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अष्टांगहृदय

वाग्भट

प्रकाशक : खेमराज श्रीकृष्णदास प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :350
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15769
आईएसबीएन :1234567890

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आयुर्वेद के स्तम्भ ग्रंथ अष्टांगहृदय का पहला भाग


एकविंशोऽध्यायः

अथातो धूमपानविधिमध्यायं व्याख्यास्यामः।

इति ह स्माहुरात्रेयादयो महर्षयः॥

अब हम यहाँ से धूमपानविधि नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे। जैसा कि आत्रेय आदि महर्षियों ने कहा था।

उपक्रम—ऊर्ध्वजत्रुविकारों के प्रशमन ( चिकित्सा) के लिए २०वें अध्याय में नस्य के भेद-उपभेदों का वर्णन, उनकी सेवन-विधि तथा उससे होने वाले लाभ-हानियों का वर्णन किया गया है। उसके बाद वर्णन किया जाने वाला यह धूमपान भी उक्त विकारों में हितकर होता है, इसका वर्णन इस अध्याय में किया जायेगा। यह धूमपान बीड़ी, सिगरेट, सिगार तथा चरस आदि विकारकारक धूमपानों से सर्वथा भिन्न एवं उपयोगी है। इसके पर्याय हैं-धूम्र, धूमल।

संक्षिप्त सन्दर्भ-संकेत—च.सू. ५; सु.चि. ४० तथा अ.सं.सू. ३० । सभी संहिताकारों ने अपनी-अपनी संहिताओं में कुछ-कुछ विशेषताओं का वर्णन किया है, अतः उक्त स्थलों का आप अवश्य अवलोकन करें।

जत्रूवंकफवातोत्थविकाराणामजन्मने।
उच्छेदाय च जातानां पिबेछूमं सदाऽऽत्मवान् ॥१॥

धूमपान-विधि का वर्णन—आत्मवान् ( मानसिक बल से परिपूर्ण ) मानव को जत्रुअस्थि के ऊपरी भाग में होने वाले कफज तथा वातज रोगों की उत्पत्ति ही न हो इसलिए और यदि उक्त प्रकार के रोग हो गये हों तो उन्हें उखाड़ कर फेंकने के लिए सदा धूमपान करना चाहिए ।। १ ।।

वक्तव्य—महर्षि वाग्भट ने नस्य, गण्डूष के साथ-साथ धूमपान आदि का वर्णन अ. ह. सू. २।६ में किया है, यहाँ उसी धूम का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत है। धूमपान स्वयं में एक दुर्व्यसन है, किन्तु दुर्व्यसनों का प्रभाव आत्मवान् पुरुषों पर नहीं पड़ता, अस्तु। अष्टांगसंग्रह सू. ३०।३ में इस बात का स्पष्ट निर्देश दिया है कि इसका सेवन कब, किन्हें करना चाहिए और कब, किन्हें नहीं करना चाहिए।

स्निग्धो मध्यः स तीक्ष्णश्च, वाते वातकफे कफे।
योज्यः-

धूम के भेद तथा प्रयोग–धूमपान विधिभेद से तीन प्रकार का होता है—१. स्निग्ध, २. मध्य तथा ३. तीक्ष्ण। दोषभेद से इनका प्रयोग—स्निग्ध धूम वातविकारों में, मध्य धूम वातकफज विकारों में तथा केवल कफज विकारों में तीक्ष्ण धूम का प्रयोग विहित है।

वक्तव्य–वृद्धवाग्भट ने अ. सं. सू. ३०।४ में धूमभेदों का वर्णन इस प्रकार किया है— १. शमन, २. बृंहण, ३. शोधन। पुनः इनके पर्याय-१.शमन, प्रायोगिक, मध्यम । २. बृंहण, स्नेहन, मृदु। ३. शोधन, विरेचन, तीक्ष्ण। तीन अन्य भेदों की चर्चा- १. कासघ्न, २. वामक, ३. व्रणधूमन। इसी विषय को सुश्रुत ने चि. ४०।१४ में इस प्रकार कहा है—धूमपान पाँच प्रकार का होता है—१. प्रायौगिक, २. स्नैहिक, ३. वैरेचनिक, ४. कासघ्न तथा ५. वामनीय।

-न रक्तपित्तातिविरिक्तोदरमेहिषु॥२॥
तिमिरोर्वा निलाध्मानरोहिणीदत्तबस्तिषु ।
मत्स्यमद्यदधिक्षीरक्षौद्रस्नेहविषाशिषु॥३॥
शिरस्यभिहते पाण्डुरोगे जागरिते निशि।

धूमपान का निषेध-रक्तपित्तज रोगों में, विरेचन कराने के बाद होने वाले उदररोगों में, प्रमेहरोग में, तिमिर नामक नेत्ररोग में, ऊर्ध्वग वात (उदावर्त ) में, आध्मान होने पर, रोहिणी नामक कण्ठरोग में, बस्ति-प्रयोग कराने पर, मछली खाने पर, दही, दूध, मधु तथा स्नेहपान करने पर, विष खाने या पीने पर, सिर पर चोट आ जाने पर, पाण्डुरोग में तथा रात्रि में जागने पर धूमपान का प्रयोग न करें। इन स्थितियों पर न केवल शास्त्रीय धूमपान का ही नहीं अपितु बीड़ी, तमाखू आदि का भी सेवन न करें ।।२-३ ।।

रक्तपित्तान्ध्यबाधिर्यतृण्मूर्छामदमोहकृत् ॥४॥
धूमोऽकालेऽतिपीतो वा-

धूमपान से हानि-अकाल (असमय ) में अथवा अधिक धूमपान कर लेने पर रक्तपित्तजनित विकार, अन्धापन, बहरापन, बार-बार प्यास का लगना, मूर्छा, मद तथा मोह (बेहोशी)—ये विकार हो जाते हैं।॥४॥

-तत्र शीतो विधिर्हितः।

धूमपानजनित रोगों की चिकित्सा-इस प्रकार के विकारों की शान्ति के लिए सभी प्रकार की शीत चिकित्सा करनी चाहिए।

वक्तव्य-महर्षि सुश्रुत ने इस प्रकार की धूमविकृतियों को धूमोपहत संज्ञा दी है। देखें—सु.सू. १२।२९-३७। वृद्धवाग्भट का दृष्टिकोण इस सम्बन्ध में देखें-अ.सं.सू. ३०।७।

क्षुतजृम्भितविण्मूत्रस्त्रीसेवाशस्त्रकर्मणाम् ॥५॥
हासस्य दन्तकाष्ठस्य धूममन्ते पिबेन्मृदुम्।
कालेष्वेषु निशाहारनावनान्ते च मध्यमम् ॥६॥
निद्रानस्याञ्जनस्नानच्छर्दितान्ते विरेचनम्।

त्रिविध धूम के सेवन का काल—१. छींक होने, सँभाई लेने, मल-मूत्र त्याग करने, स्त्रीसहवास, शस्त्रकर्म, हँसने तथा दातून करने के अन्त में मृदु धूमपान करे। २. उक्त समयों में, रात में भोजन करने के बाद तथा नस्य-प्रयोग करने के अन्त में मध्य धूमपान करे। ३. निद्रा, स्नेहन-नस्य, अञ्जन, स्नान तथा वमन करने के अन्त में विरेचक धूमपान करें। कारण यह है कि इन समयों में धूमपान करने से कफ अपने स्थान को छोड़ देता है, अतः उसका निर्हरण हो सकता है॥५-६।।

बस्तिनेत्रसमद्रव्यं त्रिकोशं कारयेदृजु ॥७॥
मूलाग्रेऽङ्गुष्ठकोलास्थिप्रवेशं धूमनेत्रकम्।

धूमनेत्रक—इसका निर्माण भी बस्तिनेत्र की भाँति स्वर्ण आदि धातुओं से कराना चाहिए। ( इसका वर्णन १९वें अध्याय श्लोक ९ में देखें।) इस नेत्रक में तीन कोश (मोड़ ) हों, यह नेत्र सीधा हो, इसके मूलभाग (जहाँ धूमोपयोगी द्रव्य रखे जाते हैं) में अँगूठा के बराबर छिद्र हो और जहाँ से धूमपान किया जाता है, वहाँ जंगली बेर की गुठली के प्रवेश योग्य छेद हो ।।७।।

तीक्ष्णस्नेहनमध्येषु त्रीणि चत्वारि पञ्च च॥८॥
अङ्गुलानां क्रमात्पातुः प्रमाणेनाष्टकानि तत्।

धूमनेत्र की लम्बाई तीक्ष्ण धूमपान करने के लिए तीन अष्टक अर्थात् २४ अंगुल, स्नेह धूमपान करने के लिए चार अष्टक अर्थात् ३२ अंगुल और मध्यम धूमपान करने के लिए पाँच अष्टक अर्थात् ४० अंगुल लम्बाई धूमपान करने वाले व्यक्ति की अंगुलियों के प्रमाण से होनी चाहिए।।८।।

वक्तव्य—यह धूमनेत्रक हुक्का की नली का नाम है। राजा, रईस, साहूकारों के घरों में, बड़ी-बड़ी महफिलों में इसके दर्शन होते हैं। च.चि. १७/७९ में इसे 'मल्लकसम्पुट' और च.चि. १८।६६ में 'शरावसम्पुट' कहा गया है।



ऋजूपविष्टस्तच्चेता विवृतास्यस्त्रिपर्ययम् ॥९॥
पिधाय च्छिद्रमेकैकं धूमं नासिकया पिबेत् ।

नासिका से धूमपान की विधि—सीधा बैठकर धूमपान की ओर मन लगाकर नासिका के एक छिद्र को अंगुली से दबाकर दूसरे छिद्र पर नेत्र को लगाकर मुख खोलकर तीन बार नासिका द्वारा धूमपान करे अर्थात् उसी विधि से फिर दूसरे छिद्र द्वारा धूमपान करे, फिर पहले वाले छिद्र से। इस प्रकार त्रिपर्यय हो जाता है।॥९॥

वक्तव्य-उक्त श्लोक में दिया गया 'विवृतास्यः' पाठ विचारणीय है। इसका अर्थ है—जिस पुरुष का मुख खुला हो। आप प्रयोग करके देखें—मुख के खुले रहने पर नासिकाछिद्र से धूमपान नहीं हो पायेगा। अतः उक्त प्रयोग की चरितार्थता इस रूप में की जा सकती है कि नासिका से किये गये को मुख धूम से निकालें। देखें—श्रीअरुणदत्त तथा श्रीहेमाद्रि ने इस पर टीका ही नहीं लिखी। इस दृष्टि से अ.सं.सू. ३०।१२ का पाठ अधिक स्पष्ट है।

पर्यय-धूमपान करना और धूम को निकालना एक पर्यय है, इसी को आगे चलकर आक्षेप तथा मोक्ष की संज्ञा दी गयी है।

प्राक् पिबेन्नासयोक्लिष्टे दोषे घ्राणशिरोगते॥१०॥
उत्क्लेशनार्थं वक्त्रेण, विपरीतं तु कण्ठगे।

नासा एवं मुख से धूमपान-नासिका तथा शिरःप्रदेश में दोषों के उभड़े हुए होने पर सबसे पहले
नासिका के छिद्रों द्वारा धूमपान करना चाहिए और यदि दोष उभड़ा हुआ न हो तो उसे उभाड़ने के लिए
पहले मुख द्वारा धूमपान करके फिर नासिका से धूमपान करे। यदि कण्ठप्रदेश में स्थित दोष को उभाड़ना
हो तो पहले नासिका से और फिर मुख से धूमपान करे।।१०॥

मुखेनैवोद्वमेछूमं-

धूम का निर्हरण—धूमपान नासिका के छिद्र से और मुख से करने का ऊपर विधान किया गया है, किन्तु इन दोनों धूमों को मुख से ही निकालना चाहिए।

-नासया दृग्विघातकृत् ॥११॥

नासिका से धूम न निकालें—नासिका के छिद्रों से धूम निकालने से नेत्रों को हानि हो सकती है।॥११॥

वक्तव्य-भगवान् धन्वन्तरि के शब्दों में इसका वर्णन सु. चि. ४०१७-८ में देखें।

आक्षेपमोक्षैः पातव्यो धूमस्तु त्रिस्त्रिभिस्त्रिभिः।

तीन बार धूमपान करें-आक्षेप (धूमपान करना) और मोक्ष (धुआँ को बाहर निकालना) यह एक पर्यय है। इसी प्रकार दो बार और अर्थात् एक बार के धूमपान काल में कुल मिलाकर तीन बार धूमपान करना चाहिए।

अह्नः पिबेत्सकृत् स्निग्धं, द्विर्मध्यं, शोधनं परम् ॥१२॥
त्रिश्चतुर्वा-

धूमपान की संख्या दिनभर में स्निग्ध धूमपान एक बार, मध्यम धूमपान दो बार तथा शोधन (तीक्ष्ण) धूमपान तीन अथवा चार बार करना चाहिए।।१२।।

-मृदौ तत्र द्रव्याण्यगुरुगुग्गुलु ।
मुस्तस्थौणेयशैलेयनलदोशीरवालकम् ॥१३॥
वराङ्गकौन्तीमधुकबिल्वमज्जैलवालुकम् ।
श्रीवेष्टकं सर्जरसो ध्यामकं मदनं प्लवम्॥१४॥
शल्लकी कुङ्कुमं माषा यवाः कुन्दुरुकस्तिलाः।
स्नेहः फलानां साराणां मेदो मज्जा वसा घृतम्॥



मृदु धूम के द्रव्य–अगुरु, गुग्गुलु, मोथा, थुनेर, शैलेय (छरीला), जटामांसी, खस, नेत्रबाला, दालचीनी, रेणुका, मुलेठी, बेल की गिरी, एलवालुक, श्रीवेष्टक (चीड़ की गोंद = विरौजा या लीसा ), सर्जरस (राल), ध्यामक ( कत्तृण), मदन (मोम ), नागरमोथा, शल्लकी ( सलाई = चीड़ की लकड़ी ), कुंकुम, उड़द, जौ, कुन्दुरुक गोंद, तिल, बादाम आदि फलों के तेल, चन्दन आदि सार वाले काष्ठों के स्नेह ( तेल), मेदस्, मज्जा, वसा और घृत इन द्रव्यों से मृदु धूम का निर्माण किया जाता है।।१३-१५ ।।

शमने शल्लकी लाक्षा पृथ्वीका कमलोत्पलम् ।
न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थप्लक्षरोध्रत्वचः सिता॥१६॥
यष्टीमधु सुवर्णत्वक् पद्मकं रक्तयष्टिका।
गन्धाश्चाकुष्ठतगराः-

मध्य धूम के द्रव्य—इसी को शमन धूम भी कहते हैं। शल्लकी (सलाई ), लाख, पृथ्वीका, कमल, नीलकमल, बरगद, गूलर, पीपल, पाकर, लोध ( इन वृक्षों) की छालें, मिश्री, मुलेठी तथा अमलतास की छाल, पद्मकाष्ठ, मजीठ, कूठ तथा तगर अथवा कूठ एवं तगर को छोड़कर एलादि गण में कहे गये सभी सुगन्धिद्रव्यों का ग्रहण किया जाता है।।१६।।

तीक्ष्णे ज्योतिष्मती निशा ॥१७॥
दशमूलमनोह्वालं लाक्षा श्वेता फलत्रयम्।
गन्धद्रव्याणि तीक्ष्णानि गणो मूर्द्धविरेचनः॥१८॥

तीक्ष्ण धूम के द्रव्य—मालकाँगुनी, हल्दी, दशमूल, मैनसिल, हरिताल, लाख, अपामार्ग ( चिरचिटा), त्रिफला, तीक्ष्ण गन्धद्रव्य तथा शिरोविरेचन गण के द्रव्यों का प्रयोग (देखें—अ.ह.सू. १५।४) इस योग में किया जाता है।।१७-१८।।

जले स्थितामहोरात्रमिषीकां द्वादशाङ्गुलाम्।
पिष्टैधूमौषधेरेवं पञ्चकृत्वः प्रलेपयेत् ।। १९ ॥
वर्तिरङ्गुष्ठकस्थूला यवमध्या यथा भवेत्।
छायाशुष्कां विगर्भां तां स्नेहाभ्यक्तां यथायथम् ॥
धूमनेत्रार्पितां पातुमग्निप्लुष्टां प्रयोजयेत् ।

धूमवर्ति-निर्माणविधि—सरपत की १२ अंगुल लम्बी नली को १ दिन-रात पानी में डाल दें। जब वह भीगने से फूल जाय तब उसके ऊपर उक्त धूमद्रव्यों को पीसकर ५ बार लेप करें। प्रत्येक बार का लेप सूख जाने पर तब दूसरा लेप करें। जब यह लेप अँगूठाभर मोटा हो जाय और उसका आकार जौ के सदृश (आगे-पीछे पतला बीच में मोटा) हो तब इसे छाया में सुखा लें। जब वह भलीभाँति सूख जाय तो उसके बीच में से सरपत की नली निकाल लें। उस धूमवर्ति को घी आदि से चुपड़ कर धूमनेत्र में लगाकर बीड़ी-सिगरेट की भाँति उसे जलाकर धूमपान करे। १९-२० ।।

वक्तव्य—बीड़ी, सिगरेट, चुरुट, सिगार आदि इसी धूमवर्ति के अद्यतन प्रतिनिधि द्रव्य हैं। अन्तर इतना ही है कि इनमें मादक द्रव्य होते हैं और धूमवर्ति में रोगनाशक औषध-द्रव्य हैं।

शरावसम्पुटच्छिद्रे नाडी न्यस्य दशाङ्गुलाम् ।।२१॥
अष्टाङ्गुलां वा वक्त्रेण कासवान् धूममापिबेत् ।

कासघ्न धूमपान-विधि—शरावसम्पुट के छिद्र में १० अँगुल अथवा ८ अँगुल लम्बी नली लगाकर कासरोगी धूमपान करे। इस यन्त्र से मृदु, मध्य तथा तीक्ष्ण सभी प्रकार का धूमपान किया जा सकता है।

वक्तव्य—शरावसम्पुट का वर्णन अ.सं.सू. ३०।१४ में देखें।

कासः श्वासः पीनसो विस्वरत्वं पूतिर्गन्धः पाण्डुता केशदोषः।
कर्णास्याक्षिम्रावकण्ड्वर्तिजाड्यं तन्द्रा हिमा धूमपं न स्पृशन्ति ॥२२॥

इति श्रीवैद्यपतिसिंहगुप्तसूनुश्रीमद्वाग्भटविरचितायामष्टाङ्गहृदयसंहितायां
प्रथमे सूत्रस्थाने धूमपानविधिर्नामैकविंशतितमोऽध्यायः॥२१॥

धूमपान के लाभ-कास, श्वास, पीनस (प्रतिश्याय ), स्वरभेद, मुख एवं नासिका की दुर्गन्ध, मुख का पीला पड़ जाना, केशदोष (बालों का झड़ना, टूटना, अकाल में सफेद हो जाना आदि), कान, मुख, आँख में से स्राव का निकलना, खुजली होना, पीड़ा होना, जड़ता, उँघाई का आना और हिक्का या हिचकी ये विकार धूमपान करने वाले व्यक्ति को छूते भी नहीं, ये रोग हुए हों तो दूर हो जाते हैं।। २२॥

वक्तव्य-धर्मशास्त्र में जो धूमपान का निषेध है, सम्भवतः तमाखू, बीड़ी, सिगरेट, गाँजा आदि का ही है। ये तो वैसे भी हानिकारक ही होते हैं। अतएव ऐसा कहा गया है—'धूमपानरता विप्रा भवन्ति ग्रामसूकराः'। आयुर्वेद चिकित्साशास्त्र है, इसमें तो—'औषधार्थे सुरां पिबेत्' ऐसी व्यवस्था है, क्योंकि 'जीवन्नरो भद्रशतानि पश्येत्', अस्तु। चरक में धूमपान के कालों का इस प्रकार वर्णन किया गया है- १. स्नान, २. भोजन, ३. वमन, ४. छींक, ५. दतवन, ६. नस्य, ७. अंजन तथा ८. नींद से जगने के बाद धूमपान करना चाहिए।

इस प्रकार वैद्यरत्न पण्डित तारादत्त त्रिपाठी के पुत्र डॉ० ब्रह्मानन्द त्रिपाठी द्वारा विरचित निर्मला हिन्दी व्याख्या, विशेष वक्तव्य आदि से विभूषित अष्टाङ्गहृदय-सूत्रस्थान में धूमपानविधि नामक इक्कीसवाँ अध्याय समाप्त ॥२१॥

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