।
नामानुगतरूपाणि सदा सन्निहितानि च ॥३॥
स्वोन्मानार्धचतुर्थांशफलान्येकैकशोऽपि च ।
प्रायो द्वित्राणि, युञ्जीत तानि स्थानविशेषतः॥४॥
(मण्डलाग्रं वृद्धिपत्रमुत्पलाध्यर्द्धधारके।
सप॑षण्यौ वेतसाख्यं शरार्यास्यत्रिकूर्चके॥१॥
कुशास्यं साटवदनमन्तर्वक्त्रार्धचन्द्रके (कम् ) ।
व्रीहिमुखं कुठारी च शलाकाङ्गुलिशस्त्रके॥२॥
बडिशं करपत्राख्यं कर्तरी नखशस्त्रकम्।
दन्तलेखनकं सूच्यः कूर्ची नाम खजाह्वयम् ॥३॥
आरा चतुर्विधाकारा तथा स्यात्कर्णवेधनी (नम्)।)

शस्त्रों का वर्णन सामान्यतः शस्त्रों की संख्या २६ है, जिनका आगे परिगणन किया गया है। इन शस्त्रों का निर्माण कुशल कर्मारों ( कारीगरों) द्वारा विधिपूर्वक करवाना चाहिए। ये शस्त्र इतने तेज धार वाले हों जिससे वे रोमों को भी काट सकें, इनकी लम्बाई छ: अंगुल होनी चाहिए, शस्त्र देखने में सुन्दर (सुडौल ), सुन्दर धार वाले हों और इनकी मूठ भी अच्छी बनी हो, जिससे वे अच्छी तरह पकड़े जा सकें। इनकी आकृति डरावनी न हो, जिस लोहे से बनाये जायें वह लोहा आग में खूब धमाया (तपाया ) गया हो और तीक्ष्णायस (फौलाद) से बनाये जायें। इन शस्त्रों के मुखाग्र (फल) मजबूत हों, इनका वर्ण नीलकमल की आकृति का हो। इन शस्त्रों के आकार आगे वर्णित शस्त्रों के नामों के अनुरूप हों, ये शस्त्र सदा (चिकित्साकाल में) चिकित्सक के पास हों। आधे में उसका फल हो और आधे में उसकी मूठ हो। यह दृष्टिकोण प्रत्येक शस्त्र के निर्माण में होना चाहिए। प्रायः स्थान-विशेष के प्रयोग में एक ही प्रकार के दो-तीन शस्त्रों की आवश्यकता पड़ सकती है।।१-४॥

(छब्बीस शस्त्रों के नाम- १. मण्डलाग्र, २. वृद्धिपत्र, ३. उत्पल, ४. अध्यर्धधारक, ५. सर्प, ६. एषणी, ७. वेतस या वेतसाग्र, ८. शरार्यास्य, ९. त्रिकूर्चक, १०. कुशास्य, ११. साटवदन, १२. अन्तर्वक्त्रार्धचन्द्रक, १३. व्रीहिमुख, १४. कुठारी, १५. शलाका, १६. अंगुलिशस्त्र, १७. बडिश, १८. करपत्र, १९. कर्तरी, २०. नखशस्त्र, २१. दन्तलेखनक, २२. सुइयाँ, २३. कूर्च, २४. खज (मथानी ), २५. आरा ( ये चार प्रकार के होते हैं) तथा २६. कर्णवेधन ।।१-३॥)

वक्तव्य-कुछ संस्करणों में आरम्भ से ४ श्लोकों के आगे कहे गये ३ श्लोक नहीं मिलते। प्रसंगोचित होने के कारण यहाँ इनका समावेश क्षेपक के रूप में कर लिया गया है। सुश्रुत ने इन शस्त्रों की संख्या २० दी है। देखें-सु.सू. ८।३। सुश्रुतोक्त शस्त्रों के नाम इस प्रकार हैं—१. मण्डलाग्र (Circular knife या Roundhead knife), २. करपत्र ( Saw), ३. वृद्धिपत्र ( Scalpel ), ४. प्रयताग्र (Abscess knife), ५. नखशस्त्र ( Nail pairs ), ६. मुद्रिका ( Finger-knife), ७. उत्पलपत्र ( Lancel), ८. अर्धधार ( Single edged knife), ९. सूची (Needle), १०. कुशपत्र (Bistoury), ११. आटीमुख ( Tardus ginginiamos ), १२. शरीरीमुख ( Pair of scissors ), १३. अन्तर्मुख (Curved bistoury), १४. त्रिकूर्चक ( Brush), १५. कुठारिका (Ave shaped ), १६. व्रीहिमुख ( Trocar), १७. आरा (Owl like knife ), १८. बडिश ( Hooks ), १९. दन्तशंकु (Tooth pick ) तथा २०. एषणी ( Sharp proves)।

वाग्भट ने सुश्रुत से अधिक जिन शस्त्रों का वर्णन किया है, वे इस प्रकार हैं—सर्पवक्त्र, शलाका, कर्तरि, सूचीकूर्च, खज एवं कर्णव्यधन। विशेष अष्टाङ्गसंग्रह-सू.अ. ३४ में देखें।

मण्डलाग्रं फले तेषां तर्जन्यन्त खाकृति।
लेखने छेदने योज्यं पोथकीशुण्डिकादिषु ॥५॥

मण्डलाग्र शस्त्र-ऊपर कहे गये शस्त्रों में से सर्वप्रथम यहाँ मण्डलाग्र शस्त्र का वर्णन किया जा रहा है। इसके फल ( अग्रभाग) का स्वरूप तर्जनी (अँगूठा के बगल वाली) अँगुली के नख के भीतरी भाग के सदृश होता है। इसका उपयोग पोथकी (रोहा) तथा गलशुण्डी आदि रोगों के लेखन ( छीलना, खुरचना) तथा छेदन ( काटना) में होता है॥५॥

वृद्धिपत्रं क्षुराकारं छेदभेदनपाटने।
ऋज्वग्रमन्नते शोफे गम्भीरे च तदन्यथा॥६॥
नताग्रं पृष्ठतो दीर्घह्रस्ववक्त्रं यथाश्रयम्।

वृद्धिपत्र शस्त्र-वृद्धिपत्र शस्त्र छुरा (उस्तरा ) के आकार का होता है, इसका अगला भाग ऋजु (सीधा) होता है। इसका प्रयोग ऊँचे ( उभार युक्त) व्रणशोथ को छेदने, भेदने तथा पाटन (चीरने) कर्म के लिए होता है। इससे विपरीत गम्भीर व्रणशोथ के छेदने आदि कर्मों के लिए प्रयुक्त होता है। उस वृद्धिपत्र शस्त्र का आकार पीछे की ओर को झुका हुआ तथा व्रणशोथ की स्थिति के अनुसार लम्बे अथवा छोटे मुखवाला होता है।॥६॥

उत्पलाध्यर्धधाराख्ये भेदने छेदने तथा॥७॥

उत्पल एवं अध्यर्धधारक शस्त्र-उत्पलपत्रक एवं अध्यर्धधारक ये दो शस्त्र भी भेदन, छेदन तथा पाटन कर्म में प्रयुक्त होते हैं।।७।।

सर्पास्यं घ्राणकर्णाशश्च्छेदनेऽर्धाङ्गुलं फले।

सर्पवक्त्र शस्त्र—सर्पास्य (सर्पमुख ) नामक शस्त्र के फलभाग की लम्बाई आधा अंगुल होती है। इसका प्रयोग नासिकाछिद्रों तथा कानों के भीतर उत्पन्न अर्थांकुरों को काटने के लिए होता है।

गतेरन्वेषणे श्लक्ष्णा गण्डूपदमुखैषणी॥८॥

१. एषणी शस्त्र—एषणी नामक शस्त्र नाड़ीव्रण (नासूर ) का घाव कहाँ तक हुआ है, इसको ढूँढने के लिए होता है। इसका मुख केंचुए के मुख जैसा होता है, वह एषणी स्पर्श में कोमल होती है।॥८॥

भेदनार्थेऽपरा सूचीमुखा मूलनिविष्टखा ।

२. एषणी शस्त्र—एषणी नामक दूसरा शस्त्र भेदन कर्म के लिए प्रयुक्त होता है। इसका मुख सुई के जैसा तीखा होता है। सुई की भाँति उसकी जड़ में भी छिद्र होता है। इसके द्वारा क्षारभावित सूत्र का भगन्दर में प्रवेश किया जाता है।


वक्तव्य-यहाँ दो एषणी शस्त्रों का वर्णन किया गया है। इसमें प्रथम एषणी यन्त्र है और दूसरा एषणी शस्त्र है।

वेतसं व्यधने-

वेतस शस्त्र—वेतसपत्रक नामक शस्त्र वेधन (बींधना, टुकड़े करना, प्रहार करना) कर्म में प्रयुक्त होता है।

-स्राव्ये शरार्यास्यत्रिकूर्चके॥९॥

शरारिमुख एवं त्रिकूर्चक शस्त्र-शरारि नामक एक लम्बी चोंच वाला पक्षी होता है, उसी की चोंच के आकार का यह शस्त्र होता है तथा त्रिकूर्चक (पहले इस शस्त्र से टीके लगाये जाते थे, इसको गोदने की कूची भी कह सकते हैं।) ये दोनों शस्त्र स्रावण कर्म में प्रयुक्त होते हैं॥९॥

कुशाटावदने स्राव्ये व्यङ्गुलं स्यात्तयोः फलम् ।

कुशपत्रक एवं आटामुख शस्त्र-कुशपत्रक तथा आटामुख या आटीमुख शस्त्रों का फलभाग दो अंगुल लम्बाई युक्त होता है। उक्त दोनों शस्त्रों का प्रयोग स्रावण कर्म में किया जाता है।

तद्वदन्तर्मुखं तस्य फलमध्यर्धमङ्गुलम् ॥१०॥
अर्धचन्द्राननं चैतत्-

अन्तर्मुख शस्त्र—अन्तर्मुख नामक शस्त्र का फल आधे चन्द्रमा के आकार का होता है और उसकी धार का मुख भीतर की ओर होता है। इस शस्त्र के मुख की लम्बाई डेढ़ अंगुल होती है।। १० ।।

-तथाऽध्यर्धाङ्गुलं फले।
व्रीहिवक्त्रं प्रयोज्यं च तच्छिरोदरयोर्व्यधे॥११॥

व्रीहिमुख शस्त्र-व्रीहिमुख नामक शस्त्र का फल (धार ) डेढ़ अंगुल लम्बा होता है। इसका प्रयोग सिरावेध तथा जलोदर के वेधन में किया जाता है।।११।।

वक्तव्य-सिरावेध की विधि देखें-अ.हृ.सू. २७।२३ से ३४ तक। अं सं.सू. ३४।२८ में व्रीहिमुख शस्त्र का अन्यत्र प्रयोग भी देखें।

पृथुः कुठारी गोदन्तसदृशार्धाङ्गुलानना ।
तयोर्ध्वदण्डया विध्येदुपर्यस्थ्नां स्थितां शिराम् ॥१२॥

कुठारी शस्त्र-कुठारी नामक शस्त्र का आकार गाय के दाँत के समान आधा अंगुल चौड़ा होता है। इसके ऊपरी भाग में कुल्हाड़ी के जैसा बेंट लगा रहता है। इस प्रकार के कुठारी शस्त्र से अस्थि के ऊपर स्थित सिरा का वेध करना चाहिए।।१२।।

ताम्री शलाका द्विमुखी मुखे कुरुबकाकृतिः।
लिङ्गनाशं तया विध्येत्-

ताम्रशलाका शस्त्र-लिंगनाश को वेधने के लिए एक ताँबे की शलाका होती है। इसके दोनों ओर धार होनी चाहिए। इसके दोनों मुख कुरुबक (लाल कटसरैया) के फूल के सदृश होते हैं। इसके द्वारा कफज लिंगनाश (मोतियाबिन्द ) का वेधन किया जाता है।

-कुर्यादङ्गुलिशस्त्रकम् ॥१३॥
मुद्रिकानिर्गतमुखं फले त्वर्धाङ्गुलायतम्।
योगतो वृद्धिपत्रेण मण्डलाग्रेण वा समम् ॥ १४॥
तत्प्रदेशिन्यग्रपर्वप्रमाणार्पणमुद्रिकम् ।
सूत्रबद्धं गलस्रोतोरोगच्छेदनभेदने॥१५॥

अंगुली शस्त्र-अँगुलि नामक शस्त्र का आकार अँगूठी जैसा होता है। इसका मुख आगे की ओर निकला रहता है। इसका फल आधा अंगुल लम्बा होता है। आकार में यह वृद्धिपत्र अथवा मण्डलाग्र शस्त्र के जैसा होता है। इसकी मुद्रिका प्रदेशिनी (तर्जनी) अँगुली के अगले पोर में पहनने योग्य होती है। इसमें धागा बाँधकर चिकित्सक इससे गले के भीतरी स्रोत में उत्पन्न गलशुण्डी आदि का छेदन तथा भेदन कर्म करता है।।१३-१५॥

वक्तव्य—अँगुलि शस्त्र को सुश्रुत एवं वृद्धवाग्भट ने 'मुद्रिकाशस्त्र' की संज्ञा दी है।

ग्रहणे शुण्डिकार्मा देबडिशं सुनताननम्।

बडिश शस्त्र—बडिश शस्त्र का स्वरूप मछली पकड़ने के काँटा के सदृश, उसका अगला भाग कुछ मुड़ा या झुका हुआ होता है। इससे गलशुण्डी (गले का एक विशेष रोग ), अर्म (नेत्ररोग-विशेष ) तथा आदि शब्द से प्रतिजिहिका रोग का ग्रहण अर्थात् छेदन कर्म किया जाता है।

छेदेऽस्थ्नां करपत्रं तु खरधारं दशाङ्गुलम् ॥१६॥
विस्तारे द्वयङ्गुलं सूक्ष्मदन्तं सुत्सरुबन्धनम्।

करपत्र शस्त्र—करपत्र नामक शस्त्र की धार खुरदरी होती है। इसकी लम्बाई १० अंगुल और चौड़ाई २ अंगुल होती है। इसके दाँत बहुत छोटे होते हैं। इसके मूलभाग में पकड़ने के लिए लकड़ी की मूठ बँधी रहती है। इससे हड्डियों का छेदन किया जाता है। इसे लोकभाषा में 'छोटी आरी' कहते हैं ।। १६ ।।

स्नायुसूत्रकचच्छेदे कर्तरी
कर्तरीनिभा॥१७॥

कर्तरी (कैंची) शस्त्र—यह शस्त्र कैंची के सदृश होता है। इससे स्नायुतन्तु तथा केश (बाल ) काटे जाते हैं।॥१७॥

वक्रर्जुधारं द्विमुखं नखशस्त्रं नवाङ्गुलम्।
सूक्ष्मशल्योद्धृतिच्छेदभेदप्रच्छानलेखने ॥१८॥

नखशस्त्र (नहरनी)—इसके दोनों ओर मुख होता है। इसमें एक मुख (धार ) सीधा और दूसरा मुख (धार) टेढ़ा होता है। इसकी लम्बाई ९ अंगुल होती है, इसका मध्य भाग गोल होता है। इसका उपयोग—इससे सूक्ष्म शल्य निकाला जाता है तथा छेदन, भेदन, पच्छ लगाना एवं छीलना आदि कर्म किये जाते हैं।। १८॥

एकधारं चतुष्कोणं प्रबद्धाकृति चैकतः।
दन्तलेखनकं तेन शोधयेद् दन्तशर्कराम् ॥ १९ ॥

दन्तलेखनक शस्त्र—यह एक धार वाला तथा चार कोनों वाला होता है। इसके एक भाग में मूठ होती है। यह भाग कुछ बड़ा होता है। इसका उपयोग दाँतों में जमी हुई शर्करा को खुरच कर निकालना है।॥ १९॥

वृत्ता गूढदृढाः पाशे तिस्रः सूच्योऽत्र सीवने।

सूची शस्त्र—सीवन कर्म ( सिलाई ) के लिए तीन प्रकार के सूचीशस्त्रों ( सुइयों ) का प्रयोग होता है। ये आकार में गोल, गुप्त अर्थात् धागा डालने वाला भाग अधिक चौड़ा नहीं होता तथा मजबूत पाशों (छेदों) (जिनमें धागा पिरोया जाता है) वाले होते हैं।

मांसलानां प्रदेशानां त्र्यम्रा व्यङ्गुलमायता॥२०॥

मांसल (अधिक मांस वाले) स्थानों (शरीर के अवयवों) को सीने के लिए जिस सूचीशस्त्र की आवश्यकता होती है, वह तीन किनारों वाली और तीन अंगुल लम्बी होती है।।२०।।

अल्पमांसास्थिसन्धिस्थव्रणानां व्यङ्गुलायता।

थोड़े मांस वाले स्थानों, अस्थियों वाले तथा सन्धियों पर उत्पन्न व्रणों (घावों) को सीने के लिए दो अंगुल लम्बा सूचीशस्त्र होना चाहिए।

व्रीहिवक्त्रा धनुर्वक्त्रा पक्वामाशयमर्मसु॥२१॥
सा सार्धद्वयङ्गुला-

पक्वाशय, आमाशय तथा अन्य मर्मस्थलों को सीने के लिए जिस सूचीशस्त्र (सुई) का प्रयोग किया जाता है, वह अढ़ाई अंगुल लम्बा, जौ के सदृश मुखवाला और धनुष के सदृश मुड़ा हुआ होता है।। २१ ।।

—सर्ववृत्तास्ताश्चतुरङ्गुलाः।
कूर्ची वृत्तैकपीठस्थाः सप्ताष्टौ वा सुबन्धनाः॥२२॥
स योज्यो नीलिकाव्यङ्गकेशशातेषु कुट्टने।

कूर्च शस्त्र—इसमें सात अथवा आठ गोल एवं चार अंगुल लम्बी (बाहर की ओर को निकली ) सुइयाँ एक सुडौल लकड़ी की गोल पीठ में जड़ी हुई, मजबूत बन्धन से बँधी हुई होती हैं। इसी को कूर्च या कूर्चक शस्त्र कहते हैं। इसका प्रयोग नीलिका, व्यंग तथा इन्द्रलुप्त पर रक्त निकालने के उद्देश्य से कुट्टन (बार-बार कूटना) कर्म के लिए किया जाता है।। २२ ।।

वक्तव्य—विशेष देखें—अ.हृ.चि. ८।२९। इसी अध्याय के ९वें पद्य में त्रिकूर्चक' शस्त्र का वर्णन आया है। इसी शस्त्र से गोदना गोदा जाता है। कुट्टन का अर्थ है—बार-बार कूटना।

अर्धाङ्गुलमुखैर्वृत्तैरष्टाभिः कण्टकैः खजः।।२३।।
पाणिभ्यां मथ्यमानेन घ्राणात्तेन हरेदसृक् ।

खज शस्त्र-खज शस्त्र में आधे-आधे अंगुल के गोल मुखों वाले आठ काँटे होते हैं। इस शस्त्र को नासिका के छिद्रों के भीतर डालकर उसे हाथों से मथनी की भाँति मथे, इससे नासिका से रक्त को निकाले ।। २३॥

व्यधनं कर्णपालीनां यूथिकामुकुलाननम् ॥२४॥

यूथिका शस्त्र—यूथिका शस्त्र का मुख जूही की कली के सदृश होता है। उसके द्वारा कर्णपालियों का वेधन किया जाता है।।२४।।

आराऽर्धाङ्गुलवृत्तास्या तत्प्रवेशा तथोर्ध्वतः।
चतुरस्रा, तया विध्येच्छोफं पक्वामसंशये॥२५॥
कर्णपाली च बहला-

आरा शस्त्र—इसका मुख आधे अँगुल के घेरे में गोल होता है। इसका प्रवेश भी आधा अंगुल किया जाता है, यह मुख के ऊपरी भाग में चौकोर होता है। इससे व्रणशोथ का उस समय वेधन किया जाता है, जब कि व्रण के सम्बन्ध में यह सन्देह हो कि यह पक चुका है या अभी कच्चा ही है। मोटी कर्णपाली का वेधन भी इसी ( आरा शस्त्र ) से किया जाता है।। २५ ।।

-बहलायाश्च शस्यते।
सूची त्रिभागसुषिरा त्र्यमुला कर्णवेधनी ॥२६॥

कर्णवेधनी सूची-मोटी कर्णपाली को वेधने के लिए एक और कर्णवेधनी सूची का वर्णन यहाँ किया जा रहा है। यह तीन अंगुल लम्बी तथा इसका एक तिहाई भाग सुषिर ( खोखला ) होता है ।।२६ ।।

जलौकःक्षारदहनकाचोपलनखादयः ।
अलौहान्यनुशस्त्राणि, तान्येवं च विकल्पयेत् ॥ २७॥
अपराण्यपि यन्त्रादीन्युपयोगं च यौगिकम् ।

अनुशस्त्रों का परिगणन-जौंक, क्षार, अग्नि, नुकीले काँच एवं पत्थर तथा नख आदि 'अनुशस्त्र' कहे जाते हैं। इसी प्रकार के और भी अनेक अनुशस्त्र होते हैं, जिनका निर्माण लौहधातु से नहीं किया जाता। उनका प्रयोग भी लौहशस्त्रों की भाँति किया जाता है। इसी प्रकार के अन्य यन्त्रों तथा शस्त्रों का यथोचित उपयोग करना चाहिए।॥२७॥

वक्तव्य-अन्य अनुशस्त्रों में इनका भी परिगणन किया जाता है—बाँस की खपाची, बबूल के काँटे, गाजवाँ आदि की पत्तियाँ, समुद्रफेन और सूखा गोबर (वनोपल ) ये सभी शस्त्रक्रिया में उपयोगी होते हैं। यहाँ ‘यन्त्रादीनि' पद में आये हुए आदि शब्द से शस्त्रों का भी ग्रहण कर लिया गया है।

उत्पाट्यपाट्यसीव्यैष्यलेख्यप्रच्छानकुट्टनम् ॥२८॥
छेद्यं भेद्यं व्यधो मन्थो ग्रहो दाहश्च तक्रियाः।

शस्त्रकर्मों का वर्णन-१. उत्पाट्य ( शल्य को निकालना), २. पाट्य (चीरना), ३. सीव्य ( सीना), ४. एष्य (घाव कहाँ तक हुआ है, उसे ढूँढना), ५. लेख्य ( लेखन कर्म करना), ६. प्रच्छान ( पच्छ लगाना), ७. कुट्टन कर्म ( गोदना), ८. छेद्य (छेदन करना), ९. भेद्य (फोड़ना), १०. व्यध (वेधन कर्म), ११. मन्थ (मथना), १२. ग्रह (ग्रहण या चूषण करना) तथा १३. दाह (क्षार अथवा अग्नि से जलाना)—ये शस्त्रों एवं अनुशस्त्रों के कर्म हैं ।। २८ ।।

वक्तव्य-सुश्रुत ने आठ प्रकार का शस्त्रकर्म कहा है—छेद्य, भेद्य, लेख्य, वेध्य, एष्य, आहार्य, विस्राव्य तथा सीव्य। देखें—सु.सू. ५।५। इस दृष्टि से महर्षि वाग्भट ने उत्पाटन, कुट्टन, मन्थन, ग्रहण और दाहन कर्म अधिक माने हैं। भगवान् आत्रेय ने पाटन, व्यधन, छेदन, लेपन, प्रच्छन तथा सीवन ये छः शस्त्रकर्म कहे हैं। देखें—च.चि. २५।५५ । वास्तव में यह आचार्यों का उक्तिवैचित्र्य ही है।

कुण्ठखण्डतनुस्थूलह्रस्वदीर्घत्ववक्रताः॥२९॥
शस्त्राणां खरधारत्वमष्टौ दोषाः प्रकीर्तिताः।

शस्त्रों के आठ दोष-शस्त्रों के ये आठ दोष हैं—१. कुण्ठता (तेज न होना), २. खण्ड (टूट जाना), ३. तनु (पतलापन ), ४. स्थूल (आवश्यकता से अधिक मोटा होना), ५. ह्रस्व (प्रमाण से छोटा होना), ६. दीर्घत्व (प्रमाण से लम्बा होना), ७. वक्रता ( टेढ़ापन ) तथा ८. खरधारत्व (धार में खुरदरापन) होना ।।२९॥

वक्तव्य-शस्त्रों में 'करपत्र' का भी वर्णन है और इसका ‘खरधारत्व' गुण है। अतएव भगवान् धन्वन्तरि की स्पष्टवादिता पर ध्यान दें—'अतो विपरीतगुणमाददीत, अन्यत्र करपत्रात्' । (सु.सू. ८।९१)

छेदभेदनलेख्यार्थ शस्त्रं वृन्तफलान्तरे ॥३०॥
तर्जनीमध्यमाङ्गुष्ठैगुलीयात्सुसमाहितः।
विस्रावणानि वृन्ताग्रे तर्जन्यङ्गुष्ठकेन च ॥३१॥
तलप्रच्छन्नवृन्ताग्रं ग्राह्यं व्रीहिमुखं मुखे।
मूलेष्वाहरणार्थानि क्रियासौकर्यतोऽपरम् ॥३२॥

शस्त्रग्रहण-विधि—छेदन, भेदन तथा लेखन कर्म करते समय शस्त्र को फल के अन्त एवं वृन्त (मूठ) के मध्यभाग को तर्जनी-मध्यमा अँगुलियों तथा अँगूठा से सावधान होकर पकड़ना चाहिए। विस्रावण कर्म करते समय शस्त्र को वृन्त (मूठ) के अगले भाग में तर्जनी एवं अँगूठे से पकड़ना चाहिए। व्रीहिमुख शस्त्र को मुख पर तर्जनी अंगुली तथा अँगूठा से पकड़ कर उसके वृन्त (बेंट या मूठ) को हाथ के तलुवे से ढाककर शस्त्रकर्म करना चाहिए। आहरण कर्म के लिए शस्त्र को मूलभाग में ग्रहण करना चाहिए। शेष कर्मों में शस्त्र को जहाँ पकड़ने से शस्त्रकर्म करने में सरलता हो वहाँ पकड़कर शस्त्रकर्म करना चाहिए।। ३०-३२॥

वक्तव्य-शास्त्रों के दोषों को दूर करने के लिए सुश्रुत ने 'पायना' तथा 'निशाणन' कर्मों का वर्णन सु.सू. ८।१२-१३ में किया है। शस्त्रों में तीक्ष्णता आदि गुणों का आधान करने के लिए क्षारोदक, सामान्य जल तथा तेल में बुझाया जाता है। यदि इन शस्त्रों को विषैला बनाना हो तो इन्हें विष के घोल में भी बुझाया जाता है। इनके स्पर्श मात्र से घाव होकर पकने लग जाता है। लोहा द्वारा इस प्रकार तैयार किये गये शस्त्रों की धार को तेज करने के लिए काले चिकने पत्थर (कसौटी) का उपयोग किया जाता है;

आप भी देखें। धार की सही पहचान है—जब वह रोमों को आसानी के काटने लगे तब समझे कि वह तेज हो गयी है। देखें—सु.सू. ८।१४। इसी प्रकार के दोष रहित शस्त्र का प्रयोग करना चाहिए।

स्यान्नवाङ्गुलविस्तारः सुघनो द्वादशाङ्गुलः।
क्षौमपत्रोर्णकौशेयदुकूलमृदुचर्मजः॥३३॥
विन्यस्तपाशः सुस्यूतः सान्तरोर्णास्थशस्त्रकः।
शलाकापिहितास्यश्च शस्त्रकोशः सुसञ्चयः॥

शस्त्रकोष का विस्तार-शस्त्रों को रखने की पेटी की चौड़ाई ९ अंगुल और लम्बाई १२ अंगुल होनी चाहिए। उसे घना होना चाहिए, जिससे शस्त्र सुरक्षित रहें, एक-दूसरे से टकरायें नहीं; घन का यही तात्पर्य है। वह शस्त्रकोष क्षौम (अलसी के तारों का बना हुआ) का, पत्तों का, ऊनी कपड़े का, कौशेय (रेशमी वस्त्र )का, सामान्य वस्त्र का अथवा मुलायम चमड़े का बनाया जाना चाहिए। उसमें भीतर से पेटी लगी हुई हो, अच्छी प्रकार सिला गया हो, प्रत्येक शस्त्र दूर-दूर में ऊन के वस्त्र से लपेट कर रखा गया हो तथा शलाकाओं से इनका मुख ढका रहना चाहिए। यह शस्त्रकोष (पेटी) नाई की पेटी के समान इधर-उधर ले जाने योग्य हो॥३३-३४।।

जलौकसस्तु सुखिनां रक्तस्रावाय योजयेत्।

जोंकों का प्रयोग-सुख से जीवन-यापन करने वालों (सुकुमारों) का रक्तस्रावण करने के लिए जोंकों का प्रयोग करना चाहिए।

दुष्टाम्बुमत्स्यभेकाहिशवकोथमलोद्भवाः॥३५॥
रक्ताः श्वेता भृशं कृष्णाश्चपलाः स्थूलपिच्छिलाः।
इन्द्रायुधविचित्रोर्ध्वराजयो रोमशाश्च ताः॥
सविषा वर्जयेत्-

त्याज्य जोंकों का वर्णन—जो जोंकें दूषित जल में अथवा मछली, मेंढक, साँप आदि प्राणियों के शवों की सड़न से अथवा उनके मल-मूत्रमिश्रित कीचड़ में से पैदा होती हैं, जो लाल, सफेद, अधिक काली, चंचल, मोटी अर्थात् आकार में बड़ी तथा चिपचिपी होती हैं, जिनकी पीठ पर इन्द्रधनुष के आकार की विचित्र ऊपर की ओर रेखाएँ होती हैं एवं जिनके शरीर के ऊपर रोएँ होते हैं वे जोंकें जहरीली होती हैं; उनका प्रयोग नहीं करना चाहिए ।। ३५-३६ ।।

-ताभिः कण्डूपाकज्वरभ्रमाः।
विषपित्तास्रनुत्कार्यं तत्र-

त्याज्य जोंकों का निषेध–उक्त प्रकार की जोंकों का यदि रक्तविस्रावण में उपयोग किया जाता है, तो खुजली, पाक (पकना), ज्वर, चक्करों का आना आदि उपद्रव हो जाते हैं। इस स्थिति में विषनाशक, पित्तशामक तथा रक्तशोधक चिकित्सा करनी चाहिए।

-शुद्धाम्बुजाः पुनः॥३७॥
निर्विषाः शैवलश्यावा वृत्ता नीलोर्ध्वराजयः।
कषायपृष्ठास्तन्वङ्गयः किञ्चित्पीतोदराश्च याः॥

ग्राह्य जोंकों का वर्णन—जो जोंकें साफ जल में पैदा होती हैं, वे निर्विष होती हैं। उनका वर्ण सिवार के सदृश साँवला तथा शरीर लम्बा एवं गोल होता है। उसके ऊपर नीली रेखाएँ ऊपर की ओर को होती हैं। उनकी पीठ का रंग बरगद वृक्ष की छाल का जैसा होता है। ये पतले आकार की होती हैं और इनके पेट का वर्ण कुछ पीताभ होता है।। ३७-३८ ।।

ता अप्यसम्यग्वमनात् प्रततं च निपातनात् ।
सीदन्तीः सलिलं प्राप्य रक्तमत्ता इति त्यजेत् ॥३९॥

त्याज्य जोंकों के लक्षण–वे अच्छी अर्थात् उपयोग में लाने योग्य जोंकें भी यदि रक्तपान कराने के बाद उन्हें भलीभाँति वमन न कराया गया अथवा रक्तचूषण के लिए उन्हें बार-बार लगाने के बाद जब पानी में डाला जाता है और वे दुःखी जैसी प्रतीत होती हैं तो वे रक्तपान करने से मदमत्त हो गयी हैं, ऐसा समझकर उन्हें छोड़ दें।।३९ ।।

अथेतरा निशाकल्कयुक्तेऽम्भसि परिप्लुताः।
अवन्तिसोमे तक्रे वा पुनश्चाश्वासिता जले॥४०॥
लागयेद्धृतमृत्स्तन्यरक्तशस्त्रनिपातनैः ।
पिबन्तीरुन्नतस्कन्धाश्च्छादयेन्मृदुवाससा ॥४१॥

जोंक रखने एवं लगाने की विधि—तदनन्तर जो जोंक निर्विष हों उन्हें हल्दी के कल्क से मिले हुए जल से अथवा अवन्तिसोम ( काँजी) से या मठा से नहलाकर उसे पानी में छोड़ दें, जिससे वे आश्वस्त हो जायें। यदि वे मनुष्य के शरीर को नहीं पकड़ रही हों तो उस स्थान पर घी, मिट्टी, स्त्री का दूध या रक्त लगा दें अथवा शस्त्र द्वारा पच्छ लगा दें तब वह पकड़ लेगी। जब वह अपने कन्धे को ऊपर की ओर को उठा ले, तो समझ लें वह रक्तपान कर रही है, इस स्थिति में उसे कोमल वस्त्र से ढक देना चाहिए।।४०-४१ ॥

वक्तव्य-सुश्रुतसंहिता-सूत्रस्थान के सम्पूर्ण १३वें अध्याय का भलीभाँति अनुशीलन करें, इसका नाम 'जलौकावचारणीय' है। इसमें उक्त विषय का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।

सम्पृक्तादृष्टशुद्धाम्राज्जलौका दुष्टशोणितम्।
आदत्ते प्रथमं हंसः क्षीरं क्षीरोदकादिव॥४२॥
(गुल्मार्थोविद्रधीन् कुष्ठवातरक्तगलामयान्।
नेत्ररुग्विषवीसर्पान् शमयन्ति जलौकसः॥१॥)

दुष्ट रक्तग्रहण-दृष्टान्त—मिले हुए दूषित तथा शुद्ध रक्त में से पहले जोंक दूषित रक्त को चूसती है। जैसे—मिले हुए दूध तथा जल में से हंस पक्षी पहले दूध को पीता है।। ४२ ।। ( जोंक लगाने पर जो वह रक्त का आचूषण करती है, उससे गुल्म, अर्श, विद्रधि (बड़े फोड़े), कुष्ठ, वातरक्त, गल सम्बन्धी रक्तज रोग, नेत्रपीड़ा, विषज विकार तथा विसर्परोग शान्त हो जाते हैं।॥१॥)

वक्तव्य-उक्त दृष्टान्त से यह ज्ञात होता है कि जैसे हंस केवल दूध पी लेता है और जल छोड़ देता है, वैसे ही जोंक भी दुष्ट रक्त का पान कर शुद्ध रक्त को छोड़ देती है। परन्तु यहाँ ऐसी बात नहीं है। आप देखें—'दंशे वकिरेत् ॥ (सु.सू. १३।२१ ) अर्थात् विशुद्ध रक्त के पीने पर दंशस्थान पर पीड़ा, खुजली आदि लक्षणों को देखकर समझ लेना चाहिए कि यह शुद्ध रक्त का पान कर रही है। इस स्थिति में इसे हटा देना चाहिए। हंस भी तो पानी पीता ही है।

कभी-कभी जोंक के काट लेने पर बहुत रक्तस्राव होने लगता है। इसका कारण है—जोंक के सिर में कई छोटी-छोटी गाँठे होती हैं, जिनका रस उसके दंशस्थान में पहुँच जाता है। इस रस में हीरुडीन (Hirudin) नामक द्रव्य होता है। जब इसका रक्त में मिश्रण हो जाता है तो रक्त जल्दी जमता नहीं, अतः वह बहता रहता है।

दंशस्य तोदे कण्ड्वां वा मोक्षयेत्-

जोंक छुड़ाने की स्थिति–जहाँ जोंक लगी हो अर्थात् रक्त चूस रही हो, वहाँ यदि सुई चुभाने की-सी पीड़ा हो अथवा खुजली हो रही हो तो उसे छुड़ा दें-

-वामयेच्च ताम्।
पटुतैलाक्तवदनां श्लक्ष्णकण्डनरूषिताम्॥४३॥

जोंक का उपचार—तोद एवं कण्डू लक्षणों से यह समझना चाहिए कि वह शुद्ध रक्त पी रही है। अतः उसे हटा दें, यदि वह न छोड़े तो दंशस्थान पर नमक का चूर्ण बुरक दें और उसके मुख पर तेल लगा दें, इससे वह छोड़ देती है। उसके बाद उसके शरीर पर चावल का चूर्ण डाल कर उसे भलीभाँति वमन कराना चाहिए।।४३ ।।

रक्षन् रक्तमदाद्भूयः सप्ताहं ता न पातयेत्।

रक्तमद से रक्षा-समुचित वमन न कराने पर जोंकों को 'रक्तमद' नामक विकार हो जाता है, इससे जोंकों की रक्षा करनी चाहिए। इस प्रकार एक बार लगाने के बाद फिर उस जोंक को एक सप्ताह तक नहीं लगाना चाहिए।

पूर्ववत् पटुता दाढयं सम्यग्वान्ते जलौकसाम्॥४४॥

रक्तवमन का सम्यग्योग-वमन का सम्यक् योग हो जाने पर जोंकों में पहले की भाँति कुशलता तथा दृढ़ता (सबलता) प्राप्त हो जाती है।। ४४॥

क्लमोऽतियोगान्मृत्युर्वा-

रक्तवमन का अतियोग-वमन का अतियोग हो जाने पर जोंकों में क्लम (सुस्ती या हर्षक्षय ) हो जाता है अथवा वे मर जाती हैं।

-दुर्वान्ते स्तब्धता मदः।

रक्तवमन का मिथ्यायोग-वमन का मिथ्यायोग हो जाने पर जोंकों में स्तब्धता ( इधर-उधर घूमने- फिरने में रुकावट) तथा उन्हें 'रक्तमद' नामक असाध्य रोग हो जाता है, जिससे प्रायः उनकी मृत्यु भी हो जाती है।

अन्यत्रान्यत्र ताः स्थाप्या घटे मृत्स्नाम्बुगर्भिणि ॥४५॥
लालादिकोथनाशार्थं, सविषाः स्युस्तदन्वयात् ।

जलौकापालन-विधि-जोंकों को उनके स्थानों से लाकर शुद्ध जल में या तालाब के जल में मिट्टी मिलाकर अलग-अलग मिट्टी के घड़ों में रख दें। इनके खाने के लिए सिवार, जलचर प्राणियों के सूखे मांस और कन्दों के चूर्ण दें, सोने के लिए कमलपत्र आदि उसमें डाल दें। तीसरे-तीसरे दिन इस पानी को बदल दें और भोजन-पदार्थ उस जल में डाल दें। सब को अलग रखने का प्रयोजन—इससे जोंकों के परस्पर लालाम्राव की सड़न नहीं हो पायेगी, क्योंकि लालाम्राव के संयोग से ये विषैली हो जाती हैं।॥४५॥

अशुद्धौ स्रावयेदंशान् हरिद्रागुडमाक्षिकैः॥ ४६॥

जलौकावचारण-पश्चात्कर्म जोंक को हटा लेने पर भी दंशस्थान से यदि रक्तस्राव हो रहा हो तो रक्त के शुद्ध-अशुद्ध का विचार कर लें। यदि वह दूषित रक्त हो तो उसे बहने दें और उसे बहने देने में हल्दी, गुड़ तथा मधु लगाकर सहायता करें, जिससे वह दूषित रक्त पूर्ण रूप से निकल जाय॥४६ ।।

शतधौताज्यपिचवस्ततो लेपाश्च शीतलाः।

रक्तावरोधक उपचार—यदि शुद्ध रक्त दंशस्थान से बह रहा हो (जैसा हमने श्लोक ४२ के वक्तव्य में कहा है) तो शतधौत घृत के पिचुओं को उन दंशस्थानों में रखें और शीतवीर्यरोपण पदार्थो से निर्मित लेपों को उन स्थानों पर लगायें। इनके प्रयोगों से रक्तस्राव रुक जाता है।

दुष्टरक्तापगमनात् सद्यो रागरुजां शमः॥४७॥

रक्तस्रावण का फल-दूषित रक्त के निकल जाने से रोगी की पीड़ाओं तथा उस स्थान पर दिखलायी पड़ने वाली लालिमा का तत्काल शमन हो जाता है।। ४७।।

अशुद्ध चलितं स्थानास्थितं रक्तं व्रणाशये।
व्यम्लीभवेत्पर्युषितं तस्मात्तत्स्रावयेत्पुनः॥४८॥

पुनः रक्तस्रावण-यदि अशुद्ध (दूषित ) रक्त रुग्णस्थान से विचलित होकर जोंक द्वारा किये गये घाव पर आकर रुक गया हो तो वहाँ आया हुआ वह रक्त बासी होकर खट्टा हो जाता है, अतः उसे पुनः तीसरे दिन जोंक लगाकर निकलवा देना चाहिए।। ४८।।

युज्यान्नालाबुघटिका रक्ते पित्तेन दूषिते।
तासामनलसंयोगात्---

अलाबूयन्त्रप्रयोग-निषिद्ध-पित्तदोष द्वारा दूषित हुए रक्त का स्रावण करने के लिए अलाबुघटिका (तुम्बी ) यन्त्र का प्रयोग न करें, क्योंकि उसके प्रयोग में अग्निसंयोग किया जाता है।

-युज्यात्तु कर्फवायुना॥४९॥

अलाबूयन्त्र-प्रयोग विहित—यदि कफ एवं वात दोष से दूषित रक्तधातु को निकालना हो तो उसमें अलाबूयन्त्र का प्रयोग करें। ४९।।

कफेन दुष्टं रुधिरं न शृङ्गेण विनिर्हरेत् ।
स्कन्नत्वात्-

शृंगयन्त्रप्रयोग-निषेध–कफदोष से दूषित रक्तधातु जम जाता है, अतएव इसका निर्हरण भी शृंगयन्त्र से नहीं करना चाहिए। क्योंकि इसमें अग्निसंयोग का अभाव रहता है, अतः कफ पिघल नहीं सकता। वक्तव्य-विशेष परिस्थिति के लिए देखें—अ.ह.सू. २५।२७ ।

–वातपित्ताभ्यां दुष्टं शृङ्गेण निर्हरेत् ॥५०॥

शृंगयन्त्रप्रयोग-निर्देश—वातदोष तथा पित्तदोष से दूषित रक्त का निर्हरण शृंगयन्त्र द्वारा करना चाहिए॥५०॥

गानं बद्ध्वोपरि दृढं रज्ज्वा पट्टेन वा समम्।
स्नायुसन्ध्यस्थिमर्माणि त्यजन् प्रच्छानमाचरेत् ॥
अधोदेशप्रविसृतैः पदैरुपरिगामिभिः।
न गाढघनतिर्यग्भिर्न पदे पदमाचरन्॥५२॥
प्रच्छानेनैकदेशस्थं ग्रथितं जलजन्मभिः।
हरेच्छृङ्गादिभिः सुप्तमसृग्व्यापि शिराव्यधैः॥५३॥

प्रच्छानकर्म-निर्देश—प्रच्छान कर्म अर्थात् पच्छ लगाने की विधि—यदि शाखाओं ( हाथ-पैरों) से पच्छ लगाकर रक्त निकालना हो तो उस स्थान से ५-७ अंगुल ऊपर के अवयव को रस्सी या पट्टी से कसकर बाँधकर तब पच्छ लगाना चाहिए। ध्यान रहे, यह प्रच्छानकर्म स्नायु, सन्धि तथा अस्थि मर्मों के स्थानों को छोड़कर ही लगाना चाहिए। पच्छ लगाते समय नीचे भाग से ऊपर की ओर को पद करने चाहिए। वे (पद) न बहुत गहरे हों, न पास-पास में हो, न तिरछे हों और न पद के ऊपर दूसरा पद (शस्त्र द्वारा घाव) बनाना चाहिए। एक स्थान स्थित रक्त को पच्छ लगाकर, ग्रन्थि तथा अर्बुद आदि के गठीले रक्त को जोंक लगाकर, जहाँ का रक्त सुन्न पड़ गया हो, उसे शृंगयन्त्र द्वारा और सम्पूर्ण शरीर में फैले हुए दूषित रक्त को सिरावेध द्वारा निकालना चाहिए।५१-५३ ।।

प्रच्छानं पिण्डिते वा स्यात्-

प्रच्छान आदि का विकल्प पिण्डित (गाढ़े ) रक्त में प्रच्छान क्रिया अर्थात् पच्छ लगाना चाहिए।

–अवगाढे जलौकसः।

जलौका-प्रयोग–अवगाढ अर्थात् गम्भीर रक्त में जोंक को लगाकर रक्त-निर्हरण करना चाहिए।

त्वक्स्थेऽलाबुघटीशृङ्गम्-

तुम्बी एवं श्रृंगी यन्त्र-त्वचागत रक्त को निकालने में पच्छ लगाकर तुम्बीयन्त्र और शृंगीयन्त्र का प्रयोग करना चाहिए।

वक्तव्य-प्रच्छान कर्म सामान्य-विशेष भेद से दो प्रकार का होता है—१. सामान्य खुरचना और २. विशेष छुरा (उस्तरा) आदि से गहरा घाव बनाना।

-शिरैव व्यापकेऽसृजि ॥५४॥

सिरावेध-प्रयोग–सम्पूर्ण शरीर में दूषित रक्त के फैल जाने पर सिरामोक्षण अर्थात् सिरावेध का प्रयोग करना चाहिए॥५४॥
-


वातादिधाम वा शृङ्गजलौकोलाबुभिः क्रमात् ।

रक्तस्रावणविधि-विकल्प—वातदूषित रक्त का शृंगीयन्त्र द्वारा, पित्तदूषित रक्त का जोंक द्वारा तथा कफदूषित रक्त का अलाबु (तुम्बी ) यन्त्र द्वारा रक्तस्रावण करना चाहिए।

स्रुतासृजः प्रदेहाद्यैः शीतैः स्याद्वायुकोपतः॥५५॥
सतोदकण्डूः शोफस्तं सर्पिषोष्णेन सेचयेत्।

इति श्रीवैद्यपतिसिंहगुप्तसूनुश्रीमद्वाग्भटविरचितायामष्टाङ्गहृदयसंहितायां
प्रथमे सूत्रस्थाने शस्त्रविधिर्नाम षड्विंशोऽध्यायः॥२६॥

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

लोगों की राय

No reviews for this book