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स्वास्थ्य-चिकित्सा >> अष्टांगहृदय

अष्टांगहृदय

वाग्भट

प्रकाशक : खेमराज श्रीकृष्णदास प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :350
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15769
आईएसबीएन :1234567890

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आयुर्वेद के स्तम्भ ग्रंथ अष्टांगहृदय का पहला भाग


षोडशोऽध्यायः

अथातः स्नेहविधिमध्यायं व्याख्यास्यामः।

इति ह स्माहुरात्रेयादयो महर्षयः।

अब हम यहाँ से स्नेहनविधि नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे। जैसा कि इस विषय में आत्रेय आदि महर्षियों ने कहा था।

उपक्रम—शोधन आदि गणों के पश्चात् अब यहाँ स्नेहाध्याय का आरम्भ किया जा रहा है। क्योंकि शास्त्रीय परम्परा के अनुसार शोधन-चिकित्सा स्नेहन तथा स्वेदन करने के पश्चात् ही की जाती है, इसीलिए यहाँ स्नेहन तथा स्वेदन का उपक्रम किया जा रहा है।

संक्षिप्त सन्दर्भ-संकेत—च.सू. १३; सु.चि. ३१ एवं अ.सं.सू. २५ में देखें।

गुरुशीतसरस्निग्धमन्दसूक्ष्ममृदुद्रवम्। औषधं स्नेहनं प्रायो, विपरीतं विरूक्षणम् ॥१॥

स्नेहन एवं रूक्षण वर्णन—जो औषधद्रव्य गुरु, शीत, सर, स्निग्ध, मन्द, सूक्ष्म, मृदु एवं द्रव होता है वह प्रायः स्नेहन होता है। जो औषध उक्त गुणों के विपरीत होता है, वह प्रायः रूक्षण होता है॥१॥

वक्तव्य-भगवान् पुनर्वसु ने चरकसंहिता-सूत्रस्थान २२।११, १५-१६ में स्नेहन एवं रूक्षण द्रव्यों का वर्णन किया है। स्नेह के सेवन की अनुशंसा सुश्रुत ने भी चिकित्सास्थान ३१।३ में की है, इन स्थलों का अवलोकन कर लें।

सर्पिर्मज्जा वसा तैलं स्नेहेषु प्रवरं मतम्।
तत्रापि चोत्तमं सर्पिः संस्कारस्यानुवर्तनात्॥२॥
माधुर्यादविदाहित्वाज्जन्माद्येव च शीलनात्।

चार प्रकार के स्नेह—घी, मज्जा, वसा तथा तेल–ये चारों स्नेहों में उत्तम माने गये हैं। घृत की प्रधानता—उक्त चार प्रकार के स्नेहों में घी सर्वश्रेष्ठ होता है, क्योंकि यह संस्कार के अनुकूल कार्य करता है। यह मधुर होता है, यह विदाहकारक नहीं होता। इसका सेवन जन्मकाल से ही किया जाता है।॥२॥

वक्तव्य-उक्त स्नेहों का स्थावर-जंगम भेद से वर्गीकरण—तिलतैल, सार्षप तैल, एरण्ड तैल आदि स्थावर स्नेह कहे जाते हैं। घी, वसा, मज्जा की योनि जंगम है, क्योंकि इनकी प्राप्ति जीवित तथा मृत प्राणियों से होती है। घी नामक स्नेह की उत्तमता का कारण एक और भी है कि इसका सेवन जन्मकाल से आरम्भ हो जाता है अथवा कर दिया जाता है। इसके लिए आप देखें—सु.शा. १०।१२, १३, १५ तथा ६८, ६९, ७० । इसके सेवन से शरीर, मेधा, बल एवं बुद्धि बढ़ती है।

पित्तघ्नास्ते यथापूर्वमितरघ्ना यथोत्तरम् ॥३॥

स्नेहों के प्रमुख गुण—ये चारों स्नेह अन्त से आरम्भ की ओर उत्तम पित्तशामक होते हैं तथा उत्तरोत्तर कफ एवं वात दोष का शमन करने में उत्तम होते हैं।।३।।

घृतात्तैलं गुरु वसा तैलान्मज्जा ततोऽपि च।

उत्तरोत्तर गुरुता–घी से तेल, तेल से वसा तथा वसा से मज्जा ये उत्तरोत्तर पाचन में गुरु होते हैं।

द्वाभ्यां त्रिभिश्चतुर्भिस्तैर्यमकस्त्रिवृतो महान् ॥४॥

स्नेहयोगों के नाम–उक्त स्नेहों की गुरुता के अनुसार घी और तेल इन दो स्नेहों का नाम 'यमक' है। घी, तेल तथा वसा इन तीन स्नेहों का नाम 'त्रिवृत' है और घी, तेल, वसा एवं मज्जा इन चार स्नेहों का नाम 'महान्' है।।४।।

वक्तव्य—इन स्नेहों के उक्त नाम यहाँ सर्वथा पारिभाषिक हैं, अन्यत्र ‘यमक' अलंकार, 'त्रिवृत्' तीन बार लपेटा हुआ और 'महान्' की तो बात ही क्या है, उसे तो सभी जानते हैं।

स्वेद्यसंशोध्यमद्यस्त्रीव्यायामासक्तचिन्तकाः।
वृद्धबालाबलकृशा रूक्षाः क्षीणाम्ररेतसः॥५॥
वातार्तस्यन्दतिमिरदारुणप्रतिबोधिनः। स्नेह्याः-

स्नेहन-योग्य व्यक्ति जो स्नेहन तथा संशोधन के योग्य हैं, जो मद्यपान, स्त्रीसहवास तथा व्यायाम करने में आसक्त हैं, जो चिन्तन करने में लगे रहते हैं, जो वृद्ध, बालक तथा कृश हैं, रूक्ष शरीरं वाले हैं, जिनका रक्तधातु एवं शुक्रधातु क्षीण हो गया है, जो वातविकार से पीड़ित हैं, अभिष्यन्द ( नेत्ररोग विशेष) तथा तिमिर रोग से पीड़ित हैं, जिन्हें आँखों को खोलने या जागने में कष्ट होता है—ये सभी स्नेहन के योग्य होते हैं।॥५॥

वक्तव्य—स्वेदन के योग्यों का परिचय १७वें अध्याय में तथा संशोधन के योग्यों का परिचय १८वें अध्याय में आगे देखें।

-न त्वतिमन्दाग्नितीक्ष्णाग्निस्थूलदुर्बलाः॥६॥
ऊरुस्तम्भातिसाराऽऽमगलरोगगरोदरैः।
मूर्छाच्छZरुचिश्लेष्मतृष्णामद्यैश्च पीडिताः॥७॥
अपप्रसूता युक्ते च नस्ये बस्तौ विरेचने।

स्नेहन के अयोग्य व्यक्ति—जो अत्यन्त मन्द अग्निवाले अथवा तीक्ष्ण अग्निवाले, जो अत्यन्त मोटे या दुर्बल हैं, जो ऊरुस्तम्भ, अतिसार, आमाजीर्ण, गलरोग, दूषीविष, उदररोग, मूर्छा, वमन, अरुचि, कफज रोग, तृष्णा, मदात्यय, गर्भस्राव या गर्भपात वाली स्त्री, जिन्हें अभी-अभी नस्यकर्म, बस्तिकर्म तथा विरेचन कर्म कराया गया हो, इन सबको स्नेहन नहीं कराना चाहिए।।६-७।।

तत्र धीस्मृतिमेधादिकाङ्किणां शस्यते घृतम् ॥८॥

घृतस्नेह के योग्य व्यक्ति—बुद्धि, स्मृति तथा मेधावृद्धि को चाहने वाले व्यक्तियों को घृतस्नेहन देना उत्तम होता है।।८॥

ग्रन्थिनाडीकृमिश्लेष्ममेदोमारुतरोगिषु । तैलं लाघवदाढार्थिङ्करकोष्ठेषु देहिषु॥९॥

तैलस्नेह के योग्य व्यक्ति-ग्रन्थिरोग (मा.नि. ३८।११ से १७ तक), नाड़ीव्रण, क्रिमिरोग, कफज विकार, मेदोविकार तथा वातज विकार वालों के लिए, शरीर में लघुता ( हलका एवं फुर्तीलापन ) चाहने वालों तथा क्रूरकोष्ठ वालों ( जिन्हें सामान्य विरेचक औषध-द्रव्यों से विरेचन नहीं होता उनके ) लिए लाभदायक होता है।॥९॥

वातातपाध्वभारस्त्रीव्यायामक्षीणधातुषु ।
रूक्षक्लेशक्षमात्यग्निवातावृतपथेषु च ॥१०॥
शेषौ-

वसा-मज्जास्नेह के योग्य व्यक्ति–वातदोष के कारण जिसके रस-रक्त आदि धातु क्षीण हो गये हों, आतप (धूप ) सेवन से, अधिक मार्ग चलने से, बोझा ढोने से, स्त्री-सहवास करने से तथा व्यायाम करने से जिसके धातु क्षीण हो गये हों, जो शरीर से रूक्ष हों, जो कष्ट सहन कर सकने में समर्थ हों, जिनकी जठराग्नि अत्यन्त तीक्ष्ण हो, जिनके स्रोतस् वातदोष द्वारा घिरे हों, उनके लिए शेष (घी-तेल से रहित ) वसा-मज्जा नामक स्नेह लाभदायक होते हैं।॥१०॥

-वसा तु सन्ध्यस्थिमर्मकोष्ठरुजासु च ।
तथा दग्धाहतभ्रष्टयोनिकर्णशिरोरुजि ॥११॥

वसास्नेह का प्रयोगक्षेत्र—जिसकी सन्धियों (जोड़ों), अस्थियों, मर्मों में अथवा कोष्ठ (आमाशय, पक्वाशय, मूत्राशय, रक्ताशय, हृदय तथा उण्डुक) में पीड़ा हो रही हो; जो आग से जल गया हो; जो किसी प्रकार के आघात से प्रताड़ित हो, जिसकी योनि (गर्भाशय) खिसक कर बाहर आ गयी हो; इसी को योनिभ्रंश भी कहते हैं और जिसके कान एवं सिर में पीड़ा हो उनके लिए वसा का सेवन अधिक लाभदायक होता है।।११॥

तैलं प्रावृषि, वर्षान्ते सर्पिरन्यौ तु माधवे।

ऋतुभेद से स्नेहन-निर्देश—प्रावृट् ऋतु ( आषाढ़-श्रावण ) में तेल का, शरद् ऋतु में घी का और वसन्त ऋतु में वसा तथा मज्जा का सेवन करना चाहिए।

ऋतौ साधारणे स्नेहः शस्तोऽह्नि विमले रवौ।।१२॥

दिन में स्नेहसेवन-निर्देश—साधारण ऋतुओं में अर्थात् जिन दिनों जाड़ा, गर्मी, वर्षा सामान्य हो ऐसे दिनों में जब सूर्य का प्रकाश स्वच्छ हो तब दिन में स्नेह का प्रयोग करे ।। १२ ।।

तैलं त्वरायां शीतेऽपि-

शीतकाल में तैल-प्रयोग–यदि चिकित्सा के लिए किसी स्नेहपान की आवश्यकता हो तो अन्य कालों के साथ शीतकाल में भी तैल का प्रयोग किया जा सकता है।

-धर्मेऽपि च घृतं निशि।

रात्रि में घृतपान-विधान–यदि गर्मी के दिनों में तत्काल स्नेहपान कराने की आवश्यकता हो तो रात में भी घृतपान किया जा सकता है।

निश्येव पित्ते पवने संसर्गे पित्तवत्यपि ॥१३॥

कारण-भेद से रात्रि में घृतपान—न केवल गर्मियों में ही रात को घृतपान करना चाहिए अपितु पित्त के प्रकुपित होने से उत्पन्न पित्तज विकारों में तथा वात के प्रकुपित होने से वातज विकारों में यदि वह स्नेहसाध्य हो तो रात में भी घृतपान कराया जा सकता है।। १३ ।।

निश्यन्यथा वातकफाद्रोगाः स्युः पित्ततो दिवा ।

स्नेहसेवन-विचार-ऊपरनिर्दिष्ट घृत-तैल सेवनकालों के विपरीत शीतकाल की रात्रियों में घृतपान करने से वातज तथा कफज रोग हो सकते हैं और उष्णकाल के दिनों में तैलपान करने से पित्तज विकार हो सकते हैं।

वक्तव्य-घृत अथवा तैलपान कराते समय रोगी की प्रकृति, देश, काल आदि का भी विचार कर लें।

युक्त्याऽवचारयेत्स्नेहं भक्ष्याद्यन्नेन बस्तिभिः॥१४॥
नस्याभ्यञ्जनगण्डूषमूर्द्धकर्णाक्षितर्पणैः

स्नेहसेवन की युक्ति—स्नेह का सेवन युक्ति से (मात्रा, काल, क्रिया, भूमि, देह, दोष तथा स्वभाव का विचार करके) करना चाहिए।

स्नेहसेवन-प्रकार—भक्ष्य, भोज्य, लेह्य अथवा पेय चतुर्विध आहार के साथ करें या उसमें मिलाकर करें। तीन प्रकार की बस्तियों ( निरूह, अनुवासन तथा उत्तर बस्ति ) का प्रयोग करें। नस्य, अभ्यंग, गण्डूष, शिरोबस्ति, कर्णपूरण तथा अक्षितर्पण के रूप में करें।।१४।।

रसभेदैककत्वाभ्यां चतुःषष्टिर्विचारणाः॥१५॥
स्नेहस्यान्याभिभूतत्वादल्पत्वाच्च क्रमात्स्मृताः।

स्नेह की विचारणाएँ—उपर्युक्त भेदों के अनुसार स्नेह की विचारणाएँ चौंसठ प्रकार की स्वीकार की गयी है। अ.हृ.सू. अध्याय १० में मधुर आदि रसों के जो ६३ भेद बतलाये गये हैं, उन एक-एक रसभेद के साथ स्नेह को मिलाकर सेवन करने से स्नेह की भी ६३ प्रविचारणाएँ तो हो जाती हैं। नस्य अथवा अभ्यंग में प्रयुक्त शुद्ध स्नेह का एक भेद और जोड़ देने से इसके ६४ भेद हो जाते हैं। दूसरे विद्वान् बस्ति आदि में प्रयुक्त स्नेह का एक भेद मानते हैं।। १५ ।।

वक्तव्य-'प्रविचारणा' को कल्पनापूर्वक भेद कहा है। आचार्य चक्रपाणि ने इस पद की व्याख्या इस प्रकार की है—“प्रविचार्यते अवचार्यते अनुकल्पेन उपयुज्यते अनयेति प्रविचारणाः ओदनादयः'। (च.सू. १३।२५ की टीका में) इस प्रसंग में चक्रपाणि का यह विचार युक्तिसंगत प्रतीत होता है। यही कारण है कि चरक ने २४ प्रकार की प्रविचारणाओं को ही स्वीकार किया है, न कि ६४ प्रकार की, अस्तु।

यथोक्तहेत्वभावाच्च नाच्छपेयो विचारणा ॥१६॥

विचारणा-ऊपर कहे गये कारणों के न होने से अच्छपेय (केवल स्नेहपान या शुद्ध स्नेहपान ) को विचारणा नहीं कहा गया है।।१६।।

स्नेहस्य कल्पः स श्रेष्ठः स्नेहकर्माशुसाधनात्।

अच्छपेय के लाभ-इस प्रकार के अच्छपेय को स्नेहपान का उत्तम कल्प माना जाता है, क्योंकि इस विधि से किया गया स्नेहपान शीघ्र ही शरीर को स्निग्ध (स्नेहगुणसम्पन्न ) कर देता है। -भोजन में मिलाकर सेवन किया गया स्नेह प्रायः मल के साथ निकल जाता है, इसका आप भी स्वयं अनुभव करें। इसके विपरीत अच्छपेय में प्रयुक्त स्नेह पच जाता है। इसका प्रयोग करने के पहले यह देख लें कि जिसे स्नेहपान कराया जा रहा है, उसकी जठराग्नि प्रदीप्त है या नहीं, क्योंकि मन्दाग्नि वाले व्यक्ति को इसका प्रयोग न करायें। भगवान् पुनर्वसु ने अच्छपेय की उत्तम मात्रा की इस प्रकार प्रशंसा की है—'तस्याः "चेतसाम्'। (च.सू. १३।३३-३४) उत्तम मात्रा के गुण-विधिपूर्वक सेवन की गयी स्नेह की यह मात्रा शीघ्र ही रोगों को शान्त करती है। यह तीनों रोगमार्गों में जाती हुई वहाँ के दोषों को नष्ट करती है। यह बल को बढ़ाती है और शरीर, इन्द्रियों एवं मन को पुनः ताजा कर देती है। अतएव इसे 'दोषानुकर्षिणी' कहा है।

द्वाभ्यां चतुर्भिरष्टाभिर्यामैर्जीर्यन्ति याः क्रमात्॥१७॥

ह्रस्वमध्योत्तमा मात्रास्तास्ताभ्यश्च ह्रसीयसीम् ।
कल्पयेद्वीक्ष्य दोषादीन् प्रागेव तु ह्रसीयसीम्॥॥१८॥

स्नेहमात्रा-विचार—स्नेहपान की मात्रा तीन प्रकार की होती है—१. लघु, २. मध्यम तथा ३. उत्तम । स्नेह की जो मात्रा दो पहर (६ घण्टे ) तक में पच जाती है, उसे ह्रस्व या लघु मात्रा कहते हैं। जो चार पहर (१२ घण्टे) तक में पचती है, उसे मध्यम कहते हैं और जो मात्रा आठ पहर (२४ घण्टे) तक में पचती है, उसे उत्तम मात्रा कहते हैं।

चिकित्सक का कर्तव्य है कि वह दोष, देश तथा काल आदि का विचार कर उक्त तीनों मात्राओं से भी छोटी एक मात्रा की कल्पना करके पहले सबसे छोटी उस मात्रा का प्रयोग करे ।। १७-१८॥

वक्तव्य—इस अल्पमात्रा के औचित्य का विचार करते हुए वृद्धवाग्भट इसके सम्बन्ध में कहते हैं-अ.सं.सू. २५/२३, २५।

ह्यस्तने जीर्ण एवान्ने स्नेहोऽच्छः शुद्धये बहुः।

शोधनार्थ स्नेहमात्रा-संशोधन-चिकित्सा के लिए अच्छस्नेह की उत्तम मात्रा का प्रयोग उस समय करे, जब कल का खाया हुआ भोजन भलीभाँति पच गया हो।

शमनः क्षुद्वतोऽनन्नो मध्यमात्रश्च शस्यते॥१९॥

शमनार्थ स्नेहमात्रा-शमन-चिकित्सा के लिए अच्छस्नेह की मध्यम मात्रा का प्रयोग उस समय करे जब भलीभाँति भूख लगी हो। इसे अन्न के साथ कभी न लें।। १९ ।।

बृंहणो रसमद्याद्यैः सभक्तोऽल्पः-

बृंहणार्थ स्नेहपान-विधि—इसका प्रयोग शरीर को पुष्ट करने के लिए इस प्रकार किया जाता है—स्नेह की थोड़ी मात्रा को मांसरस में मिलाकर सेवन करे और उसके बाद नियमानुसार मद्यपान करे।

-हितः स च । बालवृद्धपिपासार्तस्नेहद्विण्मद्यशीलिषु॥२०॥

स्त्रीस्नेहनित्यमन्दाग्निसुखितक्लेशभीरुषु।
मृदुकोष्ठाल्पदोषेषु काले चोष्णे कृशेषु च ॥२१॥

बृंहण स्नेहपान के योग्य व्यक्ति—यह अल्पमात्रा में प्रयुक्त बृंहण स्नेहपान बालक, वृद्ध, प्यास से पीड़ित, स्नेहपान न करना चाहने वाले, सदा मद्यपान करने वाले, स्त्री-सहवास करने वाले, प्रतिदिन भोजन के साथ स्नेह का सेवन करने वाले, मन्दाग्नि वाले, सुखी जीवन बिताने वाले, क्लेश ( कष्ट) से डरने वाले, मृदुकोष्ठ वाले अर्थात् जिन्हें सामान्य विरेचक पदार्थों से भी विरेचन हो जाता है, अल्पदोषों वाले तथा कृश पुरुषों के लिए और उष्णकाल में सबके लिए हितकर होता है।।२०-२१ ।।

वक्तव्य-स्नेहपान या स्नेहसेवन विधिभेद से तीन प्रकार का होता है—१. बृंहणस्नेह, २. शमनस्नेह तथा ३. शोधनस्नेह। यद्यपि इनका आशय नाम मात्र से स्पष्ट हो जाता है, फिर भी संक्षेप में यहाँ तीनों का परिचय प्रस्तुत है—१.बृंहणस्नेह का वर्णन ऊपर दिये गये २०-२१ श्लोकों में है, वैसे भी प्रतिदिन दाल में डालकर, रोटियों में चुपड़कर, दाल, शाक आदि को छौंककर जो अल्पमात्रा में स्नेह का प्रयोग होता है, वह बृंहणस्नेह है। २. शमनस्नेह उसे कहते हैं, जो दोषों को शान्त करने के लिए प्रयुक्त होता है और ३. शोधनस्नेह उसे कहते हैं, जिसका प्रयोग दोषों को निकालने के लिए किया जाता है।

प्राङ्मध्योत्तरभक्तोऽसावधोमध्योर्ध्वदेहजान् ।
व्याधीञ्जयेद्बलं कुर्यादङ्गानां च यथाक्रमम् ॥२२॥

स्नेहसेवन का प्रभाव–उक्त त्रिविध स्नेहमात्रा भोजन के पहले खाने या पीने से शरीर के निचले भाग के रोगों को, भोजन के बीच में खाने-पीने से शरीर के मध्यभाग के रोगों को और भोजन के अन्त में खाने- पीने से शरीर के ऊपरी भाग के रोगों को नष्ट करता है तथा उन्हीं अवयवों को बलवान् भी करता है ।। २२ ।।

वायुष्णमच्छेऽनु पिबेत् स्नेहे तत्सुखपक्तये।
आस्योपलेपशुद्धयै च, तौवरारुष्करे न तु॥२३॥
जीर्णाजीर्णविशङ्कायां पुनरुष्णोदकं पिबेत् ।
तेनोद्रारविशुद्धिः स्यात्ततश्च लघुता रुचिः॥२४॥

विविध स्नेहों के अनुपान—अच्छस्नेह का सेवन करने के बाद अनुपान के रूप में उष्ण जल पीना चाहिए। ऐसा करने से वह स्नेह सुख से पच जाता है तथा इससे स्नेहपान के कारण मुख में होने वाली चिपचिपाहट भी दूर हो जाती है। किन्तु उक्त उष्णजलपान का नियम तुवरक (चालमोगरा ) तथा भिलावा के स्नेह का सेवन करने में नहीं करें अर्थात् इनका सेवन करने के बाद अनुपान के रूप में शीतल जल पीना चाहिए। यदि सेवन किया गया स्नेह पचा या नहीं पचा ऐसी शंका हो तो बाद में फिर उष्णजल पीने के लिए दिया जा सकता है। इस प्रकार गरम पानी पीने से शुद्ध (निर्दोष ) डकार आते हैं, शरीर में हलकापन तथा भोजन के प्रति रुचि बढ़ती है।। २३-२४॥

वक्तव्य—सुप्रसिद्ध वातनाशक एवं विरेचक एरण्डतैल का अनुपान भी उष्ण जल या गरम दूध ही माना गया है। इसके विपरीत घी-तेल में बने पकवानों को खाने के बाद जो प्यास लगती है, उसमें शीतल जल का ही सेवन करना चाहिए।

भोज्योऽन्नं मात्रया पास्यन् श्वः पिबन् पीतवानपि ।
द्रवोष्णमनभिष्यन्दि नातिस्निग्धमसङ्करम्॥

स्नेहपानार्थ आहार-विचार-जब कल स्नेहपान कराना हो तो उसके एक दिन पहले, जिस दिन स्नेहपान किया जाय उस दिन और स्नेहपान करने के एक दिन बाद भी ऐसा भोजन करना चाहिए जो उचित मात्रा में हो, अधिक पतला, अधिक गरम तथा जो अभिष्यन्दी न हो, अधिक स्नेहमिश्रित न हो और अनेक प्रकार का मिला हुआ भोजन नहीं करना चाहिए। २५ ।।

उष्णोदकोपचारी स्याद्ब्रह्मचारी क्षपाशयः।
न वेगरोधी व्यायामक्रोधशोकहिमातपान् ॥२६॥
प्रवातयानयानाध्वभाष्यात्यासनसंस्थितीः।
नीचात्युच्चोपधानाहःस्वप्नधूमरजांसि च ॥२७॥
यान्यहानि पिबेत्तानि तावन्त्यन्यान्यपि त्यजेत्।

स्नेहपानार्थ विहार-विचार—जितने दिनों तक स्नेहपान किया जाय उतने दिनों में और उतने ही अगले दिनों में स्नान करने में, पीने में तथा अन्य कार्यों में भी गरम पानी का ही प्रयोग करना चाहिए, वह ब्रह्मचारी रहे, रात्रि में ही शयन करे, मल-मूत्र आदि के वेगों को न रोके, व्यायाम, क्रोध, शोक, शीत, धूप (घाम), झोंके की हवा, ऊटपटांग सवारियों में बैठकर यात्रा न करे, न अधिक रास्ता चले, अधिक भाषण न करे, अधिक न बैठे, अधिक देर तक खड़ा न रहे, अधिक नीचा या अधिक ऊँचा सिरहाना न रखे, दिन में सोना, धुआँ, धूलि में रहना या साँस लेना छोड़ दें।२६-२७॥

सर्वकर्मस्वयं प्रायो व्याधिक्षीणेषु च क्रमः॥२८॥

सर्वत्र त्याज्य कर्म-ऊपर कहे गये आहार-विहारों को न केवल स्नेहपान में ही अपितु स्वेदन, वमन, विरेचन आदि में भी छोड़ देना चाहिए और यही क्रम व्याधिक्षीणों (रोग के कारण जो कृश हो गये हों उन ) में भी त्यागने का ध्यान रखना चाहिए।। २८ ॥

उपचारस्तु शमने कार्यः स्नेहे विरिक्तवत्।

शमन-स्नेहपान में उपचार—शमनस्नेह के सेवनकाल में जिसे विरेचन करा दिया गया हो, उसके समान उपचार (आहार-विहार ) करना चाहिए। इसे देखें—आगे अ.हृ.सू. १८।२८-२९ में।

त्र्यहमच्छं मृदौ कोष्ठे क्रूरे सप्तदिनं पिबेत्॥२९॥
सम्यस्निग्धोऽथवा यावदतः सात्म्यीभवेत् परम् ।

स्नेहपान की अवधि-मृदुकोष्ठ वाले व्यक्ति को अच्छस्नेह का सेवन तीन दिन तक करना चाहिए और क्रूरकोष्ठ वाले व्यक्ति को ( अच्छस्नेह का सेवन ) सात दिन तक करना चाहिए। अथवा जब तक कोष्ठ भलीभाँति स्निग्ध न हो जाय तब तक पीना चाहिए। उसके बाद भी स्नेहपान करते रहने पर उसका स्नेहन सम्बन्धी लाभ नहीं मिलता, क्योंकि उसके बाद वह सात्म्य (अभ्यस्त ) हो जाता है।। २९ ।।

वक्तव्य-सुश्रुत ने स्नेहपान की अवधि का वर्णन इस प्रकार किया है— पिबेत्..."सेवितः' । (सु.चि. ३१।३६) अर्थात् स्नेह को तीन दिन, चार दिन, पाँच दिन, छ: दिन, अधिक-से-अधिक सात दिन तक सेवन करना चाहिए। इसके आगे सेवन किया गया स्नेह सात्म्य हो जाता है। यही मत भगवान् पुनर्वसु का भी है—स्नेहस्य''रात्रकौ' । (च.सू. १३।५१ )

वातानुलोम्यं दीप्तोऽग्निर्वर्चः स्निग्धमसंहतम् ॥३०॥

स्नेहोद्वेगः क्लमः सम्यस्निग्धे, रूक्षे विपर्ययः। अतिस्निग्धे तु पाण्डुत्वं घ्राणवक्त्रगुदस्रवाः॥ सम्यक् स्निग्ध पुरुष के लक्षण—वातदोष की अनुकूलता, जठराग्नि का प्रदीप्त हो जाना, मल का स्निग्ध हो जाना, मल की गाँठों का ढीला पड़ जाना, स्नेहपान के प्रति अरुचि का होना तथा मन में थकावट की प्रतीति का होना—ये लक्षण होते हैं।

रूक्ष रहने (सम्यक् स्निग्ध न होने) पर उसके विपरीत लक्षण देखे जाते हैं।

अतिस्निग्ध के लक्षण—शरीर में पीलापन का होना, नासिका, मुख तथा गुदद्वार से स्राव का होना ये लक्षण होते हैं। इस स्राव में उक्त अवयव के मलों के साथ स्नेह भी निकलता है।। ३०-३१ ।।

अमात्रयाऽहितोऽकाले मिथ्याहारविहारतः।
स्नेहः करोति शोफार्शस्तन्द्रास्तम्भविसंज्ञताः॥
कण्डूकुष्ठज्वरोत्क्लेशशूलानाहभ्रमादिकान् ।

मिथ्या स्निग्ध के लक्षण—किसको कितनी स्नेहमात्रा देनी चाहिए, इसका विचार किये बिना प्रयुक्त स्नेह, जो जिसके लिए निषिद्ध स्नेह है उसका सेवन करने से, अकाल में (किसको ग्रीष्मकाल में, किसको शीतकाल में कौन-सा स्नेहपान करना चाहिए, इसका विवरण इसी अध्याय में पहले दिया जा चुका है), मिथ्या आहार-विहार करने पर सेवन किया गया स्नेहपान-शोथ, अर्श (बवासीर), हृदयस्तम्भ, बेहोशी, कण्डू (खुजली), कुष्ठरोग, ज्वर, मिचली, शूल, आनाह, भ्रम, बलक्षय, जड़ता, स्वरभेद आदि अष्टांगसंग्रह में कहे गये रोगों को उत्पन्न कर देता है। इसी को स्नेहव्यापद्' कहते हैं।। ३२॥

क्षुत्तृष्णोल्लेखनस्वेदरूक्षपानान्नभेषजम् ॥३३॥
तक्रारिष्टखलोद्दालयवश्यामाककोद्रवम् ।
पिप्पलीत्रिफलाक्षौद्रपथ्यागोमूत्रगुग्गुलु ॥३४॥
यथास्वं प्रतिरोगं च स्नेहव्यापदि साधनम्।

स्नेहव्यापद् की चिकित्सा-भूखा रहना, प्यासा रहना, उल्लेखन ( वमन कराना ), स्वेदन, रूक्षपान, रूक्ष भोजन तथा रूक्ष औषधद्रव्यों का सेवन, तक्र (मठा) एवं विविध प्रकार के अरिष्टों को पीना, तिल अथवा सरसों की खली का सेवन, जौ, सावाँ, कोदों, पिप्पली, त्रिफला, शहद, हरड़, गोमूत्र, गुग्गुल आदि का श्लोक ३२ में कहे गये रोगों के अनुसार उक्त औषध-द्रव्यों का स्नेहव्यापद्रोग में प्रयोग करना चाहिए॥३३-३४॥

वक्तव्य-अतिमात्रा में प्रयुक्त स्नेह के कारण उत्पन्न रोगों की यह रूक्षण चिकित्सा अथवा 'निदानपरिवर्जन-चिकित्सा' है।

विरूक्षणे लङ्घनवत्कृतातिकृतलक्षणम्॥३५॥

विरूक्षण-निर्देश—ऊपर कहे गये उपचारों द्वारा जब शरीर में रूक्षता उत्पन्न होती है, तो चिकित्सक को ध्यान देना चाहिए। इसमें भी लंघन के समान कृत (सुयोग) तथा अतिकृत (अतियोग ) के लक्षण देखे जाते हैं।। ३५॥

वक्तव्य-लंघन के सुयोग तथा अतियोग के लक्षणों के लिए देखें—अ.हृ.सू. १४।

स्निग्धद्रवोष्णधन्वोत्थरसभुक् स्वेदमाचरेत् ।
स्निग्धस्त्र्यहं स्थितः कुर्याद्विरेकं, वमनं पुनः॥३६॥
एकाहं दिनमन्यच्च कफमुत्क्लेश्य तत्करैः।

स्वेदन आदि के प्रयोग—सम्यक् स्नेहन होने के बाद स्वेदन कराना चाहिए। स्वेदन कराते समय स्नेहयुक्त, द्रव एवं उष्ण आहार का तथा जांगलदेशीय मृग आदि प्राणियों के मांसरस का सेवन उस व्यक्ति को कराना चाहिए। स्नेहन कराने के तीन दिन बाद विरेचन कराना चाहिए। विरेचन कराने के एक दिन बाद अर्थात् एक दिन रुककर अगले दिन उस व्यक्ति को तिल, माष आदि से निर्मित कफकारक पेया आदि पिलाकर कफ को उभाड़ कर तब वमन कराना चाहिए, जिससे कफ का निर्हरण हो जाय ॥३६ ।।

मांसला मेदुरा भूरिश्लेष्माणो विषमाग्नयः॥३७॥
स्नेहोचिताश्च ये स्नेह्यास्तान् पूर्वं रूक्षयेत्ततः।
संस्नेह्य शोधयेदेवं स्नेहव्यापन्न जायते॥३८॥

स्नेहन के पूर्व रूक्षण-विधि—जो मनुष्य मांसल ( मोटे ) हों, जो मेदस्वी हों अर्थात् जिनका मेदोधातु बढ़ा हो, जो अधिक कफ वाले हों, जिनकी जठराग्नि विषम हो और जिन्हें स्नेह सात्म्य हो ऐसे पुरुषों को यदि स्नेहन कराना हो तो इन्हें पहले रूक्षण-प्रयोग करायें और रूक्षण-विधि के सम्पन्न हो जाने पर तब इन्हें स्नेहन दें और उसके बाद संशोधन (वमन या विरेचन ) करायें। इस प्रकार करने से उक्त प्रकार के व्यक्तियों में भी स्नेहव्यापद् ( स्नेहसेवन के कारण होने वाले रोग ) नहीं होते।। ३७-३८॥

अलं मलानीरयितुं स्नेहश्चासात्म्यतां गतः।

असात्म्य स्नेह की शक्ति—असात्म्यता को प्राप्त स्नेह ही मलों को अपने स्थान से बाहर निकलने के लिए प्रेरित करने में समर्थ हो जाता है।

बालवृद्धादिषु स्नेहपरिहारासहिष्णुषु॥३९॥
योगानिमाननुद्वेगान् सद्यःस्नेहान् प्रयोजयेत् ।

सद्यःस्नेहन का निर्देश—बालक, वृद्ध तथा सुकुमार आदि जो स्नेहविधि के प्रयोगकाल में परिहार (छोड़ने योग्य-शीतल जलपान ) को सहन न कर सकें, उन्हें इन नीचे कहे गये योगों का प्रयोग कराना चाहिए, क्योंकि ये योग सद्यः (तत्काल ) स्नेहन भी करते हैं और इनके सेवन से किसी प्रकार की घबड़ाहट भी नहीं होती है।। ३९ ॥

प्राज्यमांसरसास्तेषु, पेया वा स्नेहभर्जिता ॥४०॥
तिलचूर्णश्च सस्नेहफाणितः, कृशरा तथा।
क्षीरपेया घृताढयोष्णा, दध्नो वा सगुडः सरः॥४१॥
पेया च पञ्चप्रसृता स्नेहैस्तण्डुलपञ्चमैः।
सप्तैते स्नेहनाः सद्यः, स्नेहाश्च लवणोल्बणाः॥४२॥

सात सद्यःस्नेहन योग-१. अधिक घी मिला हुआ मांसरस, २. अधिक घी डालकर छौंकी गयी पेया, ३. तिलचूर्ण ( कल्क ) तथा राब घी मिला हुआ, ४. घी डाली गयी खिचड़ी, ५. घी डाली गयी गरम खीर, ६. गुड़ मिलायी गयी दही की मलायी और ७. घी, तेल, वसा, मज्जा एवं चावल ये प्रत्येक एक-एक प्रसृत अर्थात् दो-दो पल (१ प्रसृत = दो पल = ८ तोला) मिलाकर पकायी गयी पेया—ये सात योग सद्यः (शीघ्र ही ) स्नेहन कराने वाले हैं। इन सभी स्नेहों में पर्याप्त लवण मिलाकर देना चाहिए। ४०-४२॥

तद्धयभिष्यन्द्यरूक्षं च सूक्ष्ममुष्णं व्यवायि च।

लवण के गुण—वह लवण अभिष्यन्दी है, रूक्षतारहित है अतएव स्निग्ध है, सूक्ष्म है, उष्ण है तथा व्यवायी (सम्पूर्ण शरीर में फैलने वाला) होता है।

गुडानूपामिषक्षीरतिलमाषसुरादधि ॥४३॥
कुष्ठशोफप्रमेहेषु स्नेहार्थं न प्रकल्पयेत् ।

स्नेहन-योगों का निषेध-गुड़, अनूपदेशज प्राणियों का मांस, दूध, तिल, उड़द द्वारा निर्मित बड़े आदि खाद्य पदार्थ, सुरा और दही—ये पदार्थ स्नेहन में कारण होते हैं। इनका प्रयोग कुष्ठरोग, शोथरोग तथा प्रमेहरोग में स्नेहन कराने के लिए नहीं कराना चाहिए।। ४३ ।।

त्रिफलापिप्पलीपथ्यागुग्गुल्वादिविपाचितान् ॥४४॥
स्नेहान् यथास्वमेतेषां योजयेदविकारिणः।

कुष्ठादि के योग्य स्नेह-इन उपर्युक्त कुष्ठ आदि रोगों में स्नेहन के लिए त्रिफला, पिप्पली, हरीतकी तथा गुग्गुलु आदि के संयोग से पकाये गये स्नेहों का प्रयोग करें। क्योंकि ये स्नेह उक्त रोगों में हानिकारक नहीं होते ॥४४॥

क्षीणानां त्वामयैरग्निदेहसन्धुक्षणक्षमान् ॥ ४५ ॥

क्षीण पुरुषों के योग्य स्नेह-जीर्णज्वर आदि रोगों के कारण क्षीण हुए पुरुषों को स्नेहन देने के लिए उन स्नेहों का प्रयोग करना चाहिए जो स्नेह जठराशि को प्रदीप्त करने तथा शरीर को पुष्ट करने में समर्थ हों॥४५॥

दीप्तान्तराग्निः परिशुद्धकोष्ठः प्रत्यग्रधातुर्बलवर्णयुक्तः।
दृढेन्द्रियो मन्दजरः शतायुः स्नेहोपसेवी पुरुषः प्रदिष्टः॥४६॥

इति श्रीवैद्यपतिसिंहगुप्तसूनुश्रीमद्वाग्भटविरचितायामष्टाङ्गहृदयसंहितायां
प्रथमे सूत्रस्थाने स्नेहविधिर्नाम षोडशोऽध्यायः॥१६॥

स्नेह-सेवन से लाभ-स्नेहों का निरन्तर सेवन करने से जठराग्नि प्रदीप्त रहती है, कोष्ठ के अन्तर्गत सभी अवयव शुद्ध रहते हैं, रस-रक्त आदि सातों धातु ताजे बने रहते हैं, अतएव मानव बल तथा वर्ण (कान्ति ) से युक्त बना रहता है। चक्षु आदि इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों को ग्रहण करने में पूर्ण समर्थ रहती हैं। स्नेहसेवन करने वाले पर वृद्धता का प्रभाव शीघ्र नहीं पड़ता तथा वह शतायु होता है।४६।।

वक्तव्य-स्नेहसेवन-प्रकरण में उन निर्धनों पर भी आयुर्वेद ने ध्यान दिया है, नहीं तो वे बेचारे कहाँ से घी-तेल लाते। आप ध्यान दें—'यात्यामाशयमाहारः पूर्वं प्राणानिलेरितः । वर्र्बलेन माधुर्यं स्निग्धतां याति तद्रसः ।। पुष्णाति धातूनखिलान् सम्यक् पक्वोऽमृतोपमः' ॥ (शा.सं.पू.खं. ६।४ से ८) अर्थात् आहार रस का समुचित पाक हो जाने पर वह रस स्वभाव से मधुर एवं स्निग्ध हो जाता है, तदनन्तर वह सभी धातुओं का पोषण करता है। यह है ईश्वर की कृपा।

इस प्रकार वैद्यरत्न पण्डित तारादत्त त्रिपाठी के पुत्र डॉ० ब्रह्मानन्द त्रिपाठी द्वारा विरचित निर्मला हिन्दी व्याख्या, विशेष वक्तव्य आदि से विभूषित अष्टाङ्गहृदय-सूत्रस्थान में स्नेहविधि नामक सोलहवाँ अध्याय समाप्त ॥१६॥

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