स्वास्थ्य-चिकित्सा >> अष्टांगहृदय अष्टांगहृदयवाग्भट
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आयुर्वेद के स्तम्भ ग्रंथ अष्टांगहृदय का पहला भाग
सप्तदशोऽध्यायः
अथातः स्वेदविधिमध्यायं व्याख्यास्यामः।
इति ह स्माहुरात्रेयादयो महर्षयः।
अब हम यहाँ से स्वेदविधि नामक अध्याय का व्याख्यान करेंगे। जैसा कि आत्रेय आदि महर्षियों ने कहा था।
उपक्रम—इसके पहले अध्याय में शरीरशोधन-विधि को ध्यान में रखकर स्नेहन-विधि का सांगोपांग वर्णन किया गया, अब इस अध्याय में स्वेदविधि का वर्णन किया जायेगा। क्योंकि शरीर के स्निग्ध होने पर दोषों को मृदु करने के लिए स्वेदन किया जाता है। अतएव स्वेदन-विधि का समुचित ज्ञान कराने के लिए प्रस्तुत अध्याय की प्रस्तावना की जा रही है।
भगवान् पुनर्वसु ने चरक-सूत्रस्थान अध्याय १४ में १३ प्रकार की स्वेदन विधियों का विस्तार से वर्णन किया है, किन्तु महर्षि वाग्भट ने उन भेदों का अन्तर्भाव आगे कहे जाने वाले चार प्रकार के स्वेदभेदों में कर दिखाया है। यह स्वेदनकर्म सम्पूर्ण शरीर पर किया जाता है और आवश्यकता पड़ने पर किसी अंग-विशेष पर भी किया जाता है। इसकी चरम उपलब्धि है—सम्पूर्ण शरीर से अथवा अंग-विशेष से पसीना निकालना। इससे रोमकूपों के बन्द हुए मुख (द्वार ) खुल जाते हैं।
संक्षिप्त सन्दर्भ-संकेत–च.सू. १४; सु.चि. ३२ एवं अ.सं.सू. २६ में देखें।
स्वेदस्तापोपनाहोष्मद्रवभेदाच्चतुर्विधः ।
स्वेद के चार भेद—स्वेद या स्वेदन के चार भेद होते हैं। यथा—१. तापस्वेद, २. उपनाहस्वेद, ३. ऊष्मस्वेद तथा ४. द्रवस्वेद।
वक्तव्य महर्षि वाग्भट चतुर्विध स्वेदन के वर्णन में पूर्ण रूप से सुश्रुत से प्रभावित थे। चरकोक्त स्वेदन भेद इस प्रकार हैं- १. संकर, २. प्रस्तर, ३. नाड़ी, ४. परिषेक, ५. अवगाहन, ६. जेन्ताक, ७. अश्मघन, ८. कर्पू, ९. कुटी, १०. भू, ११. कुम्भ, १२. कूप तथा १३. होलाक। इन १३ स्वेदविधियों को इस प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है तापस्वेद में—जेन्ताक, कर्पू, कुटी, कूप तथा होलाक ५ को, ऊष्मस्वेद तथा उपनाहस्वेद में संकर, प्रस्तर, अश्मघन, नाड़ी, कुम्भ तथा भूस्वेद ६ को और द्रवस्वेद में—परिषेक तथा अवगाहन २ को।
तापोऽग्नितप्तवसनफालहस्ततलादिभिः ॥१॥
तापस्वेद-उक्त चारों भेदों में से प्रथम तापस्वेद का परिचय प्रस्तुत है—यह वह स्वेदन-विधि है जिसमें आग में तपाये गये वस्त्र, फाल (रुई या केवल रुई से बनाये गये वस्त्रों का ग्रहण किया गया है) तथा हाथ-पैर के तलुओं आदि का आग में तपाकर स्वेदन किया जाता है।।१।।
उपनाहो वचाकिण्वशताबादेवदारुभिः।
धान्यैः समस्तैर्गन्धैश्च रास्नैरण्डजटामिषैः॥२॥
उद्रिक्तलवणैः स्नेहचुक्रतक्रपयःप्लुतैः।
केवले. पवने, श्लेष्मसंसृष्टे सुरसादिभिः॥३॥
पित्तेन पद्मकायैस्तु साल्वात्यैः पुनःपुनः ।
उपनाहस्वेद-बालवच, किण्व (सुराबीज ), सौंफ या सोया, देवदार, जौ, गेहूँ आदि धान्य, नालुका ( मोटी तज ) आदि सुगन्धित द्रव्य, रासना, रेड़ की जड़ तथा मांस को लेकर पर्याप्त नमक मिलाकर स्नेह (घी) आदि स्निग्धद्रव्य, चुक्र, तक्र और दूध इन सबको पकाकर केवल वातविकारों में बाँधा जाता है। यदि वातदोष के साथ कफदोष भी मिला हो तो सुरसादि गण की औषधियों के उपनाह का प्रयोग करना चाहिए और यदि वातदोष के साथ पित्तदोष मिला हो तो पद्मकादि गण तथा साल्वण नामक योगों द्वारा निर्मित उपनाहों का बार-बार प्रयोग करना चाहिए॥२-३॥
वक्तव्य-उक्त उपनाहस्वेद में कहे गये कुछ द्रव्य इधर-उधर से लिये गये हैं, अतः उनका निर्देश हम यहाँ कर रहे हैं—'समस्तैर्गन्धैश्च' इसे वृद्धवाग्भट ने अ.सं.सू. २६।५ में सर्वगन्ध कहा है, देखें। ‘सुरसादि गण' को देखें—अ.हृ.सू. १५।३० । ‘पद्मकादि गण' को देखें—अ.हृ.सू. १५।१२ तथा 'साल्वण'—सु.चि. ४।१४-१५ में देखें। यहाँ 'उपनाह' का अर्थ है—उक्त द्रव्यों के साथ बाँधना। इसी को ‘पुल्टिस' भी कहते हैं।
स्निग्धोष्णवीर्यैर्मृदुभिश्चर्मपट्टैरपूतिभिः ॥४॥
अलाभे वातजित्पत्रकौशेयाविकशाटकैः ।
बद्धं रात्रौ दिवा मुञ्चेन्मुञ्चेद्रात्रौ दिवाकृतम्॥५॥
बन्धनद्रव्य-निर्देश—ऊपर कहे गये द्रव्यों का पतला हलुआ-सा बनाकर वेदना वाले अंग पर लगाकर स्निग्ध तथा उष्णवीर्य वाले मुलायम चमड़े की पट्टियों, जो दुर्गन्धित न हों, से बाँधे। यदि उक्त प्रकार की चमड़े की पट्टी सुलभ न हो तो वातनाशक एरण्ड आदि के पत्ते उस पर रखकर रेशमी अथवा ऊनी पट्टियों से बाँधे। दिन में बाँधे हुए इस बन्धन को रात में खोलें और रात में बाँधे हुए को दिन में खोलें अर्थात् यह बन्धन १२ घण्टा बँधा रहे॥४-५॥
ऊष्मा तूत्कारिकालोष्टकपालोपलपांसुभिः।
पत्रभङ्गेन धान्येन करीषसिकतातुषैः॥६॥
अनेकोपायसन्तप्तैः प्रयोज्यो देशकालतः।
ऊष्मस्वेद—उत्कारिका ( गरम-गरम रोटी या लपसी आदि) से, मिट्टी के ढेले से, कपाल (फूटे हुए घड़े के टुकड़ों) से, पत्थर के टुकड़ों से, पांसु (धूल, मिट्टी या बालू) से, पत्रभंग (भूमि पर पत्तों को जलाकर, उस पर पुनः पत्तों को बिछाकर लेटने ) से; उड़द, धान आदि को उबाल कर उसके ऊपर लेटने से; करीष (गोबर), सिकता (बालू ) तथा तुष (भूसी) को जलाकर या गरम कर उसके ऊपर बिछाई हुई चारपायी पर लेटने से, इनके अतिरिक्त विविध विधियों से ताप देकर यह स्वेदन किया जाता है। इसका प्रयोग देश-काल के अनुसार ही करें॥६॥
वक्तव्य-वृद्धवाग्भट ने इसके भेदों की गणना इस प्रकार की है—१. पिण्ड, २. संस्तर, ३. नाड़ी, ४. घनाश्मा, ५. कुम्भी, ६. कूप, ७. कुटी तथा जेन्ताक। देखें-अ.सं.सू. २६।७। इसी के आगे वहाँ इनकी प्रयोगविधियाँ भी दी हैं।
शिग्रुवारणकैरण्डकरञ्जसुरसार्जकात् ॥७॥
शिरीषवासावंशार्कमालतीदीर्घवृन्ततः ।
पत्रभङ्गैर्वचाद्यैश्च मांसैश्चानूपवारिजैः॥८॥
दशमूलेन च पृथक् सहितैर्वा यथामलम् ।
स्नेहवद्भिः सुराशुक्तवारिक्षीरादिसाधितैः॥९॥
कुम्भीर्गलन्ती डीर्वा पूरयित्वा रुजार्दितम् ।
वाससाऽऽच्छादितं गात्रं स्निग्धं सिञ्चेद्यथासुखम् ॥
द्रवस्वेद—सहजन, वारणक (कंटककरंज ), एरण्ड, करंज, तुलसी, वनतुलसी, सिरस, अडूसा, बाँस, आक, मालती तथा सोनापाठा—इन द्रव्यों के पत्रसमूह अथवा वातनाशक अन्य वृक्षों के पत्रसमूह अथवा वचादि गण (अ.हृ.सू. १५।३५) के पत्रसमूह अथवा वचा आदि वे द्रव्य जो ऊपर उपनाहस्वेद (श्लोक ३) में कहे गये हैं अथवा सूअर आदि अनूप देश में होने वाले प्राणियों के मांस अथवा मछली आदि पानी में होने वाले प्राणियों के मांस या दशमूल के द्रव्यों को दोषानुसार अलग-अलग लेकर अथवा सबको एक साथ लेकर सुरा, सिरका, जल, दूध में पकाकर उसमें तैल-घी आदि स्नेह मिलाकर उसे छान लें। फिर इसे घड़ा में या झंझर ( सुराही ) में या नाली (पिचकारी ) आदि में भरकर रोगयुक्त अंग पर अभ्यंग करने के बाद कपड़े से उस अंग को ढककर गुन-गुने उस द्रव का सेचन करें।। ७-१०॥
वक्तव्य-श्लोक २ से १४ तक उष्ण अर्थात् आग्नेय स्वेदों की चर्चा है, इसके विपरीत अनाग्नेय स्वेद भी होते हैं, उनका वर्णन आगे २८वें श्लोक में किया जायेगा। द्रवस्वेदों में अवगाहन, सेचन, परिषेक आदि विधियाँ कही गयी हैं। गरम पानी से स्नान करना भी 'द्रवस्वेद' ही है, किन्तु उष्ण जल से सिर को नहीं धोना चाहिए।
तैरेव वा द्रवैः पूर्णं कुण्डं सर्वाङ्गगेऽनिले।
अवगाह्यातुरस्तिष्ठेदर्शःकृच्छ्रादिरुक्षु च ॥११॥
निवातेऽन्तर्बहिःस्निग्धो जीर्णान्नः स्वेदमाचरेत्।
अवगाहन-स्वेदविधि–उक्त द्रवस्वेद-विधि में वर्णित द्रव्यों के क्वाथजल को कुण्ड (टब) में भर दें। स्पर्श करने योग्य उस जल में रोगी को बैठायें या लेटा दें। यह सर्वाङ्गव्यापी स्वेदन है। इसका प्रयोग वातविकारों, अर्शरोग तथा मूत्रकृच्छ्र रोगों में कराना चाहिए ।। ११ ।।
स्वेदन-विधि-स्नेहपान-विधि द्वारा भीतर से स्नेहन किया हुआ और अभ्यंग आदि विधियों से बाहर से स्नेहन किया हुआ पुरुष भोजन के पच जाने पर वातरहित स्थान में अर्थात् जहाँ हवा का सीधा प्रवेश न हो रहा हो ( ऐसे घर के भीतर ) स्वेदन करे।
व्याधिव्याधितदेशर्तुवशान्मध्यवरावरम् ॥१२॥
स्वेदन-विधिभेद—रोग, रोगी, देश और ऋतु (काल) इन सबका विचार कर तदनुसार उत्तम, मध्यम अथवा अवर (अधम ) कोटि का यथायोग्य स्वेदन कराना चाहिए ।।१२।।
कफार्तो रूक्षणं रूक्षो, रूक्षः स्निग्धं कफानिले।
दोषभेद से स्वेदन अन्यत्र स्नेहन करने के बाद स्वेदन करने का निर्देश है, अतः कफज रोग से पीड़ित रोगी बिना स्नेहन किये अर्थात् रूखा रहकर रूक्षताकारक द्रव्यों से स्वेदन करे। इस रूक्षस्वेदन को 'तापस्वेद' भी कहते हैं। रूक्षरोगी कफज तथा वातज रोगों में रूक्ष तथा स्निग्ध द्रव्यों द्वारा द्रवस्वेदन करे। पित्तज विकारों में स्वयं स्वेद होने से स्वेदन की आवश्यकता ही नहीं होती है।
आमाशयगते वायौ कफे पक्वाशयाश्रिते॥१३॥
रूक्षपूर्वं तथा स्नेहपूर्वं स्थानानुरोधतः।
स्थानभेद से स्वेदन—वातदोष जब आमाशय में पहुँचा हो और कफदोष पक्वाशय में स्थित हो तो उस समय सबसे पहले रूक्ष स्वेदन करें, फिर स्निग्ध स्वेदन करें और जब वातदोष मलाशय में स्थित हो तो पहले स्निग्ध स्वेदन, फिर रूक्ष स्वेदन करें। यह स्थान के विचार से निर्णय लिया गया है।।१३।।
अल्पं वक्षणयोः, स्वल्पं दृङ्मुष्कहृदये न वा ॥१४॥
अन्यत्र स्वेदन-निर्देश—दोनों वंक्षणों (पेडू और जाँघ के बीच का भाग) में अल्प (अवर श्रेणी का ) स्वेदन करना चाहिए। दृष्टि (नेत्रों), अण्डकोषों तथा हृदयप्रदेश पर थोड़ा-सा स्वेदन करें अथवा न करें।॥१४॥
शीतशूलक्षये स्विन्नो जातेऽङ्गानां च मार्दवे।
स्याच्छनैर्मुदितः स्नातस्ततः स्नेहविधिं भजेत् ।।
स्वेदन का सम्यक् योग-जब सर्दी लगना रुक जाय तथा शूल की शान्ति हो जाय और जकड़े हुए अंग (शरीर के अवयव ) सुकोमल हो जायें तब समझें कि भलीभाँति स्वेदन हो चुका है। इस क्रिया के पश्चात् धीरे-धीरे शरीर को मसलना चाहिए, फिर गुनगुने जल से स्नान करे, तदनन्तर स्नेहपान या स्नेहन-विधि करे ॥१५॥
पित्ताम्रकोपतृण्मूर्छास्वराङ्गसदनभ्रमाः।
सन्धिपीडा ज्वरः श्यावरक्तमण्डलदर्शनम् ॥१६॥
स्वेदातियोगाच्छर्दिश्च, तत्र स्तम्भनमौषधम्।
विषक्षाराग्न्यतीसारच्छर्दिमोहातुरेषु च ॥१७॥
स्वेदन का अतियोग-इससे पित्तविकार, रक्तविकार, प्यास का लगना, बेहोशी होना, स्वर तथा शरीर में ढीलापन, चक्करों का आना, जोड़ों में पीड़ा का होना, ज्वर, काले एवं लाल चकत्तों का दिखलायी पड़ना तथा छर्दि (वमन) का होना ये लक्षण होते हैं। इस स्थिति में स्तम्भन-चिकित्सा करनी चाहिए। विषजनित विकारों, क्षारविकारों, अग्निविकारों में, अतिसार, वमन तथा मूर्छा रोगों में भी स्तम्भन-चिकित्सा करनी चाहिए।१६-१७॥
स्वेदनं गुरु तीक्ष्णोष्णं प्रायः, स्तम्भनमन्यथा।
द्रवस्थिरसरस्निग्धरूक्षसूक्ष्मं च भेषजम् ॥१८॥
स्वेदनं, स्तम्भनं श्लक्ष्णं रूक्षसूक्ष्मसरद्रवम्।
प्रायस्तिक्तं कषायं च मधुरं च समासतः॥१९॥
स्वेदन द्रव्य-प्रायः गुरु, तीक्ष्ण एवं उष्णवीर्य वाले द्रव्य स्वेदनकारक होते हैं। इनके विपरीत गुण-धर्म वाले द्रव्य स्तम्भनकारक होते हैं; यथा-लघु, मृदु एवं शीतवीर्य वाले द्रव्य। द्रव, स्थिर, सर, स्निग्ध, रूक्ष तथा सूक्ष्म द्रव्य स्वेदनकारक होते हैं।
स्तम्भन द्रव्य–श्लक्ष्ण, रूक्ष, सूक्ष्म, सर एवं द्रव द्रव्य प्रायः स्तम्भनकारक होते हैं। रसों के विचार से स्तम्भन द्रव्य–तिक्त, कषाय तथा मधुर रस वाले द्रव्य प्रायः स्तम्भन होते हैं। रसों के विचार से स्वेदन द्रव्य–उक्त रसों के विपरीत ( लवण, अम्ल तथा कटु ) रस वाले द्रव्य स्वेदन होते हैं।। १८-१९॥
वक्तव्य वास्तव में जिन द्रव्यों के प्रयोग से शरीर से पसीना निकले वे स्वेदन हैं और जिनके प्रयोग से पसीना निकलना रुक जाय वे स्तम्भन हैं। जैसे- -उष्ण जल में अवगाहन करना या उष्ण जल से स्नान करना स्वेदन हैं, इसके विपरीत शीतल जल से स्नान करना या शीतल हवा का सेवन करना आदि उपाय स्तम्भन हैं।
स्तम्भितः स्याद्वले लब्धे यथोक्तामयसङ्ख्यात्।
स्तम्भन के समुचित प्रयोग के लक्षण-बल की प्राप्ति होना तथा इसी अध्याय के १६वें श्लोक में कहे गये पित्तज, रक्तज विकार आदि का क्षीण हो जाना—ये स्तम्भन के लक्षण होते हैं।
स्तम्भत्वक्स्नायुसङ्कोचकम्पहृद्वाग्घनुग्रहैः ॥२०॥
पादौष्ठत्वक्करैः श्यावैरतिस्तम्भितमादिशेत्।
स्तम्भन के अतियोग के लक्षण—शरीर में अकड़न या जकड़न, त्वचा एवं स्नायुओं में संकोच, कम्पन, हृदय, वाणी तथा हनु की गति में रुकावट, पैरों, होठों, त्वचा, हाथों एवं नखों में नीलापन का दिखलायी देना ॥२०॥
वक्तव्य—इस स्थिति में पुनः देश-काल के अनुसार उष्णोपचार करने चाहिए।
स्वेदयेदतिस्थूलरूक्षदुर्बलमूर्च्छितान् ॥२१॥
स्तम्भनीयक्षतक्षीणक्षाममद्यविकारिणः ।
तिमिरोदरवीसर्पकुष्ठशोषाढ्यरोगिणः॥२२॥
पीतदुग्धदधिस्नेहमधून् कृतविरेचनान् ।
भ्रष्टदग्धगुदग्लानिक्रोधशोकभयार्दितान् ॥२३॥
क्षुत्तृष्णाकामलापाण्डुमेहिनः पित्तपीडितान् ।
गर्भिणी पुष्पितां सूतां, मृदु चात्ययिके गदे॥२४॥
स्वेदन के अयोग्य रोगी एवं रोग—अत्यन्त मोटे, अत्यन्त रूक्ष शरीर वाले, अत्यन्त कमजोर, मूर्छारोग से पीड़ित, स्तम्भन के योग्य व्यक्ति की ( इनका वर्णन इसी अध्याय के श्लोक १५, १६ तथा १९ में आया है), क्षत ( उरःक्षत अथवा घाव लगने से पीड़ित), क्षीण (धातुक्षय आदि से पीड़ित ), क्षाम (कृश), मद्यविकार वाले (मदात्यय आदि मदजनित रोगों से पीड़ित ), तिमिररोगी, उदररोगी, विसर्परोगी, कुष्ठरोगी, शोष (राजयक्ष्मा), आढ्य (वातरक्त) रोगी, जिन्होंने दूध, दही, स्नेह तथा शहद को तत्काल पिया हो, जिन्हें अभी विरेचन कराया गया हो, भ्रष्टगुद ( जिसकी काँच निकल गयी हो), दग्धगुद ( जिसका गुदप्रदेश क्षार या अग्नि से जल गया हो), मानसिक क्लेश से युक्त तथा क्रोध, शोक, भय, भूख, प्यास से पीड़ित; कामलारोगी, पाण्डुरोगी, प्रमेहरोगी, पित्तज रोगों से पीड़ित, गर्भिणी, रजस्वला तथा प्रसूता ( जिसने हाल में ही शिशु को जन्म दिया हो)—इनको स्वेदन का प्रयोग न करायें। आवश्यक होने पर रोग की स्थिति में मृदु स्वेदन कराया जा सकता है।। २१-२४॥
वक्तव्य—वाग्भट की प्रतिज्ञानुसार जब हम उनकी पूर्ववर्ती संहिताओं का अवलोकन करते हैं, तो हमें 'सूता' या 'प्रसूता' के लिए स्वेदन का निषेध चरक में नहीं मिलता। आप भी देखें-च.सू. १४११६-१९। इसके विपरीत ‘सूतिका "सूतिकायाः' । (च.शा. ८।४८ ) में 'पिप्पल्यादि गण' द्वारा पकायी गयी स्नेहयुक्त यवागू का सेवन तथा उसे उष्णोदक द्वारा स्नान कराना निर्दिष्ट है। ये दोनों ही विधियाँ स्वेदन ही हैं। अब आप सश्रुत के दृष्टिकोण को भी देखें। आपने जिन्हें अस्वेद्य कहा है, उनका परिगणन यहाँ किया जा रहा है—पाण्डुरोगी, प्रमेहरोगी, रक्तपित्तरोगी, क्षयरोगी, क्षाम (कृश), अजीर्णरोगी, उदररोगी, विष से पीड़ित, प्यासा, वमन से पीड़ित, गर्भिणी, मद्यपान किया हुआ तथा अतिसाररोगी—इन्हें स्वेदन नहीं देना चाहिए। देखें—सु.चि. ३२।२५। इसमें 'सूता' को स्वेदन के अयोग्य नहीं कहा है। इसी के पहले सुश्रुत ने स्पष्ट शब्दों में कहा है—'सम्यक् प्रजाता काले या पश्चात् स्वेद्या विजानता'। (सु.चि. ३२।१८) इसके पहले सुश्रुत ने सु.शा. १०।१६-१८ में प्रसूता की जो परिचर्या दी है, वह स्नेहन तथा स्वेदन के भावों को व्यक्त करती है। लोकाचार में भी सद्यःप्रसूता स्त्रियों को स्वेदन का प्रयोग कराया ही जाता है।
निष्कर्ष—प्राचीन महर्षियों के वचन सारवान् होते हैं। उक्त समस्त ऊहापोह करने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि स्वेदन के उन भावों का आचार्य ने यहाँ निषेध किया है, जिन्हें सुकोमलांगी प्रसूताओं को अवश्य त्याग देना चाहिए। वे भाव हैं—नियुद्ध (बाहुयुद्ध या पैदल लड़ाई करना अर्थात् आयास- जनित समस्त कार्य), भारवहन, मार्गचलन आदि उन कष्टसाध्य कार्यों को न करे, जिनसे पसीना होता हो। यही आशय वृद्धवाग्भट का भी प्रतीत होता है।
श्वासकासप्रतिश्यायहिध्माध्मानविबन्धिषु ।
स्वरभेदानिलव्याधिश्लेष्मामस्तम्भगौरवे ॥२५॥
अङ्गमर्दकटीपार्श्वपृष्ठकुक्षिहनुग्रहे।
महत्त्वे मुष्कयोः खल्यामायामे वातकण्टके ॥२६॥
मूत्रकृच्छ्रार्बुदग्रन्थिशुक्राघाताढ्यमारुते ।
स्वेदं यथायथं कुर्यात्तदौषधविभागतः॥२७॥
स्वेदन के योग्य—श्वास, कास, प्रतिश्याय ( जुकाम), हिध्मा ( हिक्का या हिचकी), अफरा, विबन्ध (कब्जियत ), स्वरभेद (गला बैठना), वातज रोग, कफज रोग, आमरसजनित रोग, हनुस्तम्भ, भारीपन, अंगों में मसलने की-सी पीड़ा का होना, कटिग्रह, पार्श्वग्रह, पृष्ठग्रह, कुक्षिग्रह (आँतों की गति में रुकावट), हनुग्रह, अण्डवृद्धि, खल्ली, अन्तरायाम या बाह्यायाम, वातकण्टक, मूत्रकृच्छ्र, अर्बुदरोग, ग्रन्थिरोग, शुक्राघात तथा आढयवात (ऊरुस्तम्भ ).-इन रोगों में उस-उस रोग का नाश करने वाली औषधियों द्वारा तैयार किये गये द्रव्यों से स्वेदन कराना चाहिए।।२५-२७॥
स्वेदो हितस्त्वनाग्नेयो वाते मेदःकफावृते।
अनाग्नेय स्वेद—प्रायः सभी स्वेदन अग्नि के संयोग से सम्पन्न कराये जाते हैं। कुछ स्वेदन ऐसे हैं, जिनमें अग्नि का प्रयोग नहीं होता। इस प्रकार के स्वेदों का प्रयोग मेदोधातु तथा कफदोष से आवृत ( घिरे हुए ) वातदोष से होने वाले (ऊरुस्तम्भ आदि) रोगों में किया जाता है।
निवातं गृहमायासो गुरुप्रावरणं भयम् ॥२८॥
उपनाहाहवक्रोधा भूरिपानं क्षुधाऽऽतपः।
दसविध अनाग्नेय स्वेद-१. निवात घर में रहना, २. आयास (विविध प्रकार के परिश्रमसाध्य कार्यों को करते रहना), ३. गुरुप्रावरण ( मोटे कम्बल अथवा रजाई आदि को ओढ़े रहना ), ४. भय ( यह भी पसीना लाने का एक उपाय है), ५. उपनाह (ऊन की पट्टी से या साधारण पट्टी से कसकर बाँधे रहना), ६. आहव (लड़ाई या कुश्ती करना), ७. क्रोध करना, ८. अधिक मात्रा में मादक पदार्थों का सेवन करना, ९. भूखा रहना तथा १०. आतप (धूप का सेकना ) ।। २८ ।।
वक्तव्य-भगवान् पुनर्वसु ने भी दसविध अनग्निस्वेदन का वर्णन इस प्रकार किया है—'व्यायाम उष्णसदनं गुरुप्रावरणं क्षुधा। बहुपानं भयक्रोधावुपनाहाहवातपाः' । (च.सू. १४।६४) इसका अर्थ भी वाग्भट के उक्त २८वें श्लोक के समान है। ज्वर में भूखा रहना या लंघन करना इस विधि से कुछ दिन बाद स्रोतों के खुल जाने पर पसीना निकलने लगता है; यही क्षुधा द्वारा स्वेदन होने का प्रमाण है। स्वेदन के भलीभाँति हो जाने के बाद किस प्रकार का आहार-विहार करना चाहिए, इसके लिए देखें-अष्टांगसंग्रह-सू. २६।३६
स्नेहक्लिन्नाः कोष्ठगा धातुगा वा स्रोतोलीना ये च शाखास्थिसंस्थाः।
दोषाः स्वेदैस्ते द्रवीकृत्य कोष्ठं नीताः सम्यक् शुद्धिभिर्निह्रियन्ते ॥ २९ ।।
इति श्रीवैद्यपतिसिंहगुप्तसूनुश्रीमद्वाग्भटविरचितायामष्टाङ्गहृदयसंहितायां
प्रथमे सूत्रस्थाने स्वेदविधिर्नाम सप्तदशोऽध्यायः॥१७॥
स्वेदन का फल—कोष्ठगत दोष, रस-रक्त आदि धातुओं में गये हुए या व्याप्त दोष, स्रोतों में विलीन ( सटे हुए ) दोष एवं शाखाओं ( त्वचा, बाहुओं, सक्थियों) में तथा अस्थियों में स्थित दोष स्नेहन-विधि द्वारा चिकने किये गये तदनन्तर स्वेदन-विधि से पिघलाये जाने पर कोष्ठ में पहुँचा दिये जाते हैं। तदनन्तर वमन-विरेचन रूप संशोधन-विधियों से उन्हें सुखपूर्वक भलीभाँति बाहर निकाला जा सकता है।। २९ ।।
इस प्रकार वैद्यरत्न पण्डित तारादत्त त्रिपाठी के पुत्र डॉ० ब्रह्मानन्द त्रिपाठी द्वारा विरचित निर्मला हिन्दी व्याख्या, विशेष वक्तव्य आदि से विभूषित अष्टाङ्गहृदय-सूत्रस्थान में स्नेहविधि नामक सत्रहवाँ अध्याय समाप्त ।।१७।।
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