स्वास्थ्य-चिकित्सा >> अष्टांगहृदय अष्टांगहृदयवाग्भट
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आयुर्वेद के स्तम्भ ग्रंथ अष्टांगहृदय का पहला भाग
त्रयोविंशोऽध्यायः
अथात आश्चोतनाञ्जनविधिमध्यायं व्याख्यास्यामः।
इति ह स्माहुरात्रेयादयो महर्षयः ।
अब हम यहाँ से आश्चोतनाञ्जनविधि नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे। जैसा कि आत्रेय आदि महर्षियों ने कहा था।
उपक्रम—पिछले अध्यायों में ऊर्ध्वजत्रुगत रोगों तथा उनके प्रतीकारों का निर्देश किया गया है, अतएव गण्डूषादिविधि के बाद अब यहाँ नेत्ररोगों के प्रतिषेध के लिए आश्चोतन तथा अञ्जन विधानों को प्रस्तुत किया जा रहा है। महर्षि सुश्रुत तथा चरक ने 'आश्च्योतन' शब्द का और श्रीवाग्भट ने 'आश्चोतन' ' शब्द का प्रयोग किया है। इसे व्याकरण की दृष्टि से देखें—'इरितो वा' ( ३।१।५७)—'यकारहितोऽप्ययम्'। अर्थात् उक्त शब्द 'य' सहित एवं 'य' रहित दोनों ही प्रकार से शुद्ध है।
संक्षिप्त सन्दर्भ-संकेत—च.चि. २६; सु.उ. १८ तथा अ.सं.सू. ३२ में देखें।
सर्वेषामक्षिरोगाणामादावाश्चोतनं हितम् ।
रुक्तोदकण्डूघर्षाश्रुदाहरागनिबर्हणम्॥१॥
आश्चोतन का वर्णन—सभी प्रकार के नेत्ररोगों में सबसे पहले आश्चोतनविधि हितकारक होती है। इसके प्रयोग से नेत्रों में होने वाली पीड़ा, गड़ने या सुई चुभने की-सी पीड़ा, खुजली, घर्ष ( रगड़—मानो आँख के भीतर बालू के कण घुस गये हों, उस प्रकार का कष्ट ), आसुओं का बहना, दाह तथा लालिमा हट जाती है।॥१॥
उष्णं वाते, कफे कोष्णं, तच्छीतं रक्तपित्तयोः।
दोषानुसार आश्चोतन—वातज नेत्ररोगों में उष्णवीर्य तथा उष्णस्पर्श युक्त, कफुज विकारों में गुनगुना और रक्तज तथा पित्तज विकारों में शीतवीर्य तथा शीतस्पर्श द्रव का आश्चोतन कराना चाहिए।
निवातस्थस्य वामेन पाणिनोन्मील्य लोचनम् ॥२॥
शुक्तौ प्रलम्बयाऽन्येन पिचुवा कनीनिके।
दश द्वादश वा बिन्दून् द्वयगुलादवसेचयेत् ॥३॥
ततः प्रमृज्य मृदुना चैलेन, कफवातयोः।
अन्येन कोष्णपानीयप्लुतेन स्वेदयेन्मृदु॥४॥
आश्चोतन-विधि—नेत्ररोगी को निवातस्थान ( जहाँ सीधा हवा का प्रकोप न हो ) में लिटाकर चिकित्सक अपने बाँये हाथ से उसकी आँख को खोलकर दाहिने हाथ से लम्बी सीप में रखी हुई औषधि को अथवा दूसरी पिचु (रुई के फाहा ) की बत्ती से दोनों नेत्रों की कनीनिकाओं (नासिका के समीप के नेत्रसन्धियों) को दो अंगुल ऊपर से १० या १२ बूंदों से सींचे। तदनन्तर मुलायम तथा साफ वस्त्र से उसे साफ कर दे। यदि कफज अथवा वातज विकार हो तो गुनगुने जल में भिगाये हुए दूसरे फाहा से हलका-सा नेत्रों के ऊपर स्वेदन करना चाहिए।।२-४।।
वक्तव्य—'च्युतिर् क्षरणे' धातु का अर्थ बूंद-बूंद गिरना, टपकना, बहना तथा रिसना आदि होता है, किन्तु सेचन-क्रिया भी इसी से सम्बन्धित है। जैसे—नेत्रों पर पोटली रखना, धारा गिराना आदि ये सब उसी के अर्थ हैं। ऊपर महर्षि वाग्भट ने 'शुक्तौ प्रलम्बया' पाठ स्वीकार कर द्रविड़ प्राणायाम किया है और श्रीहेमाद्रि ने उसका 'शुक्तिस्थद्रवनिमग्नार्द्धया' यह अर्थ किया है। यदि यहाँ 'शुक्त्या' पाठ स्वीकार कर लिया जाय तो 'प्रलम्बया' इसका विशेषण हो जायेगा। 'अन्येन' पद का अर्थ है—'दक्षिणकरेण'। रक्तज-पित्तज विकारों में स्वेदन कर्म का निषेध है, अत: नेत्रों का प्रक्षालन गुनगुना जल में भिगाये हुए रुई के फाहा या सुकोमल वस्त्र से करना चाहिए।
अत्युष्णतीक्ष्णं रुग्रागदृङ्नाशायाक्षिसेचनम्।
अतिशीतं तु कुरुते निस्तोदस्तम्भवेदनाः॥५॥
कषायवर्त्मतां घर्ष कृच्छ्रादुन्मेषणं बहु।
विकारवृद्धिमत्यल्पं संरम्भमपरिस्रुतम्॥६॥
आश्चोतन का निषेध-अधिक गरम अथवा अधिक तीक्ष्ण द्रव्यों से निर्मित अक्षिसेचन (आश्चोतन ) के प्रयोग से आँखों में पीड़ा, लालिमा की उत्पत्ति तथा दृष्टिनाश का कारण हो जाता है। इसके विपरीत अत्यन्त शीतवीर्य वाले द्रव्यों से निर्मित या स्पर्श में अत्यन्त शीतल आश्चोतन के प्रयोग से आँखों में चुभन, जकड़न, विविध प्रकार की वेदनाएँ होना, वर्मों में रूक्षता, पलकों का आपस में सट जाना तथा अत्यन्त कठिनाई से पलकों का खुलना—अधिक आश्चोतन करने के कारण ये लक्षण हो जाते हैं और बहुत कम मात्रा में किया गया आश्चोतन नेत्रविकारों को बढ़ाता है। आश्चोतन करने के बाद आँखों में से द्रव का न निकालना आँखों में शोथ को उत्पन्न करता है।।५-६।।
वक्तव्य-अन्य संहिताओं में नेत्ररोगनाशक उपचारों में सेचन, आश्चोतन, पिण्डिका-विधान, बिडालक-विधि, तर्पण, अंजन, वर्ति आदि का विधान दिया गया है। प्रस्तुत संहिता में बिडालक-विधि का उल्लेख नहीं हुआ है। बिडालक-परिचय-बरौनियों को छोड़कर आँख की पलकों में जो लेप किया जाता है, उसे बिडालक कहते हैं। इसकी मोटाई तथा धारणकाल मुखलेप के समान होता है। इसका प्रयोग केवल दिन में, वह भी प्रातःकाल करें।
गत्वा सन्धिशिरोघ्राणमुखस्रोतांसि भेषजम्।
ऊर्ध्वगान्नयने न्यस्तमपवर्तयते मलान् ॥७॥
आश्चोतन के लाभ—आश्चोतन क्रिया द्वारा नेत्रों में डाला गया औषधद्रव नेत्रसन्धियों, सिर, नासिका तथा मुख से सम्बन्धित स्रोतों में पहुँचकर जत्रु से ऊपरी भागों के मलों को बाहर की ओर निकाल देता है।।७।।
अथाञ्जनं शुद्धतनोर्नेत्रमात्राश्रये मले।
पक्वलिङ्गेऽल्पशोफातिकण्डूपैच्छिल्यलक्षिते ॥८॥
मन्दघर्षाश्रुरागेऽक्षिण प्रयोज्यं घनदूषिके।
आर्ते पित्तकफासृग्भिर्मारुतेन विशेषतः॥९॥
अञ्जन-प्रयोग के लाभ- अब यहाँ से अञ्जन का वर्णन प्रारम्भ किया जाता है। अञ्जन-प्रयोग का काल—वमन-विरेचन द्वारा शिरःप्रदेश के शुद्ध हो जाने के बाद जब मल (दोष-विशेष ) केवल नेत्र में स्थित हो और जब उसके परिपक्व होने के लक्षण दिखलायी दें, तब अञ्जन का प्रयोग करें। दोष या दोषों के परिपक्व हो जाने के लक्षण—पहले की अपेक्षा शोथ (सूजन ) में कमी का दिखलायी देना, खुजली की अधिकता, चिपचिपापन का होना, घर्ष (आँख का गड़ना या बालू की जैसी करकराहट) में कमी का होना तथा आँखों में लालिमा का कम होना और आँख के मैल का गाढ़ा होकर निकलना। इनके अतिरिक्त पित्त, कफ तथा रक्त दोष से पीड़ित नेत्रों में, विशेष रूप से वातदोष से पीड़ित नेत्रों में अञ्जन का प्रयोग करना चाहिए।।८-९॥
वक्तव्य-ऊपर के श्लोकों में कहे गये लक्षण सामदोष तथा निरामदोष दोनों के हैं। दूसरे आचार्यों ने अपनी सम्मति इस प्रकार प्रकट की है कि साम-नेत्ररोगों में अञ्जन का प्रयोग न करें और निराम-नेत्ररोगों में अञ्जन का प्रयोग करें, इस प्रकार का वचन युक्तिसंगत है। इसके लिए आप देखें—साम-नेत्ररोग के लक्षण-अधिक वेदना, लालिमा, शोथ, घर्ष, चुभन, शूल तथा अश्रुप्रवाह। निराम-नेत्ररोग के लक्षण—वेदना में कमी, मन्द कण्डू, आँसुओं का कम गिरना तथा आँखों का साफ दिखलायी देना।
लेखनं रोपणं दृष्टिप्रसादनमिति त्रिधा ।
अञ्जनं-
अंजन के तीन भेद—कार्यभेद से अंजन तीन प्रकार का होता है—१. लेखन, २. रोपण और ३. दृष्टिप्रसादन।
–लेखनं तत्र कषायाम्लपटूषणैः॥१०॥
लेखन अंजन—यह कसैले, खट्टे, नमकीन तथा कटुरस-प्रधान द्रव्यों द्वारा बनाया जाता है।। १० ।।
रोपणं तिक्तकैव्यैः-
रोपण अंजन—तिक्तरस-प्रधान द्रव्यों द्वारा रोपण अंजन का निर्माण किया जाता है।
-स्वादुशीतैः प्रसादनम् ।
तीक्ष्णाञ्जनाभिसन्तप्ते नयने तत्प्रसादनम् ॥११॥
प्रयुज्यमानं
लभते प्रत्यञ्जनसमाह्वयम्।
प्रसादन अंजन-मधुररस-प्रधान तथा शीतवीर्य द्रव्यों से निर्मित अंजन को प्रसादन अंजन कहते हैं।
प्रत्यञ्जन—तीक्ष्ण ( लेखन ) अंजन का प्रयोग करने से सन्तप्त ( जिसमें जलन हो रही हो ) नेत्र में जलन की शान्ति के लिए चूर्ण रूप जिस अंजन का प्रयोग किया जाता है, उसे प्रत्यञ्जन कहते हैं।। ११ ।।
वक्तव्य-'प्रसादन अंजन' को 'स्नेहन अंजन' भी कहा गया है। अंजन के अन्य तीन भेद इस प्रकार हैं—१. गुटिका, जैसे—चन्द्रोदयावर्ति आदि। २. रस, जैसे—नेत्रबिन्दु आदि और ३. चूर्ण, सुरमा आदि। प्रत्यञ्जन का प्रयोग स्वस्थ नेत्रों में प्रतिदिन किया जा सकता है। इसे देखें-अ.सं.सू. ३२।८ ।
दशाङ्गुला तनुर्मध्ये शलाका मुकुलानना ॥१२॥
प्रशस्ता, लेखने ताम्री, रोपणे काललोहजा।
अङ्गुली च, सुवर्णोत्था रूप्यजा च प्रसादने॥१३॥
अञ्जन-शलाका—इसकी लम्बाई १० अंगुल, मध्य भाग कुछ मोटाई युक्त तथा अगला भाग गोल होना चाहिए। लेखन अंजन लगाने के लिए ताँबा की, रोपण अंजन लगाने के लिए काललौह ( इस्पाती लोह ) की शलाका अथवा अंगुली और प्रसाद अंजन लगाने के लिए सोने की अथवा चाँदी की शलाका (सलाई ) होनी चाहिए। शलाका के अभाव में सभी अंजन अंगुली से लगाये जा सकते हैं।। १२-१३ ।।
वक्तव्य-बरेली के बाजार में अथवा सर्वत्र शृंगार-साधन की दूकानों में विभिन्न धातुओं की सलाई सहित सुरमादानियाँ मिलती हैं। प्रायः मटर या राजमाष की गोलाई के समान मोटी सलाई सुरमा लगाने के लिए उत्तम मानी जाती है। सलाई का चिकना होना अति आवश्यक होता है। सुरमादानी तथा सलाई सोना, चाँदी, पीतल, कांसा, जस्ता ( यशद), शीशा तथा काँच की बनायी जाती हैं। सुरमा के साथ उक्त धातुओं का भी उपयोग नेत्रों को लाभ पहुंचाता है। इसके लिए धातुओं के गुण-धर्मों पर विचार करें।
पिण्डो रसक्रिया चूर्णस्त्रिधैवाञ्जनकल्पना ।
गुरौ मध्ये लघौ दोषे तां क्रमेण प्रयोजयेत् ॥१४॥
अञ्जनों की विविध कल्पना-अंजनों के निर्माण तीन प्रकार से किये जाते हैं—१. पिण्ड ( गोली या बत्ती के रूप में), २. रसक्रिया (मधु या काजल के रूप में) तथा ३. चूर्ण (नयनामृत, ममीरा का सुरमा आदि)। इनके प्रयोग-दोषों के बढ़ जाने पर पिण्ड अंजनों का, मध्यम दोष होने पर रसक्रिया का तथा लघु दोष में चूर्ण रूप में प्रयुक्त होने वाले अंजनों का प्रयोग करना चाहिए।।१४।।
हरेणुमात्रा पिण्डस्य वेल्लमात्रा रसक्रिया।
तीक्ष्णस्य, द्विगुणं तस्य मृदुनः-
अञ्जनों की मात्रा–तीक्ष्ण पिण्ड (वर्ति ) रूप अंजन की मात्रा हरेणु ( बड़े चने ) के बराबर, रसक्रिया नामक अंजन की मात्रा वेल्ल (वायविडंग ) के बराबर होती है। मृदु पिण्ड अंजन की मात्रा दो हरेणु के बराबर और मृदु रसक्रिया नामक अंजन की मात्रा दो वेल्ल के बराबर होती है।
-चूर्णितस्य च ॥१५॥
द्वे शलाके तु तीक्ष्णस्य, तिस्रस्तदितरस्य च।
तीक्ष्ण अञ्जनों की मात्रा—तीक्ष्ण चूर्ण अंजन की मात्रा दो सलाई में जितना चूर्ण ( सुरमा या अंजन ) उठ जाय उतनी मात्रा होती है तथा मृदु चूर्णाञ्जन की मात्रा तीन सलाईभर होती है।। १५ ।।
वक्तव्य-कुछ संस्करणों में इसका पाठभेद मिलता है, किन्तु अर्थ की दृष्टि से दोनों पाठ समान नहीं हैं।
निशिस्वप्ने न मध्याह्नेम्लाने नोष्णगभस्तिभिः॥१६॥
अक्षिरोगाय दोषाः स्युर्वर्धितोत्पीडितद्रुताः।
प्रातः सायं च तच्छान्त्यै व्यभ्रेऽर्केडतोऽञ्जयेत्सदा ॥
अञ्जनप्रयोग-निर्देश—रात में, सोते समय, दोपहर में, सूर्य की तेज किरणों से आँखों के मलिन होने पर अंजन का प्रयोग न करें; क्योंकि उक्त अवसरों तथा स्थितियों में दोष बढ़े रहते हैं, उत्पीडित तथा पिघले हुए रहते हैं। अतः इन समयों में अंजन का प्रयोग करने से अंजन नेत्ररोगों को पैदा करने में कारण हो सकते हैं। अतएव नेत्ररोगों की शान्ति के लिए प्रतिदिन प्रातःकाल, सायंकाल तथा जब आकाश में बादल छाये न हों तब अंजन-प्रयोग करना चाहिए।१६-१७।।
वदन्त्यन्ये तु न दिवा प्रयोज्यं तीक्ष्णमञ्जनम्।
विरेकदुर्बलं चक्षुरादित्यं प्राप्य सीदति ॥१८॥
अन्य आचार्यों का मत—अंजन-प्रयोग के सन्दर्भ में आचार्यों का मतभेद—कुछ आचार्यों का कथन है कि तीक्ष्ण अंजन का प्रयोग दिन में करना ही नहीं चाहिए, क्योंकि तीक्ष्ण अंजन को दिन में लगाने से आँखों से आँसुओं का अधिक स्राव हो जाने पर आँखें दुर्बल पड़ जाती हैं। इस स्थिति में वे सूर्य के प्रकाश को पाकर पीड़ित हो जाती हैं।।१८।।
स्वप्नेन रात्रौ कालस्य सौम्यत्वेन च तर्पिता ।
शीतसात्म्या दृगाग्नेयी स्थिरतां लभते पुनः॥१९॥
तीक्ष्णाञ्जन का रात्रि-प्रयोग—रात्रि में सोने से तथा काल के सोमगुणसम्पन्न होने से तृप्त हुई आग्नेय गुण-प्रधान होने पर भी शीतसात्म्य गुणवाली आँखें तीक्ष्ण अंजन द्वारा विरिक्त होने पर भी पुनः स्थिरता को प्राप्त कर लेती हैं।।१९।।
अत्युद्रिक्ते बलासे तु लेखनीयेऽथवा गदे।
काममयपि नात्युष्णे तीक्ष्णमक्षिण प्रयोजयेत् ॥२०॥
उष्णकाल में तीक्ष्णाञ्जन-निषेध–कफदोष की अधिक वृद्धि होने पर अथवा लेखनीय नेत्ररोग होने पर दिन में तीक्ष्ण अंजन का प्रयोग समशीतोष्ण ऋतुओं में भले ही कर लें, परन्तु अत्यन्त उष्णकाल में कभी भी दिन में तीक्ष्णांजन का प्रयोग न करें।।२०।।
अश्मनो जन्म लोहस्य तत एव च तीक्ष्णता।
उपघातोऽपि तेनैव तथा नेत्रस्य तेजसः॥२१॥
लौह एवं नेत्र की समानता—जिस प्रकार लौहधातु की उत्पत्ति पत्थर से होती है, उस पत्थर से ही उस लौह में तीक्ष्णता भी आती है और वह लौहधातु पत्थर के उपघात ( चोट ) से टूट भी जाता है; ठीक यही स्थिति नेत्र की उत्पत्ति आदि की है। यथा—नेत्र की उत्पत्ति तेजस् तत्त्व से होती है, उसमें जो तेजोमयता अर्थात् तीक्ष्णता होती है, वह भी तेजस् तत्त्व से ही होती है और वह नेत्र का उपघात ( विनाश ) भी तेजस् तत्त्व से ही होता है।।२१।।
वक्तव्य-नेत्र का यह आलंकारिक परिचय हमें यह समझा रहा है कि तेजोगुण-प्रधान नेत्र में कभी भी दिन में उसमें भी उष्णकाल में तीक्ष्णाञ्जन का प्रयोग नहीं करना चाहिए। इसी से मिलता-जुलता एक उदाहरण ज्योतिषशास्त्र में है—'त्रिज्येष्ठं नैव युक्तं कदापि' । अर्थात् वर-वधू अपने-अपने घर में सबमें बड़े हों तो उनका विवाह ज्येष्ठ में न करें। यहाँ भी 'तेजसः' से सम्बन्ध है, अस्तु ।
न रात्रावपि शीतेऽति नेत्रे तीक्ष्णाञ्जनं हितम्।
दोषमस्रावयेत्स्तब्धं कण्डूजाड्यादिकारि तत् ॥
तीक्ष्ण अञ्जन का निषेध-अधिक शीतकाल में रात के समय में भी तीक्ष्ण अंजन हितकारक नहीं होता, क्योंकि शीतकाल में कालप्रभाव से जमे हुए दोष को वह अंजन निकाल तो पाता नहीं, इसके विपरीत वह नेत्र में स्तब्धता, खुजली तथा जड़ता आदि विकारों को पैदा कर देता है॥२२॥
नाञ्जयेदीतवमितविरिक्ताशितवेगिते ।
क्रुद्धज्वरिततान्ताक्षिशिरोरुक्शोकजागरे ॥२३॥
अदृष्टेऽर्के शिरःस्नाते पीतयो—ममद्ययोः।
अजीर्णेऽग्न्यर्कसन्तप्ते दिवासुप्ते पिपासिते॥२४॥
अञ्जन के अयोग्य व्यक्ति–भयभीत पुरुष, जिसने अभी वमन किया हो, जिसने अभी विरेचन किया हो, जिसने तत्काल भोजन किया हो, मल-मूत्र आदि के वेग के समय, क्रोध की स्थिति में, ज्वर होने पर, तान्त (सूक्ष्मदर्शन, तेजोमय पदार्थों को देखने के बाद अथवा अभिघात) होने पर, नेत्ररोग में, शिरोरोग में, शोक की स्थिति में, अधिक जागरण होने पर, सूर्य के ढके होने पर, शिरःस्नान करने के बाद, धूमपान तथा मद्यपान करने पर, अजीर्ण की स्थिति में, आग या सूर्य से आँखों के सन्तप्त होने पर, दिन में सोने के बाद तथा प्यास लगी हो उस समय भी अंजन का प्रयोग नहीं करना चाहिए।।२३-२४।।
वक्तव्य-उक्त व्यक्तियों को अंजन का प्रयोग क्यों नहीं करना चाहिए, यदि कर दिया जाता है तो उसका क्या प्रतिफल होता है, इसका विवेचन सु.उ. १८।६८ से ७४ तक दिया गया है, देखें।
अतितीक्ष्णमृदुस्तोकबह्वच्छघनकर्कशम् ।
अत्यर्थशीतलं तप्तमञ्जनं नावचारयेत् ॥२५॥
निषिद्ध अंजन का वर्णन—अतितीक्ष्ण, अत्यन्त मृदु, बहुत कम, बहुत अधिक, अत्यन्त द्रव, बहुत गाढ़ा, कर्कश (खुरदरा), अत्यन्त शीतल तथा अत्यन्त तपा हुआ ( गरम ) इस प्रकार के अंजन प्रयोग करने योग्य नहीं होते, अतएव इन्हें निषिद्ध कहा गया है।। २५ ।।
अथानुन्मीलयन् दृष्टिमन्तः सञ्चारयेच्छनैः।
अञ्जिते वर्त्मनी किञ्चिञ्चालयेच्चैवमञ्जनम् ॥२६॥
तीक्ष्णं व्याप्नोति सहसा, न चोन्मेषनिमेषणम्।
निष्पीडनं च वर्त्मभ्यां क्षालनं वा समाचरेत् ।।
अंजन-प्रयोगविधि—अंजन लगाने के बाद पलकों को बिना खोले हुए नेत्रगोलक को धीरे-धीरे भीतर-ही-भीतर नीचे, ऊपर, दाहिने तथा बायें घुमाता रहे और थोड़ा-थोड़ा पलकों को भी कुछ-कुछ टपटपाता रहे। इस प्रकार करने से आँख में लगाया हुआ अंजन आँख के चारों ओर फैल जाता है। विशेष करके यह विधि तीक्ष्ण अंजन के प्रयोग की है। अंजन लगाने के तत्काल बाद सहसा उन्मेष (पलक को उठाना) तथा निमेष (पलक को गिराना) क्रिया नहीं करनी चाहिए। आँख की पलकों द्वारा अक्षिगोलक को दबाना अथवा आँख को धोना नहीं चाहिए।।२६-२७।।
वक्तव्य—अंजन लगाने की सुश्रुतसम्मत विधि को देखें—सु.उ. १८।६४-६५ ।
अपेतौषधसंरम्भं निर्वृतं नयनं यदा।
व्याधिदोषर्तुयोग्याभिरद्भिः प्रक्षालयेत्तदा ॥२८॥
नेत्र-प्रक्षालनविधि—अंजन लगाने के बाद जब औषध का लगना एवं गड़ना बन्द हो जाय तब रोग, दोष, ऋतु (काल) के अनुकूल अर्थात् शीतकाल में गुनगुने जल से तथा गर्मी में शीतल जल से नेत्र को धो देना चाहिए।।२८।।
दक्षिणामुष्ठकेनाक्षि ततो वामं सवाससा ।
ऊर्ध्ववर्त्मनि सङ्ग्रह्य शोध्यं वामेन चेतरत्॥२९॥
नेत्र-शोधनविधि—उसके बाद दाहिने अँगूठा पर कोमल एवं साफ वस्त्र लपेट कर उससे बायें नेत्र के ऊपर के पलक को पकड़ कर उसे साफ कर देना चाहिए और वस्त्र लपेटे हुए बायें अँगूठा से उसके दाहिने नेत्र के ऊपर के पलक को पकड़ कर दाहिने नेत्र को साफ कर देना चाहिए।। २९ ।।
वर्त्मप्राप्तोऽञ्जनाद्दोषो रोगान् कुर्यादतोऽन्यथा।
नेत्र-शोधन में हेतु-अंजन का प्रयोग करने के पश्चात् उक्त विधि से प्रक्षालन (धोना ) तथा शोधन न करने से पलकों के भीतर बचे हुए अंजन से कुपित हुए दोष रोगों को उत्पन्न कर देते हैं।
वक्तव्य—इसका स्पष्टीकरण देखें—'अति विरेकात् 'दौर्बल्यानि' । (अ.सं.सू. ३२।१९)
कण्डूजाड्येऽञ्जनं तीक्ष्णं धूमं वा योजयेत् पुनः॥३०॥
तीक्ष्णाञ्जन या धूमपान—यदि नेत्रमण्डल में खुजली अथवा जड़ता का अनुभव हो रहा हो तो तीक्ष्ण अंजन का अथवा तीक्ष्ण धूमपान का प्रयोग कराना चाहिए।॥३०॥
तीक्ष्णाञ्जनाभितप्ते तु चूर्णं प्रत्यञ्जनं हिमम्॥३१॥
इति श्रीवैद्यपतिसिंहगुप्तसूनुश्रीमद्वाग्भटविरचितायामष्टाङ्गहृदयसंहितायां
प्रथमे सूत्रस्थान आश्चोतनाञ्जनविधिर्नाम त्रयोविंशोऽध्यायः ॥२३॥
प्रत्यञ्जन का वर्णन—तीक्ष्ण अञ्जन का प्रयोग करने पर यदि आँख में जलन प्रतीत हो रही हो तो चूर्ण ( सुरमा ) का प्रत्यञ्जन करना चाहिए।।३१ ।।
वक्तव्य-प्रतिदिन आँख में जो सुरमा लगाया जाता है, इसी को प्रत्यञ्जन कहते हैं। देखें—अ.हृ.सू. २।५। नेत्र से खूब आँसू गिरे इसके लिए रसाञ्जन का प्रयोग एक-एक सप्ताह में करना चाहिए। सुश्रुत में भी देखें-सु.उ. १८।६८।
इस प्रकार वैद्यरत्न पण्डित तारादत्त त्रिपाठी के पुत्र डॉ० ब्रह्मानन्द त्रिपाठी द्वारा विरचित निर्मला हिन्दी व्याख्या, विशेष वक्तव्य आदि से विभूषित अष्टाङ्गहृदय-सूत्रस्थान में आश्चोतनाञ्जनविधि नामक तेईसवाँ अध्याय समाप्त ॥२३ ।।
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