स्वास्थ्य-चिकित्सा >> अष्टांगहृदय अष्टांगहृदयवाग्भट
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आयुर्वेद के स्तम्भ ग्रंथ अष्टांगहृदय का पहला भाग
अष्टादशोऽध्यायः
अथातो वमनविरेचनविधिमध्यायं व्याख्यास्यामः ।
इति ह स्माहुरात्रेयादयो महर्षयः।
अब हम यहाँ से वमन-विरेचनविधि नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे। जैसा कि आत्रेय आदि महर्षियों ने कहा था।
उपक्रम-सत्रहवें अध्याय के अन्तिम पद्य में कहा है कि स्नेहन तथा स्वेदन विधियों द्वारा कोष्ठ में लाये गये या पहुँचाये गये दोषों को संशोधन-विधियों से बाहर किया जायेगा। अतः प्रस्तुत अध्याय में उन दोषों को निकालने के लिए वमन तथा विरेचन विधियों का विस्तार से वर्णन किया जा रहा है। भगवान् पुनर्वसु ने वमन-विरेचन की व्याख्या इस प्रकार की है—'तत्र'"लभते'। (च.क. १।४) अर्थात् मुखभाग से दोषों का जो निर्हरण किया जाता है, उसे वमन कहते हैं और निचले (गुद ) भाग से जो दोषों का निर्हरण किया जाता है, उसे विरेचन कहते हैं अथवा शरीर के दोषों को निकालने के कारण दोनों (वमन तथा विरेचन ) की विरेचन संज्ञा है। यही मत सुश्रुत का भी है। देखें—सु.चि. ३३।४।
संक्षिप्त सन्दर्भ-संकेत–च.सू. १५ एवं १६; च.सि. १, २, ६; सु.चि. ३३, ३९; अ.सं.सू. २७ में देखें।
कफे विदध्याद्वमनं संयोगे वा कफोल्बणे।
तद्वद्विरेचनं पित्ते-
वमन-विरेचन व्यवस्था कफदोष की वृद्धि होने पर तथा कफजनित रोगों में अथवा कफदोष की प्रधानता जिस दोष (वात-पित्त) के साथ हो, तो इन सभी में वमन कराना चाहिए। इसी प्रकार पित्तदोष की वृद्धि होने पर तथा पित्तजनित रोगों में अथवा पित्तदोष की प्रधानता जिस दोष के साथ हो, तो इन सभी विकारों में विरेचन कराना चाहिए।
-विशेषेण तु वामयेत् ॥१॥
नवज्वरातिसाराधःपित्तासृग्राजयक्ष्मिणः ।
कुष्ठमेहापचीग्रन्थिश्लीपदोन्मादकासिनः॥२॥
श्वासहृल्लासवीसर्पस्तन्यदोषोर्ध्वरोगिणः ।
वमन-निर्देश—विशेष करके निम्नलिखित रोगों में वमन कराने का निर्देश दिया गया है—नवज्वर की मुक्ति हो जाने पर, अतिसार में, नीचे के मार्ग से होने वाले रक्तपित्तरोग में, राजयक्ष्मारोग में, कुष्ठरोग में, अपचीरोग में, ग्रन्थिरोग में, श्लीपदरोग में, उन्माद में, कास में, श्वास में, हृल्लास (जी मिचलाना) में, विसर्परोग में, दुग्धदोष में एवं ऊर्ध्वजत्रु में होने वाले रोगों में।। १-२॥
वक्तव्य-उक्त रोगों में वमन का विधान इसलिए किया गया है कि इनमें कफ की प्रधानता होती ही है, यदि कभी किसी रोग में ऐसा न देखा जाय तो वमन न करायें। वमन तथा विरेचन विधियों में पहले वमन कराने का निर्देश इसलिए दिया गया है कि वमन द्वारा कफ के निकल जाने पर विरेचन-विधि सरलता से की जा सकती है और यदि बिना वमन कराये गये विरेचन कराया जाता है, तो वह बढ़ा हुआ कफ विरेचन कराते समय ग्रहणी को ढक देता है, जिससे भलीभाँति विरेचन नहीं हो पाता है। अतः विरेचन कराने के पहले वमन करा लेना चाहिए।
अवाम्या गर्भिणी रूक्षः क्षुधितो नित्यदुःखितः॥३॥
बालवृद्धकृशस्थूलहृद्रोगिक्षतदुर्बलाः।
प्रसक्तवमथुप्लीहतिमिरक्रिमिकोष्ठिनः॥४॥
ऊर्ध्वप्रवृत्तवाय्वस्रदत्तबस्तिहतस्वराः।
मूत्राघात्युदरी गुल्मी दुर्वमोऽत्यग्निरर्शसः॥५॥
उदावर्तभ्रमाष्ठीलापार्श्वरुग्वातरोगिणः।
ऋते विषगराजीर्णविरुद्धाभ्यवहारतः॥६॥
वमन के अयोग्य व्यक्ति–गर्भवती, रुक्षकोष्ठ, भूखा, सदा दुःखी रहने वाला अर्थात् पुराना रोगी, बालक, वृद्ध, कृश, स्थूल (मोटा), हृदयरोगी, उरःक्षत का रोगी अथवा जिसे घाव लगा हो, दुर्बल, जिसे स्वयं उलटियाँ हो रही हों, प्लीहारोगी, तिमिररोगी, जिसके कोष्ठ (मलाशय) में क्रिमि हों, ऊर्ध्ववातरोग में, ऊपर की ओर प्रवृत्त रक्तपित्तरोग में, जिसे अभी बस्ति-प्रयोग कराया गया हो, स्वरभेदरोग में, मूत्राघात में, उदररोग में, गुल्मरोग में, दुर्बल रोगी में, तीक्ष्णाग्निरोगी में, अर्शरोगी में, उदावर्तरोगी में, भ्रमरोगी में, अष्ठीलारोगी में, पार्श्वशूल में तथा वातरोगी में वमन का प्रयोग नहीं कराना चाहिए।
यदि उक्त रोगियों को विषविकार, गरविकार, अजीर्ण विकार अथवा विरुद्ध आहार सम्बन्धी कोई विकार हो तो इस स्थिति में इन्हें भी वमन कराना चाहिए।।३-६।।
वक्तव्य-ऊपर ‘उदावर्त' शब्द का प्रयोग हुआ है, इससे पुरीषोदावर्त, मूत्रोदावर्त तथा वातोदावर्त रोगों का ग्रहण भी कर लेना चाहिए। 'उत् = ऊर्ध्वम्, आवर्तः = उदावर्तः'।
प्रसक्तवमथोः पूर्वे प्रायेणामज्वरोऽपि च।
धूमान्तैः कर्मभिर्वाः, सर्वेरेव त्वजीर्णिनः॥७॥
वमन आदि कर्मों का निषेध—ऊपर कहे गये 'प्रसक्त वमथु' से पहले गर्भिणी से लेकर दुर्बल पर्यन्त रोगियों को और प्रायः आमज्वर के रोगी को न केवल वमन कर्म का अपितु विरेचन से लेकर धूमपान पर्यन्त सभी कर्मों का निषेध किया गया है। इसके अतिरिक्त अजीर्णरोग से पीड़ित रोगियों के लिए तो वमन से लेकर गण्डूष तक के सभी कर्मों का निषेध किया गया है। आमाजीर्ण में केवल उपवास एवं पाचनकर्म ही प्रशस्त हैं।।७।।
वक्तव्य-धूमान्त कर्म—वमन, विरेचन, निरूहण, अनुवासन, नस्य एवं धूमपान । सर्वैरेव—इसकी सीमा में ऊपर कहे गये कर्मों के अतिरिक्त गण्डूष तथा कवल का ग्रहण भी होता है।
विरेकसाध्या गुल्मार्थोविस्फोटव्यङ्गकामलाः।
जीर्णज्वरोदरगरच्छर्दिप्लीहहलीमकाः॥८॥
विद्रधिस्तिमिरं काचः स्यन्दः पक्वाशयव्यथा।
योनिशुक्राश्रया रोगाः कोष्ठगाः कृमयो व्रणाः॥
वातास्रमूर्ध्वगं रक्तं मूत्राघातः शकृद्ग्रहः।
वाम्याश्च कुष्ठमेहाद्याः
विरेचन के योग्य रोग—गुल्म, अर्थोरोग, विस्फोट, व्यंग, कामला, जीर्णज्वर, उदररोग, गरविषविकार, वमन, प्लीहरोग, हलीमक, विद्रधि, तिमिर, काच, अभिष्यन्द, मलाशय सम्बन्धी रोग, योनिव्यापद्, शुक्रविकार, उदरगत क्रिमिरोग, व्रण, वातरक्त, ऊर्ध्वगामी रक्तपित्त, मूत्राघात, शकृद्ग्रह (मलावरोध ) तथा वमन कराने के योग्य रोगों में कुष्ठ एवं प्रमेह आदि रोग ।।८-९।।
-न तु रेच्यो नवज्वरी ॥ १० ॥
अल्पाग्न्यधोगपित्ताम्रक्षतपाय्वतिसारिणः ।
सशल्यास्थापितक्रूरकोष्ठातिस्निग्धशोषिणः॥
विरेचन के अयोग्य रोग—नवज्वर, मन्दाग्नि, अधोगामी रक्तपित्त, गुदप्रदेश का क्षत, अतिसाररोग, जिसके शरीर में कहीं शल्य फँसा हो, जिसे निरूहणबस्ति दी गयी हो, क्रूर कोष्ठवाला, जिसे अत्यन्त स्नेहद्रव्यों का प्रयोग कराया गया हो तथा शोषरोग से पीड़ित इनको विरेचन नहीं कराना चाहिए।।१०-११ ।।
अथ साधारणे काले स्निग्धस्विन्नं यथाविधि।
श्वोवम्यमुक्लिष्टकर्फ मत्स्यमाषतिलादिभिः॥
निशां सुप्तं सुजीर्णान्नं पूर्वाह्ने कृतमङ्गलम्।
निरन्नमीषस्निग्धं वा पेयया पीतसर्पिषम् ॥१३॥
वृद्धबालाबलक्लीबभीरून् रोगानुरोधतः।
आकण्ठं पायितान्मद्यं क्षीरमिक्षुरसं रसम् ॥१४॥
यथाविकारविहितां मधुसैन्धवसंयुताम् ।
कोष्ठं विभज्य भैषज्यमात्रां मन्त्राभिमन्त्रिताम् ॥१५॥
"ब्रह्मदक्षाविरुद्रेन्द्रभूचन्द्रार्कानिलानलाः ।
ऋषयः सौषधिग्रामा भूतसङ्घाश्च पान्तु वः॥१६॥
रसायनमिवर्षीणाममराणामिवामृतम्।
सुधेवोत्तमनागानां भैषज्यमिदमस्तु ते॥१७॥
ॐनमो भगवते भैषज्यगुरवे वैडूर्यप्रभराजाय।
तथागतायाहते सम्यक्सम्बुद्धाय। तद्यथा-
ॐभैषज्ये भैषज्ये महाभैषज्ये समुद्गते स्वाहा ॥"
प्राङ्मुखं पाययेत्-
वमनकारक औषधद्रव्य एवं प्रयोगविधि—ऊपर कहे गये पद्यों द्वारा कौन वमन-विरेचन के योग्य हैं और कौन अयोग्य हैं, इसका भलीभाँति निर्णय कर लेने के बाद साधारण ( समशीतोष्ण ) काल में विधिपूर्वक स्नेहन एवं स्वेदन कराकर अगले दिन जिसे वमन कराना हो, उसे एक दिन पहले मछली का मांस, उड़द तथा तिल के भक्ष्यों को खिलाकर उसके कफदोष को उभाड़ कर उसे रात्रि में सुला दें। प्रातःकाल उसके उठ जाने पर उसे देखें, रात्रि में खाया हुआ भोजन पच गया हो तो इष्टदेव का स्मरण एवं पूजन कर मंगलाचार करके उसे बिना कुछ अन्न खिलाये उसका स्नेहन करके पेया के साथ घी पिलायें। यदि वह व्यक्ति वृद्ध, बालक, दुर्बल, क्लीब है अथवा वमन के कष्ट से डरने वाला है तो उसे रोग के अनुसार मद्य (शराब), दूध, गन्ने का रस अथवा मांसरस भरपेट पिला दें। उसके बाद रोग के अनुसार उसका कोष्ठ मृदु है या क्रूर है, इसका विचार करके मधु तथा सेंधानमक मिलाकर किसी वमनकारक औषध को ‘ब्रह्मदक्षाश्वि..' इत्यादि मन्त्रों से अभिमन्त्रित कर रोगी का पूर्व की ओर मुख कराकर उसे औषध पिला दें। १२-१७॥
मन्त्रार्थ—'ब्रह्मा, दक्षप्रजापति, अश्विनीकुमार, रुद्र, इन्द्र, भूमि, चन्द्र, सूर्य, वायु, अग्नि, औषधिसमूह सहित समस्त ऋषिगण, पंच महाभूत आप सब की रक्षा करें। जिस प्रकार महर्षि च्यवन आदि महर्षियों के लिए रसायन, देवताओं के लिए जैसे अमृत और जैसे उत्तम नागों के लिए सुधा ( विष) हितकर होता है, उसी प्रकार यह औषध तुम्हारे लिए हितकर हो' ।
वक्तव्य—'ब्रह्मरुद्राश्वि'""ते'। (च.क. १११४) ये दोनों श्लोक महर्षि वाग्भट ने अविकलरूप से चरक से लिये हैं। इनकी विस्तृत व्याख्या का अवलोकन 'चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी' से प्रकाशित चन्द्रिका व्याख्यायुक्त चरकसंहिता-उत्तरार्ध में देखें।
-पीतो मुहूर्तमनुपालयेत् ।
तन्मनाः-
वमन की प्रतीक्षा—इस प्रकार वमनकारक औषध को पीकर उसी की ओर मन लगाकर कुछ देर तक वमन होने की प्रतीक्षा करें।
-जातहल्लासप्रसेकच्छर्दयेत्ततः॥१८॥
अङ्गुलिभ्यामनायस्तो नालेन मृदुनाऽथवा।
गलताल्वरुजन् वेगानप्रवृत्तान् प्रवर्तयन् ॥ १९ ॥
प्रवर्तयन् प्रवृत्तांश्च जानुतुल्यासने स्थितः।
उभे पार्श्वे ललाटं च वमतश्चास्य धारयेत् ।।२०।।
प्रपीडयेत्तथा नाभिं पृष्ठं च प्रतिलोमतः।
वमनकारक यत्न—जब जी मिचलाने लगे, मुख से लार गिरने लगे तब वमन करें। यदि वमन भलीभाँति न हो रहा हो तो बिना बल लगाये दो अँगुलियों को मुख में डालकर अथवा कोमल एरण्ड की पत्ती की नली को मुख में डालकर गला तथा तालु प्रदेश को बिना पीड़ित करते हुए जो वमन के वेग नहीं आ रहे हैं उन्हें प्रवृत्त करें और जो वेग प्रवृत्त हैं उन्हें भी अधिक प्रवृत्त करें, जिससे पूर्ण रूप से वमन हो जाय। ये सभी क्रिया-कलाप जानुभर ऊँचे आसन (कुर्सी आदि) पर बैठकर करने चाहिए। जब वमन के वेग आ रहे हों, उस समय उसका सहायक (परिचारक) उसकी दोनों पसलियों तथा सिर को दबाता रहे और वमन करने वाले की नाभि तथा पीठ को दबाता रहे।। १८-२०॥
कफे तीक्ष्णोष्णकटुकैः पित्ते स्वादुहिमैरिति ॥२१॥
वमेत् स्निग्धाम्ललवणैः संसृष्टे मरुता कफे।
वमन में औषध-प्रयोग–कफजनित रोगों में तीक्ष्ण, उष्णवीर्य तथा कटुरस वाले औषधद्रव्यों से वमन कराना चाहिए, पित्तजनित रोगों में मधुर तथा शीतवीर्य द्रव्यों से और वातजनित रोगों में स्निग्ध, अम्ल एवं लवण रसयुक्त द्रव्यों से तैयार किये गये वामक द्रव्यों का प्रयोग करें।। २१ ।।
पित्तस्य दर्शनं यावच्छेदो वा श्लेष्मणो भवेत्॥२२॥
वमन की अवधि-वमन के सम्यग् योग का लक्षण यह है कि जब तक उसमें पित्त के दर्शन न हो जायें। यह पित्त देखने में हरा या पीला दिखता है और स्वाद में खट्टा या कडुआ होता है तथा कफ कट-कट कर या लच्छे के रूप मे दिखलायी पड़े, यही पित्तदोष तथा कफदोष के निर्हरण की अन्तिम अवधि है। इन लक्षणों को देखकर वमन का सम्यक् योग समझ लेना चाहिए ।। २२ ।।
हीनवेगः कणाधात्रीसिद्धार्थलवणोदकैः।
वमेत्पुनःपुनः-
हीनयोग में औषध-प्रयोग—यदि वमन के वेग कम मात्रा में आ रहे हों तो पिप्पली, आँवला, पीली सरसों तथा नमक को पीसकर जल में मिलाकर या क्वाथ बनाकर पीयें। इसको पीकर बार-बार तब तक वमन करे जब तक पित्तदोष अथवा कफदोष के दर्शन न हो जायें।
-तत्र वेगानामप्रवर्तनम् ।।२३॥
प्रवृत्तिः सविबन्धा वा केवलस्यौषधस्य वा।
अयोगस्तेन निष्ठीवकण्डूकोठज्वरादयः॥२४॥
वमन का हीनयोग-वमनकारक औषध का पान करने पर भी वमन का न होना अथवा रुक-रुककर होना अथवा केवल पिलाये गये औषधद्रव्यों का ही निकल जाना—ये लक्षण वमन के अयोग में होते हैं। इसके कारण मुख से लार का चूना, शरीर में खुजली का होना, चकत्तों का निकलना तथा ज्वर आदि लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं।। २३-२४॥
निर्विबन्धं प्रवर्तन्ते कफपित्तानिलाः क्रमात् ।
(मनःप्रसादः स्वास्थ्यं चावस्थानं च स्वयं भवेत्।
वैपरीत्यमयोगानां न चातिमहती व्यथा॥)
सम्यग्योगे-
वमन का सम्यक् योग–वमन का सम्यक् (ठीक-ठीक ) योग (प्रयोग) हो जाने पर कफ, पित्त तथा वात दोषों की प्रवृत्ति स्वयं क्रम से होती है और मन का प्रसन्न होना, स्वस्थता, स्वयं स्थिरता का अनुभव होना, वमन के अयोगों में होने वाले लक्षणों से विपरीत लक्षणों की उत्पत्ति तथा विशेष कष्ट का न होना–ये लक्षण होते हैं। यहाँ दोषों का क्रम परिवर्तन दिख रहा है, उसका आधार वमन होने की अपनी प्रक्रिया है।
–अतियोगे तु फेनचन्द्रकरक्तवत्॥२५॥
वमितं क्षामता दाहः कण्ठशोषस्तमो भ्रमः।
घोरा वाय्वामया मृत्युर्जीवशोणितनिर्गमात् ॥ २६ ॥
वमन का अतियोग-वमन का अतियोग हो जाने पर वमन में झाग निकलने लगता है, उसमें कुछ चमक तथा रक्त के कण दिखलायी पड़ते हैं, वमनकर्ता को दुर्बलता, दाह, गला का सूखना, आँखों के सामने अँधेरा दिखलायी देना, चक्करों का आना, अत्यन्त कष्टदायक वातव्याधियाँ पैदा हो जाती हैं और वमन में जीवरक्त के निकलने के कारण रोगी की मृत्यु भी हो जाती है।। २५-२६ ।।
सम्यग्योगेन वमितं क्षणमाश्वास्य पाययेत्।
धूमत्रयस्यान्यतमं स्नेहाचारमथादिशेत् ॥२७॥
वमन के पश्चात् कर्म-समुचित विधि से जिसे भलीभाँति वमन हो गये हों, उसे कुछ समय तक आश्वस्त कराकर अथवा आराम करा कर तीन प्रकार के धूमपानों में से कोई एक धूमपान कराये ( इसके निर्णय का भार चिकित्सक पर होता है) और इसके बाद उसे स्नेहपान कराना चाहिए अथवा उसे स्नेहपान करने का आदेश देना चाहिए।॥२७॥
वक्तव्य-उक्त पद्य में आचार्य ने सूत्र रूप में धूमपान तथा स्नेहपान करने का संकेत किया है। इनका विवरण यहाँ दिया जा रहा है। धूमपान तीन प्रकार का होता है—१. स्नैहिक धूमपान, २. वैरेचनिक धूमपान तथा ३. उपशमनीय धूमपान । इनमें पहला धूमपान वातरोगों में हितकारक होता है, दूसरा वातकफज विकारों में और तीसरा केवल कफज विकारों को दूर करता है। इसका विवरण आगे २१वें अध्याय में विस्तार से देखें। स्नेहाचार—इसका वर्णन पिछले १६वें अध्याय में कर दिया गया है। आप देखें—श्लोक २६ से ३० तक।
ततः सायं प्रभाते वा क्षुद्वान् स्नातः सुखाम्बुना।
भुञ्जानो रक्तशाल्यन्नं भजेत्पेयादिकं क्रमम् ॥
स्नान एवं भोजनविधि—भलीभाँति वमन हो जाने के बाद उसी दिन सांयकाल अथवा दूसरे दिन प्रातःकाल समुचित प्रकार से भूख लगने पर गुनगुने जल से स्नान करके पेया आदि के क्रम से लालशालि के चावलों द्वारा निर्मित भोजन करे ॥२८॥
वक्तव्य—इस विषय पर सुश्रुत का दृष्टिकोण—'ततोऽपराह्ने भोजयेत्तम्' । (सु.चि. ३३।११) अर्थात् वमन अथवा विरेचन कराने से शरीर के शुद्ध हो जाने पर गरम जल से स्नान कराकर कुलथी, मूंग या अरहर की दाल के यूष ( जूस ) के साथ अथवा जांगल प्राणियों के मांसरस से तथा लाल शालि-चावलों के योग से बनायी गयी पेया, विलेपी आदि को खिलाये। यहाँ जो वाग्भट ने रक्तशालिधान्य का ग्रहण किया है, इस सम्बन्ध में भगवान् पुनर्वसु ने कहा है— लोहितशालयः शूकधान्यानां पथ्यतमत्वे श्रेष्ठतमाः' । (च.सू. २५।३८ ) अर्थात् लालशालि के चावल स्वस्थ तथा रोगी दोनों के लिए हितकर होते हैं।
पेयां विलेपीमकृतं कृतं च यूषं रसं त्रीनुभयं तथैकम् ।
क्रमेण सेवेत नरोऽन्नकालान् प्रधानमध्यावरशुद्धिशुद्धः॥ २९ ।।
पेया आदि क्रम-निर्देश—प्रधान, मध्य तथा अवर भेद से शरीर-शुद्धि तीन प्रकार की होती है। सामान्य रूप से दो अन्नकाल ( भोजन के समय ) होते हैं—१. प्रातःकाल तथा २. सायंकाल। वमन-विरेचन से शुद्ध किये गये पुरुष के आहार-भेद छ: होते हैं-१.पेया, २. विलेपी, ३. अकृतयूष, ४. कृतयूष, ५. अकृत-मांसरस तथा ६. कृतमांसरस। प्रधानशुद्धि-विधि से शुद्ध पुरुष ३-३ अन्नकालों में ऊपर कही गयी पेया, विलेपी आदि का सेवन करता हुआ इस कल्प के पूरा होने पर अर्थात् १८वें दिन के बाद स्वाभाविक रूप से भोजन करे। मध्यशुद्धि-विधि से शुद्ध पुरुष २-२ अन्नकालों में उक्त पेया आदि का सेवन कर लेने पर १२वें दिन के बाद स्वाभाविक भोजन करे और अवरशुद्धि-विधि से शुद्ध पुरुष १-१ अन्नकाल में पेया आदि का छ: दिनों तक सेवन करने के बाद स्वाभाविक भोजन करे॥२९॥
वक्तव्य-आचार्य वाग्भट ने उक्त श्लोक को चरकसंहिता-सिद्धिस्थान ११११ से लिया है। पेया, विलेपी, यवागू, यूष आदि का वर्णन शार्ङ्गधरसंहिता म.खं. २।१६४-१७४ में भी देखें। ‘अकृत' उन्हें कहा जाता है, जिन्हें न छोंका जाता है और न जिनमें सोंठ, नमक आदि मसाले डाले जाते। इसके विपरीत गुणों वाले भोजन को ‘कृत' कहते हैं।
यथाऽणुरग्निस्तृणगोमयाद्यैः सन्धुक्ष्यमाणो भवति क्रमेण ।
महान् स्थिरः सर्वपचस्तथैव शुद्धस्य पेयादिभिरन्तराग्निः॥३०॥
पेया आदि से लाभ-जैसे अग्निकण को तृण (घास-फूस ) तथा गोमय (गोहरी, कण्डा, वनोपल) आदि के संयोग से सुलगाने (प्रज्वलित करने ) से वह अग्नि महान् (पहले की तुलना में बड़ा ), स्थिर तथा सब पदार्थों को पकाने या पचाने वाला होता है; ठीक वैसे ही पेया, विलेपी आदि सुपचभक्ष्यों के सेवन करने से जठराग्नि भी सशक्त (खाये हुए भोजन को पचाने में समर्थ) हो जाता है।।३०।।
जघन्यमध्यप्रवरे तु वेगाश्चत्वार इष्टा वमने षडष्टौ।
दशैव ते द्वित्रिगुणाविरेके प्रस्थस्तथा स्याद्विचतुर्गणश्च ॥ ३१ ॥
वमन-विरेचन के वेग एवं परिमाण-जघन्य (हीन), मध्यम तथा प्रवर (प्रधान) भेद से क्रमशः ४, ६ एवं ८ वेग वमनों में होते हैं तथा विरेचनों में वे वेग क्रमशः १०, २० तथा ३० होते हैं। इन विरेचनों में निकलने वाले मल का क्रमशः भार जघन्य विरेचन में १ प्रस्थ, मध्यम विरेचन में २ प्रस्थ तथा प्रवर विरेचन में ४ प्रस्थ बतलाया गया है।। ३१ ॥
पित्तावसानं वमनं विरेकादर्द, कफान्तं च विरेकमाहुः।
वमन-विरेचन की अवधि एवं मान—पित्त के निकलने तक वमन कराना चाहिए। इस वमन द्रव का मान विरेचनों में निकले मल के भार से आधा होना चाहिए। इसमें भी जघन्य, मध्य, प्रवर भेद से भार का निर्धारण कर लेना चाहिए और विरेचन को तब पूर्ण समझें जब उसके अन्त में कफ निकल जाय। द्वित्रान् सविट्कानपनीय वेगान् मेयं विरेके, वमने तु पीतम् ॥ ३२॥
भारमापन-विधि—यह भार तौलने की प्रक्रिया मल के दो अथवा तीन वेगों के निकल जाने के बाद में करनी चाहिए। वमन में पहले पिलाये या पीये गये मद्य आदि द्रव पदार्थों अथवा वमनकारक क्वाथ की मात्रा को छोड़ कर ही तौलना चाहिए।॥३२॥
वक्तव्य-श्रीवाग्भट ने च.सि. १३१४ से उक्त श्लोक को अविकल उद्धृत किया है। चरक में भलीभाँति कराये गये विरेचन के ये लक्षण दिये हैं—'स्रोतों की शुद्धि, इन्द्रियों की निर्मलता, शरीर में हलकापन, उत्साहशक्ति की प्राप्ति, अग्नि का प्रदीप्त होना, नीरोगता, क्रमशः मल, पित्त, कफ तथा अपानवायु का निकलना ॥ देखें—च.सि. १११७। ध्यान दें—कभी-कभी पित्तान्त एवं कफान्त में भले ही भ्रम हो जाय परन्तु सम्यक् वान्त तथा सम्यक् विरिक्त के जो लक्षण कहे गये हैं, उनके दर्शन होने पर वमन-विरेचन का सम्यक् योग हो गया है, ऐसा समझें।
अथैनं वामितं भूयः स्नेहस्वेदोपपादितम् ।
श्लेष्मकाले गते ज्ञात्वा कोष्ठं सम्यग्विरेचयेत् ॥३३॥
वमन के बाद विरेचन—वमन कराने के बाद पुनः विधिपूर्वक स्नेहन-स्वेदन कराकर श्लेष्मकाल (प्रातःकाल ) के बीत जाने पर रोगी अथवा स्वस्थ पुरुष के कोष्ठ (मृदु, मध्य, क्रूर भेद से ) का विचार करके विरेचनोपयोगी औषधि का प्रयोग करा कर उसे विरेचन कराये।। ३३ ।।
वक्तव्य-भगवान् पुनर्वसु ने वमन के बाद विरेचन कराने की विधि का समुचित वर्णन च.सू. १५।१७ में किया है, प्रसंगवश इसका अवलोकन कर लें।
बहुपित्तो मृदुः कोष्ठः क्षीरेणापि विरिच्यते।
मृदुकोष्ठ का वर्णन—जिस पुरुष के शरीर में पित्तदोष की प्रधानता होती है, उसे 'मृदुकोष्ठ' वाला कहते हैं। ऐसे पुरुषों को गरमा-गरम दूध पीने मात्र से विरेचन हो जाता है।
प्रभूतमारुतः क्रूरः कृच्छ्राच्छयामादिकैरपि ॥३४॥
क्रूरकोष्ठ का वर्णन—जिस पुरुष के शरीर में वातदोष की प्रधानता होती है, उसे 'क्रूरकोष्ठ' वाला कहते हैं। ऐसे पुरुषों को काली निशोथ, जो तीक्ष्ण विरेचक होती है, के प्रयोग से भी बड़े कष्ट के साथ विरेचन हो पाता है।।३४॥
कषायमधुरैः पित्ते विरेकः, कटुकैः कफे।
स्निग्धोष्णलवणैर्वायौ-
दोषानुसार विरेचन—पित्तज विकारों में कषाय तथा मधुर रस-प्रधान द्रव्यों द्वारा विरेचन देना चाहिए। कफज विकारों में कटुरस-प्रधान द्रव्यों से विरेचन दें और वातज विकारों में स्निग्ध तथा उष्णवीर्य द्रव्यों में लवण मिलाकर विरेचन देना चाहिए।
-अप्रवृत्तौ तु पाययेत् ॥३५॥
उष्णाम्बु, स्वेदयेदस्य पाणितापेन चोदरम्।
विरेचक-उपाय—यदि उक्त औषध-प्रयोग करने पर भी विरेचन न हो रहा हो तो उसे गुनगुना जल पिलाना चाहिए और हाथों को सेंक कर उसके पेट को सेकें। इन उपायों से विरेचन हो जाता है।॥३५॥
उत्थानेऽल्पे दिने तस्मिन्भुक्त्वाऽन्येद्युः पुनः पिबेत् ॥ ३६॥
अदृढस्नेहकोष्ठस्तु पिबेदूर्ध्वं दशाहतः।
भूयोऽप्युपस्कृततनुः स्नेहस्वेदैर्विरेचनम् ॥३७॥
यौगिक सम्यगालोच्य स्मरन्पूर्वमतिक्रमम्।
पुनःविरेचन-प्रयोग—इस विधि से यदि अल्पमात्रा में भी विरेचन हो तो उस रात्रि में उसे थोड़ा-सा हलका आहार (दलिया, खिचड़ी आदि ) खिलाकर दूसरे दिन फिर उसे विरेचक औषधि पिलायी जाय। उदरप्रदेश का भलीभाँति स्नेहन न होने के कारण यदि विरेचन न हुआ हो तो उसे फिर दस दिन के बाद विरेचन कराने के लिए औषध-सेवन करायें। इसके पूर्व स्नेहन-स्वेदन का प्रयोग भी अवश्य करें। इस बार भी औषधयोग का समुचित विधान तथा उसे अभिमन्त्रित कर तभी उसका सेवन करना चाहिए ।। ३६-३७ ।।
हृत्कुक्ष्यशुद्धिररुचिरुत्क्लेशः श्लेष्मपित्तयोः ।।३८॥
कण्डूविदाहः पिटिकाः पीनसो वातविग्रहः।
अयोगलक्षणम्-
हीनयोग ( अयोग) के लक्षण हृदय एवं उदर की ठीक प्रकार से शुद्धि का न होना, अतएव भारीपन की प्रतीति, अरुचि, कफ तथा पित्त के उभड़ जाने से जी मिचलाने की जैसी प्रतीति का होना, खुजली, जलन, शरीर में पिड़काओं की उत्पत्ति, पीनस (प्रतिश्याय ), अपानवायु, मूत्र एवं पुरीष की प्रवृत्ति में रुकावट का होना—ये लक्षण होते हैं।। ३८।।
—योगो वैपरीत्ये यथोदितात् ॥ ३९ ॥
समयोग के लक्षण-ऊपर कहे गये हीनयोग के लक्षणों से विपरीत लक्षणों का होना समयोग कहा जाता है। यह तन्त्रकार द्वारा सूत्ररूप में निर्देश है।। ३९ ।।
विपित्तकफवातेषु निःसृतेषु क्रमात्मवेत्।
निःश्लेष्मपित्तमुदकं श्वेतं कृष्णं सलोहितम् ॥ ४० ॥
मांसधावनतुल्यं वा मेदःखण्डाभमेव वा।
गुदनिःसरणं तृष्णा भ्रमो नेत्रप्रवेशनम् ॥४१॥
भवन्त्यतिविरिक्तस्य तथाऽतिवमनामयाः।
अतियोग के लक्षण—इस प्रकार के विरेचन में पहले पुरीष (मल), फिर पित्त, कफ तथा अपान- वायु के निकल जाने पर भी कफ एवं पित्त रहित मलद्वार से सफेद, काला तथा लाल अथवा मांस को धोने से जैसा वर्ण जल का हो जाता है, वैसा जल निकलने लगता है अथवा मेदस् के टुकड़ों का स्राव होता है, गुदभ्रंश (काँच का निकलना), बार-बार प्यास का लगना, चक्करों का आना, आँखों का भीतर की ओर को धंस जाना तथा विरेचन के अतियोग होने पर वमन के अतियोग के लक्षण भी दिखलायी देने लगते हैं।। ४०-४१ ।। वक्तव्य-वमन के अतियोग के लक्षण इसी अध्याय के २६वें श्लोक में देखें। अष्टांगहृदय-सूत्रस्थान अध्याय ८ में आमविष के लक्षणों से वमन तथा विरेचन के अतियोग लक्षणों का मिलान करें। इसी 'आमविष' के कारण ही विसूचिका की उत्पत्ति होती है।
सम्यग्विरिक्तमेनं च वमनोक्तेन योजयेत् ।। ४२॥
धूमवर्येन विधिना-
समयोग में पश्चात्कर्म—विरेचन-विधि का सम या सम्यक् योग हो जाने पर धूमपान-विधि के बिना वमनोत्तर विधि के उपचारों से इसे जोड़ें अर्थात् इसे स्नेहाचार करायें।। ४२ ।।
–ततो वमितवानिव।
क्रमेणान्नानि भुञ्जानो भजेत्प्रकृतिभोजनम्॥४३॥
समयोग में भोजन-विधि—स्नेहन कराने के बाद समुचित वमन कराये गये पुरुष के समान लाल शालिचावलों की पेया, विलेपी आदि का भोजनकाल में सेवन करता हुआ वह बाद में स्वाभाविक भोजन का सेवन करें॥४३॥
मन्दवह्निमसंशुद्धमक्षामं दोषदुर्बलम्।
दोषदुर्बलम्। अदृष्टजीर्णलिङ्गं च लङ्घयेत्पीतभेषजम् ॥४४॥
लंघन-निर्देश-विरेचन कराने के बाद यदि अग्नि मन्द पड़ गया हो, भलीभाँति संशोधन न हो सका हो, रोगी दुर्बल न हो, दोषों की वृद्धि से दुर्बलता आ गयी हो अथवा अपच के लक्षण दिखलायी दे रहे हों तो इन सभी स्थितियों में विरेचक औषध का पान किये हुए रोगी पुरुष को लंघन करायें॥४४॥
स्नेहस्वेदौषधोत्क्लेशसङ्गैरिति न बाध्यते।
लंघन का फल—लंघन या उपवास करने से स्नेहन तथा स्वेदन विधियों का सेवन करने के कारण जी मिचलाने से तथा मल-मूत्र आदि मलों की रुकावट से उत्पन्न होने वाली किसी प्रकार की बाधा से पीड़ित नहीं होता।
संशोधनासविस्रावस्नेहयोजनलङ्घनैः ॥४५॥
यात्यग्निर्मन्दतां तस्मात् क्रमं पेयादिमाचरेत् ।
पेया आदि की आवश्यकता—वमन, विरेचन, रक्तस्रावण, स्नेहपान तथा लंघन करने के बाद प्रायः जठराग्नि मन्द पड़ जाती है, अतः पेया आदि का आचरण (सेवन) करना चाहिए।। ४५ ।।
स्रुताल्पपित्तश्लेष्माणं मद्यपं वातपैत्तिकम्॥४६॥
पेयां न पाययेत्तेषां तर्पणादिक्रमो हितः।
पेया-सेवन का निषेध—जिसका पित्त तथा कफ थोड़ा-सा निकला हो, जो मद्यपान का अभ्यासी हो, जो वातपित्तज विकारों से पीड़ित हो—इन सभी को पेया का सेवन न करायें। इनके लिए तर्पण ( सन्तर्पण) चिकित्सा लाभदायक होती है।॥ ४६॥
वक्तव्य–च.सू.अ. २३ सम्पूर्ण में तथा अष्टांगहृदय १४१८-९ में इस विषय को देखें।
अपक्वं वमनं दोषान् पच्यमानं विरेचनम् ॥४७॥
निहरेद्वमनस्यातः पाकं न प्रतिपालयेत्।
वमन-विरेचन की प्रतीक्षा-वमनकारक औषधद्रव्य सेवन करने के पश्चात् बिना पचे ही दोषों को निकाल देते हैं और विरेचनकारक औषधद्रव्य पचते हुए अर्थात् कुछ देर से दोषों को निकालते हैं। अतएव वमनकारक औषधद्रव्य की देर तक प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए॥४७॥
वक्तव्य—उक्त ४७वाँ श्लोक श्रीवाग्भट ने च.क. १२।६२ से अविकल रूप में उद्धृत करने पर भी 'दोष' के स्थान पर 'दोषान्' पाठभेद किया है।
दुर्बलो बहुदोषश्च दोषपाकेन यः स्वयम् ॥४८॥
विरिच्यते भेदनीयैर्भोज्यैस्तमुपपादयेत्।
वमन-विरेचन की चिकित्सा–यदि उदर सम्बन्धी दोष अधिक हों और रोगी दुर्बल हो, ऐसी स्थिति में दोषों का पाक हो जाने के कारण औषधद्रव्यों के प्रयोग किये बिना यदि स्वयमेव विरेचन हो रहे हों तो उसे मलभेदक आहारों का प्रयोग कराना चाहिए ।। ४८ ।।
वक्तव्य-स्वयमेव होने वाले वमन या विरेचन को तत्काल रोकने का प्रयत्न कभी नहीं करना चाहिए, अपितु उनकी गतिविधि की प्रतीक्षा करनी चाहिए। यदि वे दोष निकल जाने पर स्वयं शान्त हो जाते हैं, तो इसे ईश्वर की कृपा समझें। यदि इनका क्रम चालू रह जाता है तो इनकी चिकित्सा करें।
दुर्बलः शोधितः पूर्वमल्पदोषः कृशो नरः॥४९॥
अपरिजातकोष्ठश्च पिबेन्मृद्वल्पमौषधम्।
वरं तदसकृत्पीतमन्यथा संशयावहम् ॥५०॥
हरेहूंश्चलान्दोषानल्पानल्पान् पुनःपुनः।
औषध-प्रयोग में सावधानी–वमन या विरेचनकारक औषधि को थोड़ा-थोड़ा बार-बार पीना अच्छा ( समझदारी) है और एक साथ अधिक मात्रा में औषध का सेवन करना हानिकारक हो सकता है। अतएव अधिक दोषों को अथवा स्वयं निकलने वाले दोषों को थोड़ा-थोड़ा बार-बार निकल जाने देना चाहिए।॥५०॥
दुर्बलस्य मृदुद्रव्यैरल्पान् संशमयेत्तु तान् ॥५१॥
दुर्बल के दोषों पर विचार-दुर्बल (कमजोर ) पुरुष के थोड़े दोषों को मृदुविरेचक द्रव्यों द्वारा यथासम्भव शमन-चिकित्सा द्वारा शान्त करने का प्रयत्न करना चाहिए।५१ ।।
क्लेशयन्ति चिरं ते हि हन्युनमनिर्हताः।
दोषनिर्हरण की आवश्यकता—यदि स्वल्पमात्रा में बचे हुए वे दोष शोधन-विधि से नहीं निकाले जाते तो वे उस पुरुष को चिरकाल तक कष्ट देते रहते हैं अथवा इसे मार डालते हैं।
वक्तव्य—इसी विषय को दृष्टि में रखकर भगवान् पुनर्वसु ने भी कहा है-'दुर्बलोऽपि महादोषो विरेच्यो बहुशोऽल्पशः । मृदुभिर्भेषजैर्दोषा हन्युर्येनमनिर्हताः' । (च.क. १२।६९)
मन्दाग्निं क्रूरकोष्ठं च सक्षारलवणैर्वृतैः॥५२॥
सन्धुक्षिताग्निं विजितकफवातं च शोधयेत् ।
पुनः शोधन-निर्देश—मन्दाग्नि तथा क्रूरकोष्ठ वाले व्यक्तियों को जवाखार तथा लवण मिले हुए घी का सेवन कराकर उनकी जठराग्नि को प्रदीप्त करे और उसके कफ एवं वात दोष पर विजय प्राप्त करें, तदनन्तर उनका संशोधन करें।॥५२॥
रूक्षबह्वनिलक्रूरकोष्ठव्यायामशीलिनाम् ॥५३॥
दीप्ताग्नीनां च भैषज्यमविरेच्यैव जीर्यति ।
तेभ्यो बस्तिं पुरा दद्यात्ततः स्निग्धं विरेचनम् ॥५४॥
शकृन्निर्हत्य वा किञ्चित्तीक्ष्णाभिः फलवर्तिभिः।
प्रवृत्तं हि मलं स्निग्धो विरेको निर्हरेत्सुखम् ॥
विरेचन में विविध विचार—जिनका कोष्ठ रूक्ष (रूखा) है, वातदोष अवरुद्ध है, जिनका कोष्ठ क्रूर है, जो निरन्तर व्यायाम किया करते हैं तथा जिनकी जठराग्नि प्रदीप्त है; इस प्रकार के व्यक्तियों को दी गयी विरेचनकारक औषधि बिना अपना कार्य (विरेचन) किये ही पच जाती है। ऐसे पुरुषों को विरेचक औषध देने से पहले अनुवासनबस्ति का प्रयोग कराना चाहिए अथवा तीक्ष्ण विरेचक द्रव्यों द्वारा बनायी गयी फलवर्ति का गुद में प्रवेश कराये। इससे जब थोड़ा मल निकल जाय तब स्निग्ध विरेचन देना चाहिए, इस विधि से मल सुखपूर्वक निकल आता है।। ५३-५५।।
विषाभिघातपिटिकाकुष्ठशोफविसर्पिणः।
कामलापाण्डुमेहार्तान्नातिस्निग्धान् विशोधयेत् ॥
शोधन के अयोग्य रोगी—विषविकार, अभिघात, पिडका, कुष्ठ, शोथ, विसर्प, कामला, पाण्डुरोग तथा प्रमेहरोग से पीड़ित व्यक्तियों को थोड़ा-सा स्नेहन कराकर तभी विरेचन-औषधि का प्रयोग कराना चाहिए। विरेचन देने के पहले स्नेहन कराना आवश्यक है किन्तु जिन्हें स्नेहन-प्रयोग कराया गया है, उन्हें रूक्ष विरेचन देना हितकर होता है।॥५६॥
सर्वान् स्नेहविरेकैश्च, रूक्षैस्तु स्नेहभावितान् ।
शोधन के भेद—जिनका थोड़ा-सा स्नेहन किया गया है, विष-सेवन से पीड़ित जो थोड़े रूक्ष हैं इनका स्नेहयुक्त विरेचक औषधों द्वारा शोधन करना चाहिए और जिनका भलीभाँति स्नेहन किया गया हो उनका रूक्ष विरेचक पदार्थों द्वारा शोधन करना चाहिए।
कर्मणां वमनादीनां पुनरप्यन्तरेऽन्तरे॥५७॥
स्नेहस्वेदौ प्रयुञ्जीत, स्नेहमन्ते बलाय च।
स्नेहन-स्वेदन प्रयोग-वमन तथा विरेचन जब कराये जा रहे हों उस काल में इनके बीच-बीच में बार-बार स्नेहन एवं स्वेदन प्रयोग कराते रहने चाहिए। ऐसा न सोच लें कि प्रारम्भ में तो स्नेहन-स्वेदन करा दिये थे, वे ही पर्याप्त हैं। प्रत्येक प्रकार की चिकित्सा-विधि के अन्त में रोगी का बल बढ़े, इस सदिच्छा से उसे स्नेहन कराना चाहिए।।५७ ।।
वक्तव्य-भगवान् धन्वन्तरि ने स्नेह को जीवनोपयोगी बतलाते हुए इस प्रकार कहा है—'स्नेहसारोऽयं पुरुषः "योज्यः'। (सु.चि. ३१॥३) अर्थात् यह पुरुष स्नेह के सहारे ही स्वस्थ रह पाता है और प्राणों का भी मुख्य आधार स्नेह ही है। प्रायः रोग भी स्नेहसाध्य होते हैं, अतः स्नेह का प्रयोग पीने, अनुवासन, शिरोविरेचन, शिरोबस्ति, उत्तरबस्ति, नस्य, कर्णपूरण (कान में डालने ), शरीर पर मालिश करने तथा भोजन के साथ किया जाता है।
मलो हि देहादुत्क्लेश्य ह्रियते वाससो यथा ॥५८॥
स्नेहस्वेदैस्तथोत्क्लिष्टः शोध्यते शोधनैर्मलः।
मलों का उत्क्लेशन—जिस प्रकार कपड़ा पर जमी हुई मैल को स्नेहन (स्नेह तथा क्षार प्रधान पदार्थ साबुन) तथा स्वेदन (गरम पानी) द्वारा उभाड़ कर निकाला जाता है, उसी प्रकार शरीर स्थित मलों को स्नेहन एवं स्वेदन विधियों से उत्क्लेशन ( उभाड़) कर वमन एवं विरेचन नामक शोधनों से बाहर निकाल दिया जाता है।।५८॥
स्नेहस्वेदावनभ्यस्य कुर्यात्संशोधनं तु यः॥५९ ॥
दारु शुष्कमिवानामे शरीरं तस्य दीर्यते।
स्नेहन-स्वेदन के लाभ-स्नेहन तथा स्वेदन का अभ्यास (निरन्तर सेवन ) किये बिना जो रोगी संशोधन का प्रयोग करता है, उसका शरीर उस प्रकार फट जाता है जैसे स्नेहन तथा स्वेदन किये बिना झुकाने का प्रयत्न करने पर सूखी लकड़ी टूट या फट जाती है।। ५९।।
वक्तव्य- सामान्य रूप से स्नेहन-स्वेदन किये कराये बिना वमन तथा विरेचन होते भी हैं और कराये भी जाते हैं। यहाँ जो प्रमुख रूप से स्नेहन-स्वेदन की चर्चा है, वह पञ्चकर्म-विधि को ध्यान में रखकर ही की गयी है।
बुद्धिप्रसादं बलमिन्द्रियाणां धातुस्थिरत्वं ज्वलनस्य दीप्तिम्।
चिराच्च पाकं वयसः करोति संशोधनं सम्यगुपास्यमानम् ॥ ६०॥
इति श्रीवैद्यपतिसिंहगुप्तसूनुश्रीमद्वाग्भटविरचितायामष्टाङ्गहृदयसंहितायां
प्रथमे सूत्रस्थाने वमनविरेचनविधिर्नामाष्टादशोऽध्यायः॥१८॥
संशोधन से लाभ-शास्त्रोक्त विधि द्वारा सेवन किया गया संशोधन (वमन-विरेचन) बुद्धि को निर्मल करता है, इन्द्रियों को बल प्रदान करता है, रस-रक्त आदि धातुओं में स्थिरता ला देता है, ज्वलन (जठराग्नि ) को प्रदीप्त कर देता है और चिरकाल तक वृद्धावस्था को समीप नहीं आने देता। ये ही भाव जीवन में अपेक्षित होते हैं।। ६० ।।
वक्तव्य-भगवान् पुनर्वसु ने संशोधन-विधियों की प्रशंसा इस प्रकार की है—'दोषाः कदाचित् कुप्यन्ति जिता लङ्घनपाचनैः । जिताः संशोधनैर्ये तु न तेषां पुनरुद्भवः' । (च.सू. १६।२०) अर्थात् लंघन एवं पाचन विधियों से शान्त किये वात आदि दोष कभी-कभी फिर भी कुपित हो जाते हैं, किन्तु संशोधन-विधि से जिनका निर्हरण कर दिया जाता है, उनकी पुनः उत्पत्ति नहीं होती। यही संशोधन-विधि की प्रमुखता है।
इस प्रकार वैद्यरत्न पण्डित तारादत्त त्रिपाठी के पुत्र डॉ० ब्रह्मानन्द त्रिपाठी द्वारा विरचित निर्मला हिन्दी व्याख्या, विशेष वक्तव्य आदि से विभूषित अष्टाङ्गहृदय-सूत्रस्थान में वमन-विरेचनविधि नामक अठारहवाँ अध्याय समाप्त ।।१८।।
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