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अष्टांगहृदय

वाग्भट

प्रकाशक : खेमराज श्रीकृष्णदास प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :350
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15769
आईएसबीएन :1234567890

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आयुर्वेद के स्तम्भ ग्रंथ अष्टांगहृदय का पहला भाग


चतुर्विंशोऽध्यायः

अथातस्तर्पणपुटपाकविधिमध्यायं व्याख्यास्यामः।

इति ह स्माहुरात्रेयादयो महर्षयः।

अब हम यहाँ से तर्पण एवं पुटपाक विधि नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे। जैसा कि आत्रेय आदि महर्षियों ने कहा था।

उपक्रम तेईसवें अध्याय में नेत्ररोगों की शान्ति के लिए जिन आश्चोतन तथा अञ्जन विधियों का वर्णन किया था, उनसे प्रायः नेत्रों में दुर्बलता आ जाती है। अतएव उसके बाद इस अध्याय में नेत्रतर्पण आदि विधियों का वर्णन किया जा रहा है। तर्पण का अर्थ है—नेत्रों को द्रव औषधों के सेचन से तृप्त करना। इस कार्य में पुटपाक-विधि उपकारक होती है। गीले या सूखे औषध-द्रव्यों से विधिभेद से स्वरस निकाला जाता है और केवल सूखे द्रव्यों का पुटपाक-विधि से स्वरस निकाला जाता है। इसका ज्ञान महाकवि भवभूति को भी था। देखें—'पुटपाकप्रतीकाशो रामस्य करुणो रसः'। इन दोनों विधियों से प्राप्त रस का सेचन आँखों में किया जाता है और इससे नेत्र तृप्त होते हैं।

संक्षिप्त सन्दर्भ-संकेत–सु.उ. १८ तथा अ.सं.सू. ३३ में देखें। चरक ने इस शालाक्यतन्त्र को पराधिकार समझकर इसका वर्णन अपनी संहिता में नहीं किया है।

नयने ताम्यति स्तब्धे शुष्के रूक्षेऽभिघातिते।
वातपित्तातुरे जिह्मे शीर्णपक्ष्माविलेक्षणे ॥१॥
कृच्छ्रोन्मीलशिराहर्षशिरोत्पाततमोऽर्जुनैः ।
स्यन्दमन्थान्यतोवातवातपर्यायशुक्रकैः ॥२॥
आतुरे शान्तरागाश्रुशूलसंरम्भदूषिके ।
निवाते तर्पणं योज्यं शुद्धयोर्मूर्द्धकाययोः॥३॥
काले साधारणे प्रातः सायं वोत्तानशायिनः।

तर्पणविधि-वर्णन—जब आँखों के सामने अन्धेरा प्रतीत हो, जब आँखें स्तब्ध हों, सूखी हों, रूखी हों, उन पर किसी प्रकार का आघात लगा हो, नेत्र पर वात या पित्त दोष की विकृति हो, नेत्रगोलक टेढ़े हो गये हों (जिसे ऐंचा-ताना कहते हैं), पक्ष्म (बरौनियों) के बाल उखड़ गये हों, दृष्टि मलिन हो गयी हो, नेत्रों को खोलने में कष्ट होता हो; जब नेत्र सिराहर्ष, सिरोत्पात, तिमिररोग, अर्जुनरोग, अभिष्यन्द, अधिमन्थ, अन्यतोवात, वातपर्यय अथवा शुक्ररोग से पीड़ित हों तब तर्पण का प्रयोग करना चाहिए। जब आँखों की लालिमा, आँसू बहना, शूल, संरम्भ (शोथ ) तथा दूषिका (नेत्रमल ) ये शान्त हो जायें तब तर्पण का प्रयोग करना चाहिए। नस्य से सिर का तथा वमन-विरेचन आदि द्वारा शरीर का शोधन कराकर निवातस्थान में, समशीतोष्ण काल में प्रातःकाल अथवा सायंकाल में रोगी को चित लिटाकर तर्पण का प्रयोग कराना चाहिए।।१-३।।

यवमाषमयीं पाली नेत्रकोशाबहिः समाम् ॥४॥
व्यङ्गुलोच्चां दृढां कृत्वा यथास्वं सिद्धमावपेत् ।
सर्पिर्निमीलिते नेत्रे तप्ताम्बुप्रविलायितम् ॥५॥
नक्तान्ध्यवाततिमिरकृच्छ्रबोधादिके वसाम्। आपक्ष्माग्रात्-

तर्पण की दूसरी विधि—इस विधि में भी रोगी को चित लिटाकर उसके नेत्रकोश से बाहर जौ या उड़द के आटे के समान आकार की एक पाली बनवाये, जो दो अंगुल ऊँची हो और दृढ़ हो, जो तर्पण द्रव डालने पर टूट न जाय। उसमें दोष तथा रोग के अनुसार सिद्ध किये हुए स्नेह को भर दें। इस सिद्ध स्नेह को भरते समय नेत्रों को बन्द कर लें। यदि स्नेह में घृत है तो उसे गरम पानी में पात्र सहित रखकर पिघला लें। यदि रतौंधी, वातदोष-प्रधान तिमिररोग हो तथा कठिनायी से नींद खुलती हो तो इन रोगों में वसा का प्रयोग करना चाहिए। यह वसा उस पाली में उतनी भरनी चाहिए, जिससे बरौनी के बाल उसमें डूब जायें।।४-५॥

—अथोन्मेषं शनकैस्तस्य कुर्वतः॥६॥
मात्रा विगणयेत्तत्र वर्त्मसन्धिसितासिते।
दृष्टौ च क्रमशो व्याधौ शतं त्रीणि च पञ्च च॥७॥
शतानि सप्त चाष्टौ च, दश मन्थे, दशानिले।
पित्ते षट्, स्वस्थवृत्ते च बलासे पञ्च धारयेत्॥८॥

स्नेह-धारणकाल—स्नेह के भर जाने के बाद वह रोगी धीरे-धीरे आँख या आँखों को खोलने का प्रयत्न करे। तदनन्तर चिकित्सक रोगी के समीप बैठकर मात्रा की गणना इस प्रकार करे–वर्त्मगत रोग में १००, सन्धिगत रोगों में ३००, सफेदमण्डल के रोगों में ५००, कृष्णमण्डल के रोगों में ७००, दृष्टिमण्डल के रोगों में ८००, अधिमन्थरोग में १०००, वातज नेत्ररोगों ( वातपर्यय आदि) में १०००, पित्तज नेत्ररोगों में ६००, स्वस्थवृत्त अर्थात् स्वस्थ पुरुष के प्रति प्रयोग किये जाने पर भी ६०० तथा कफज रोगों में ५०० मात्रा तक का समय स्नेह धारण करने के लिए पर्याप्त है।॥६-८॥

वक्तव्य—जिस कालप्रमाण को महर्षि वाग्भट ने ‘मात्रा' कहा है, उसे श्रीसुश्रुत ने (सु.उ. १८१८ में) 'वाक्' कहा है। ये शब्द प्राचीन काल में काल को नापने के लिए प्रयुक्त किये जाते थे। यहाँ मात्रा शब्द से लघुमात्रा उच्चारण के बराबर काल का ही ग्रहण करना चाहिए। १०० मात्रा के उच्चारण में प्रायः ३ मिनट लग जाते हैं, यही स्थिति वाक् की भी है।

कृत्वाऽपाङ्गे ततो द्वारं स्नेहं पात्रे निगालयेत्।
पिबेच्च धूम, नेक्षेत व्योम रूपं च भास्वरम् ॥९॥

तर्पण का पश्चात् कर्म–अपांग (आँख का बाहरी कोर) की ओर द्वार करके अर्थात् उस ओर सिर सहित आँख को झुकाकर नेत्र-तर्पण के लिये डाले गये स्नेह को किसी पात्र में निकाल लें (सुश्रुत के अनुसार—'स्विन्नेन यवपिष्टेन शोधयेत्' (सु.उ. १८।१०) अर्थात् जौ के सने हुए आटा को उबाल कर उससे नेत्र के अवयवों का उबटन करके उसे शुद्ध करें।), तदनन्तर उसे धूमपान करायें। यह व्यक्ति आकाश की ओर अर्थात् दूरी में स्थित वस्तुओं को देखने का प्रयत्न न करे और सूर्य आदि चमकीली वस्तुओं को न देखें॥९॥

इत्थं प्रतिदिनं वायौ, पित्ते त्वेकान्तरं, कफे।
स्वस्थे च द्वयन्तरं दद्यादातृप्तेरिति योजयेत् ॥१०॥

दोषानुसार तर्पण—इस प्रकार वातदोष में प्रतिदिन, पित्तदोष में एक दिन छोड़कर अर्थात् प्रति तीसरे दिन और कफदोष में तथा स्वस्थ पुरुष के नेत्रों में दो-दो दिन का अन्तर देकर तर्पण का प्रयोग तब तक करता रहे जब तक सम्यक् तर्पण के लक्षण उत्पन्न न हो जायें॥१०॥

वक्तव्य—वृद्धवाग्भट ने कुछ अधिक स्पष्ट निर्देश दिये हैं—नेत्रतर्पण के लिए जो आधार ( चहार- दिवारी) बनाया था उसे हटाकर कल्क से आँख के अवयवों को पोंछ कर उसे धूमपान करायें और गुनगुने जल से उसका मुख धुलवा कर रोगानुसार उसे समुचित भोजन करायें। देखें—अ.सं.सू. ३३।५।

प्रकाशक्षमता स्वास्थ्यं विशदं लघु लोचनम् ।
तृप्ते, विपर्ययोऽतृप्तेऽतितृप्ते श्लेष्मजा रुजः॥

तर्पण का समयोग—इसमें रोगी के नेत्रों में प्रकाश की ओर देखने की शक्ति हो जाती है, नेत्र की स्वस्थता का अनुभव, नेत्र में स्वच्छता तथा आँखों में हलकापन प्रतीत होता है। तर्पण का हीनयोग—इसमें समयोग के लक्षणों के विपरीत लक्षण होते हैं। तर्पण का अतियोग—इसमें कफज रोगों की उत्पत्ति हो जाती है।।११॥

वक्तव्य-तर्पण के हीनयोग में तब तक तर्पण कराना चाहिए जब तक समयोग के लक्षण दृष्टिगोचर न हों और तर्पण के अतियोग में कफनाशक विधियों (नस्य, धूमपान, अञ्जन, सेक, गण्डूष, कवल आदि ) का प्रयोग कराना चाहिए। कफनाशक विधियों का वर्णन यहाँ भी किया गया है तथा सुश्रुत में भी। देखें—सु.उ.१८।१६।

स्नेहपीता तनुरिव क्लान्ता दृष्टिर्हि सीदति।
तर्पणानन्तरं तस्मादृग्बलाधानकारिणम् ॥१२॥
पुटपाकं प्रयुञ्जीत
पूर्वोक्तेष्वेव यक्ष्मसु।

पुटपाक का वर्णन—जिस प्रकार स्नेहपान कर लेने पर शरीर ढीला पड़ जाता है, वैसे ही स्नेह द्वारा तर्पण करने पर दृष्टि भी ढीली पड़ जाती है। अतएव तर्पण-प्रयोग के बाद दृष्टि को बलवती बनाने के लिए पुटपाक-विधि से निकाले गये रसों का यथोचित प्रयोग करना चाहिए। इसका प्रयोग पहले श्लोक २-३ में कहे गये वातज एवं कफज रोगों में करना चाहिए।।१२।।

स वाते स्नेहनः, श्लेष्मसहिते लेखनो हितः॥१३॥
दृग्दौर्बल्येऽनिले पित्ते रक्ते स्वस्थ प्रसादनः।

दोषानुसार पुटपाक-प्रयोग—पुटपाक तीन प्रकार के होते हैं—१. स्नेहन, २. लेखन तथा ३. प्रसादन। इनका उपयोग स्नेहन पुटपाक का प्रयोग वातज नेत्ररोगों में, लेखन पुटपाक का प्रयोग कफयुक्त वातज नेत्ररोगों में तथा प्रसादन पुटपाक का प्रयोग दृष्टि की दुर्बलता में, वातज, पित्तज तथा रक्तप्रकोपज नेत्र- रोगों में और स्वस्थ नेत्रों में इनको सदा स्वस्थ रखने की दृष्टि से किया जाता है।। १३ ।।

भूशयप्रसहानूपमेदोमज्जवसामिषैः ॥१४॥
स्नेहनं पयसा पिष्टैर्जीवनीयैश्च कल्पयेत् ।

स्नेहन पुटपाक के द्रव्य-भूशय ( लोमड़ी आदि प्राणी), प्रसह (अ.हृ.सू. ६।४८ इसमें प्रसहवर्ग के प्राणियों की गणना की गयी है ) तथा अनूप ('बहूदकनगोऽनूपः' -शा.सं.पू.खं. ११६४) देश में रहने वाले मृग एवं पक्षियों की मेदा, मज्जा, मांस तथा जीवनीय गण के द्रव्यों को दूध में पीसकर स्नेहन पुटपाक बनाना चाहिए।।१४॥

मृगपक्षियकृन्मांसमुक्तायस्ताम्रसैन्धवैः ॥१५॥
स्रोतोजशङ्खफेनालैर्लेखनं मस्तुकल्कितैः।

लेखन पुटपाक के द्रव्य—जांगलदेशीय मृग एवं पक्षियों के यकृत्, मांस, मोती, लौहभस्म, ताम्रभस्म, सेंधानमक, काला तथा सफेद सुरमा, शंख, समुद्रफेन और हरिताल—इन द्रव्यों को मस्तु ( दही के पानी ) में पीसकर लेखन पुटपाक बनाना चाहिए ।। १५ ।।

मृगपक्षियकृन्मज्जवसान्त्रहृदयामिषैः ॥१६॥
मधुरैः सघृतैः स्तन्यक्षीरपिष्टैः प्रसादनम्।

प्रसादन पुटपाक के द्रव्य—साधारणदेशीय मृग एवं पक्षियों के यकृत्, मज्जा, वसा, अन्त्र (आँत), हृदय, मांस तथा मधुरवर्ग में परिगणित द्रव्य एवं घी—इन सबको स्त्री के दूध में पीसकर प्रसादन पुटपाक बनाना चाहिए।।१६॥

बिल्वमानं पृथक् पिण्डं मांसभेषजकल्कयोः॥१७॥
उरुबूकवटाम्भोजपत्रैः स्नेहादिषु क्रमात्।
वेष्टयित्वा मृदा लिप्तं धवधन्वनगोमयैः॥१८॥ ॥
पचेत्प्रदीप्तैरग्न्याभं पक्वं निष्पीड्य तद्रसम् ।
नेत्रे तर्पणवद्युञ्ज्यात्-

पुटपाक-रचनाविधि—ऊपर तीन प्रकार के पुटपाकों के निमित्त कहे गये मांस आदि द्रव्यों तथा औषधद्रव्यों का बिल्वभर (१-१ पल = ४ तोला) कल्क (चटनी) लेकर गोला जैसा बनायें। फिर क्रमशः स्नेहन पुटपाक के लिए एरण्ड के पत्तों से, लेखन पुटपाक के लिए बरगद के पत्तों से तथा प्रसादन पुटपाक के लिए कमल के पत्तों से लपेट कर उन सबके ऊपर दो अंगुल मोटा मिट्टी का लेप करके उसी क्रम से स्नेहन को धव की लकड़ियों में, लेखन को धामिन की लकड़ियों में तथा प्रसादन को उपलों (गोहरी) की आग में पकायें। जब मिट्टी ऊपर से लाल हो जाय तो पका हुआ समझें। शीतल हो जाने पर मिट्टी को धीरे से हटाकर उसका रस निचोड़ कर तर्पण-विधि की भाँति इस रस का भी प्रयोग करना चाहिए।१७-१८ ॥

-शतं द्वे त्रीणि धारयेत्॥१९॥
लेखनस्नेहनान्त्येषु-

धारणकाल-अवधि—पुटपाक से प्राप्त रस को नेत्रों में डालने के बाद लेखन पुटपाक के रस को १०० मात्रा तक रखें। स्नेहन पुटपाक के रस को २०० मात्रा तक रखें और अन्तिम प्रसादन पुटपाक के रस को ३०० मात्रा तक रखें।। १९ ।।

–कोष्णौ पूर्वी, हिमोऽपरः।

उष्ण-शीतप्रयोग भेद-इन पुटपाक के रसों में पहले के दो (स्नेहन तथा लेखन ) पुटपाकों का रस गुनगुना करके प्रयोग करना चाहिए और बाद वाला अर्थात् प्रसादन पुटपाक का रस शीतल ही प्रयोग करना चाहिए।

धूमपोऽन्ते तयोरेव-

पश्चात् कर्म–स्नेहन तथा लेखन पुटपाक से निकले हुए रसों के प्रयोग करने के बाद रोगी को धूमपान कराना चाहिए। इससे स्नेह द्वारा उभड़े हुए कफ की शान्ति हो जाती है। ‘एव' शब्द प्रसादन पुटपाक के अन्त में धूमपान-सेवन का निषेध करता है।

—योगास्तत्र च तृप्तिवत्॥२०॥

योगों का निर्देश—इस पुटपाक के प्रयोग में योग ( समयोग, हीनयोग तथा अतियोग ) तर्पण के समान ही होते हैं ( देखें-अ.हृ.सू. २४।११ ) ।।२०।।

तर्पणं पुटपाकं च नस्यानर्हे न योजयेत्।

तर्पण एवं पुटपाक का निषेध--जिनको अ.हृ.सू. २०११-१३ में नस्य-सेवन के अयोग्य कहा गया है, उन्हें तर्पण एवं पुटपाक का प्रयोग भी नहीं कराना चाहिए।

यावन्त्यहानि युञ्जीत द्विस्ततो हितभाग्भवेत् ।। २१॥
मालतीमल्लिकापुष्पैर्बद्धाक्षो निवसेन्निशाम् ।

तर्पण एवं पुटपाक की अवधि—जितने दिनों तक तर्पण अथवा पुटपाक का प्रयोग कराया गया हो उससे दुगुने दिनों तक पथ्य का सेवन कराना चाहिए और इन दिनों रात्रि में मालती (चमेली) तथा मल्लिका के फूलों को आँखों पर बाँधकर सोना चाहिए ।। २१ ।।

वक्तव्य-तर्पण तथा पुटपाक के अनुचित प्रयोग से जो रोग पैदा हो जाता है, उसकी चिकित्सा अंजन, आश्चोतन तथा स्वेदन आदि द्वारा तत्काल करें। देखें—सु.उ. १८।३० ।

सर्वात्मना नेत्रबलाय यलं कुर्वीत नस्याञ्जनतर्पणाद्यैः ॥२२॥
दृष्टिश्च नष्टा विविधं जगच्च तमोमयं जायत एकरूपम् ॥ २३॥

इति श्रीवैद्यपतिसिंहगुप्तसूनुश्रीमद्वाग्भटविरचितायामष्टाङ्गहृदयसंहितायां
प्रथमे सूत्रस्थाने तर्पणपुटपाकविधिर्नाम चतुर्विंशोऽध्यायः॥२४॥

नेत्ररक्षा की आवश्यकता नेत्ररक्षा के उपाय-नस्य, अंजन, तर्पण आदि ( इस अध्याय में कहे गये) उपचारों द्वारा सभी प्रकार से नेत्रों की शक्ति को बलवान् बनाये रखने के लिए सर्वदा प्रयत्न करते रहना चाहिए। यदि किसी प्रकार की असावधानी से नेत्रों में विकार उत्पन्न हो जाता है और उससे नेत्र की दर्शनशक्ति नष्ट हो जाती है तो यह विश्व रूप संसार उस नेत्रहीन के लिए अन्धकारमय एकरूप का होकर रह जाता है।। २२-२३ ।।

इस प्रकार वैद्यरत्न पण्डित तारादत्त त्रिपाठी के पुत्र डॉ० ब्रह्मानन्द त्रिपाठी द्वारा विरचित निर्मला हिन्दी व्याख्या, विशेष वक्तव्य आदि से विभूषित अष्टाङ्गहृदय-सूत्रस्थान में तर्पणपुटपाकविधि नामक चौबीसवाँ अध्याय समाप्त ।। २४ ।।

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