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आचार्य श्रीराम शर्मा >> व्यक्तित्व परिष्कार की साधना

व्यक्तित्व परिष्कार की साधना

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :32
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15536
आईएसबीएन :0

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नौ दिवसीय साधना सत्रों का दर्शन दिग्दर्शन एवं मार्गदर्शन

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दैनिक यज्ञ


युग तीर्थ में सभी साधक प्रात: अखण्ड दीप दर्शन के बाद अखण्ड अग्नि वाली यज्ञशाला में, यज्ञ में सम्मिलित होते हैं। शास्त्रों का कथन ''महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुम्'' अर्थात् यज्ञों-महायज्ञों से साधकों में बाह्मी चेतना का संचार होता है।

युग तीर्थ में जीवन को यज्ञमय बनाने के प्रखर प्रवाह उमड़ते रहते है। यज्ञ के साथ भावना करनी चाहिए कि युग ऋषि ने तप-मंथन से ब्राह्मी चेतना को युगशक्ति यज्ञाग्नि के रूप में प्रकट किया हैं। हमारा समय, श्रम-साधन समिधाएँ हैं। हमारे सद्‌भाव सुविचार, श्रेष्ट प्रवृत्तियाँ हव्य हैं। युग शक्ति बाह्मी ज्योति में हमारी समिधाएँ और भाव भरी आहुतियाँ पड़ रही हैं। हमारा जीवन यज्ञमय हुआ जा रहा है।

आत्म देव की साधना

यह साधना अपनी सुविधानुसार दिन में एक बार भटके हुए देवता के मंदिर में की जाती है। इस कक्ष में दर्पण लगे हुए हैं। दर्पण के सामने खड़े होकर अपनी आत्मचेतना को जाग्रत् सक्रिय करने की यह विशिष्ट साधना है।

सामान्य रूप से मनुष्य अपने आपको परिस्थितियों में बँधा एक कर्ता-भोक्ता ही मानता है किन्तु वस्तुत: मनुष्य के अंदर चेतना की अन्य पर्तें भी है जो, द्रष्टा निर्देशक और नियन्ता की क्षमताएँ भी रखते हैं। शरीर के अंदर अनेक जटिल प्रक्रियाएँ चलती रहती हैं जिन्हें वैज्ञानिक बड़ी मुश्किल से थोड़ा-बहुत समझ पाते हैं किन्तु उन क्रियाओं का कुशल संचालन हमारी अंत-चेतना सतत करती रहती है। पाचन से प्रजनन तक की सारी क्रियाएँ अंत-चेतना द्वारा ही संचालित हैं। उनके सूक्ष्म से सूक्ष्म अद् भुत पक्ष अंत: चेतना के नियंत्रण में रहते-चलते हैं।

संसार का कोई भी कला-कौशल, ज्ञान-विज्ञान हो; उसकी उपयोगिता तभी है, जब वह अपने व्यक्तित्व के दायरे में हो। किसी देवी देवता से इष्ट की शक्ति अपने ही अंदर प्रकट होती है। अपना ट्रांजिस्टर ठीक हो, तो संसार का कोई भी रेडियो प्रसारण पकड़ा-सुना जा सकता है। अपनी ट्‌यूनिंग ठीक न हो, तो शक्तिशाली से शक्तिशाली प्रसारण (ट्रॉस्मिशन) का भी लाभ नहीं उठाया जा सकता। मानवी व्यक्तित्व में अनन्त से सम्पर्क करने आदान-प्रदान करने की क्षमता है। आत्मदेव की साधना में अपने अंदर के द्रष्टा, निर्देशक, नियन्ता को जाम-विकसित प्रतिष्ठत किया जाता है।

इस कक्ष में पाँच आदमकद दर्पण लगे हैं। उन पर पाँच सूत्र लिखे हैं- १. सोऽहम् २. शिवोऽहम् ३. सच्चिदानन्दोऽहम् ४. अयमात्मा ब्रह्म ५. तत्त्वमसि। उन्हीं सूत्रों के आधार पर यह साधना की जाती है।

दर्पण के सामने खड़े हों या बैठ जायें। अपने बिम्ब को ध्यान से देखें। अनुभव करें कि यह हमारा सबसे निकट का मित्र, सच्चा हितैषी तथा अनन्त क्षमताओं से सम्पन है। हमारे गुण दोष न तो इससे छिपे हैं और न यह उनकी ओर से उदासीन रहता है। इसके सहयोग से कोई भी दोष हटाया एवं कोई भी गुण विकसित किया जा सकता है। इस प्रकार बोध करते हुए अपने दोषों गुणों की समीक्षा करते हुए दोषों के निष्काशन तथा गुणों के संवर्धन के सार्थक ताने-बाने बुने जा सकते हैं। दर्पण पर अंकित सूत्रों को भी इस साधना का आधार बनाया जा सकता है।

१ सोऽहम् (मै वही हूँ) मैं वही हूँ जिसे नियन्ता ने सर्वश्रेष्ठ मानव योनि में भेज दिया। मेरे लिए उच्च मानवीय क्षमताएँ सहज-सुलभ हैं। मैं साधक हूँ जिसे युग ऋषि ने युगतीर्थ में रहकर साधना करने का अवसर दिया। साधक का कोई क्रम मेरे लिए कठिन क्यों होगा?

२. शिवोऽहम् (मैं शिवरूप हूँ ) शिव-अर्थात् कल्याणकारी। मैं मूलत: शिव - कल्याणकारी हूँ। मेरी भावनाओं विचारणा, इच्छाओं, चेष्टाओं, अभ्यास आदि में अशिव का कोई स्थान कैसे हो सकता है? यदि पदार्थ के संसर्ग से कुछ चिपक गया है तो वह विजातीय है, उसे हटाने में क्या संकोच क्या कठिनाई?

३. सच्चिदानन्दोऽहम् (मैं सत् चित् आनन्द रूप हूँ) मैं असत् से प्रभावित क्यों होऊँ? मैं जो शुभ नहीं टिकाऊ नहीं, उसे क्यों चाहूँ? मैं आनन्द हूँ पदार्थों में खोजता हुआ क्यों भटकूं। मैं श्रेष्ठतम में ही रस क्या न पैदा कर लूं? आदि।

४. अयमात्मा ब्रह्म (यह आत्मा ही ब्रह्म है) सागर भी जल है-बूंद भी तो जल ही है। हर किरण में सूर्य का गुण है। आत्मा चाहे जितना छोटा अंश हो, उसमें ब्रह्म से जुड़ने की क्षमता है और उससे जुड़ने के बाद छोटा-बड़ा क्या? नल की टोंटी और विशाल टंकी-दोनों में पानी देने की समान क्षमता है, तो दीन क्यों बनूँ समर्थ बनकर क्यों न रहूँ?

५. तत्त्वमसि (वह तुम्हीं हो) जीवन में संसार में जो कुछ भी श्रेष्ठ है, वह सब तुम परमात्मा ही तो हो। हर दृश्य प्रकाश ही तो है। फिर श्रेष्ठता खोजता क्यों भटकूँ, पदार्थ की गुलामी क्यों करूँ? सारी श्रेष्ठता तुममें - हर श्रेष्ठता में तुम्हें ही क्यों न देखूँ?

उक्त सूत्रों के आधार पर अपनी समीक्षा करते हुए अपने बिम्ब द्रष्टा नियंता का अभीष्ट लक्ष्य तक ले चलने के लिए प्रेरित करना चाहिए। इस साधना से अपने ही अंदर गुरुतत्व जागत होने लगता है-हर समस्या का समाधान और उसे चरितार्थ करने की शक्ति का स्रोत अंदर ही प्रकट होने लगता है।

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    अनुक्रम

  1. नौ दिवसीय साधना सत्रों का दर्शन दिग्दर्शन एवं मार्गदर्शन
  2. निर्धारित साधनाओं के स्वरूप और क्रम
  3. आत्मबोध की साधना
  4. तीर्थ चेतना में अवगाहन
  5. जप और ध्यान
  6. प्रात: प्रणाम
  7. त्रिकाल संध्या के तीन ध्यान
  8. दैनिक यज्ञ
  9. आसन, मुद्रा, बन्ध
  10. विशिष्ट प्राणायाम
  11. तत्त्व बोध साधना
  12. गायत्री महामंत्र और उसका अर्थ
  13. गायत्री उपासना का विधि-विधान
  14. परम पू० गुरुदेव पं० श्रीराम शर्मा आचार्य एवं माता भगवती देवी शर्मा की जीवन यात्रा

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