स्वास्थ्य-चिकित्सा >> अष्टांगहृदय अष्टांगहृदयवाग्भट
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आयुर्वेद के स्तम्भ ग्रंथ अष्टांगहृदय का पहला भाग
द्वाविंशोऽध्यायः
अथातो गण्डूषादिविधिमध्यायं व्याख्यास्यामः ।
इति ह स्माहुरात्रेयादयो महर्षयः ।
अब हम यहाँ से गण्डूष, कवल आदि की विधि नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे। जैसा कि आत्रेय आदि महर्षियों ने कहा था।
उपक्रम—पञ्चकर्म की परिधि में आने के कारण धूमपान का वर्णन करने के अनन्तर अब इस बाईसवें अध्याय में गण्डूष (कुल्ला करना), कवलग्रह ( मुख के भीतर ग्रास या कौर की भाँति औषध-द्रव्य को रखना), प्रतिसारण, मुखालेपन, मूर्धतैल तथा कर्णपूरण विषयों का वर्णन किया जायेगा।
संक्षिप्त सन्दर्भ-संकेत—च.सू. ५; सु.चि. ४०; सु.उ. १८ तथा अ.सं.सू. ३१ में देखें।
चतुष्प्रकारो गण्डूषः स्निग्धः शमनशोधनौ।
रोपणश्च-
गण्डूष के भेद—यह चार प्रकार का होता है—१. स्निग्ध (जो मुख के भीतरी अवयवों को चिकना कर देता है), २. शमन (दोषशामक), ३. शोधन तथा ४. रोपण ( मुख के भीतर उत्पन्न घावों तथा छालों को भर देने वाला)।
-त्रयस्तत्र त्रिषु योज्याश्चलादिषु॥१॥
अन्त्यो व्रणघ्नः-
गण्डूषों के प्रयोग—प्रथम तीन गण्डूष वात आदि दोषों में इस प्रकार प्रयुक्त होते हैं—स्निग्ध गण्डूष वातदोष में, शमन गण्डूष पित्तदोष में, शोधन गण्डूष कफदोष में और अन्तिम रोपण गण्डूष मसूड़ा, जीभ एवं तालुप्रदेश में उत्पन्न व्रणों (घावों) को भरने के लिए होता है।।१।।
-स्निग्धोऽत्र स्वादुम्लपटुसाधितैः।
स्नेहैः-
स्निग्ध गण्डूष—यह मधुररस तथा अम्लरस प्रधान द्रव्यों एवं विविध प्रकार के लवणों के संयोग से पकाये गये तैल, घृत, वसा आदि स्नेहों से तैयार किया जाता है।
-संशमनस्तिक्तकषायमधुरौषधैः॥२॥
शमन गण्डूष—यह तिक्त, कषाय तथा मधुररस-प्रधान औषध-द्रव्यों के क्वाथों से तैयार कराकर प्रयोग किया जाता है। इनमें औषधद्रव्य का चुनाव चिकित्सक पर निर्भर होता है।॥२॥
शोधनस्तिक्तकट्वम्लपटूष्णैः
शोधन गण्डूष—इसका निर्माण तिक्त ( नीम आदि), कटु (सोंठ, मरिच, पिप्पली आदि), अम्ल, लवण तथा उष्णवीर्य द्रव्यों के संयोग से किया जाता है।
-रोपणः पुनः।
कषायतिक्तकैः-
रोपण गण्डूष—इसका निर्माण कसैले तथा तिक्तरस-प्रधान द्रव्यों के संयोग से किया जाता है।
-तत्र स्नेहः क्षीरं मधूदकम् ।।३।।
शुक्तं मद्यं रसो मूत्रं धान्याम्लं च यथायथम् ।
कल्कैर्युक्तं विपक्वं वा यथास्पर्श प्रयोजयेत् ॥४॥
गण्डूषों में द्रव्य-योग-उक्त चार प्रकार के गण्डूषों में घी-तेल आदि स्नेह, गाय का दूध, मधु और जल का घोल, विभिन्न प्रकार के सिरके, मद्य, मांसरस अथवा औषधद्रव्यों के स्वरस, विभिन्न मूत्र और धान्याम्ल ( काँजी)-इनका रोग के अनुसार विविध प्रकार के कल्कों से युक्त या क्वाथों से युक्त उष्णस्पर्श अथवा शीतस्पर्श युक्त द्रव्यों का प्रयोग करना चाहिए।। ३-४।।
दन्तहर्षे दन्तचाले मुखरोगे च वातिके।
सुखोष्णमथवा शीतं तिलकल्कोदकं हितम्॥५॥
गण्डूषधारणे-
रोगानुसार गण्डूष-प्रयोग—दन्तहर्ष (दाँतों में पानी लगने ) में, दाँतों के हिलने में तथा वातज मुखरोगों में गुनगुना अथवा शीतल तिलकल्क से युक्त जल का गण्डूष ( कुल्ली या कुल्ला ) करना लाभदायक होता है।॥५॥
—नित्यं तैलं मांसरसोऽथवा।
स्वस्थ के लिए गण्डूष-स्वस्थ व्यक्ति के लिए प्रतिदिन कडुवा तैल का अथवा मांसरस का गण्डूष करना हितकर होता है।
ऊषादाहान्विते पाके क्षते चागन्तुसम्भवे॥६॥
विषे क्षाराग्निदग्धे च सर्पिर्धाएं पयोऽथवा।
घी या दूध का गण्डूष—मिर्च या मिर्चा की जलन में, दाह युक्त मुखपाक में, आगन्तुज क्षत में, विषप्रयोग के कारण होने वाले दाह में, क्षार से अथवा आग से जल जाने पर मुख के भीतर धी अथवा शीतल दूध का गण्डूष धारण करना चाहिए।।६।।
वैशद्यं जनयत्याशु सन्दधाति मुखे व्रणान् ॥७॥
दाहतृष्णाप्रशमनं
मधुगण्डूषधारणम्।
मधु का गण्डूष-प्रयोग—मधु अथवा मधु युक्त जल का गण्डूष धारण करने से मुख में स्वच्छता आ जाती है। मुख के भीतर उत्पन्न घावों को यह भर देता है और यह दाह एवं प्यास को शान्त कर देता है।॥ ७॥
धान्याम्लमास्यवैरस्यमलदौर्गन्ध्यनाशनम् ॥८॥
लवण युक्त काञ्जी के गण्डूष—लवण युक्त काँजी के गण्डूष मुख के फीकेपन को, मुख के भीतर की गन्दगी तथा दुर्गन्धि को नष्ट करते हैं।। ८॥
तदेवालवणं शीतं मुखशोषहरं परम्।
लवण रहित काञ्जी के गण्डूष-लवण रहित काँजी के गण्डूष शीतल होने के कारण मुख की जलन को तथा मुखशोष ( मुख का बार-बार सूखना ) का नाश करते हैं।
आशु क्षाराम्बुगण्डूषो भिनत्ति श्लेष्मणश्चयम् ॥९॥
क्षाराम्बु गण्डूष-चूना आदि क्षार मिले हुए जल के गण्डूष मुख के भीतर संचित कफ को निकाल देते हैं॥९॥
सुखोष्णोदकगण्डूषैर्जायते वक्त्रलाघवम्।
सुखोष्णोदक गण्डूष—गुनगुने जल के गण्डूष करने से मुख के भीतर हलकापन आ जाता है।
निवाते सातपे स्विन्नमृदितस्कन्धकन्धरः॥१०॥
गण्डूषमपिबन् किश्चिदुन्नतास्यो विधारयेत् ।
गण्डूष करने की विधि—हवा रहित स्थान में तथा जहाँ धूप लग रही हो ऐसे स्थान में बैठकर कन्धों तथा गरदन पर स्वेदन कराने के बाद मर्दन कराकर गण्डूषद्रव को बिना पिये मुख को उठाकर धारण करे। ऐसा करने से उस गण्डूषद्रव का प्रभाव गले के छिद्र से लेकर सम्पूर्ण मुखगुहा पर पड़ता रहेगा।।१०।।
कफपूर्णास्यता यावत्स्रवज्राणाक्षताऽथवा ॥११॥
गण्डूष-धारण की अवधि—जब तक मुख के भीतर पूरा कफ न भर जाय और जब तक नासिका तथा आँखों से स्राव न होने लग जाय, तब तक उस गण्डूष को मुख में रखें, फिर थूक दें। ऐसा ५ अथवा ७ बार करें ।।११॥
असञ्चार्यो मुखे पूर्णे गण्डूषः,
कवलोऽन्यथा।
गण्डूष एवं कवल परिभाषा—गण्डूष में औषधद्रव से पूरा मुख इतना भर लिया जाता है कि वह फिर मुख के भीतर हिलाया नहीं जा सकता, इसे 'गण्डूष' कहते हैं और ‘कवल' उसे कहते हैं जो द्रव मुख में भर लेने पर इधर-उधर हिलाया जा सके। यही दोनों में भेद है।
वक्तव्य—शार्ङ्गधराचार्य का कथन है कि द्रव द्रव्य से 'गण्डूष' और कल्क द्रव्य से 'कवल' प्रयोग किया जाता है। पान को मुख में लेकर बहुत समय तक रखना या घुलाना यह ‘कवल' का ही एक भेद है। ‘कवल' का एक पर्याय 'ग्रास' (कौर ) भी है।
मन्याशिरःकर्णमुखाक्षिरोगाः प्रसेककण्ठामयवक्त्रशोषाः॥१२॥
हृल्लासतन्द्रारुचिपीनसाश्च साध्या विशेषात्कवलग्रहेण ।
कवल-धारण के लाभ–मन्यास्तम्भ, शिरोरोग, कर्णरोग, मुखरोग, नेत्ररोग, लालाम्राव, कण्ठरोग, मुखशोष, हृल्लास ( जी मिचलाना ), तन्द्रा ( उँघाई), भोजन के प्रति अरुचि एवं प्रतिश्याय नामक रोग कवलधारण करने पर सुखसाध्य होते हैं।। १२ ।।
कल्को रसक्रिया चूर्णस्त्रिविधं प्रतिसारणम् ॥१३॥
प्रतिसारण के भेद-प्रतिसारण ( मंजन ) तीन प्रकार का होता है—१. कल्क, २. रसक्रिया तथा ३. चूर्ण ।। १३ ॥
वक्तव्य-प्रतिसारण शब्द की निष्पत्ति इस प्रकार है-'प्रति + सृ + णिच् + ल्युट्। इसका अर्थ है- मंजन, मलहम लगाना आदि। इसका उल्लेख सु. चि. २२ (मुखरोग-चिकित्सा) में अनेक स्थलों में आया है। देखें—श्लोक ५, १३, १४, २० आदि। कल्क = चटनी। रसक्रिया—'क्वाथादीनां पुनः क्वाथाद् घनत्वं सा रसक्रिया' । अर्थात् क्वाथ किये गये रस को पकाते-पकाते गाढ़ा (अवलेह जैसा) करना। चूर्ण-सूखे द्रव्यों को कूट-छानकर तैयार किये गये द्रव्य को चूर्ण कहते हैं। जैसे—त्रिफला के क्वाथ से गण्डूष, कल्क से कवल, चूर्ण से प्रतिसारण और रसक्रिया का मलहम की भाँति प्रयोग।
युज्यात्तत् कफरोगेषु गण्डूषविहितौषधैः।
प्रतिसारण का प्रयोग——गण्डूष के लिए निर्दिष्ट औषधद्रव्यों द्वारा निर्मित प्रतिसारणों का प्रयोग कफजनित मुखरोगों में करना चाहिए।
मुखालेपस्त्रिधा दोषविषहा वर्णकृच्च-
मुखालेप के तीन भेद—मुखमण्डल पर लगाने योग्य लेप तीन प्रकार का होता है—१. दोषहा—वात आदि दोषों का नाशक, २. विषहा—विषविकारनाशक तथा ३. वर्णकृत्-मुखमण्डल की सुन्दरता को बढ़ाने वाला।
-सः॥१४॥
उष्णो वातकफे शस्तः, शेषेष्वत्यर्थशीतलः।
मुखालेप का उपयोग—वह ( मुखालेप) वातज तथा कफज विकारों में उष्णवीर्य औषधद्रव्यों द्वारा बनाकर गरम करके लगाया जाता है। शेष (विषनाशक तथा वर्णकारक) स्थितियों में शीतवीर्य द्रव्यों से तैयार करके शीतल ही लगाया जाता है।।१४।।
त्रिप्रमाणश्चतुर्भागत्रिभागा ङ्गुलोन्नतिः ॥१५॥
मुखालेप का प्रमाण—उस मुखालेप की मोटाई के तीन प्रमाण हैं— १. चौथाई अंगुल मोटा, २. तिहाई अंगुल मोटा तथा ३. आधा अंगुल मोटा ।। १५ ।।
अशुष्कस्य स्थितिस्तस्य, शुष्को दूषयतिच्छविम्।
तमायित्वाऽपनयेत्तदन्तेऽभ्यङ्गमाचरेत् ॥
लेप सम्बन्धी निर्देश—जब तक वह लेप गीला हो तब तक उसे लगा रहने दें, सूखने पर उसे उतार दें। क्योंकि सूख जाने पर लेप को उतारने से मुख की छवि मलिन पड़ जाती है। यदि लेप सूख जाय तो उसे गीला करके हटाना चाहिए और उसे हटाकर लेप लगे स्थान पर अभ्यंग लगाना चाहिए।।१६।।
विवर्जयेद्दिवास्वप्नभाष्याग्न्यातपशुक्क्रुधः ।
मुखालेप में अपथ्य-जब तक मुख में लेप लगा रहे तब तक दिन में सोना, अधिक बोलना, आग सेंकना, धूप सेंकना, शोक करना तथा क्रोध करना अपथ्य है। अतः इन्हें छोड़ देना चाहिए।
न योज्यः पीनसे जीर्णे दत्तनस्ये हनुग्रहे ॥१७॥
अरोचके जागरिते-
मुखालेप का निषेध-पीनसरोग में, अजीर्ण में, नस्य का प्रयोग करने पर, हनुग्रहरोग में, अरोचक में तथा रात को अधिक जागने पर मुखालेप का प्रयोग नहीं करना चाहिए।१७।।
–स तु हन्ति सुयोजितः।
अकालपलितव्यङ्गवलीतिमिरनीलिकाः॥१८॥
मुखालेप का सम्यग्योग—इससे अकालपलित (असमय में बालों का पक जाना), व्यंग, वली (मुखमण्डल पर झुर्रियों का दिखलायी पड़ना), तिमिररोग एवं नीलिकारोग ( मुख या गालों पर झाँई का दिखलायी पड़ना ) ये रोग नष्ट हो जाते हैं।। १८ ।।
कोलमज्जा वृषान्मूलं शाबरं गौरसर्षपाः।
सिंहीमूलं तिलाः कृष्णा दार्वीत्वनिस्तुषा यवाः॥
दर्भमूलहिमोशीरशिरीषमिशितण्डुलाः ।
कुमुदोत्पलकह्लारपूर्वामधुकचन्दनम् ॥२०॥
कालीयकतिलोशीरमांसीतगरपद्मकम् ।
तालीसगुन्द्रापुण्ड्राह्वयष्टीकाशनतागुरु ॥२१॥
इत्यर्द्धाोदिता लेपा हेमन्तादिषु षट् स्मृताः।
मुखालेप के ६ योग—(१) हेमन्त ऋतु में—बेर की मज्जा ( गिरी), अडूसा की जड़, पठानालोध तथा पीली सरसों का लेप। (२) शिशिर ऋतु में—सिंहीमूल (वनभण्टा की जड़), काले तिल, दारुहल्दी (किरमोड़ा) की छाल तथा भूसी निकाले हुए जौ के आटा का लेप। (३) वसन्त ऋतु में—दर्भ (डाभ) की जड़, कपूर, खस, शिरीष के बीज, सौंफ के बीज और चावल के आटा का लेप। (४) ग्रीष्म ऋतु में कुमुद (कुई ), उत्पल (नीलकमल), लालकमल, दूब, मुलेठी तथा चन्दन का लेप। (५) वर्षा ऋतु में—काला अगुरु, तिल, खस, जटामांसी, तगर तथा पद्मकाष्ठ का लेप। (६) शरद् ऋतु में तालीसपत्र, गुन्द्रपटेर, पुण्डेरिया, मुलेठी, कास (कुशभेद ) की जड़, तगर तथा अगुरु का लेप। इस प्रकार आधे-आधे श्लोकों द्वारा कहे गये इन छ: लेपों का प्रयोग क्रमशः हेमन्त आदि छः ऋतुओं में करना चाहिए ।। १९-२१ ।।
मुखालेपनशीलानां दृढं भवति दर्शनम् ॥२२॥
वदनं चापरिम्लानं श्लक्ष्णं तामरसोपमम् ।
मुखालेप से लाभ-जो प्रतिदिन मुखमण्डल के ऊपर उक्त लेपों का प्रयोग करते रहते हैं, उनकी दृष्टि ( दर्शनशक्ति ) मजबूत बनी रहती है, मुखमण्डल कभी मुरझाता नहीं, चिकना तथा कमल के सदृश सदा खिला (प्रसन्न ) रहता है।। २२ ।।
वक्तव्य-नर-नारी की प्रवृत्ति सौन्दर्योपासन के प्रति देखी जाती है। आयुर्वेदशास्त्र इसमें भी उपकारक है। इसी दृष्टिकोण को अपनाकर आज व्यवसायियों ने अनेक प्रकार के सौन्दर्य-प्रसाधन प्रस्तुत किये हैं। उनके प्रयोग करने पर कुछ हानियाँ भी होती हैं, किन्तु ये आयुर्वेदीय योग सर्वथा निर्दोष सिद्ध होते हैं।
अभ्यङ्गसेकपिचवो बस्तिश्चेति चतुर्विधम् । ॥२३॥
मूर्द्धतैलम्-
मूर्धतैल के ४ भेद-मूर्धतैल ४ प्रकार का होता है—१. अभ्यंग ( सिर पर तेल मलना), २. सेक ( सिर को तेल से सींचना), ३. पिचु (रुई के फाहा को तेल में भिगाकर माथे पर रखना ) तथा ४. शिरोबस्ति का प्रयोग।। २३॥
-बहुगुणं तद्विद्यादुत्तरोत्तरम्।
उत्तरोत्तर गुणवत्ता–उक्त चार प्रकार के जो मूर्धतैलों का ऊपर वर्णन किया है, ये उत्तरोत्तर अधिक गुणवाले होते हैं।
तत्राभ्यङ्गः प्रयोक्तव्यो रौक्ष्यकण्डूमलादिषु॥२४॥
अभ्यंग का प्रयोग-उन चारों में से अभ्यंग के प्रयोगस्थल—शिरःप्रदेश की रूक्षता, खुजली तथा मलिनता आदि में अभ्यंग का प्रयोग करना चाहिए।।२४।।
अरूंषिकाशिरस्तोददाहपाकव्रणेषु तु ।
परिषेकः-
परिषेक का प्रयोग सेक या परिषेक के प्रयोगस्थल—अरूंषिका ( सिर में उत्पन्न छोटी-छोटी फुन्सियों) में, सिर की पीड़ा में, दाह में, पाक में तथा व्रणों में तेल का परिषेक करना चाहिए।
—पिचुः केशशातस्फुटनधूपने ॥२५॥
नेत्रस्तम्भे च-
पिचु के प्रयोगस्थल-बालों के झड़ने तथा टूटने पर, सिर की त्वचा के फटने पर, धुआँ-सा निकलने का अनुभव होने पर एवं नेत्रगोलकों की जड़ता होने पर पिचु का प्रयोग करना चाहिए ।।२५।।
-बस्तिस्तु प्रसुप्त्यर्दितजागरे।
नासास्यशोषे तिमिरे शिरोरोगे च दारुणे ॥२६॥
बस्ति के प्रयोगस्थल—सिर की शून्यता, मुखप्रदेश के लकवा, निद्रानाश, नासिका तथा मुख के सूखने पर, तिमिररोग, शिरोरोग एवं दारुण नामक रोग में इसका प्रयोग करें ।। २६॥ वक्तव्य-श्रीहेमाद्रि ने 'दारुणे' शब्द का अर्थ 'तीने' करके इसे 'शिरोरोगे' का विशेषण माना है। पाठक ध्यान दें—वाग्भट ने इसका वर्णन शिरोरोगों में किया है। सुश्रुत ने निदानस्थान के १३वें अध्याय में और माधवकर ने क्षुद्ररोगनिदान श्लोक ३० में किया है। प्रसंगोचित होने से हमने यहाँ इसका स्पष्टीकरण उपस्थित किया है। इसे बोलचाल की भाषा में 'रूसी' (Dandrufe) कहते हैं।
विधिस्तस्य निषण्णस्य पीठे जानुसमे मृदौ ।
शुद्धाक्तस्विन्नदेहस्य दिनान्ते गव्यमाहिषम्॥२७॥
द्वादशाङ्गुलविस्तीर्णं चर्मपट्टं शिरःसमम्।
आकर्णबन्धनस्थानं ललाटे वस्त्रवेष्टिते॥२८॥
चैलवेणिकया बद्ध्वा माषकल्केन लेपयेत् ।
ततो यथाव्याधि शृतं स्नेहं कोष्णं निषेचयेत् ॥२९॥
ऊर्ध्वं केशभुवो यावदगुलं-
शिरोबस्ति-सेवनविधि—जिस व्यक्ति को इसका प्रयोग कराना हो, सबसे पहले उसका वमन-विरेचन आदि से शोधन कराकर स्नेहन एवं स्वेदन करे। उसके बाद सायंकाल उसे घुटनेभर ऊँचे तथा कोमल आसन (कुर्सी) पर बैठाकर बारह अंगुल चौड़ी तथा सिर की गोलाई के समान लम्बी गाय या भैंस के चमड़े की पट्टी के दोनों छोरों को कान के पास ले जाकर बाँध दें; बाँधने के पहले सिर के चारों ओर कपड़ा लपेटकर बाँधा हो। फिर उसकी दरारों अर्थात् छिद्रों को उड़द के सने हुए आटे से लीप दें। तदनन्तर रोग के अनुसार औषधकल्क को डालकर पकाये गये स्नेह को गुनगुना करके सिर के ऊपर उस शिरोबस्ति में उतना भर दें जिससे वह स्नेह केशभूमि से एक अंगुल ऊपर तक भर जाय ।। २७-२९ ।।
–धारयेच्च तम्।
आवक्त्रनासिकोत्क्लेदाद्दशाष्टौ षट् चलादिषु ॥३०॥
मात्रासहस्राण्यरुजे त्वेकं-
शिरोबस्ति-धारणकाल- -उस स्नेह को तब तक धारण करे जब तक मुख एवं नासिका से जल का स्राव न होने लग जाय और वातरोग में दस हजार मात्रा, पित्तविकार में आठ हजार मात्रा, कफरोग में छः हजार मात्रा और स्वस्थ पुरुष में एक हजार मात्रा काल तक इसे धारण करना चाहिए।३० ।।
–स्कन्धादि मर्दयेत् ।
मुक्तस्नेहस्य-
पश्चात्कर्म—इतनी देर धारण कर लेने के बाद उस तेल को निकाल लें और सिर में बाँधी गयी बस्ति को खोल लें। तदनन्तर उसके कन्धे आदि अवयवों पर मालिश करें।
—परमं सप्ताहं तस्य सेवनम् ॥ ३१ ॥
शिरोबस्ति-सेवन की अवधि—इस प्रकार शिरोबस्ति का प्रयोग (स्नेहपान की भाँति ) अधिक-से-अधिक एक सप्ताह तक करना चाहिए ।। ३१ ।।
धारयेत्पूरणं कर्णे कर्णमूलं विमर्दयन्।
रुजः स्यान्मार्दवं यावन्मात्राशतमवेदने ॥३२॥
कर्णपूरण का काल रोगी को किसी एक करवट लेटाकर कान के छिद्र में तेल डालना या भरना चाहिए और साथ ही वह कान की जड़ में अंगुली से मसलता रहे। जब तक कान में उत्पन्न पीड़ा शान्त न हो तब तक लेटे रहना चाहिए। स्वस्थ पुरुष के कान में यदि तेल डाला गया हो तो एक मात्रा परिमित काल तक लेटे रहना चाहिए।।३२।।
यावत्पर्येति हस्ताग्रं दक्षिणं जानुमण्डलम् ।
निमेषोन्मेषकालेन समं मात्रा तु सा स्मृता॥३३॥
मात्राकाल की परिभाषा—जितना समय घुटना के ऊपर हाथ घुमाने में लगता है अथवा आँख की पलक उठाने तथा गिराने में लगता है, उतने समय का नाम एक मात्रा है। यह समय प्रायः ३ मिनट का होता है।। ३३॥
कचसदनसितत्वपिञ्जरत्वं परिफुटनं शिरसः समीररोगान् ।
जयति, जनयतीन्द्रियप्रसाद स्वरहनुमूर्द्धबलं च मूर्द्धतैलम्॥३४॥
इति श्रीवैद्यपतिसिंहगुप्तसूनुश्रीमद्वाग्भटविरचितायामष्टाङ्गहृदयसंहितायां
प्रथमे सूत्रस्थाने गण्डूषादिविधिर्नाम द्वाविंशोऽध्यायः॥२२॥
मूर्धतैल का फल—सिर के ऊपर निरन्तर तैल के प्रयोग से बालों का टूटना, झड़ना, सफेद अथवा पीला पड़ना, सिर की त्वचा का फटना तथा सिर सम्बन्धी वातरोगों का विनाश हो जाता है। यह इन्द्रियों की अपने-अपने विषय की ग्रहणशक्ति को बढ़ाता है और इन्द्रियों को प्रसन्न रखता है। स्वर, हनु, सिर को बलवान् बनाता है।॥३४॥
वक्तव्य-अष्टाङ्गहृदय-सूत्रस्थान अध्याय २।९ में इसका संकेत पहले किया जा चुका है, वहाँ देखें।
इस प्रकार वैद्यरत्न पण्डित तारादत्त त्रिपाठी के पुत्र डॉ० ब्रह्मानन्द त्रिपाठी द्वारा विरचित निर्मला हिन्दी व्याख्या, विशेष वक्तव्य आदि से विभूषित अष्टाङ्गहृदय-सूत्रस्थान में गण्डूषादि विधि नामक बाईसवाँ अध्याय समाप्त ॥२२॥
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