आचार्य श्रीराम शर्मा >> व्यक्तित्व परिष्कार की साधना व्यक्तित्व परिष्कार की साधनाश्रीराम शर्मा आचार्य
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नौ दिवसीय साधना सत्रों का दर्शन दिग्दर्शन एवं मार्गदर्शन
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आसन, मुद्रा, बन्ध
हर साधक को आसनों का सुगम किन्तु अति प्रभावकारी योग प्रज्ञा अरि भयान का योग व्यायाम भी सिखाया जाता है। उसके साथ शिथिलीकरण मुद्राशक्तिचालिनी मुद्रा, खेचरी मुद्रा आदि साधक की आवश्यकता एवं मनःस्थिति के अनुसार सिखा दी जाती हैं। इसी प्रकार शक्ति प्रवाहों को गलत दिशा में प्रवाहित होने से रोक कर उन्हें ऊर्ध्वगामी बनाने के लिए आवश्यकतानुसार मूलबन्ध, उड्डियान बन्ध एवं जालंधर बन्ध का भी अभ्यास कराया जाता है।
विशिष्ट प्राणायाम
ऋषियों की अद्भुत देन में से प्राणायाम एक है। वैज्ञानिक कहते हैं यह सृष्टि तीन आयामी (थ्रीडायमेंशनल) है। वे हैं लंबाई, चौड़ाई तथा ऊँचाई या गहराई इन्हीं से किसी वस्तु का आकार-विस्तार जाना जाता है। किन्तु ऋषि कहते हैं-प्राणियों के साथ एक और चौथा आयाम जुड़ा रहता है, जिसे "प्राण" कहते हैं। प्राण का आयाम विकास हो, तो सामान्य आकार का व्यक्ति भी असाधारण कार्य करता है। संतों-महापुरुषों में प्राण की अधिकता ही उन्हें महान बनाती है। विश्व ब्रह्माण्ड में प्राण का अनन्त सरोवर लहरा रहा है। सामान्य रूप से श्वास-प्रश्वास के साथ प्राण का उतना आवागमन बना रहता है, जिसके सहारे जीवन टिका रह सके। पर जीवट प्राप्त करने के लिए संकल्पपूर्वक श्वास-प्रश्वास के साथ प्राणायाम प्रक्रिया अपनानी होती है जीवन साधना सत्रों में तीन विशिष्ट प्राणायामों का प्रशिक्षण दिया-अभ्यास कराया जाता है। वे हैं -
१. प्राणाकर्षण
२. अनुलोम-विलोग-सूर्यवेधन तथा
३. नाड़ी शोधन।
इनकी विधि इस प्रकार है:-
प्राणाकर्षण प्राणायाम
सुखासन में, मेरुदण्ड सीधा रखते हुए सहज स्थिति में बैठें। दोनों हाथ गोद में या घुटनों पर रखें। आँखें बन्द करें। ध्यान करें कि विश्व में प्राण का अनन्त सागर हिलोरें ले रहा है। तीर्थ क्षेत्र में उसकी सघनता विशेष हैं। वह हमारे आह्वान पर हमारे चारों ओर घनीभूत हो रहा है।
धीरे- धीरे गहरी श्वांस खींचें। भावना करें कि दिव्य प्राणप्रवाह श्वांस के साथ अन्दर प्रवेश कर रहा है तथा सारे शरीर में कोने-कोने तक पहुँच रहा है।
श्वांस रोकते हुए ध्यान करें कि दिव्य प्राण शरीर के कण-कण में सोखा जा रहा है, और मलिन प्राण छोड़ा जा रह है। श्वांस निकालते हुए भावना करें कि वायु के साथ मलीनताएँ बाहर निकल कर दूर चली जा रही हैं।
श्वांस बाहर रोकते हुए ध्यान करें कि खींचा हुआ प्राण अन्दर स्थिर हो रहा है। बाहर श्रेष्ठ प्राण पुन: हिलोरें ले रहा है। श्वांस खींचने और निकालने में एक सा समय लागायें। अन्दर रोकने और बाहर रोकने में खींचने या छोड़ने से आधा समय लगायें। इस प्राणयाम से थोड़े प्रयास से ही दिव्य प्राण के बड़े अनुदान साधक को प्राप्त हो जाते हैं।
अनुलोम-विलोम-सूर्यवेधन
मेरुदण्ड सीधा करके बैठें। दिव्य प्राण का ध्यान करे। बायीं नासिका से श्वास खीचे - भावना करे, इड़ा नाड़ी में होकर प्राण मेरुदण्ड मार्ग से आधार चक्र तक पहुँचता है। वहां मन्धन करता है। श्वास दाहिनी नासिका से निकालें, भावना करें कि पिंगला नाड़ी में घर्षण करता हुआ प्राण बाहर निकल गया। पुन: दायीं नासिका से श्वांस खींचे। इसी प्रकार भावना करते हुए बायी नासिका से निकाल दें। बायें से खींचना दायें से निकाल दायें से खींचना बायें से निकालना इस प्रक्रिया को अनुलोम- विलोम कहते हैं। इससे प्राण की मथनी से अन्दर मन्थन किया जाता है। इस प्रकार तीन बार करके, फिर दोनों नासिकाओं, से प्राण खीचें तथा भावना करें, कि घर्षण से उत्पन्न ऊर्जा और यह दिव्य प्राण नाभि-चक्र-सूर्यचक्र को तेजस्वी बना रहा है। दोनों नासिका छिद्रों से श्वांस छोड़े। बाहर रोकते हुए भावना करें कि सूर्य चक्र अधिक तेजस्वी होते हुए सारे तंत्र को प्रकाशित कर रहा है। यह सूर्यवेधन प्रक्रिया है।
तीन बार अनुलोम-विलोम तथा एक बार सूर्यवेधन यह मिलकर एक समग्र प्राणायाम होता है। ऐसे तीन प्राणायाम प्रारम्भ में किए जा सकते हैं। पहले की तरह पूरक तथा रेचक समान तथा कुम्भक उस के आधे समय में किया जाना चाहिए।
नाड़ी शोधन प्राणायाम
प्राणायाम मुद्रा में बैठें। प्राण का ध्यान करें। बायीं नासिका से श्वास खींचें। इड़ा मार्ग से प्राण आधार तक ले जायें, कुम्भक के बाद उसी मार्ग से बाहर निकाल दें। यही क्रिया तीन बार करें। फिर इसी प्रकार वही क्रिया तीन बार दायीं नासिका-पिंगला नाड़ी से दोहरायें। इसके बाद दोनों नासिकाओं से श्वास खींचें, सुषुम्ना मार्ग से प्राण मूलाधार तक ले जायें और कुम्भक के बाद मुख से धीरे से श्वांस निकाल दें। भावना करें कि दिव्य प्राण इड़ा एवं पिंगला मार्गों को शोधित एवं जागत कर रहा है। सुषम्ना मार्गसे जाकर प्राण सारे तंत्रिका जाल में घूमकर विकारों को बटोरकर मुख मार्ग के बार फेंक देता है। तीनबार बायें से, नीन बार दायें से और एक बार दोनों नासिकओं से उक्त प्रक्रिया दोहराने पर एक पूर्ण प्राणायाम बनता है। ऐसे तीन प्राणायाम प्रारम्भ में किए जाने चाहिए। पूरक रेचक एवं कुम्भक का अनुपात पहले की ही भाँति रखना चाहिए।
प्राणाकर्षण प्रयोग तो सब के लिए अनिवार्य है, अन्य प्राणायाम पात्र भेद से बतला दिए जाते हैं। यह प्राणायाम साधक की नाड़ियों, चक्रों को शोधित एवं जागत करने में समर्थ है।
प्राणायाम से पुष्ट नाड़ी एवं चक्र तंत्र, ध्यान-जप आदि प्रयोगों से उत्पादित ऊर्जा के धारण और नियोजन में भलीप्रकार सक्षम हो जाल है। आरोग्य संकल्पशक्ति, पूर्वाभास विचार संचार जैसी क्षमताएं अनायास हस्तगत होने लगती हैं।
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