स्वास्थ्य-चिकित्सा >> अष्टांगहृदय अष्टांगहृदयवाग्भट
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आयुर्वेद के स्तम्भ ग्रंथ अष्टांगहृदय का पहला भाग
पञ्चविंशोऽध्यायः
अथातो यन्त्रविधिमध्यायं व्याख्यास्यामः।
इति ह स्माहुरात्रेयादयो महर्षयः ।
अब हम यहाँ से यन्त्रविधि नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे। ऐसा आत्रेय आदि महर्षियों ने कहा था।
वक्तव्य—प्रस्तुत अध्याय से पहले अध्यायों में बस्ति, नस्य, अञ्जन, क्षार आदि के प्रयोग भी यन्त्रों की अपेक्षा रखते हैं, अतः उनका वर्णन करने के बाद अब यहाँ यन्त्रविधि नामक अध्याय का वर्णन किया जा रहा है। इस २५वें अध्याय में ४८ यन्त्रों का वर्णन किया गया है, इनका प्रयोग विविध प्रकार के रोगों की चिकित्साओं के लिए किया जाता है। वृद्धवाग्भट ने अ.सं.सू. ३४१३ में ये यन्त्र असंख्य होते हैं, इस प्रकार ‘अतः कर्मवशात् तेषामियत्ताऽवधारणमशक्यम्' कहा है। वृद्धवाग्भट ने एक ही अध्याय में यन्त्र तथा शस्त्रों का वर्णन किया है, जिसे अष्टाङ्गहृदय में २५वें तथा २६वें अध्यायों में अलग कहा है। यन्त्र उन उपकरणों को कहते हैं, जिनसे चुभा हुआ काँटा, उखाड़ने योग्य दाँत, निकालने योग्य मृतगर्भ आदि को पकड़ कर निकाला जाता है। इनके अतिरिक्त गुद, भग, मुख आदि को चौड़ा करके भीतर देखने, औषध प्रयोग करने आदि का कार्य भी लिया जाता है, जिनका वर्णन आगे यथास्थान किया जायेगा। सुश्रुत ने 'मन तथा शरीर को पीड़ित करने वाले शल्य होते हैं, इनको निकालने के उपाय यन्त्र होते हैं', ऐसा कहा है। देखें—सु.सू. ७।४।
संक्षिप्त सन्दर्भ-संकेत—सु. सू. ७ तथा अ. सं. सू. ३४ में देखें।
विशेष—चरक ने यन्त्र तथा शस्त्रों का वर्णन यह कहकर कि 'तत्र धान्वन्तरीयाणामधिकारः क्रियाविधौ'। (च.चि. ५।४४) अर्थात् चरककायचिकित्सा-प्रधान संहिता है और यन्त्र-शस्त्र के प्रयोग में धन्वन्तरि के अनुयायी चिकित्सकों का अधिकार है। फिर भी च.चि. २५।५५ से ६० तक छ: प्रकार के शस्त्रकर्मों का वर्णन करते हुए कहा है—'इति षड्विधमुद्दिष्टं शस्त्रकर्म मनीषिभिः' । यहाँ यह मनीषि शब्द सुश्रुत आदि शल्यशास्त्रज्ञों की ओर संकेत करता है।
नानाविधानां शल्यानां नानादेशप्रबाधिनाम्।
आहर्तुमभ्युपायो यस्तद्यन्नं यच्च दर्शने ॥१॥
अर्शोभगन्दरादीनां शस्त्रक्षाराग्नियोजने।
शेषाङ्गपरिरक्षायां तथा बस्त्यादिकर्मणि ॥२॥
घटिकालाबुशृङ्गं च जाम्बवौष्ठादिकानि च ।
यन्त्रों का वर्णन—शरीर के विभिन्न देशों ( अवयवों) में गढ़े हुए या चुभे हुए शल्यों, जो कष्ट पहुँचा रहे हों, को निकालने का जो उपाय है, उसे यन्त्र कहते हैं और जो अर्श, भगन्दर आदि को देखने में सहायक होते हैं उन्हें भी यन्त्र कहते हैं। शस्त्र, क्षार तथा अग्निकर्म का प्रयोग करते समय शेष अंगों की सुरक्षा के लिए भी इन यन्त्रों की आवश्यकता पड़ती है। बस्ति (गुदबस्ति, उत्तरबस्ति ) आदि कर्मों में भी इनका प्रयोग होता है। ये यन्त्र घटिका (घड़ा, लोटा), अलाबु (तुम्बी), शृंगी (सिंगी) इनका प्रयोग वातदोष तथा दूषित रक्त को चूसकर निकालने में होता है। जाम्बवौष्ठ यन्त्र का प्रयोग क्षार लगाने में और काँटा आदि निकालने में सदंश ( चिमटी) आदि का प्रयोग होता है।।१-२।।
अनेकरूपकार्याणि यन्त्राणि विविधान्यतः॥३॥
विकल्प्य कल्पयेद्बुद्ध्या-
यन्त्रों की विविधता–उक्त यन्त्रों के विविध आकार-प्रकार तथा अनेक कार्य होते हैं अर्थात् योग्य चिकित्सक इनसे अनेक कार्य ले सकते हैं। अतः अपनी विवेकबुद्धि से विचार करके इनका प्रयोग किया जा सकता है॥३॥
-यथास्थूलं तु वक्ष्यते।
सामान्य वर्णन—सामान्य दृष्टि से उक्त यन्त्रों का वर्णन आगे किया जायेगा। वक्तव्य—महर्षि सुश्रुत ने १०१ यन्त्रों का होना स्वीकार कर उनका विभाजन इस प्रकार ६ भागों में किया है। यथा—(क) स्वस्तिकयन्त्र २४, ( ख ) सन्दंशयन्त्र २, (ग) तालयन्त्र २, (घ) नाड़ीयन्त्र २०, (ङ) शलाकायन्त्र २८ तथा ( च ) उपयन्त्र २५; योग–१०१ । देखें—सु.सू. ७।६। वाग्भट ने सुश्रुतोक्त उपयन्त्र को अनुयन्त्र संज्ञा दी है। देखें—अ.ह.सू. २५।३९-४०। ये सभी यन्त्र लौहधातु से अथवा लौह जैसे दृढ़ पदार्थ से बनाये जाते हैं। देखें—सु.सू. ७/७ । लौह शब्द से सभी धातुओं का ग्रहण किया जाता है। देखें—'सर्वं स्यात्तैजसं लोहम्' । ( अमरकोष २।९।९९)
तुल्यानि कङ्कसिंहक्षकाकादिमृगपक्षिणाम् ॥४॥
मुखैर्मुखानि यन्त्राणां कुर्यात्तत्संज्ञकानि च ।
अष्टादशाङ्गुलायामान्यायसानि च भूरिशः॥५॥
मसूराकारपर्यन्तैः कण्ठे बद्धानि कीलकैः ।
विद्यात्स्वस्तिकयन्त्राणि मूलेऽङ्कुशनतानि च ॥६॥
तैर्वृद्वैरस्थिसंलग्नशल्याहरणमिष्यते
स्वस्तिकयन्त्र-परिचय–स्वस्तिकयन्त्रों के मुख ( अग्रभाग ) कंकपक्षी, सिंह, ऋक्ष (भालू), कौआ आदि मृग, पक्षियों के मुखों की आकृति वाले होते हैं, अतएव इन यन्त्रों के नाम भी उन्हीं प्राणियों के नामों के अनुसार रखे गये हैं। यथा—कंकमुख, सिंहमुख आदि। अधिकांश इन यन्त्रों की लम्बाई १८ अंगुल होनी चाहिए और इनका निर्माण लोहा धातु से होना चाहिए। इनके कण्ठ ( मुख के निचले भाग) में मसूर की आकृति वाली कीलों से बँधे हों और इनका अन्तिम भाग (छोर ) अंकुश की भाँति मुड़ा होना चाहिए। क्योंकि इसे पकड़े रहने से हाथ फिसलता नहीं। ये यन्त्र दृढ़ बने हों। इनसे अस्थियों में चुभे हुए शल्यों का आहरण करना चाहिए।।४-६॥
कीलबद्धविमुक्ताग्रौ सन्दशौ षोडशाङ्गुलौ॥७॥
त्वशिरास्नायुपिशितलग्नशल्यापकर्षणौ ।
सन्दंशयन्त्र-परिचय–सन्दंशयन्त्र दो प्रकार के होते हैं—१. कीलबद्ध (पेंच या कील से जुड़े हुए, जैसे—सँडसी), जिन्हें अन्यत्र सनिग्रह अथवा सनिबन्धन भी कहते हैं तथा २. विमुक्ताग्र (जैसे—चिमटा या चिमटी), जिन्हें अन्यत्र अनिग्रह या अनिबन्धन भी कहा जाता है। इन दोनों की लम्बाई सोलह अंगुल होती है। इनका उपयोग त्वचा, सिरा (धमनी), स्नायु तथा मांस में फंसे, गढ़े शल्य (काँटा) आदि को निकालने में किया जाता है।।७।।
षडङ्गुलोऽन्यो हरणे सूक्ष्मशल्योपपक्ष्मणाम्॥८॥
सन्दंशयन्त्र का भेद—ऊपर जो दो सोलह अंगुल वाले सन्दंशयन्त्र कहे हैं, उनसे अतिरिक्त इसका एक भेद और होता है, जिसकी लम्बाई छ: अंगुल होती है। इसका उपयोग सूक्ष्म शल्य तथा उपपक्ष्म अर्थात् परबालों को निकालने में किया जाता है।।८।।
मुचुण्डी सूक्ष्मदन्तर्जुर्मूले रुचकभूषणा।
गम्भीरव्रणमांसानामर्मणः शेषितस्य च॥९॥
मुचुण्डी यन्त्र का वर्णन—उक्त षडंगुल सन्देश यन्त्र का नाम 'मुचुण्डी' है। इसके मुख के भीतरी भाग में छोटे-छोटे दाँत जैसे होते हैं, यह सीधी होती है। इसके अन्तिम छोर में रुचक (अँगूठी) का आभूषण पहनाया जाता है। इसका कोई उपयोग न होने के कारण ही इसे भूषण कहा गया है। इसका उपयोग गहरे व्रणों (घावों) के मांसों तथा शेष बचे हुए अर्म नामक नेत्ररोग-विशेष का आहरण के लिए किया जाता है।॥९॥
द्वे द्वादशाङ्गुले मत्स्यतालवत् द्वयेकतालके।
नालयन्त्रे स्मृते कर्णनाडीशल्यापहारिणी॥१०॥
तालयन्त्र-परिचय-तालयन्त्र दो होते हैं—१. एकतालक तथा २. द्वितालक। इनके ताल मछली के गले के ताल के सदृश होते हैं। इनकी दोनों लम्बाई १२-१२ अंगुल होती है। इनका उपयोग कान, नासिका तथा नाड़ीव्रण के भीतर का शल्य (पूय = मवाद तथा गर्भ को भी शल्य कहा गया है ) को निकालने में होता है।। १०॥
नाड़ीयन्त्राणि सुषिराण्येकानेकमुखानि च।
स्रोतोगतानां शल्यानामामयानां च दर्शने ॥११॥
क्रियाणां सुकरत्वाय कुर्यादाचूषणाय च।
तद्विस्तारपरीणाहदैर्घ्य स्रोतोऽनुरोधतः॥१२॥
नाडीयन्त्र-परिचय-नाडीयन्त्र सुषिर ( खोखले ) होते हैं। बाहर की ओर उनमें अनेक छिद्र बनाये जाते हैं। इनका उपयोग गुद तथा भग ( योनि तथा गर्भाशय ) आदि स्रोतों में गये हुए शल्यों को एवं उनके भीतर पैदा हुए अर्श के मस्सों को देखने के लिए किया जाता है। उक्त स्थानों में क्षारकर्म, अग्निदाह आदि चिकित्सा करने में उक्त यन्त्रों से सुविधा होती है। इनका प्रयोग रक्त-आचूषण आदि के लिए भी होता है। (आचूषण क्रिया में प्रयुक्त नाडीयन्त्र अनेक छिद्रों वाला नहीं होता। आप ध्यान दें—छिद्रों के होने पर आचूषण क्रिया नहीं हो सकेगी। ) स्रोतों के आकार-प्रकार का विचार कर तदनुसार उन यन्त्रों के विस्तार, परिणाह ( मोटा या पतलापन ) तथा दीर्घता (लम्बा-छोटापन ) का निर्धारण कर लेना चाहिए॥११-१२ ॥
वक्तव्य—‘क्रियाणां सुकरत्वाय' इस पद्यांश में महर्षि वाग्भट का 'सुकरत्वाय' यह प्रयोग वैदिक प्रकिया के अनुसार ही ठीक माना जा सकता है। जैस—क्त्वो यक्' (७।१।४७) पाणिनि के इस सूत्र का उदाहरण है—'दिवं सुपर्णो गत्वाय'। (ऋग्वेद ) और अव्ययान्त शब्दों से 'सु' का लोप होकर वह शब्द सदा एक ही रूप में बना रहता है, क्योंकि ‘यन्नव्येति तदव्ययम्' अर्थात् जिस शब्द के रूप विभक्तियों के अनुसार परिवर्तित नहीं होते उसे 'अव्यय' कहते हैं।
दशाङ्गुलाऽर्धनाहाऽन्तःकण्ठशल्यावलोकिनी।
नाड़ी-
कण्ठशल्यावलोकनी नाडी—कण्ठ के भीतर गये हुए शल्य को देखने के लिए जिस नाडीयन्त्र का निर्माण कराया जायेगा, वह १० अंगुल लम्बी और ५ अंगुल मोटी होनी चाहिए।
–पञ्चमुखच्छिद्रा चतुष्कर्णस्य सङ्ग्रहे ॥१३॥
वारङ्गस्य, द्विकर्णस्य त्रिच्छिद्राः तत्प्रमाणतः।
द्विकर्ण, चतुष्कर्ण नाडीयन्त्र—चार कर्ण वाले वारंग (मूठ) को पकड़ने के लिए पाँच मुखों वाली नाडी तथा दो कर्ण वाले वारंग को पकड़ने के लिए तीन छेदों (मुखों) वाली नाडी उसी प्रमाण से बनायी जाती है।।१३।।
वारङ्गकर्णसंस्थानानाहदैर्ध्यानुरोधतः ॥१४॥
नाडीरेवंविधाश्चान्या द्रष्टुं शल्यानि कारयेत् ।
विविध नाडीयन्त्र-शल्य के वारंग (मूठ), कर्ण (फर), संस्थान (आकार, स्वरूप), आनाह ( मोटाई) तथा लम्बाई के अनुसार उसे ( शल्य को ) देखने के लिए विविध प्रकार के नाडीयन्त्र तैयार करवाने चाहिए॥१४॥
पद्मकर्णिकया मूर्ध्नि सदृशी द्वादशाङ्गुला ॥१५॥
चतुर्थसुषिरा नाड़ी शल्यनिर्घातिनी मता।
शल्यनिर्घातिनी नाडी—जिसका ऊपरी भाग कमल की कर्णिका के सदृश हो, लम्बाई १२ अंगुल हो और जिसका चौथाई भाग ( ३ अंगुल ) खोखला हो, उस नाडीयन्त्र को 'निर्घातिनी नाडी' कहते हैं।। १५ ।।
वक्तव्य—शल्य का जिस ओर से प्रवेश हुआ हो उसके प्रवेश के अनुरूप निकालने में इसका प्रयोग किया जाता है। इसका खोखला भाग शल्य में फँसाकर विपरीत दिशा से यन्त्र को ठोंककर शल्य को सुगमता से निकाल लिया जाता है।
अर्शसां गोस्तनाकारं यन्त्रकं चतुरङ्गुलम् ॥१६॥
नाहे पञ्चाङ्गुलं पुंसां प्रमदानां षडङ्गुलम्।
द्विच्छिद्रं दर्शने व्याधेरेकच्छिद्रं तु कर्मणि ॥१७॥
मध्येऽस्य त्र्यमुलं छिद्रमगुष्ठोदरविस्तृतम्।
अर्धाङ्गुलोच्छ्रितोद्वृत्तकर्णिकं च तदूर्ध्वतः॥
अर्थोयन्त्र-परिचय–अर्शों को देखने तथा उनमें औषध-प्रयोग करने की दृष्टि से यह यन्त्र दो प्रकार का होता है। इसका आकार गाय के स्तन के सदृश होता है, इसकी लम्बाई चार अंगुल, मोटाई पुरुषों के लिए पाँच अंगुल और स्त्रियों के लिए छ: अंगुल होती है। जो यन्त्र अर्थों ( मस्सों) को देखने के लिए प्रयुक्त होता है उसमें लम्बे आकार के दो छिद्र बनाये जाते हैं। जिस यन्त्र द्वारा मस्सों पर क्षार आदि औषध-द्रव्यों का प्रयोग किया जाता है, उसमें एक छिद्र होता है। ये छिद्र यन्त्र के पार्श्व (अगल-बगल) में तीन अंगुल लम्बे अँगूठा के बराबर चौड़े होते हैं। इन यन्त्रों के मुखद्वार में आधा अंगुल ऊँची बाहर की ओर को मुड़ी हुई कर्णिका होती।। १६-१८॥
वक्तव्य—अर्थों ( मस्सों) को देखने के लिए दो छिद्र किन्तु औषध-प्रयोग के लिए एक छिद्र वाला यन्त्र होता है। इसकी उपादेयता बतलाते हुए भगवान् धन्वन्तरि ने कहा है—'एक छिद्र ( द्वार ) होने से शस्त्र, क्षार तथा अग्निकर्म दूसरे स्थान पर न हो जाय, इसका भय नहीं रहता' । देखें—सु.चि. ६।११।
शम्याख्यं तादृगच्छिद्रं यन्त्रमर्शःप्रपीडनम्।
शमीयन्त्र-परिचय--अर्शीयन्त्र की आकृति के सदृश ही एक शमीयन्त्र होता है, इसमें छेद नहीं होता। इसका प्रयोग अर्थों को प्रपीड़न (दबाना, मसलना) के लिए किया जाता है।
सर्वथाऽपनयेदोष्ठं छिद्रादूर्ध्वं भगन्दरे॥१९॥
भगन्दरयन्त्र—इस यन्त्र का प्रयोग भगन्दर में क्षार या क्षारसूत्र आदि का प्रयोग करने के लिए किया जाता है। इसमें अर्शोयन्त्र की भाँति छिद्र तो होता है किन्तु ओष्ठ (कर्णिका) नहीं होता ।। १९ ।।
घ्राणार्बुदार्शसामेकच्छिद्रा नाड्यङ्गुलद्वया।
प्रदेशिनीपरीणाहा स्याद्भगन्दरयन्त्रवत् ॥२०॥
घ्राणयन्त्र-परिचय–घ्राणयन्त्र के पार्श्व में एक छिद्र होता है, इस यन्त्र की नाड़ी (नाली) दो अंगुल लम्बी और इसकी मोटाई प्रदेशिनी (तर्जनी) अंगुली के बराबर होती है। इसका आकार भगन्दर यन्त्र के सदृश होता है, अतएव इसमें भी कर्णिका नहीं होती है। इसका प्रयोग नासिकाछिद्र के भीतर पैदा हुए अर्बुद तथा अर्श पर क्षार-प्रयोग के लिए होता है।।२०।।
अङ्गुलित्राणकं दान्तं वार्दा वा चतुरङ्गुलम् ।
द्विच्छिद्रं गोस्तनाकारं तद्वक्त्रविवृतौ सुखम् ॥२१॥
अंगुलित्राणक यन्त्र—इस यन्त्र का निर्माण हाथीदाँत से अथवा सुदृढ़ शीशम आदि लकड़ी से कराया जाता है। इसकी लम्बाई चार अंगुल तथा इसके दोनों ओर छिद्र बनवाया जाता है। इसकी आकृति गाय के स्तन के जैसी होती है। इसका उपयोग मुख को खोलने के लिए होता है। इसे अंगुलित्राणक इसलिए कहा जाता है कि दूसरे रोगी के मुख के खोलने पर उसके दाँतों से चिकित्सक की अँगुलियों की रक्षा हो जाती है।॥२१॥
योनिव्रणेक्षणं मध्ये सुषिरं षोडशाङ्गुलम्।
मुद्राबद्धं चतुर्भित्तमम्भोजमुकुलाननम् ॥२२॥
चतुःशलाकमाक्रान्तं मूले तद्विकसेन्मुखे ।
योनिव्रणेक्षण यन्त्र—योनि (भग तथा गर्भाशय) के भीतर उत्पन्न हुए व्रण आदि को देखने के लिए इस यन्त्र का प्रयोग होता है। यन्त्र-परिचय—यह बीच में खाली (खोखला) होता है। इसकी लम्बाई सोलह अंगुल होती है। यह चार भित्तियों ( पत्तियों या पाटियों) से बना हुआ बाहर से मुद्रा (कँगनी ) द्वारा बँधा हुआ, मुकुलित कमल के सदृश मुख वाला तथा भित्तियों के मूल भाग में चार शलाकाओं से घिरा हुआ होता है। इन शलाकाओं पर दबाव पड़ने पर उसका मुखभाग खुल जाता है, जिसके कारण योनि का मुख खुलकर उसके भीतरी अवयव स्पष्ट देखे जा सकते हैं।। २२ ।।
यन्त्रे नाडीव्रणाभ्यङ्गक्षालनाय षडङ्गुले ॥२३॥
बस्तियन्त्राकृती मूले मुखेऽङ्गुष्ठकलायखे।
अग्रतोऽकर्णिके मूले निबद्धमृदुचर्मणी॥२४॥
नाडीव्रण के यन्त्र—नाडीव्रण का अभ्यञ्जन (नाडीव्रण के भीतर स्नेह (घृत, तैल, वसा, मज्जा) पहुँचाने ) करने के लिए तथा नाड़ीव्रण को धोने के लिए प्रयुक्त किये जाने वाले ये दो यन्त्र हैं। इनकी लम्बाई छ: अंगुल होती है। ये यन्त्र आकार में बस्तियन्त्र के सदृश होते हैं। इनके मूल में अँगूठा के बराबर और मुख (अगले भाग ) में मटर के दाने के बराबर छेद होना चाहिए। इसके मुख की ओर कर्णिका नहीं होती किन्तु मूलभाग में दो कर्णिकाएँ होती हैं और उन पर कोमल चमड़े की बस्ति बाँधी जाती है। इसे व्रणबस्ति भी कहते हैं।। २३-२४।।
द्विद्वारा नलिका पिच्छनलिका वोदकोदरे।
नाडीयन्त्र—यह नाडीयन्त्र पिच्छनलिका अर्थात् मोर या गीध के पंख की नली के खोखले भाग से बनाया जाता है। इसके दोनों ओर छेद होते हैं। इसका प्रयोग जलोदर के जल को निकालने के लिए किया जाता है। देखें—अ.ह.चि. १५।११४।
धूमबस्त्यादियन्त्राणि निर्दिष्टानि यथायथम् ॥२५॥
अन्य यन्त्र–धूमयन्त्र, बस्तियन्त्र आदि अन्य अनेक यन्त्रों का वर्णन यथास्थान कर दिया गया है।।२५।। वक्तव्य—बस्तियन्त्र का वर्णन अ.हृ.सू.अ. १९ में, प्रधमननस्य यन्त्र का अ. २० में, धूमयन्त्र का अ. २१ में और आश्चोतन के लिए नाड़ीयन्त्र का अ. २३ में वर्णन क्रमशः किया गया है।
त्र्यमुलास्यं भवेच्छृङ्गं चूषणेऽष्टादशाङ्गुलम् ।
अग्रे सिद्धार्थकच्छिद्रं सुनद्धं चूचुकाकृति॥२६॥
शृंगनाडीयन्त्र-शृंगनाड़ी ( सिंगी ) यन्त्र का मुखभाग तीन अंगुल चौड़ा और इसकी लम्बाई अठारह अंगुल होती है। इसके अगले भाग में सरसों के बीज के आने-जाने लायक छेद होता है। यह भाग स्त्री के स्तन के चूचुक के सदृश होता है। यह यन्त्र भलीभाँति बँधा हुआ होता है, जिसमें कहीं से हवा न निकल सके। इसका प्रयोग दूषित रक्त तथा वायु को चूसने के लिए किया जाता है।।२६।।
वक्तव्य-प्राचीन काल में सिंगी का प्रयोग करने वाले 'जर्राह' लोग इधर-उधर घूमा करते थे और उनके निश्चित स्थान भी होते थे। वें सिंगी लगाने में कुशल होते थे। इस सिंगीयन्त्र के दोनों ओर छिद्र होते हैं। चौड़े छिद्र को वेदनास्थान पर लगाकर एक हाथ से उस यन्त्र को दबाकर मुख द्वारा जोर से वहाँ की हवा खींच ली जाती है और उस मुख वाले छिद्र को बन्द कर दिया जाता है। थोड़ी देर में वहाँ की हवा उस यन्त्र में भर जाती है तब उस यन्त्र को खींचकर निकाल लिया जाता है, इससे उस स्थान की पीड़ा शान्त हो जाती है। इसे कच्ची सिंगी कहते हैं।
मुख से पक्की सिंगी से दूषित रक्त को निकाला जाता है। पीड़ित स्थान पर उस्तरा से पच्छ लगाकर (छीलकर ) उसके ऊपर सिंगी रखकर उक्त प्रकार से सिंगी का चौड़ा भाग रखकर दूसरी ओर चूसें। इस विधि से उस स्थान का दूषित रक्त निकल जाता है, फलतः वेदना शान्त हो जाती है। इस विषय पर सुश्रुत के विचार—'गाय के सींग से निर्मित सिंगी उष्णवीर्य, मधुर, स्निग्ध गुणवाली होती है। अतः इससे वातदूषित रक्त निकाला जाता है। जौंक लगाकर पित्तदूषित रक्त निकलवाना चाहिए। अलाबु (तुम्बी) द्वारा कफदूषित रक्त को निकलवाना चाहिए। देखें—सु.सू. १३।५-७। इसी का समर्थन चरक ने भी किया है। देखें—च.चि. २११६९ ।
स्याद्वादशाङ्गुलोऽलाबु हे त्वष्टादशाङ्गुलः।
चतुस्त्र्यङ्गुलवृत्तास्यो दीप्तोऽन्तः श्लेष्मरक्तहृत् ॥२७॥
तुम्बीयन्त्र-परिचय–अलाबु (तुम्बी) १२ अंगुल लम्बी, १८ अंगुल मोटी तथा ३ या ४ अंगुल चौड़े मुख वाली होनी चाहिए। उसके भीतर दीपक जलाकर उसके गरम हो जाने पर प्रयोग करने से कफदूषित रक्तविकार समाप्त हो जाते हैं।।२७।।
वक्तव्य-सुश्रुतसम्मत उक्त विचार को महर्षि वाग्भट ने प्रस्तुत किया है। देखें—'सान्तीपयाऽलाब्वा'। (सु.सू. १३१८) इस अलाबु में छिद्र नहीं किया जाता। प्रयोग-विधि—जहाँ तुम्बी का प्रयोग करना हो वहाँ गीली मिट्टी या सने हुए आटा का दीपक बनाकर उसमें कपूर या घी की बत्ती जलाकर रख देते हैं। उस बत्ती के ऊपर उस छेदरहित तुम्बी को रखकर दबा दें, तत्काल दीपक बुझ जायेगा और तुम्बी में खिंचाव प्रतीत होने लगेगा। घड़ी-दो-घड़ी के बाद तुम्बी को निकाल कर उस स्थान को मसल देना चाहिए, स्थानीय वातजनित वेदना शान्त हो जाती है।
तद्वद्धटी हिता गुल्मविलयोन्नमने च सा।
घटीयन्त्र-परिचय-इसी के आकार वाला घटीयन्त्र भी होता है। इससे गुल्म का विलयन तथा उन्नमन भी किया जाता है।
वक्तव्य—श्रीहेमाद्रि ने 'चकारात् श्लेष्मरक्तावचूषणे च' कहा है। यह घटीयन्त्र तुम्बीयन्त्र के समान छिद्ररहित होता है, तब बिना छिद्र के आचूषण क्रिया नहीं हो सकती। पाठक इस पर विचार करें।
शलाकाख्यानि यन्त्राणि नानाकर्माकृतीनि च ॥२८॥
यथायोगप्रमाणानि-
शलाकायन्त्र—शलाका नामक यन्त्रों का प्रयोग अनेक चिकित्सा-कर्मों के रूप में होता है। इनके आकार अनेक प्रकार के होते हैं। इनका जिस कर्म के लिए उपयोग होता है तदनुसार इनकी लम्बाई-मोटाई होती है।॥२८॥
तेषामेषणकर्मणी।
उभे गण्डूपदमुखे-
एषणी शलाका—इनमें दो एषणी नामक शलाकायन्त्र होते हैं। इनसे व्रणवास्तु का अन्वेषण किया जाता है। इन दोनों यन्त्रों का मुख गण्डूपद ( केंचुए) के सदृश होता है।
-स्रोतोभ्यः शल्यहारिणी ॥२९॥
मसूरदलवक्त्रे द्वे स्यातामष्टनवाङ्गुले।
स्रोतःशल्यहारिणी शलाका—स्रोतों से शल्य का आहरण करने वाले दो शलाकायन्त्र होते हैं। इनके मुख (अग्रभाग) मसूर की दाल के समान गोल तथा चपटे होते हैं। इन दोनों की लम्बाई ८ तथा ९ अंगुल होती है।।२९॥
शङ्कवः षट्-
छः शंकुयन्त्र—ये शंकु नामक शलाकाएँ संख्या में छः होती हैं।
-उभौ तेषां षोडशद्वादशाङ्गुलौ॥३०॥
व्यूहनेऽहिफणावत्रौ-
व्यूहन शंकुयन्त्र—उनमें से एक १६ अंगुल लम्बा और दूसरा १२ अंगुल लम्बा होता है। इन दोनों यन्त्रों के मुख साँप के फण के सदृश टेढ़े होते हैं। इनका उपयोग व्यूहन-कर्म ( इधर-उधर फैले हुए मांस आदि को यथास्थान रखने) के लिए होता है।।३०।।
-द्वौ दशद्वादशाङ्गुलौ।
चालने शरपुङ्खास्यौ-
चालन शंकुयन्त्र—उनमें से एक १० अंगुल लम्बा और दूसरा १२ अंगुल लम्बा होता है। इन दोनों यन्त्रों के मुख शरपुंख ( बाण के फर ) के सदृश होते हैं। इनका उपयोग चालन-कर्म ( शल्य को हिलाने-डुलाने ) में किया जाता है।
-आहार्ये बडिशाकृती॥३१॥
आहार्य शंकुयन्त्र—दो शंकुयन्त्र बडिश (मछली पकड़ने के काँटे ) जैसे होते हैं। इनका उपयोग शल्य का आहरण करने (खींचने) के लिए किया जाता है॥३१॥
नतोऽग्रे शङ्कुना तुल्यो गर्भशङ्कुरिति स्मृतः।
अष्टाङ्गुलायतस्तेन मूढगर्भ हरेत् स्त्रियाः॥
गर्भशंकुयन्त्र—एक गर्भशंकुयन्त्र होता है। जिसका अगला भाग शंकु (काँटा ) के सदृश झुका रहता है। यह ८ अंगुल लम्बा होता है। उससे नारी का मूढगर्भ (जो सही मार्ग की ओर प्रवृत्त न हुआ हो, उसे) निकाला जाता है।। ३२।।
वक्तव्य–देखें—अ.हृ.शा. २।२९-३०। यहाँ गर्भशंकुयन्त्र की प्रयोग-विधि दिखलायी गयी है।
अश्मर्याहरणं सर्पफणावद्वक्रमग्रतः।
अश्मरीहरण यन्त्र—अश्मरी (पथरी) को निकालने के लिए जिस यन्त्र का प्रयोग किया जाता है, उसका अगला भाग साँप के फण के सदृश आगे की ओर झुका अतएव टेढ़ा होता है।
शरपुङ्खमुखं दन्तपातनं
चतुरङ्गुलम्॥३३॥
दन्तपातनयन्त्र-शरपुंख (बाण के फर) के सदृश मुखभाग वाला तथा ४ अंगुल लम्बा एक यन्त्र होता है। इसका प्रयोग दाँतों को निकालने ( उखाड़ने) के लिए किया जाता है।। ३३ ।।
कार्पासविहितोष्णीषाः शलाकाः षट् प्रमार्जने।
प्रमार्जनी शलाकायन्त्र- व्रण आदि को साफ करने के लिए जिन शलाकायन्त्रों का प्रयोग किया जाता है, उनकी संख्या ६ है। प्रमार्जन करते समय इनके अगले भाग पर रुई लपेट दी जाती है, जिसे वाग्भट ने 'विहितोष्णीष' कहा है। 'उष्णीष' का अर्थ है—पगड़ी।
पायावासन्नदूरार्थे द्वे दशद्वादशाङ्गुले ॥३४॥
पायुयन्त्र—पायु (गुद) यन्त्र दो प्रकार के होते हैं- १. जो यन्त्र बाहरी गुद के समीप के व्रण को साफ करने के लिए होता है, उसकी लम्बाई १० अंगुल होती है। २. जो यन्त्र दूर के (भीतरी ) गुदव्रण को साफ करने के लिए प्रयुक्त होता है, उसकी लम्बाई १२ अंगुल होती है।। ३४।।
द्वे षट्सप्ताङ्गुले घ्राणे, द्वे कर्णेऽष्टनवाङ्गुले।
घ्राण एवं कर्ण यन्त्र—घ्राणयन्त्र दो प्रकार के होते हैं— १. समीप के लिए ६ अंगुल लम्बा तथा २. दूर के लिए ७ अंगुल लम्बा। कर्णयन्त्र दो प्रकार के होते हैं— १. समीप के लिए ८ अंगुल लम्बा तथा २. दूर के लिए ९ अंगुल लम्बा।
कर्णशोधनमश्वत्थपत्रप्रान्तं
सुवाननम् ॥ ३५॥
कर्णशोधन यन्त्र—इसका आकार पीपल के पत्र के अग्रभाग की भाँति नुकीला किन्तु उसका मुख स्रुव ( चमची ) के सदृश कुछ गहरा होना चाहिए। इससे कान की मैल निकाली जाती है।॥३५॥
शलाकाजाम्बवौष्ठानां क्षारेऽग्नौ च पृथक् त्रयम् ।
युज्यात् स्थूलाणुदीर्घाणां-
विविध शलाकायन्त्र—क्षार तथा अग्नि कर्मों के लिए तीन शलाकायन्त्र तथा तीन जाम्बवौष्ठ (जामुन के फल के सदृश मुख वाले ) यन्त्र होते हैं। ये यन्त्र कोई मोटे, कोई पतले तथा कोई दीर्घ (लम्बे) आकार के होते हैं। इस प्रकार इन शलाकायन्त्रों की संख्या १२ होती है।
-शलाकामन्त्रवर्मनि ॥३६॥
मध्योर्ध्ववृत्तदण्डां च मूले चार्धेन्दुसन्निभाम् ।
उक्त शलाकायन्त्रों में से एक का प्रयोग अन्त्रवृद्धिरोग में प्रयुक्त होता है। उसका स्वरूप इस प्रकार होता है—मध्यभाग से ऊपर की ओर डण्डे के आकार वाला और मूल भाग में अर्धचन्द्राकार होता है।।३६ ।।
कोलास्थिदलतुल्यास्या नासार्शोर्बुददाहकृत् ॥ ३७॥
एक शलाकायन्त्र का प्रयोग नासिका के भीतर उत्पन्न अर्श तथा अर्बुद पर दाहकर्म करने के लिए होता है। इस शलाका का मुखभाग बेर की गुठली के आधे भाग के सदृश होता है।। ३७॥
अष्टाङ्गुला निम्नमुखास्तिस्रः क्षारौषधक्रमे।
कनीनीमध्यमानामीनखमानसमैर्मुखैः॥३८॥
तीन अन्य शलाकायन्त्रों का प्रयोग क्षारौषध का प्रयोग करने के लिए होता है। इनकी लम्बाई आठ अंगुल होती है। इनके मुखभाग में स्रुव (चम्मच ) के जैसा गढ़ा होता है। इनके मुख कनीनिका (कनिष्ठिका), मध्यमा (बीच की अँगुली ) और अनामिका (अँगूठे से चौथी ) अँगुलियों के नखों के सदृश होते हैं।॥ ३८॥
स्वं स्वमुक्तानि यन्त्राणि मेढ़शुद्धयञ्जनादिषु।
मूत्रमार्ग की शुद्धि के लिए तथा अंजन लगाने के लिए अनेक शलाकायन्त्रों का वर्णन यथास्थान इस ग्रन्थ में किया गया है।
वक्तव्य मूत्रमार्ग की शुद्धि के लिए देखें—अ.हृ.सू. १९।७०,७३-८२। अंजन-प्रयोग के लिए देखें-अ.हृ.उ. १० सम्पूर्ण। शलाकायन्त्र की सहायता से जिन रोगों की चिकित्सा की जाती है, वे सभी शालाक्यतन्त्र के अन्तर्गत परिगणित किये जाते हैं।
अनुयन्त्राण्ययस्कान्तरज्जुवस्त्राश्ममुद्गराः ॥३९॥
वध्रान्त्रजिह्वाबालाश्च शाखानखमुखद्विजाः।
कालः पाकः करः पादो भयं हर्षश्च, तक्रियाः॥
उपायवित्प्रविभजेदालोच्य निपुणं धिया।
अनुयन्त्रों का वर्णन–अनु(णु)यन्त्रों ( उपयन्त्रों ) का परिगणन—अयस्कान्त (चुम्बक लौह ), रस्सी (डोरा या धागा), वस्त्र, पत्थर, मुद्गर, वध्र ( लकड़ी या बाँस की पट्टियाँ), आँत की रस्सी, जीभ ( यह दाँतों के बीच में फंसे हुए अन्नकणों या बाल आदि को निकालने में सहायता करती है), बाल (लम्बे बाल स्त्रियों अथवा घोड़े की पूँछ आदि के), वृक्षशाखा, नख, मुख (ओष्ठ-आचूषणार्थ), दाँत, कालपाक (पकने पर पूयशल्य स्वयं निकल जाता है, यही इसके निकलने का काल होता है), हाथ, पैर, भय ( इससे क्रोधशल्य निकल जाता है) और हर्ष (इससे शोकशल्य निकल जाता है)—ये १९ अनुयन्त्र हैं। शल्यों को निकालने के उपायों को जानने वाले चिकित्सक का कर्तव्य है कि वह समय पर अपनी बुद्धि से विचार करके भी अनुयन्त्रों का विभाजन करे; यही उनका उपयोग है।। ३९-४०॥
वक्तव्य—सुश्रुत ने इन्हें उपयन्त्र कहा है। देखें—सु. सू. ८।१५।
निर्घातनोन्मथनपूरणमार्गशुद्धिसंव्यूहनाहरणबन्धनपीडनानि ।
आचूषणोन्नमननामनचालभङ्गव्यावर्तन करणानि च यन्त्रकर्म॥४१॥
यन्त्रों के विविध कर्म-निर्घातन, उन्मथन, पूरण ( बस्ति में द्रव का ), मार्गशुद्धि, संव्यूहन ( इकट्ठा करना), आहरण, बन्धन, पीड़न ( दबाना), आचूषण, उन्नमन ( उठाना), नामन ( झुकाना), चालन, भंग ( तोड़ना), व्यावर्तन (घुमाना ) तथा ऋजुकरण ( सीधा करना)—ये सभी कर्म यन्त्रसाध्य होते हैं।। ४१ ।।
वक्तव्य—वृद्धवाग्भट ने इनके अतिरिक्त ९ यन्त्रकर्मों का परिगणन इस प्रकार किया है—१. विवरण, २. एषण, ३. प्रमार्जन, ४. प्रक्षालन, ५. प्रधमन, ६. विकर्षण, ७. व्यंजन (व्यक्त करना), ८. अञ्जन और ९. दारण—इस प्रकार ये कुल मिलाकर १५ + ९ = २४ यन्त्र हो जाते हैं। देखें—अ.सं.सू. ३४।२०। सुश्रुत ने १२ यन्त्रदोषों का भी उल्लेख किया है। इस प्रसंग में इनका भी अवलोकन कर लेना चाहिए। देखें—सु.सू. ८।१९। वृद्धवाग्भट ने ८ यन्त्रदोषों का वर्णन किया है। देखें—अ.सं.सू. ३४॥३३ ।
विवर्तते साध्ववगाहते च ग्राह्यं गृहीत्वोद्धरते च यस्मात् ।
यन्त्रेष्वतः कङ्कमुखं प्रधानं स्थानेषु सर्वेष्वधिकारि यच्च ॥४२॥
इति श्रीवैद्यपतिसिंहगुप्तसूनुश्रीमद्वाग्भटविरचितायामष्टाङ्गहृदयसंहितायां
प्रथमे सूत्रस्थाने यन्त्रविधिर्नाम पञ्चविंशोऽध्यायः॥२५॥
कंकमुखयन्त्र–कंकमुख नामक यन्त्र उक्त सभी यन्त्रों में प्रधान माना जाता है, क्योंकि यह आवश्यकतानुसार घुमाया जा सकता है, स्रोतों में इसका सरलता से प्रवेश हो जाता है, ग्रहण करने योग्य शल्य को पकड़कर यह निकाल देता है और सभी अवयवों में प्रविष्ट होकर साधिकार अपना कर्म करता है।। ४२॥
वक्तव्य-उक्त पद्य अविकल रूप से अष्टांगसंग्रह (सू. ३४।२१ ) में भी सुलभ है। सभी यन्त्र अपने-अपने कार्यक्षेत्र में प्रशंसा पाते ही हैं। कंकमुख यन्त्र पर वाग्भटद्वय की विशेष अनुकम्पा है, अतएव उसकी प्रशंसा यहाँ की गयी है। इस अध्याय में उक्त यन्त्रों के कर्मों का संक्षेप में वर्णन कर दिया है। वास्तव में जहाँ-जहाँ इनके प्रयोगस्थल हैं, वहाँ-वहाँ इनके प्रयोगों का विस्तारपूर्वक वर्णन है।
इस प्रकार वैद्यरत्न पण्डित तारादत्त त्रिपाठी के पुत्र डॉ० ब्रह्मानन्द त्रिपाठी द्वारा विरचित निर्मला हिन्दी व्याख्या विशेष वक्तव्य आदि से विभूषित अष्टांगहृदय-सूत्रस्थान में यन्त्रविधि-वर्णन नामक पचीसवाँ अध्याय समाप्त ।। २५ ।।
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