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अष्टांगहृदय

वाग्भट

प्रकाशक : खेमराज श्रीकृष्णदास प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :350
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15769
आईएसबीएन :1234567890

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आयुर्वेद के स्तम्भ ग्रंथ अष्टांगहृदय का पहला भाग


एकोनविंशोऽध्यायः

अथातो बस्तिविधिमध्यायं व्याख्यास्यामः।

इति ह स्माहुरात्रेयादयो महर्षयः।

अब हम यहाँ से बस्तिविधि नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे। ऐसा आत्रेय आदि महर्षियों ने कहा था।

उपक्रम—इसके पहले १८वें अध्याय में वमन-विरेचन विधियों से मलों के निर्हरण-विधि का वर्णन किया गया था। बस्ति के प्रयोग से भी मल का निर्हरण किया जाता है, अतएव यहाँ वमन-विरेचन के वर्णन करने के बाद तदनुरूप बस्तिविधि का उपदेश किया जा रहा है।

वस्ति या बस्ति शब्द पर विचार-अमरकोश की रामाश्रमी टीका में वस्ति' शब्द की निरुक्ति-'वस निवासे' तथा 'वस आच्छादने' धातुओं से की गयी है। यहाँ वस धातु से 'वसेस्तिः' ( उ. ४।१८० ) सूत्र के अनुसार 'ति' प्रत्यय का योग होने से उक्त शब्द की निष्पत्ति हुई है। इसका अर्थ है—'वसति मूत्रम् अत्र', जो सर्वथा प्रसंगोचित अर्थ है। तदाकार इस यन्त्र के होने के कारण इसे भी 'वस्तियन्त्र' कहा जाता है। बस्ति–वी.एस. आप्टे ने अपने कोश में 'बस्त + घञ्' = बकरा, ऐसा विवरण दिया है। जहाँ बस्ति के लिए अनेक प्राणियों के चर्म आदि को लेने का विधान किया है, वहाँ अन्त में उल्लिखित 'बस्त' का ग्रहण कर उसके नाम के अनुसार इसका नाम 'बस्ति' स्वीकार कर लेना अधिक समीचीन प्रतीत नहीं होता। देखें बस्ति-निर्माण के लिए उपयोगी चर्म–सु.चि. ३५।१३ तथा च.सि. ३।१०-११। इसके बाद भी चरक-सुश्रुत आदि संहिताओं में वस्ति शब्द में 'व' के स्थान पर 'ब' का ही प्रयोग अधिकांश देखा जाता है। आचार्य पुरुषोत्तमदेव ने स्वरचित ‘वर्णदेशना' नामक ग्रन्थ में ब, व; न, ण; य, ज; श, स आदि के औचित्य पर संक्षेप में विचार किया है, आप भी उसका अनुशीलन करें।

संक्षिप्त सन्दर्भ-संकेत—च.सि. १, २, ३; सु.चि. ३५, ३७ तथा ३८; अ.सं.सू. २८ में देखें।

वातोल्बणेषु दोषेषु वाते वा बस्तिरिष्यते।
उपक्रमाणां सर्वेषां सोऽग्रणीस्त्रिविधस्तु सः॥१॥
निरूहोऽन्वासनं बस्तिरुत्तरः-

बस्ति का प्रयोग–वात-प्रधान दोषों में अथवा केवल वातदोष में भी बस्ति का प्रयोग करना चाहिए। बस्ति को सभी उपक्रमों (चिकित्साविधियों) में अग्रगण्य (प्रमुख ) माना जाता है। यह विधिभेद से तीन प्रकार की होती है—१. निरूह या निरूहण या आस्थापन, २. अन्वासन ( अनुवासन ) तथा ३. उत्तरबस्ति ॥१॥ वक्तव्य-भगवान् पुनर्वसु ने बस्ति-प्रयोग की उपयोगिता को देखकर अपना तथा दूसरों का मत इस प्रकार उपस्थापित किया है—'तस्मात् चिकित्सार्धमिति ब्रुवन्ति सर्वां चिकित्सामपि बस्तिमेके' । (च.सि. १४० ) अर्थ स्पष्ट है।

-तेन साधयेत् ।
गुल्मानाहखुडप्लीहशुद्धातीसारशूलिनः॥२॥
जीर्णज्वरप्रतिश्यायशुक्रानिलमलग्रहान्।
वश्मिरीरजोनाशान् दारुणांश्चानिलामयान्॥३॥

बस्ति-प्रयोग से लाभ-निरूहणबस्ति के प्रयोग से गुल्म, आनाह, खुडरोग (वातरक्तरोग—वै. निघण्टु ), प्लीहविकार, शुद्धातिसार (आमदोषरहित अतिसार), शूल, जीर्णज्वर, प्रतिश्याय, शुक्रग्रह (शुक्र की रुकावट या शुक्रोदावर्त), वातग्रह, मलग्रह, वृद्धिरोग, अश्मरी (पथरी हो जाने पर कभी-कभी जो मूत्र में रुकावट आ जाती है), रजोरोध तथा वातज भीषण रोग शान्त हो जाते हैं।।२-३।।

वक्तव्य-भगवान् धन्वन्तरि ने बस्तियों को दो भागों में बाँटा है। यथा—१. निरूहण तथा २. स्नेहन । आस्थापन और निरूह ये नैरूहिक बस्ति के पर्यायवाची नाम हैं। इसी का भेद है—माधुतैलिकबस्ति और इसके पर्याय हैं—यापनाबस्ति, युक्तरथबस्ति एवं सिद्धबस्ति। शरीर से दोषों को निकालने अथवा शरीर का रोहण करने के कारण इसे निरूहणबस्ति कहते हैं। आयु (यौवन) को स्थिर रखने के कारण इसी को आस्थापनबस्ति कहते हैं। माधुतैलिकबस्ति का वर्णन आगे निरूहण-चिकित्सा प्रसंग में कहा जायेगा। यथाप्रमाण कही हुई बस्ति के परिमाण में सें चौथा भाग निकालने पर स्नेहबस्ति का ही भेद अनुवासनबस्ति नाम से कहा जाता है। शरीर के भीतर रह जाने पर भी जो दूषित नहीं होती अथवा जिसका प्रयोग प्रतिदिन किया जा सकता है, अतएव इसे 'अनुवासनबस्ति' कहते हैं। इसी का एक भेद है—'मात्राबस्ति'। इसमें आधे से भी आधी मात्रा ली जाती है। इसमें किसी प्रकार के परिहार की आवश्यकता नहीं होती है। देखें—सु.चि. ३५।१८।

बस्ति-परिचय–अनुवासनबस्ति की परिभाषा तो ऊपर दी गयी है। यथा—'अनुवसन् अपि न दुष्यति' अथवा 'अनुदिवसं दीयते इति अनुवासनः'। अर्थ ऊपर दिया है। यह अनुवासनबस्ति की उत्तम परिभाषा है। यापनाबस्ति—जिन बस्तियों के प्रयोग से मानव तथा स्त्री को दीर्घकाल तक युवा-युवती बनाये रखा जा सके, उन्हें 'यापनाबस्ति' कहते हैं। युक्तरथबस्ति-आचार्य चक्रपाणि ने उक्त बस्ति का परिचय इस प्रकार दिया है—घोड़े जुते हुए रथ में बैठकर तत्काल जाने वाले व्यक्ति को भी किसी प्रकार की तैयारी किये बिना भी यह बस्ति दी जा सकती है और देने के बाद किसी प्रकार का परहेज भी इसमें नहीं करना पड़ता, यही उक्त नाम की सार्थकता है।

मात्राबस्ति-षट्पली तु भवेच्छ्रेष्ठा मध्यमा त्रिपली भवेत् ।
कनीयस्यध्यर्धपला त्रिधा मात्राऽनुवासने' ।।

अर्थात् चौबीस पल में से चतुर्थांश ( ६ पल ) स्नेह लेने से अनुवासनबस्ति की उत्तम मात्रा होती है। तीन पल की मध्यम मात्रा और डेढ़ पल की कनीयसी मात्रा होती है। भगवान् पुनर्वसु का कथन है—'निरूहपादांशसमेन तैलम्' अर्थात् चौबीस पल निरूहद्रव्य के होने पर छ: पल स्नेह की मात्रा चतुर्थांश होती है, यह उत्तम मात्रा है। इसी क्रम में मध्यम तथा कनीयसी मात्रा को भी समझें। आचार्य गयी के अनुसार-६ पल स्नेहबस्ति में, ३ पल अनुवासनबस्ति में और १३ पल मात्राबस्ति में स्नेह की मात्रा होनी चाहिए। उत्तरबस्ति—जो बस्ति स्त्री अथवा पुरुष के मूत्रमार्ग में दी जाती है, उसे उत्तरबस्ति कहते हैं। इसके भी निरूहण तथा अनुवासन नाम से दो भेद होते हैं।

अनास्थाप्यास्त्वतिस्निग्धः क्षतोरस्को भृशं कृशः।
आमातिसारी वमिमान् संशुद्धो दत्तनावनः॥
श्वासकासप्रसेकार्थोहिध्माध्मानाल्पवयः।
शूनपायुः कृताहारो बद्धच्छिद्रोदकोदरी ॥५॥
कुष्ठी च मधुमेही च मासान् सप्त च गर्भिणी।

निरूहण के अयोग्य—जिसे अधिक स्नेहपान कराया गया हो, उरःक्षत का रोगी, अत्यन्त कृश (दुर्बल), आमज अतिसार का रोगी, छर्दि (वमन) का रोगी, वमन-विरेचन कराने के तत्काल बाद, जिसे नस्य का प्रयोग कराया गया हो, श्वासरोगी, कासरोगी, प्रसेक (कफदोष की वृद्धि के कारण जिसके मुख से लार निकल रही हो) का रोगी, अर्शोरोगी, हिचकी का रोगी, आध्मान, मन्दाग्नि, जिसके गुदप्रदेश में सूजन हो, जिसने तत्काल भोजन किया हो, बद्धगुदोदर, छिद्रोदर तथा जलोदर का रोगी, कुष्ठरोगी, मधुमेह का रोगी और जिसके गर्भ को सात मास हो गये हों ऐसी स्त्री को भी आस्थापन (निरूहण) बस्ति का प्रयोग नहीं कराना चाहिए।।४-५।।

वक्तव्य-भगवान् पुनर्वसु ने च.सि. २।१४ में जिन रोगियों को अनास्थाप्य कहा है, उनका परिगणन तो श्रीवाग्भट ने उक्त श्लोकों में प्रायः कर दिया है, किन्तु जिन्हें चरक ने सि. २।१४-१५वें गद्य द्वारा कहा है उनका उल्लेख नहीं किया। अस्तु, उन्हें आप चरक के उक्त सन्दर्भ में देख लें। जिसे श्रीवाग्भट ने ‘मासान् सप्त च गर्भिणी' कहा है, उसके स्थान पर चरक में ‘आमप्रजाता' पाठ है, आप ऐसी स्थिति में भी निरूहणबस्ति का प्रयोग न करें।

आस्थाप्या एव चान्वास्या विशेषादतिवह्नयः॥६॥
रूक्षाः केवलवातार्ताः-

निरूहण एवं अनुवासन के योग्य—जो व्यक्ति आस्थापन ( निरूहण ) बस्ति के योग्य होते हैं वे ही अनुवासनबस्ति के योग्य भी होते हैं। विशेष करके जिनकी जठराग्नि अत्यधिक तीव्र हो, जो रूक्षशरीर वाले हों और जो केवल वातदोष से पीड़ित हों उन्हें अनुवासनबस्ति का प्रयोग कराना चाहिए।६।।

-नानुवास्यास्त एव च ।
येऽनास्थाप्यास्तथा पाण्डुकामलामेहपीनसाः॥७॥
निरन्नप्लीहविड्भेदिगुरुकोष्ठकफोदराः।
अभिष्यन्दिभृशस्थूलकृमिकोष्ठाढ्यमारुताः॥८॥
पीते विषे गरेऽपच्यां श्लीपदी गलगण्डवान् ।

निरूहण एवं अनुवासन के अयोग्य—जो रोगी आस्थापन (निरूहण) बस्ति के अयोग्य होते हैं, वे अनुवासनबस्ति के भी अयोग्य होते हैं, क्योंकि दोनों बस्तियों का प्रयोग साथ-साथ किया जाता है। उनकी गणना पाण्डुरोगी, कामलारोगी, प्रमेह, पीनस, निरन्न ( जिसने लंघन किया हो या भूखा हो), प्लीहा- रोगी, अतिसार, पेट का भारीपन, कफोदर, अभिष्यन्द, कृश, स्थूल, जिसके पेट में क्रिमि हों, ऊरुस्तम्भ, विषपान कर लेने पर, गर-विषयुक्त, अपची, श्लीपद (फीलपाँव) तथा गलगण्ड का रोगी—ये सभी अनुवासनबस्ति-प्रयोग के योग्य नहीं होते हैं।। ७-८॥

तयोस्तु नेत्रं हेमादिधातुदार्वस्थिवेणुजम् ॥९॥
गोपुच्छाकारमच्छिद्रं श्लक्ष्णर्जु गुलिकामुखम् ।

बस्तिनेत्र-परिचय–उन दोनों (निरूहण एवं अनुवासन ) बस्तियों के नेत्रों को सोना आदि धातु का, लकड़ी का, हड्डी का अथवा बाँस का बनवाना चाहिए। इन नेत्रों का आकार गाय की पूंछ के सदृश (नीचे की ओर को क्रमश: मोटा और आगे की ओर क्रमशः पतला), पतले छेद से युक्त, चिकना, सीधा तथा उसका मुख ( अगला ) भाग गोलाकार होना चाहिए।।९।।

वक्तव्य—बस्तिनेत्र (नली ) को 'अच्छिद्र' कहा गया है, किन्तु इस नली के अगले भाग में भीतर ही भीतर एक छिद्र होता है, जो बस्तिपुट से लेकर आगे तक होता है। इसी छिद्र से वह द्रव पदार्थ गुद आदि प्रदेशों में पहुँचाया जाता है। ऊपर जो अच्छिद्र कहा गया है उसका तात्पर्य है—उस नली के अगल-बगल छिद्र न हों। आज का अनीमा यन्त्र इसी का प्रतिनिधि है। इस ‘अच्छिद्रं' का अर्थ श्रीअरुणदत्त 'निर्विवरम्' कहते हैं और श्रीहेमाद्रि मौन हैं। जब कि बस्तिनेत्र में भीतर-ही-भीतर आदि से अन्त तक छिद्र होना परम आवश्यक है, अतः यहाँ 'अच्छिद्रं' का अर्थ सूक्ष्मछिद्र युक्त कर लेना चाहिए; क्योंकि नसमस्त पद का अर्थ 'तदल्पता' भी होता है। देखें—'तत्सादृश्यमभावश्च तदन्यत्वं तदल्पता। अप्राशस्त्यं विरोधश्च नञर्थाः षट् प्रकीर्तिताः ।। (नप्रकरण-मनोरमाटीका ) प्राचीन तन्त्रकारों के वचनों की संगति बैठाना ही व्याख्याकार की योग्यता है, अपनी अयोग्यता का भार तन्त्रकार पर डालना यह उसकी उच्छृखलता है।

नेत्र-निरुक्ति—णीञ् प्रापणे' धातु से 'ष्ट्रन्' प्रत्यय करके 'नेत्र' शब्द की निष्पत्ति होती है। इसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है—'नयति, नीयते वा अनेन बस्तिकर्मोचितं द्रव्यम्' । अर्थात् इस नेत्रयन्त्र के माध्यम से बस्ति में रखे हुए द्रव्य को गुद के मूत्रमार्ग से भीतर तक पहुँचाया जाता है, अतएव इसे नेत्र कहते हैं।

ऊनेऽब्दे पञ्च, पूर्णेऽस्मिन्नासप्तभ्योऽङ्गुलानि षट् ॥१०॥
सप्तमे सप्त, तान्यष्टौ द्वादशे, षोडशे नव।
द्वादशैव परं विंशाद्वीक्ष्य वर्षान्तरेषु च ॥११॥
वयोबलशरीराणि प्रमाणमभिवर्द्धयेत्।

नेत्र का आकार-नेत्र की लम्बाई किस अवस्था में कितनी होनी चाहिए, इसका विवरण दिया जा रहा है—एक वर्ष से कम अवस्था वालों में उनके अंगुलों के प्रमाण से ५ अंगुल, एक वर्ष से लेकर सात वर्ष के पहले तक की अवस्था वालों में ६ अंगुल, सातवें वर्ष में ७ अंगुल, बारहवें वर्ष में ८ अंगुल, सोलहवें वर्ष में ९ अंगुल तथा बीस वर्ष पूरा होने से लेकर अगले वर्षों में भी नेत्र का प्रमाण १२ अंगुल होना चाहिए। इनके अतिरिक्त जिन वर्षों का उल्लेख ऊपर नहीं किया गया उन (९, १०, ११ आदि) वर्षों में वयस् (अवस्था ), शारीरिक बल तथा शरीर की स्थिति (नाटा, लम्बा, दुबला, मोटा आदि) का विचार कर उक्त नेत्र के परिमाण को बढ़ाया भी जा सकता है।। १०-११ ।।

वक्तव्य-श्रीवाग्भट ने 'वयोबलशरीराणि' का जो निर्देश दिया है, वह चिकित्सक के लिए है, वह देखे कि जिसे बस्ति-प्रयोग कराना है उसकी अवस्था, बल तथा शारीरिक स्थिति कैसी है, तदनुसार नेत्र की लम्बाई का निर्धारण करे। ऊपर जो नेत्र की लम्बाई के प्रमाण दिये हैं, वे सामान्य हैं। 'आसप्तभ्यः'—यहाँ पर 'आङ्' उपसर्ग का प्रयोग 'मर्यादा' अर्थ में किया गया है, न कि 'अभिविधि' अर्थ में। वयस्, बल और शरीर की अनुकूल स्थिति को देखकर नेत्र का प्रमाण बढ़ाया जा सकता है, तो विपरीत स्थिति में वह घटाया भी जा सकता है।

स्वाङ्गुष्ठेन समं मूले स्थौल्येनाग्रे कनिष्ठया॥१२॥

नेत्र की मोटाई-बस्तिनेत्र के मूल भाग की मोटाई जिसे बस्तिप्रयोग कराया जा रहा हो उसके अँगूठा के समान मोटी और उसके अगले भाग की मोटाई उसके कनिष्ठिका अंगुली के समान पतली होनी चाहिए।।१२।।

पूर्णेऽब्देऽङ्गुलमादाय तदर्भार्द्धप्रवर्द्धितम् ।
त्र्यमुलं परमं छिद्रं मूलेऽग्रे वहते तु यत्॥१३॥
मुद्रं माषं कलायं च क्लिन्नं कर्कन्धुकं क्रमात् ।

बस्तिनेत्र का छिद्र–बस्तिनेत्र का छेद (जिससे बस्ति में रखा हुआ द्रव भीतर प्रवेश कराया जाता है) एक वर्ष की अवस्था पूरी हो जाने पर १ अंगुल से लेकर उसके आधे का आधा अर्थात् चौथाई अंगुल के क्रम से क्रमशः अवस्थानुसार बढ़ाया गया परम (बड़े से भी बड़ा ) तीन अंगुल प्रमाण का होना चाहिए। नेत्रछिद्र का यह परिमाण मूल भाग (जो बस्ति के साथ जुटा रहता है, उस) में होना चाहिए। ऊपर कहे गये विषय को इस प्रकार समझें– १ वर्ष से ६ वर्ष तक १ अंगुल छिद्र, ७ से ११ वर्ष तक १३ (सवा) अंगुल, १२ से १५ वर्ष तक १३ (डेढ़ ) अंगुल, १६ वर्ष में १३ (पौने दो) अंगुल, १७ वर्ष में २ अंगुल, १८ वर्ष में २१ (सवा दो ) अंगुल, १९ वर्ष में २३ (अढ़ाई) अंगुल, २० वर्ष में २३ (पौने तीन ) अंगुल, तदनन्तर ३ अंगुल का छिद्र होना चाहिए।

बस्तिनेत्र के अगले भाग का छिद्र क्रमशः मूंग के बराबर (१ वर्ष से ६ वर्ष तक के लिए), उड़द के बराबर (७ वर्ष से ११ वर्ष तक के लिए), कलाय (मटर ) के बराबर (१६ वर्ष से २० वर्ष तक के लिए) और कर्कन्धु ( झड़बेर) के बराबर (२० वर्ष से अन्त तक के लिए) होना चाहिए, जिससे गीले, कच्चे या हरे मूंग आदि आसानी से निकल सकें।।१३।।

वक्तव्य—'स्वाङ्गुष्ठेन''''त्र्यमुलं परमं छिद्रम्' । उपर्युक्त पद्यभाग पर आप विचार करें, इसके लिए सु.चि. ३५।७, ८, ९ उद्धरणों में जो कुछ कहा गया है उससे सहायता लें।

मूलच्छिद्रप्रमाणेन प्रान्ते घटितकर्णिकम् ॥१४॥
वाऽग्रे पिहितं, मूले यथास्वं व्यङ्गुलान्तरम्।
कर्णिकाद्वितयं नेत्रे कुर्यात्-

कर्णिका का वर्णन–बस्तिनेत्र के मूल छिद्र के प्रमाण से उसके प्रान्त (अन्तिम ) भाग में कर्णिका (कँगनी ) बनानी चाहिए। नेत्र के मूल में दो अंगुल की दूरी पर दो-दो कर्णिकाएँ बनायें। इस समय नेत्र के अगले छिद्र में वस्त्र या रुई की बत्ती डालकर उस छिद्र को बन्द कर लें।।१४॥

-तत्र च योजयेत् ॥१५॥
अजाविमहिषादीनां बस्तिं सुमृदितं दृढम्।
कषायरक्तं निश्छिद्रग्रन्थिगन्धशिरं तनुम् ॥१६॥
ग्रथितं साधु सूत्रेण सुखसंस्थाप्यभेषजम् ।

बस्तिपुट का वर्णन—नेत्र के अन्तिम भाग में जहाँ कर्णिका बनायी गयी थी, वहाँ बस्तिपुट को बाँधे। यह बस्तिपुट बकरा, भेड़ा, भैंसा आदि के मूत्राशय की जो बस्ति होती है उसे भलीभाँति मलकर बना लिया जाता है, यह मजबूत होती है। बबूल आदि कषायरस-प्रधान द्रव्यों के रस से रँगा गया हो, उसमें कोई छिद्र न हो, कोई गाँठ न हो, दुर्गन्ध न हो, सिराओं से रहित हो, वह चर्म पतला हो तथा वह इतना बड़ा हो जिसमें औषध द्रव भलीभाँति रखे जा सकें, तदनन्तर वह अच्छी तरह से मजबूत धागे से सिली गयी हो ।। १५-१६ ।।

बस्त्यभावेऽङ्कपादं वा न्यसेद्वासोऽथवा घनम्॥१७॥

अन्य बस्तिपुट-विधान—यदि ऊपर कहे गये बकरा आदि के मूत्राशय उपलब्ध न हो सकें तो बकरे के ऊरुचर्म या पादचर्म या ऐसा वस्त्र जिसमें से पानी न चूता हो अथवा वस्त्र में मोम घिसकर उससे बस्तिपुट का निर्माण कर लें।।१७।।

निरूहमात्रा प्रथमे प्रकुञ्चो वत्सरे परम्।
प्रकुञ्चवृद्धिः प्रत्यब्दं यावत्षट्प्रसृतास्ततः॥१८॥
प्रसृतं वर्द्धयेदूर्ध्वं द्वादशाष्टादशस्य तु।
आसप्ततेरिदं मानं, दशैव प्रसृताः परम् ॥ १९ ॥

निरूहणबस्ति की मात्रा—निरूहण (आस्थापन ) बस्ति में दिये जाने वाले औषध द्रव की मात्रा प्रथम वर्ष में १ प्रकुंच (१ पल = ४ कर्ष = ४ तोला ) होनी चाहिए। एक वर्ष के बाद प्रतिवर्ष १-१ प्रकुंच के अनुपात से मात्रा तब तक बढ़ानी चाहिए जब तक वह ६ प्रसृत (१२ प्रकुंच = ४८ तोला) न हो जाय। तदनन्तर १-१ प्रसृत के प्रमाण से मात्रा बढ़ानी चाहिए। इस प्रकार १८ वर्ष की अवस्था वाले पुरुष के लिए यह मात्रा १२ प्रसृत (२४ प्रकुंच = ९६ तोला ) हो जाती है। इसके बाद ७० वर्ष की अवस्था तक यही मात्रा उचित होती है। उसके बाद १० प्रसृत (२० प्रकुंच = २० पल = ८० तोला ) की मात्रा होनी चाहिए।। १८-१९ ।।

यथायथं निरूहस्य पादो मात्राऽनुवासने।

अनुवासनबस्ति की मात्रा—उक्त निरूहणबस्ति के क्रम से बढ़ाते हुए अनुवासनबस्ति में दिये जाने वाले स्नेहन-द्रव्यों की मात्रा चौथाई भाग होनी चाहिए। अर्थात् निरूहणबस्ति में जहाँ द्रव मात्रा एक पल कही गयी है, वहाँ उस अवस्था में अनुवासन द्रव की मात्रा १ कर्ष होनी चाहिए।

आस्थाप्यं स्नेहितं स्विन्नं शुद्धं लब्धबलं पुनः॥२०॥
अन्वासना/ विज्ञाय पूर्वमेवानुवासयेत्।
शीते वसन्ते च दिवा रात्रौ केचित्ततोऽन्यदा ॥२१॥
अभ्यक्तस्नातमुचितात्पादहीनं हितं लघु।
अस्निग्धरूक्षमशितं सानुपानं द्रवादि च ॥२२॥
कृतचङ्क्रमणं मुक्तविण्मूत्रं शयने सुखे।
नात्युच्छ्रिते न चोच्छीर्षे संविष्टं वामपार्श्वतः॥२३॥
सङ्कोच्य दक्षिणं सक्थि प्रसार्य च ततोऽपरम् ।

बस्ति देने की विधि—निरूहणबस्ति देने योग्य पुरुष को पञ्चकर्म विधि के अनुसार स्नेहन-स्वेदन कराने के बाद वमन तथा विरेचन कराकर उसे शुद्ध करे। जब वह भलीभाँति स्वाभाविक रूप से बलवान् हो जाय तब उसे देखे कि यह अनुवासनबस्ति देने योग्य है, तब उसे पहले अनुवासनबस्ति देनी चाहिए। कुछ आचार्यों का मत है कि यह अनुवासनबस्ति शीतकाल (हेमन्त तथा शिशिर काल) में एवं वसन्त ऋतु में दिन में देनी चाहिए। इनके अतिरिक्त कालों (ग्रीष्म, प्रावृट्, शरद् ऋतुओं) में रात्रि के समय बस्ति का प्रयोग कराना चाहिए।

इस प्रकार काल तथा दिन-रात्रि का निर्णय कर लेने पर जिस दिन बस्ति-प्रयोग कराना हो, उस दिन अभ्यंग कराकर उस व्यक्ति को स्नान कराये। आहारमात्रा से चतुर्थांश, हितकर, लघु (सुपच), न अतिस्निग्ध, न अतिरूक्ष तथा उचित अनुपान के साथ द्रव आदि दें। भोजन करने के बाद वह थोड़ा भ्रमण करे। मल-मूत्र का त्याग करके सुखद शय्या पर, जो न अधिक ऊँची हो और न उसमें अधिक ऊँचा सिरहाना ही हो, ऐसी शय्या पर उसे बायीं करवट लेटा दें। उसकी दाहिनी टाँग को मोड़कर तथा बायीं टाँग को सीधी करा दें।।२०-२३ ।।

अथास्य नेत्रं प्रणयेत्स्निग्धे स्निग्धमुखं गुदे ।। २४॥
उच्छ्वास्य बस्तेर्वदने बद्धे हस्तमकम्पयन्।
पृष्ठवंशं प्रति ततो नातिद्रुतविलम्बितम् ॥२५॥
नातिवेगं न वा मन्दं सकृदेव प्रपीडयेत्।
सावशेषं च कुर्वीत वायुः शेषे हि तिष्ठति ॥२६॥

बस्तिनेत्र के प्रवेश की विधि—उसके बाद औषधद्रव से भरी हुई बस्ति के मुख को चिकना करके चिकना किये गये गुदद्वार में इसका प्रवेश कराना चाहिए। औषधद्रव भरने के पहले बस्तिपुट को दबाकर उसके भीतर जो हवा भरी हुई थी उसे निकाल कर तब उसमें औषधद्रव भरें। बस्तिनेत्र का प्रवेश पीठ की ओर न अधिक शीघ्रता से और न अधिक विलम्ब से करे और औषधद्रव को भीतर प्रवेश कराने की इच्छा से बस्तिपुट को न अधिक वेग से और न अधिक धीरे से दबायें अर्थात् उसे एक बार दबाकर औषधद्रव को भीतर प्रवेश करा दें। यदि कुछ औषधद्रव रह गया हो तो पुन: उसे भीतर प्रवेश न करायें, क्योंकि जो शेष बच जाता है उसमें वायु का प्रवेश हो जाता है। अतः उस बस्तिनेत्र को धीरे-धीरे गुद से बाहर निकाल लें।॥२४-२६।।

दत्ते तूत्तानदेहस्य पाणिना ताडयेत्स्फिजौ ।
तत्पाणिभ्यां तथा शय्यां पादतश्च त्रिरुत्क्षिपेत् ॥२७॥
ततः प्रसारिताङ्गस्य सोपधानस्य पार्णिके।
आहन्यान्मुष्टिनाऽङ्गं च स्नेहेनाभ्यज्य मर्दयेत् ॥
वेदनार्तमिति स्नेहो न हि शीघ्रं निवर्तते।
योज्यः शीघ्रं निवृत्तेऽन्यः स्नेहोऽतिष्ठन्नकार्यकृत् ॥

बस्ति के पश्चात् कर्म-इस प्रकार बस्तिकर्म कर लेने के बाद उस व्यक्ति को पीठ के बल से चित लिटा दें। उसके बाद उसके स्फिचों (चूतड़ों) को थपथपाये अथवा उससे कहें कि वह अपनी एड़ियों से स्वयं चूतड़ों को थपथपाये तथा उसकी शय्या ( पलंग या चारपायी ) को धीरे-धीरे तीन बार ऊपर की ओर उठा-उठाकर पटके। तदनन्तर जब वह व्यक्ति तकिया लगाकर और हाथ-पैर फैलाकर लेटा हो तब उसकी एड़ियों को और पसलियों को मुट्ठी से थपथपाये, शरीर पर तेल लगाकर उसके वेदना वाले अंग को विशेष करके मले, ऐसा करने से बस्ति द्वारा दिया गया स्नेह जल्दी नहीं लौट आता। यदि स्नेह लौटकर बाहर निकल आया हो तो शीघ्र ही दूसरी स्नेहबस्ति का प्रयोग कराना चाहिए। क्योंकि बस्ति द्वारा भीतर प्रवेश कराया गया स्नेह यदि कुछ समय तक मलाशय के भीतर नहीं रुकता तो वह अपना कार्य (लाभ ) नहीं करता है।। २७-२९ ।।

दीप्ताग्निं त्वागतस्नेहं सायाह्न भोजयेल्लघु।

स्नेह के लौट आने पर आहार—स्नेहद्रव के लौट आने पर यदि उस व्यक्ति की जठराग्नि प्रदीप्त हो तो उसे लघु (सुपच ) आहार खाने के लिए देना चाहिए।

निवृत्तिकालः परमस्त्रयो यामास्ततः परम् ॥३०॥
अहोरात्रमुपेक्षेत, परतः फलवर्तिभिः।
तीक्ष्णैर्वा बस्तिभिः कुर्याद्यनं स्नेहनिवृत्तये॥३१॥

स्नेह के न लौटने पर चिकित्सा-स्नेह के स्वाभाविक रूप से लौट आने का समय तीन प्रहर (९ घण्टे) होते हैं, किन्तु आप एक दिन एक रात अर्थात् ८ प्रहर (२४ घण्टे) प्रतीक्षा कर लें। इतने समय तक भी यदि वह स्नेह नहीं लौटता है, तब उसे फलवर्तियों के प्रयोग से अथवा तीक्ष्ण (निरूहण ) बस्तियों द्वारा लौटाने का प्रयत्न करें॥३०-३१ ।।

अतिरौक्ष्यादनागच्छन्न चेज्जाड्यादिदोषकृत् ।
उपेक्षेतैव हि ततोऽध्युषितश्च निशां पिबेत् ॥
प्रातर्नागरधान्याम्भः कोष्णं, केवलमेव वा।

विशेष चिकित्सा–यदि मलाशय की अत्यन्त रूक्षता के कारण स्नेह लौटकर न आ रहा हो और उसके न आने से शरीर पर जड़ता आदि दोष भी नहीं दिखलायी दे रहे हों तो उसकी उपेक्षा करें अर्थात उस स्नेह को लौटाने का प्रयत्न ही न करें। अपितु रात्रिभर विश्राम कर लेने के बाद प्रातःकाल सोंठ तथा धनियाँ डालकर उबाला हुआ जल अथवा केवल गुनगुना जल वह पीये।। ३२ ।।

अन्वासयेत्तृतीयेऽह्नि पञ्चमे वा पुनश्च तम्॥३३॥
यथा वा स्नेहपक्तिः स्यादतोऽत्युल्बणमारुतान् ।
व्यायामनित्यान् दीप्ताग्नीन् रूक्षांश्च प्रतिवासरम् ॥३४॥

पुनः अनुवासन-प्रयोग—तदनन्तर उस व्यक्ति को तीसरे अथवा पाँचवें दिन पुनः अनुवासनबस्ति का प्रयोग कराना चाहिए। अथवा जैसे-जैसे स्नेह का पाचन होता जाय वैसे-वैसे अनुवासनबस्ति देते रहना चाहिए। यही कारण है कि जिनके शरीरों में वातदोष की अधिकता हो, जो प्रतिदिन व्यायाम करते हों, जिनकी जठराग्नि प्रदीप्त हों तथा जो रूक्ष हों, उन्हें प्रतिदिन अनुवासनबस्ति का प्रयोग कराया जा सकता है।।३३-३४॥

इति स्नेहैस्त्रिचतुरैः स्निग्धे स्रोतोविशुद्धये।
निरूहं शोधनं युञ्ज्यादस्निग्धे स्नेहनं तनोः॥ ३५ ॥

निरूहणबस्ति-प्रयोग—इस प्रकार तीन या चार बार दी गयी स्नेहबस्तियों द्वारा शरीर के स्निग्ध हो जाने पर स्रोतों को शुद्ध करने के लिए शोधनकारक निरूहणबस्ति का उपयोग करना चाहिए। यदि उतने पर भी शरीर का भलीभाँति स्नेहन न हो पाया हो तो स्नेहपान आदि विधियों से शरीर को स्निग्ध कर लेना चाहिए।। ३५।।

पञ्चमेऽथ तृतीये वा दिवसे साधके शुभे।
मध्याह्ने किञ्चिदावृत्ते प्रयुक्ते बलिमङ्गले॥३६॥
अभ्यक्तस्वेदितोत्सृष्टमलं नातिबुभुक्षितम्।
अवेक्ष्य पुरुषं दोषभेषजादीनि चादरात् ॥ ३७॥
बस्तिं प्रकल्पयेद्वैद्यस्तद्विद्यैर्बहुभिः सह।

निरूहण-प्रयोगविधि-अनुवासनबस्ति का प्रयोग कर लेने के बाद तीसरे या पाँचवें दिन अथवा जो कार्य में सफलता दिलाने वाला (ज्योतिषशास्त्र के अनुसार ) दिन हो, मध्याह्नकाल जब कुछ दिन ढल जाय बलिदान तथा मंगलकार्य करके, उस व्यक्ति को अभ्यंग तथा स्वेदन कराकर जिसने मल-मूत्र का त्याग कर लिया हो, जो अधिक भूखा न हो तथा वात आदि दोषों एवं औषध-द्रव्यों का भलीभाँति विचार करके, बस्तिकर्मकुशल अन्य अनेक चिकित्सकों के साथ विचार-विमर्श करके बस्ति में प्रयुज्यमान द्रव का निर्माण (कल्पना) करें।। ३६-३७ ।।

क्वाथयेद्विंशतिपलं द्रव्यस्याष्टौ फलानि च ॥३८॥
ततः क्वाथाच्चतुर्थांशं स्नेहं वाते प्रकल्पयेत्।
पित्ते स्वस्थे च षष्ठांशमष्टमांशं कफेऽधिके ॥३९॥
सर्वत्र चाष्टमं भागं कल्काद्भवति वा यथा ।
नात्यच्छसान्द्रता बस्तेः पलमात्रं गुडस्य च ॥४०॥
मधुपट्वादिशेषं च युक्त्या-

बस्तिद्रव-निर्माणविधि—(निरूहणोपयोगी द्रव्यों को आगे कल्पस्थान अध्याय ४ के प्रारम्भ में देखें, क्योंकि यहाँ द्रव्यों का उल्लेख श्रीवाग्भट ने नहीं किया है, केवल बस्तिद्रवकल्पनाविधि का निर्देश किया है।) २० पल = ८० तोला परिमाण में यथोचित द्रव्यों को लेकर और उसमें ८ मैनफलों का चूर्ण करके ८ गुना जल में पकाकर अष्टमांश जल शेष रहने पर उतार कर छान लें। यदि वातदोष की अधिकता हो तो क्वाथ से चतुर्थांश उसमें स्नेह ( एरण्ड आदि का समुचित तेल) मिलायें, पित्त की अधिकता होने पर और वात आदि दोषों की समान स्थिति होने पर छठा भाग स्नेह मिलायें और यदि कफदोष की अधिकता हो तो आठवाँ भाग स्नेह मिलायें। इसके अतिरिक्त सभी स्थितियों में कल्क का आठवाँ भाग अथवा उतना कल्क (चटनी की भाँति पिसा हुआ द्रव्य ) मिलायें, जिससे ऊपर कहा गया क्वाथ न अधिक पतला हो जाय और न अधिक गाढ़ा। उसमें गुड़ एक पल, मधु तथा लवण आदि शेष द्रव्यों का युक्तिपूर्वक मिश्रण करना चाहिए ।। ३८-४० ।।

-सर्वं तदेकतः।
उष्णाम्बुकुम्भीबाष्पेण तप्तं खजसमाहतम्॥४१॥
प्रक्षिप्य बस्तौ प्रणयेत्पायौ नात्युष्णशीतलम् ।
नातिस्निग्धं न वा रूक्षं नातितीक्ष्णं न वा मृदु॥
नात्यच्छसान्द्रं नोनातिमात्रं नापटु नाति च ।
लवणं तद्वदम्लं च-

उक्त सभी द्रव्यों को एक पात्र (बर्तन ) में मिलाकर खौलते हुए जल में डालकर उसे भलीभाँति मथानी से मथें। तैयार हो जाने पर तथा गुनगुना होने पर इसे बस्तिपुट में भरें। भरने के पहले इस द्रव को देख लें—यह न अधिक स्निग्ध हो, न अधिक रूक्ष हो, न अधिक तीक्ष्ण हो, न अधिक हो, न अधिक अच्छ (स्वच्छ द्रव के आकार का) हो, न अधिक गाढ़ा हो, न मात्रा में कम हो, न अधिक हो, न अधिक लवण युक्त हो, न लवण से सर्वथा रहित हो, न अधिक अम्ल (खट्टा ) हो और न अम्लरहित ही हो; ऐसे गुनगुने द्रव पदार्थ द्वारा बस्ति दें।। ४१-४२।।

-पठन्त्यन्ये तु तद्विदः॥४३॥
मात्रां त्रिपलिकां कुर्यात्स्नेहमाक्षिकयोः पृथक् ।
कर्षाढ़ माणिमन्थस्य स्वस्थे कल्कपलद्वयम् ॥
सर्वद्रवाणां शेषाणां पलानि दश कल्पयेत्।

अन्य आचार्यों का मत—इस सम्बन्ध में बस्तिविशेषज्ञ दूसरे आचार्यों का मत इस प्रकार है—इसमें स्नेह तथा मधु की मात्रा ३-३ पल (१२-१२ तोला), माणिमन्थ (सेंधानमक) आधा कर्ष, कल्क २ पल (८ तोला ), इनके अतिरिक्त ऊपर जो-जो द्रव पदार्थ कहे गये हैं, उन्हें तथा क्वाथद्रव सहित १० पल (४० तोला ) लें। यह प्रमाण स्वस्थ (पूर्ण ) पुरुष के लिए कहा गया है ।। ४३-४४।।

माक्षिकं लवणं स्नेहं कल्कं क्वाथमिति क्रमात् ॥ ४५।।
आवपेत निरूहाणामेष संयोजने विधिः।

बस्तिद्रव्य-मिश्रणविधि-बस्ति में प्रयोग किये जाने वाले द्रव्यों को मिलाने की विधि—पात्र-विशेष में सबसे पहले क्रमशः मधु, लवण (नमक), स्नेह, कल्क, क्वाथ किया हुआ द्रव आदि डालते जाय और मथानी से इन्हें मथता जाय। यह बस्ति में डालने से पहले द्रव्यों को मिलाने की विधि है।॥४५॥

उत्तानो दत्तमात्रे तु निरूहे तन्मना भवेत्॥४६॥
कृतोपधानः सञ्जातवेगश्चोत्कटकः सृजेत्।

निरूहण का पश्चात् कर्म—जिसे निरूहणबस्ति दी गयी हो, वह बस्ति-प्रयोग के तत्काल बाद तकिया लगाकर कब निरूह द्रव्यों का वेग लौट आता है, इसका ध्यान रखता हुआ लेटा रहे और वेग की प्रतीति होते ही पाँवों के बल बैठकर ( इसी को उत्कट आसन = उकडूं बैठना कहते हैं ) मल का त्याग कर दें॥४६ ।।

आगतौ परमः कालो मुहूर्तो मृत्यवे परम्॥४७॥
तत्रानुलोमिकं स्नेहक्षारमूत्राम्लकल्पितम् ।
त्वरितं स्निग्धतीक्ष्णोष्णं बस्तिमन्यं प्रपीडयेत् ॥४८॥
विदद्यात्फलवर्ति वा स्वेदनोत्त्रासनादि च।

बस्ति के लौटने की अवधि—निरूहणबस्ति के लौट आने का अधिक-से-अधिक समय एक मुहूर्त (२ घड़ी = ४८ मिनट) है। इसके बाद भी यदि नहीं लौटता है तो इसके बाद मृत्यु हो सकती है। इस स्थिति में उन द्रव्यों का अनुलोमन ( विरेचन ) कराने वाली स्नेह, क्षार, गोमूत्र, अम्ल (काँजी ) मिलाकर बनायी गयी स्निग्ध, तीक्ष्ण (क्षार ) एवं गरमागरम दूसरी बस्ति का प्रयोग कर देना चाहिए अथवा मदनफलयुक्त फलवर्ति ( देखें-अ.ह.चि. ८।१३७) का प्रयोग कराना चाहिए अथवा पेट के ऊपर स्वेदन करायें अथवा उसे डराने-धमकाने का प्रयत्न करे, इससे भी मल निकल आता है।। ४७-४८।।

स्वयमेव निवृत्ते तु द्वितीयो बस्तिरिष्यते॥४९॥
तृतीयोऽपि चतुर्थोऽपि यावद्वा सुनिरूढता।

अनेक बस्ति-प्रयोग–यदि स्वाभाविक रूप से समय के भीतर बस्तिद्रव लौटकर बाहर न आ जाय तब तक आवश्यकतानुसार दूसरी, तीसरी तथा चौथी बस्ति का प्रयोग करते रहना चाहिए, जब तक उसमें सम्यक् निरूहण के लक्षण न देख लिये जायें।। ४९॥

विरिक्तवच्च योगादीन्विद्यात्-

सम्यग्योग आदि का संकेत-निरूहणबस्ति के सम्यग्योग, हीनयोग, अतियोग के लक्षणों को विरेचन के समान ही समझें। इनके लक्षण अ.हृ.सू. १८१३८-४१ में कहे गये हैं।

-योगे त भोजयेत्॥५०॥
कोष्णेन वारिणा स्नातं तनुधन्वरसौदनम् ।

सम्यग्योग में पश्चात् कर्म-निरूहणबस्ति का सम्यग्योग हो जाने के बाद उस व्यक्ति को गुनगुने जल से स्नान कराकर धन्व ( जांगल ) देश में उत्पन्न पशु-पक्षियों के मांसरस के साथ भात खिलाना चाहिए।५० ।।

विकारा ये निरूढस्य भवन्ति प्रचलैंर्मलैः॥५१॥
ते सुखोष्णाम्बुसिक्तस्य यान्ति भुक्तवतः शमम्।

विकारों का शमन—निरूहणबस्ति का प्रयोग कराने से मलों के अपने स्थान से इधर-उधर हो जाने के कारण जो तात्कालिक विकार उत्पन्न हो जाते हैं, वे सब गुनगुने जल द्वारा स्नान करने तथा मांसरस के साथ भोजन कर लेने पर शान्त हो जाते हैं।। ५१ ।।

अथ वातार्दितं भूयः सद्य एवानुवासयेत् ।।५२॥

पुनः अनुवासन-प्रयोग–वातरोग से पीड़ित व्यक्ति को निरूहणबस्ति देने के बाद तत्काल ही अनुवासनबस्ति का प्रयोग कराना चाहिए।५२ ।।

वक्तव्य–सद्य एवानुवासयेत्'–यहाँ ‘सद्यः' शब्द का अर्थ 'तत्क्षण = तत्काल' ही है, न कि 'सद्योमरणीयमिद्रिय' अध्याय में कहे गये 'सद्यः' के समान समझें। वहाँ तो श्रीचक्रपाणि के अनुसार सात रात या तीन रात तक का समय स्वीकार किया गया है। देखें—च.इ. १०।१-२। यहाँ भी सामान्य रूप से विरेचन के सात दिन बाद अनुवासनबस्ति देने की अनुमति चरक तथा सुश्रुत ने दी है। देखें—सु.चि. ३७।३ तथा च.सू. १५।१६। आवश्यक विधियों में सामान्य वचनों का उपयोग कहीं भी नहीं होता है।

सम्यग्घीनातियोगाश्च तस्य स्युः स्नेहपीतवत्।

अनुवासन के विविध योग—अनुवासनबस्ति के सम्यग्योग, हीनयोग तथा अतियोग स्नेहपान के सम्यग्योग, हीनयोग तथा अतियोग के समान होते हैं। देखें-अ.हृ.सू. १६।३०-३१।

किञ्चित्कालं स्थितो यश्च सपुरीषो निवर्तते ॥५३॥
सानुलोमानिलः स्नेहस्तत्सिद्धमनुवासनम् ।

सम्यग्योग का वर्णन–अनुवासनबस्ति द्वारा दिया गया जो स्नेह कुछ समय तक मलाशय में रुककर पुरीष (मल ) के साथ लौट आता है और जो वायु का अनुलोमन कर देता है, उसे अनुवासनबस्ति का सम्यग्योग कहा जाता है।।५३ ।।

एकं त्रीन् वा बलासे तु स्नेहबस्तीन् प्रकल्पयेत् ॥५४॥
पञ्च वा सप्त वा पित्ते, नवैकादश वाऽनिले।
पुनस्ततोऽप्ययुग्मांस्तु पुनरास्थापनं ततः॥५५॥

दोषानुसार बस्तिसंख्या–कफदोष में १ अथवा ३, पित्तदोष में ५ या ७ तथा वातदोष में ९ या ११ स्नेहबस्तियाँ देनी चाहिए। यदि आवश्यकता हो तो इसके आगे भी अयुग्म (विषम ) संख्या में (पहले कही हुई संख्याओं से बढ़ाकर बस्तियाँ देनी चाहिए। उसके बाद फिर आस्थापन (निरूहण ) बस्तियों का प्रयोग कराना चाहिए। यह आस्थापनबस्ति स्नेहबस्तियों के साथ-साथ भी दी जाती है।। ५४-५५ ।।

कफपित्तानिलेष्वन्नं यूषक्षीररसैः क्रमात् ।

आहार-विधान–बस्ति-प्रयोग के दिनों में आहारविधि का शास्त्रीय निर्देश-कफदोष में यूष ( जूस ) के साथ, पित्तदोष में दूध के साथ और वातदोष में मांसरस के साथ सुपाच्य भोजन देना चाहिए।

वातघ्नौषधनिष्क्वाथत्रिवृतासैन्धवैर्युतः ॥५६॥
बस्तिरेकोऽनिले स्निग्धः स्वाद्वम्लोष्णो रसान्वितः।

वातदोष में बस्ति-प्रयोग--वातनाशक (भद्रदारु अथवा दशमूल आदि ) द्रव्यों का क्वाथ बनाकर उसमें निशोथ, सेंधानमक, मधुर तथा अम्लरस एवं उष्णवीर्य पदार्थों को मिलाकर एक बस्ति देनी चाहिए।।५६ ।।

न्यग्रोधादिगणक्वाथपद्मकादिसितायुतौ॥५७॥
पित्ते स्वादुहिमौ साज्यक्षीरेक्षुरसमाक्षिकौ ।

पित्तदोष में बस्ति-प्रयोग-न्यग्रोधादि गण के क्वाथ में पद्मकादि गणोक्त द्रव्यों का कल्क, मिश्री, घी, दूध, ईख का रस तथा मधु आदि मधुर एवं शीतल द्रव्यों को मिलाकर एक बस्ति देनी चाहिए ।। ५७ ।।

आरग्वधादिनिष्क्वाथवत्सकादियुतास्त्रयः ॥५८॥
रूक्षाः सक्षौद्रगोमूत्रास्तीक्ष्णोष्णकटुकाः कफे।

कफदोष में बस्ति-प्रयोग-आरग्वधादि गणोक्त द्रव्यों के क्वाथ में वत्सकादि गणोक्त द्रव्यों का कल्क, रूक्षताकारक मधु, गोमूत्र, तीक्ष्ण, उष्ण एवं कटु द्रव्यों को मिलाकर तीन बस्तियाँ देनी चाहिए।। ५८ ।।

वक्तव्य—ऊपर कतिपय गणों के नाम आये हैं, उन्हें अ.हृ.सू. १५ में इस प्रकार देखें वातनाशक गण श्लोक ५, न्यग्रोधादि गण श्लोक ४१-४२, पद्मकादि गण श्लोक १२, आरग्वधादि गण श्लोक ७ तथा १७-१८ तथा वत्सकादि गण श्लोक ३३-३४।

त्रयस्ते सन्निपातेऽपि दोषान् घ्नन्ति यतः क्रमात्॥५९॥

सन्निपात में बस्ति-प्रयोग–सन्निपात में भी ऊपर कही गयी तीनों वात, पित्त तथा कफ नाशक बस्तियाँ क्रमानुसार दी जाती हैं। इस क्रम को कुशल चिकित्सक जानते हैं, अतएव ये तीनों दोषों का शोधन करती हैं।। ५९।।

त्रिभ्यः परं बस्तिमतो नेच्छन्त्यन्ये चिकित्सकाः।
न हि दोषश्चतुर्थोऽस्ति पुनर्दीयेत यं प्रति॥६०॥

तीन ही बस्तियाँ—इस दृष्टिकोण से कुछ चिकित्सक केवन तीन ही बस्तियाँ होती हैं, ऐसा कहते हैं; क्योंकि दोष भी तीन ही होते हैं, चौथा दोष भी नहीं होता, जिसके लिए अन्य बस्ति की कल्पना की जाय।। ६०॥

उत्क्लेशनं शुद्धिकरं दोषाणां शमनं क्रमात्।
त्रिधैव कल्पयेद्वस्तिमित्यन्येऽपि प्रचक्षते॥६१ ॥

बस्तिनाम-भेद-दूसरे आचार्यों का कथन है कि विधिभेद से बस्तियाँ तीन प्रकार की होती हैं—१. उत्क्लेशन, जो भीतर जाकर जमे हुए दोषों को उभार देती है। २. शुद्धिकर, विरेचन द्वारा बाहर निकाल देने वाली तथा ३. शमन, उपस्थित दोषों का शमन करने वाली॥ ६१ ।।

दोषौषधादिबलतः सर्वमेतत् प्रमाणयेत् ।

उक्त मतों की प्रामाणिकता—उक्त सभी मत प्रामाणिक हैं, ऐसा समझना चाहिए। क्योंकि वात आदि दोषों का, विविध गुणवाले औषध-द्रव्यों का तथा देश-काल आदि के बल का विचार करने से इनकी प्रामाणिकता स्वयं सिद्ध है। वास्तव में जो भेद दृष्टिगोचर होता है, वह केवल विधिभेद ही है।

सम्यनिरूढलिङ्गं तु नासम्भाव्य निवर्तयेत् ॥ ६२॥

बस्तिकर्म की अवधि—जब तक इसी अध्याय में कथित सम्यक् निरूहण के लक्षण दिखलायी न दें तब तक बस्तिक के प्रयोगक्रम को रोकना नहीं चाहिए।। ६२ ।।

वक्तव्य-निरूहणबस्ति के सम्यग्योग का वर्णन इसी अध्याय के ५०वें पद्य में सूत्ररूप से कहा गया है, अतः वमन एवं विरेचन के सम्यग्योग के समान इसके लक्षणों का भी विचार कर लेना चाहिए।

प्राक्स्नेह एकः पञ्चान्ते द्वादशास्थापनानि च ।
सान्वासनानि कर्मेवं बस्तयस्त्रिंशदीरिताः।। ६३॥

बस्तिकर्म का वर्णन—प्रस्तुत बस्तिकर्म के आरम्भ में १ स्नेहबस्ति दी जाती है तथा अन्त में ५ स्नेहबस्तियाँ और बीच में १२ आस्थापन (निरूहण ) बस्तियाँ तथा १२ अनुवासनबस्तियाँ दी जाती हैं। इस प्रकार इन बस्तियों की कुल संख्या ३० हो जाती है। इस क्रम से प्रयुक्त विधि को 'बस्तिकर्म' कहते हैं।। ६३ ॥

कालः पञ्चदशैकोऽत्र प्राक् स्नेहोऽन्ते त्रयस्तथा ।
षट् पञ्चबस्त्यन्तरिताः-

बस्तिकाल का वर्णन–बस्तिकाल में सर्वप्रथम १ स्नेहबस्ति का प्रयोग किया जाता है और अन्त में ३ स्नेहबस्तियाँ दी जाती हैं, मध्य में ६ स्नेहबस्तियाँ तथा इनके बीच-बीच में ५ निरूहणबस्तियाँ दी जाती हैं। इस प्रकार इन कुल बस्तियों की संख्या १५ हो जाती है। इस क्रम से प्रयुक्त विधि को 'बस्तिकाल' कहते हैं।

योगोऽष्टौ बस्तयोऽत्र तु॥६४॥
त्रयो निरूहाः स्नेहाश्च स्नेहावाद्यन्तयोरुभौ।

बस्तियोग का वर्णन—बस्तियोग में सर्वप्रथम १ स्नेहबस्ति और अन्त में १ स्नेहबस्ति दी जाती है। इन दोनों के बीच में ३ निरूहणबस्तियाँ एवं इन्हीं के बीच-बीच में ३ अनुवासनबस्तियाँ दी जाती हैं। इस प्रकार इन कुल बस्तियों की संख्या ८ हो जाती है। इस क्रम से प्रयुक्त विधि को 'बस्तियोग' कहते हैं।। ६४॥

स्नेहबस्तिं निरूहं वा नैकमेवाति शीलयेत्॥६५॥
उत्क्लेशाग्निवधौ स्नेहान्निरूहान्मरुतो भयम् ।

स्नेह एवं निरूहण प्रयोग केवल स्नेहबस्तियों अथवा केवल निरूहणबस्तियों का निरन्तर सेवन कराना उचित नहीं है, क्योंकि केवल स्नेहबस्तियों का प्रयोग कराने से दोषों का उत्क्लेश (पित्त एवं कफ दोषों की वृद्धि तथा मल का उभर आना) हो जाता है और मन्दाग्नि हो जाती है। केवल निरूहणबस्तियों का निरन्तर अधिक सेवन कराने से वातदोष की वृद्धि का भय हो सकता है।। ६५ ।।

तस्मान्निरूढः स्नेह्यः स्यान्निरूह्यश्चानुवासितः॥६६॥

बस्तियों का प्रयोगक्रम—इसलिए निरूहणबस्ति-प्रयोग के बाद स्नेहबस्ति का और स्नेहबस्ति के बाद निरूहणबस्ति का प्रयोग अवश्य करना चाहिए।। ६६ ।।

स्नेहशोधनयुक्त्यैवं बस्तिकर्म त्रिदोषजित् ।

बस्ति की त्रिदोषनाशकता—उक्त विधि के अनुसार स्नेहबस्ति द्वारा स्नेहन तथा निरूहण बस्ति द्वारा शोधन कराने से यह बस्ति-प्रयोग त्रिदोषनाशक होता है।

ह्रस्वया स्नेहपानस्य मात्रया योजितः समः॥६७॥
मात्राबस्तिः स्मृतः स्नेहः-

मात्राबस्ति का वर्णन—स्नेहपान की ह्रस्वमात्रा (१ कर्ष = १ तोला ) के बराबर स्नेह को अनुवासनबस्ति द्वारा जो प्रयुक्त किया जाता है, उसका नाम 'मात्राबस्ति' है।। ६७।।

-शीलनीयः सदा च सः।
बालवृद्धाध्वभारस्त्रीव्यायामासक्तचिन्तकैः॥ ६८॥
वातभग्नाबलाल्पाग्निनृपेश्वरसुखात्मभिः।
दोषघ्नो निष्परीहारो बल्यः सृष्टमलः सुखः॥६९॥

मात्राबस्ति-सेवन—उक्त प्रकार की मात्राबस्ति का निम्नोक्त व्यक्तियों को सदा सेवन करने का निर्देश—बालक, वृद्ध, जो प्रतिदिन पैदल चलते हों, बोझा ढोते हों, स्त्री-सहवास करते हों, व्यायामशील व्यक्तियों को, विचारकों, वातरोगियों, अस्थिभंग से पीड़ितों, दुर्बलों, मन्दाग्निवालों, राजाओं, धनवानों तथा सुख से जीवन बिताने वालों को इसका प्रतिदिन सेवन करना चाहिए। यह मात्राबस्ति सभी दोषों को शान्त करती है, इसमें किसी प्रकार का परहेज (पथ्य-अपथ्य का विचार ) नहीं है। यह बलवर्धक है तथा मल-मूत्र को सरलता से निकालने वाली एवं सुखदायक होती है।। ६८-६९ ।।

वक्तव्य-उक्त विषय का समर्थन देखें—च.सि. ११२७ में है। मात्राभेद से स्नेहपान तीन प्रकार का होता है-१.उत्तम मात्रा- १ पल = ४ तोला, २. मध्यम मात्रा- ३ कर्ष = ३ तोला तथा ३. जघन्य मात्रा-आधा पल = २ तोला।

मात्राबस्ति की विशेषता—जिस प्रकार प्रतिदिन के भोजन में घृत आदि स्नेहों का सेवन किया जाता है, इसके लिए किसी प्रकार का परहेज नहीं किया जाता है, उसी प्रकार इस मात्राबस्ति के सेवन में भी किसी प्रकार के परीहार (परहेज) की आवश्यकता नहीं होती है। स्नेहपान की ह्रस्वमात्रा वह होती है, जो प्रातःकाल सेवन करने के बाद दोपहर के भोजन करने तक पच जाय। इसमें भी समाग्नि, मन्दाग्नि, विषमाग्नि एवं तीक्ष्णाग्नि का विचार कर लेना चाहिए। ह्रस्वमात्रा में प्रयुक्त स्नेहपान से जो लाभ होते हैं वे समस्त मात्राबस्ति के सेवन से होते हैं।

बस्तौ रोगेषु नारीणां योनिगर्भाशयेषु च।
द्वित्रास्थापनशुद्धेभ्यो विदध्यादस्तिमुत्तरम् ॥ ७० ॥

उत्तरबस्ति का वर्णन—नर तथा नारियों के बस्तिगत रोगों में एवं विशेषकर नारियों के योनिगत तथा गर्भाशयगत रोगों में उत्तरबस्ति का प्रयोग तब करना चाहिए जब कि इसके पहले दो-तीन बार आस्थापन (निरूहण ) बस्ति का प्रयोग कराकर मलाशय का भलीभाँति शोधन हो जाय ।। ७० ।।

वक्तव्य-उत्तरबस्ति उसे कहते हैं जिसका प्रयोग नर एवं नारी के मूत्रमार्ग द्वारा किया जाता है। निरूहणबस्ति को शोधनबस्ति तथा अनुवासनबस्ति को स्नेहनबस्ति भी कहा जाता है।

आतुराङ्गुलमानेन तन्नेत्रं द्वादशाङ्गुलम्।
वृत्तं गोपुच्छवन्मूलमध्ययोः कृतकर्णिकम् ॥७१॥
सिद्धार्थकप्रवेशाग्रं श्लक्ष्णं हेमादिसम्भवम्।
कुन्दाश्वमारसुमनःपुष्पवृन्तोपमं दृढम्॥७२॥

उत्तरबस्ति में नेत्र का प्रमाण-मूत्रमार्ग में जो बस्ति दी जाती है, उसके नेत्र की लम्बाई रोगी की अँगुलियों से बारह अंगुल होनी चाहिए। इस नेत्र का अगला भाग गोलाकार तथा शेष भाग गाय की पूँछ की भाँति अर्थात् आगे की ओर पतला और मूल (जड़) की ओर क्रमशः मोटा होना चाहिए। उस नेत्र (नलिका) के मूल भाग में बस्तिपुट को बाँधने के लिए दो कर्णिकाएँ बनी हों। एक मूल में और दूसरी मध्य भाग की ओर। उसके नेत्र के अगले भाग का छिद्र इतना बड़ा हो जिसमें सरलता से सरसों का दाना प्रवेश कर सके। नेत्रनलिका का बाहरी भाग चिकना हो तथा सोना, चाँदी, ताँबा आदि धातुओं से बना हो। इसका अगला भाग कुन्द, कनेर अथवा चमेली के के वृन्त के आकार का हो तथा उसे दृढ़ होना चाहिए।। ७१-७२।।

तस्य बस्तिर्मुदुलघुर्मात्रा शुक्तिर्विकल्प्य वा।

स्नेहमात्रा का प्रमाण—उस उत्तरबस्ति का बस्तिपुट गुद में दी जाने वाली बस्ति की तुलना में छोटा तथा कोमल होना चाहिए। इसमें स्नेह की मात्रा एक शुक्ति (२ कर्ष = २ तोला ) अथवा जिसे उत्तरबस्ति दी जा रही है उसके बल, अवस्था आदि का विचार कर तदनुसार कुछ कम या ज्यादा की जा सकती है। वक्तव्य-स्त्री-पुरुष भेद से उत्तरबस्ति के विचारणीय विषयों के लिए आप देखें—सु.चि. ३७ श्लोक १०२ से १२१ तक; तभी इस प्रकरण में आवश्यक वय, मात्रा, काल आदि का स्पष्टीकरण हो सकता है, अतः आप उक्त सन्दर्भो का अवलोकन अवश्य कर लें।

अथ स्नाताशितस्यास्य स्नेहबस्तिविधानतः॥७३॥
ऋजोः सुखोपविष्टस्य पीठे जानुसमे मृदौ ।
हृष्टे मेढ़े स्थिते चर्जी शनैः स्रोतोविशुद्धये।।७४॥
सूक्ष्मां शलाकां प्रणयेत्तया शुद्धेऽनुसेवनि।
आमेहनान्तं नेत्रं च निष्कम्पं गुदवत्ततः॥७५ ॥
पीडितेऽन्तर्गते स्नेहे स्नेहबस्तिक्रमो हितः।

उत्तरबस्ति-प्रयोगविधि-उत्तरबस्ति का प्रयोग करने के पहले स्नेहबस्ति की विधि से उस व्यक्ति को गुनगुने जल से स्नान कराकर पथ्य भोजन खिलाकर, जानु (घुटने) भर ऊँचे मुलायम पीठ (आसन) पर सीधा तथा आराम से बैठे हुए पुरुष के हृष्ट एवं सीधे लिंग के मूत्र निकलने वाले छिद्र में स्रोतस् को शुद्ध करने के लिए सूक्ष्म (उस छिद्र में प्रवेश करने योग्य ) शलाका (कैथीटर नामक आधुनिक यन्त्र) का धीरे-धीरे प्रवेश कराये। उस उत्तरबस्ति के नेत्र द्वारा मार्ग शुद्ध हो गया है, ऐसा अनुमान हो जाने पर सेवनी की सीध में मूत्रमार्ग के अन्त तक नेत्र का प्रवेश करता जाय। इसमें भी गुदबस्ति की भाँति नेत्र प्रवेश कराते समय चिकित्सक का हाथ हिलना नहीं चाहिए। तदनन्तर बस्तिपुट को दबाना चाहिए। जब स्नेहबस्ति (मूत्राशय ) में पहुँच जाय तब बस्तिनेत्र को धीरे-धीरे निकालें। इस प्रकार उत्तरबस्ति-विधि से दिया गया स्नेह हितकर होता है।।७३-७५ ।।

वक्तव्य—इसके बाद जब वह स्नेह लौट आता है, तो उस व्यक्ति को भूख लगने पर इसी अध्याय में कहे गये श्लोक ३० की भाँति उचित भोजन करायें। शंका-'हृष्टे मेढ़े' (अ.सं.सू. २८/६६); सुश्रुत में—'ततः समं स्थापयित्वा नालमस्य प्रहर्षितम् । (सु.चि. ३७।११० ) तथा चरक में—'ऋजोः सुखोपविष्टस्य हृष्टे मेढ़े घृताक्तया। शलाकयाऽन्विष्य गतिं यद्यप्रतिहता व्रजेत्' ।। (च.सि. ९।५४) इस प्रकार सभी आचार्यों का पुरुष की मूत्रेन्द्रिय में उत्तरबस्ति देने का एक ही दृष्टिकोण है और होना भी चाहिए। किन्तु चरक को छोड़कर अन्य सभी के वचन इस दृष्टि से तब तक विवादास्पद कहे जा सकते हैं जब तक हम निम्न समाधान पक्ष को प्रस्तुत नहीं करते। क्योंकि हृष्टमेद्र (स्त्री-सहवास के लिए उद्यत पुरुष की मूत्रेन्द्रिय अर्थात् लिंग ) इतना तन जाता है कि उसमें द्रवरूप मूत्र तो निकल ही नहीं पाता, भला उस स्थिति में उसके भीतर बस्तिनेत्र का प्रवेश बाधारहित कैसे किया या कराया जा सकता है ?

समाधान—प्राचीन आचार्य-परम्परा पर अपना अज्ञान नहीं लादना चाहिए, अतएव सुश्रुत ने कहा है—'एक ही शास्त्र को पढ़ता हुआ व्यक्ति शास्त्र के रहस्य को नहीं जान सकता, इसलिए जिसने अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया है वही शास्त्र के रहस्य को जान सकता है। देखें—सु.सू. ४७। जब हम व्याकरण की दृष्टि से विचार करते हैं, तो उक्त स्थलों में कहीं भी शंका नहीं रह जाती। 'हृष तुष्टौ' धातु से 'क्त' प्रत्यय करने पर 'हृष्ट' रूप बनता है। जिसका अर्थ होता है—तुष्टि, हर्ष, विस्मित तथा प्रतिघात या प्रतिहत; इसी को मनोहत भी कहते हैं। 'धातूनाम् अनेकार्थत्वात्' उनके प्रसंगवश अनेक अर्थ कर लिए जाते हैं, किन्तु हम उक्त अर्थों को कोश एवं व्याकरण की सहायता से ले रहे हैं। देखें—पाणिनीय सूत्र 'हषेर्लोमसु' (७।२।२९) 'विस्मितः प्रतिघातयोश्च' (वार्तिक) के तथा 'मनोहतः प्रतिहतः प्रतिबद्धो हतश्च सः'। (अमरकोश) आप ध्यान दें हृष धातु से हृष्ट एवं हृषित दो ही रूप निष्पन्न होते हैं, न कि हर्षित या प्रहर्षित, जिसका प्रयोग सुश्रुत ने किया है। किन्तु 'ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोऽनुधावति' के अनुसार जब हम ‘हर्षित' रूप को सिद्ध करने का प्रयास करते हैं, तो हमें ‘हर्षः सञ्जातः अस्य' इस प्रकार विग्रह करके 'तदस्य सञ्जातं तारकादिभ्य इतच्'। (५।२।३६ ) सूत्र से इतच् प्रत्यय करना होगा, क्योंकि 'तारकादिगण' में हर्ष शब्द का पाठ है। इस दृष्टि से हर्ष शब्द का एक अर्थ प्रतिघात या प्रतिहत भी होता है, अत: लिंग की प्रतिहत' स्थिति में नेत्रप्रणयन सरल, स्वाभाविक एवं शास्त्रसम्मत है ही। चरक ने पहले ही कहा है—शलाका का प्रवेश करके देखें कि उसकी गति में कहीं रुकावट तो नहीं आ रही है ? यदि आ रही हो तो बस्तिनेत्र का प्रवेश न करायें। क्या सुबोध भाषा है आचार्य चरक की! इसी प्रसंग में आप आचार्य शार्ङ्गधर के विचारों को देखें-शा.उ.खं. ७।३-५। इन्होंने पुरुषों की उत्तरबस्ति-प्रयोगविधि में इस प्रकार का उलझाने वाला पाठ नहीं दिया है।

बस्तीननेन विधिना दद्यात् त्रीश्चतुरोऽपि वा ॥७६ ॥
अनुवासनवच्छेषं सर्वमेवास्य
सर्वमेवास्य चिन्तयेत्।

उत्तरबस्ति की संख्या—ऊपर कही गयी विधि से तीन या चार बस्तियाँ नर-नारी के मूत्रमार्ग में दें। शेष सभी विषयों ( सम्यग्योग, हीनयोग तथा अतियोग, आहार-विहार एवं चिकित्सा आदि) का विचार अनुवासनबस्ति की भाँति करें।। ७६ ।।

स्त्रीणामार्तवकाले तु योनिर्गृह्णात्यपावृतेः॥७७॥
विदधीत तदा तस्मादनृतावपि चात्यये ।
योनिविभ्रंशशूलेषु योनिव्यापद्यसृग्दरे ॥ ७८॥

स्त्रियों में उत्तरबस्ति-स्त्रियों की योनि का मुख आर्तवकाल (मासिकधर्म के दिनों) में खुला रहता है, अत: उस काल में उत्तरबस्ति का प्रयोग करना चाहिए; क्योंकि इन दिनों दी गयी बस्ति के स्नेह का वह ग्रहण कर लेती है। अत्यन्त आवश्यकता होने पर ऋतुकाल के बीत जाने पर भी उत्तरबस्ति का प्रयोग किया जा सकता है। जैसे—योनिभ्रंश (काँच की भाँति योनि = गर्भाशय के बाहर निकल आने पर ), योनिशूल, योनिव्यापदों तथा रक्तप्रदररोग आदि रोगों के होने पर उत्तरबस्ति का प्रयोग करना चाहिए।।७७-७८ ।।

नेत्रं दशाङ्गुलं मुद्गप्रवेशं चतुरङ्गुलम्।
अपत्यमार्गे योज्यं स्याद् द्वयङ्गुलं मूत्रवर्त्मनि ॥ ७९ ॥
मूत्रकृच्छ्रविकारेषु, बालानां त्वेकमङ्गुलम् ।

बस्तिनेत्र का परिमाण–उत्तरबस्ति का नेत्र १० अंगुल लम्बा होना चाहिए। इसके अगले भाग का छिद्र मूंग के दाने के सरलता से आने-जाने योग्य हो, उसका प्रवेश भगमार्ग में चार अंगुल मात्र कराना चाहिए। मूत्रकृच्छ्र आदि रोगों में जब इसे मूत्रमार्ग में प्रवेश कराना हो तो दो अंगुल मात्र प्रवेश करायें। कन्याओं को यदि मूत्रमार्ग में बस्ति देनी हो तो एक अंगुल मात्र प्रवेश करायें।। ७९ ।।

प्रकुञ्चो मध्यमा मात्रा, बालानां शुक्तिरेव तु॥८०॥

स्नेहमात्रा-निर्देश—स्त्रियों में उत्तरबस्ति-प्रयोग के लिए स्नेह की मध्यम मात्रा १ प्रकुंच = ४ तोला
होती है और बालिकाओं के लिए मध्यम मात्रा १ शुक्ति = २ तोला होती है।। ८० ।।

उत्तानायाः शयानायाः सम्यक् सङ्कोच्य सक्थिनी।
ऊर्ध्वजावास्त्रिचतुरानहोरात्रेण योजयेत् ॥
बस्तीस्त्रिरात्रमेवं च स्नेहमात्रां विवर्द्धयन्।
त्यहमेव च विश्रम्य प्रणिदध्यात्पुनस्त्र्यहम् ॥८२॥

उत्तरबस्ति-प्रयोगविधि—स्त्री को चित लेटाकर उसकी जानुओं को भलीभाँति मोड़कर घुटनों को ऊपर की ओर उठाकर एक दिन-रात (२४ घण्टे ) में तीन अथवा चार बार बस्ति का प्रयोग कराना चाहिए। इस प्रकार स्नेह की मात्रा को क्रमशः बढ़ाता हुआ तीन दिन तक बस्तियों का प्रयोग कराता रहे। तीन दिन रुककर पहले की भाँति फिर तीन दिन तक बस्ति-प्रयोग कराये।। ८१-८२ ।।

वक्तव्य-स्त्रियों को उत्तरबस्ति का प्रयोग कराना केवल स्त्री-चिकित्सक का ही अधिकार है। यही लोकाचार भी है और यही पक्ष न्यायसंहितासम्मत भी है। पुरुष-चिकित्सक इस कार्य को न करें। इस सम्बन्ध में सुश्रुत ने सु.चि. ३७।११४-११५ में उत्तरबस्ति-प्रयोगकर्ता को 'विचक्षणः' कहा है। यहाँ पर जो पाठभेद दिया है वह है 'समाहितः', जिसकी व्याख्या करते हुए आचार्य डल्हण कहते हैं—'कामसङ्कल्परहितेन अचलचित्तप्रकृतिना' । अर्थ स्पष्ट है। सुश्रुत एवं चरक ने प्रसवकाल में नारियों का अधिकार बतलाया है, यह बस्तिकर्म भी प्रायः उसी प्रकार की स्थिति है।

पक्षाद्विरेको वमिते ततः पक्षान्निरूहणम्।
सद्यो निरूढश्चान्वास्यः सप्तरात्राद्विरेचितः॥८३॥

वमन आदि में काल-निर्देश-वमन कराने के १५ दिन के बाद विरेचन करायें, तदनन्तर १५ दिन के बाद निरूहणबस्ति का प्रयोग करें और निरूहणबस्ति का प्रयोग करने के तत्काल बाद उसे अनुवासन- बस्ति दें और विरेचन कराने के एक सप्ताह बाद भी अनुवासनबस्ति का प्रयोग कराना चाहिए ।। ८३ ।।

यथा कुसुम्भादियुतात्तोयाद्रागं हरेत्पटः ।
तथा द्रवीकृताइहादस्तिर्निर्हरते मलान् ।। ८४॥

बस्ति द्वारा दोषनिर्हरण—जिस प्रकार जल में घुले हुए कुसुम्भी रंग को पट (वस्त्र ) ग्रहण कर लेता है, उसी प्रकार शरीर में द्रवीभूत मलों को बस्तिप्रयोग शरीर से बाहर निकाल देता है।। ८४ ।।

शाखागताः कोष्ठगताश्च रोगा मर्मोर्ध्वसर्वावयवाङ्गजाश्च ।
ये सन्ति तेषां न तु कश्चिदन्यो वायोः परं जन्मनि हेतुरस्ति ।। ८५ ।।
विट्श्लेष्मपित्तादिमलोच्चयानां विक्षेपसंहारकरः स यस्मात् ।
तस्यातिवृद्धस्य शमाय नान्यद् बस्तेविना भेषजमस्ति किञ्चित् ॥८६॥
तस्माच्चिकित्सार्द्ध इति प्रदिष्टः कृत्स्ना चिकित्साऽपि च बस्तिरेकैः।

बस्ति-प्रयोग की प्रशंसा–जो रोग शाखागत (त्वचा तथा रक्त आदि धातुओं), कोष्ठगत तथा मर्मस्थानों की विकृति द्वारा शरीर के सभी सिर आदि अवयवों में व्याप्त हो जाते हैं अथवा अंग-विशेष में व्याप्त होते हैं, उन सबकी उत्पत्ति में वातदोष के अतिरिक्त कोई दूसरा कारण नहीं होता है। क्योंकि मल, मूत्र, कफ, पित्त आदि शरीर के अन्य मलों को इधर-उधर करना तथा संहार ( शमन ) करना—ये सब वातदोष के कार्य हैं। अतः बढ़े हुए अथवा विकारयुक्त वातदोष की शान्ति के लिए बस्तिप्रयोग के अतिरिक्त और कोई चिकित्सा नहीं है। इसलिए बस्तिचिकित्सा को आधी चिकित्सा माना जाता है, कुछ आचार्य इसे सम्पूर्ण चिकित्सा स्वीकार करते हैं।। ८५-८६ ।।

तथा निजागन्तुविकारकारिरक्तौषधत्वेन शिराव्यधोऽपि ॥ ८७॥
इति श्रीवैद्यपतिसिंहगुप्तसूनुश्रीमद्वाग्भटविरचितायामष्टाङ्गहृदयसंहितायां
प्रथमे सूत्रस्थाने बस्तिविधिर्नामैकोनविंशतितमोऽध्यायः॥१९॥

सिरावेध का महत्त्व—इसी प्रकार शारीरिक तथा आगन्तुज रोगों का उत्पादक होने के कारण विकृत रक्तधातु की प्रधान चिकित्सा सिरावेध है। शल्यतन्त्र में सिरावेध को आधी चिकित्सा अथवा दूसरे विद्वानों के मत में इसे सम्पूर्ण चिकित्सा भी कहा गया है।। ८७।।

वक्तव्य-सुश्रुत के अनुसार शल्यतन्त्र में सिरावेध को जिस प्रकार आधी चिकित्सा कहा गया है, , वैसा ही महत्त्व कायचिकित्सा में बस्तिचिकित्सा का है। देखें—सु.शा. ८।२३ और च.सि. ११४०। इस प्रकार वैद्यरत्न पण्डित तारादत्त त्रिपाठी के पुत्र डॉ० ब्रह्मानन्द त्रिपाठी द्वारा विरचित निर्मला हिन्दी व्याख्या, विशेष वक्तव्य आदि से विभूषित अष्टाङ्गहृदय-सूत्रस्थान में बस्तिविधि नामक उन्नीसवाँ अध्याय समाप्त ।।१९।।

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