आचार्य श्रीराम शर्मा >> मरने के बाद हमारा क्या होता है ? मरने के बाद हमारा क्या होता है ?श्रीराम शर्मा आचार्य
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मरने का स्वरूप कैसा होता है....
पुनर्जन्म की तैयारी
परलोक में रहने की अवधि के पहले भाग में विश्राम, दूसरे में स्वर्ग-नरक होते हैं, तीसरा भाग पुनर्जन्म की तैयारी में व्यतीत होता है। स्वर्ग-नरक भोगने के बाद आगामी जन्म के लिए जीव को विशेष प्रोत्साहन मिलता है। नरक भोगने वालों के साधारण पाप तो प्रायः नष्ट हो जाते हैं, किंतु आदतें शेष रह जाती हैं। इन आदतों को आध्यात्मिक भाषा में संस्कार के नाम से पुकारा जाता है। ये आदतें तब तक नहीं छूटतीं, जब तक कि जीव उन्हें ज्ञानपूर्वक पहचानकर छुड़ाने का वास्तविक प्रयत्न न करे। बंधन के कारण यही संस्कार हैं। जीव स्वतंत्र है, वह अपनी इच्छानुसार संस्कार बनाता है और उन्हीं में जकड़ा रहता है। यह माया और कुछ नहीं, अज्ञान का एक पर्यायवाची शब्द है। अपने आप को खुद अपने ही अज्ञान के बंधन में उलझा कर दखी होना बडी विचित्र बात है। इसी गोरख-धंधे को दुस्तर माया के नाम से पुकारा गया है।
शुभाशुभ कर्मों का फल भोगने के बाद भी उसके पूर्व संस्कार नहीं मिटते। जैसे एक जुआरी धन-संपत्ति हार जाने पर भी जुआ खेलने की इच्छा करता है; शराबी अनेक कष्ट सहकर भी मद्यपान की ओर लालायित रहता है, उसी प्रकार पिछली आदतों के कारण जीव पुनर्जन्म के लिए स्थान तलाश करता है। यह मध्यम श्रेणी के व्यक्ति प्रायः पुनर्जन्म जैसी स्थिति के वातावरण में आकर्षित होते हैं। मान लीजिए एक व्यक्ति इस जन्म में किसान है, सारी उम्र उसके मन पर खेती के संस्कार जमते रहे, अब वह अगले जन्म में भी दुकानदार होने की अपेक्षा किसानी ही पसंद करेगा। ऐसा नहीं समझना चाहिए कि कोई अन्य शक्ति बलात् जन्म दे देती है। जीव स्वयं अपनी इच्छा से संस्कारों के वशीभूत होकर जन्म ग्रहण करता है। ऊपर उड़ता हुआ गिद्ध जैसे तीक्ष्ण दृष्टि से मृत पशु को तलाश करता-फिरता है, उसी प्रकार जीव निखिल आकाश में अपना रुचिकर वातावरण ढूँढ़ता फिरता है। पहले यह बताया जा चुका है। कि तर्क, बहस का चुनाव करने वाली भौतिक बुद्धि परलोक में नहीं रहती इसलिए वह चालाकियाँ नहीं जानता और अपने स्वभाव के विपरीत ऊँची या नीची स्थिति की ओर नहीं खिंचता। छोटा बालक राजमहल की अपेक्षा अपनी झोंपड़ी को पसंद करता है, उसी प्रकार किसी व्यापारी संस्कारों का जीव राजघर में जन्म लेने की अपेक्षा व्यापारी परिवार में शामिल होना पसंद करता है। आधे से अधिक मनुष्य प्रायः अपने पूर्व घर या परिवार में ही जन्म लेते हैं। यदि पूर्व घर में उसे अपमानित, लांछित या बहिष्कृत न किया गया हो, तो वह उसी में या उसके आस-पास जन्म लेना चाहता है। दूरी के संबंध में भी यही बात है। पूर्वजन्म के प्रदेश में रहना ही सब पसंद करते हैं, क्योंकि भाषा, वेश, भाव की गहरी छाप उनके मन पर अंकित होती है। इटली का मनुष्य भारतवर्ष में या भारतवर्ष का टर्की में जन्म लेना पसंद न करेगा। कोई विशेष ही कारण हो तो बात दूसरी है।
हमारी स्थूल इंद्रियों के लिए यह पहचानना कठिन है कि किन स्थानों में कैसी मानसिक स्थिति और आंतरिक वातावरण है, पर परलोकवासी इस बात को बड़ी आसानी से पहचान लेते हैं। वे जहाँ ठीक स्थिति देखते हैं, उस परिवार के आस-पास डेरा डालकर बैठ जाते हैं। परलोकवासियों को पिछले कई जन्मों का भी स्मरण हो आता है। यदि वे पुराने घरों में अधिक स्नेह रखते हैं तो उनकी ओर खिंच जाते हैं। बहुत समय व्यतीत हो जाने पर उन परिवारों की ओर अपनी मनोवृत्ति में अंतर आ जाता है तो भी वे कभी-कभी खिंच जाते हैं। किसी विद्वान् कुल में एक मूढ़ का जन्म लेना या असुर दल में महात्मा का पैदा होना, दो कारणों को प्रकट करता है-
(१) या तो वह कुछ पीढ़ियों के उपरांत बदल गया है और जीव के संस्कार पुराने ही मौजूद हैं,
(२) या वह जीव दूसरे ढाँचे में ढल गया है और केवल व्यक्तिगत स्नेह के कारण उस कुल में खिंच आया है।
हम बार-बार दोहरा चुके हैं कि जीव स्वतंत्र है, वह अपने आचरणों से संस्कारों में आसानी से परिवर्तन कर सकता है। जब किसी परिवार में कोई विपरीत स्वभाव की संतान पैदा हो तो समझना चाहिए कि या तो यह कुछ बदल गया या वह जीव प्राचीन मोह के कारण ही उसे बेमेल संयोग मिला है।
जिस परिवार में जन्म लेना जीव पसंद कर लेता है, उसके आस-पास मँडराने लगता है, अवसर की प्रतीक्षा करता है। जब किसी के पेट में गर्भ की स्थापना होती है, तो वह उसमें अपनी सत्ता को प्रवेश करता है और नौ मास गर्भ में रहकर संसार में प्रकट हो जाता है। कई तत्त्वज्ञों का मत है कि वह गर्भ पर अपनी सत्ता जमाता है और पूरी तरह शरीर में तब प्रवृत्त होता है, जब बालक पेट से बाहर आ जाता है। हमारा मत है कि संभोग के समय रज-वीर्य का सम्मिलन होकर यदि गर्भ कलल बन जाए, तो उसमें कुछ ही क्षण उपरांत जीव अपना अधिकार कर लेता है और गर्भ में रहने लगता है। यह समझना ठीक नहीं कि गर्भ में बालक को बड़ा कष्ट होता है, क्योंकि उस समय तक गर्भ का मस्तिष्क और इंद्रियाँ अविकसित होने के कारण जीव को पूरी तरह बंधित नहीं करते और जीव का कुछ भी विशेष बंधन नहीं होता। वह उदर में घोंसला रखता है, पर अपनी चेतना से चारों ओर परिभ्रमण कर सकता है। जन्म लेने के कुछ ही समय पूर्व जब गर्भ की इंद्रियाँ पूर्णतः परिपक्व हो जाती हैं, तो जीव की स्वतंत्रता नष्ट हो जाती है। तब वह तुरंत ही बाहर निकलने का प्रयत्न करता है, इसी समय को प्रसवकाल कहा जाता है।
कभी-कभी एक परिवार में जन्म लेने के लिए कई जीव इच्छुक होते हैं। उन्हें क्रम से आना होता है। अमुक के गर्भ में जन्म लेने की इच्छा रखते हुए भी यदि उसका क्रम न हो या वह गर्भ धारण करने में असमर्थ हो तो फिर काम चलाऊ उपाय ढूंढ़ना पड़ता है, एक स्थान पर दूसरे को पसंद करना पड़ता है। कई बार जीव अमुक परिवार में जन्म लेने की इच्छा से बहुत दिनों तक प्रतीक्षा में बैठा रहता है, पर यदि उचित अवसर न आए और परलोक का नियत काल समाप्त हो जाए, तो उसे बहुत जल्दी कहीं जन्म लेने का प्रयत्न करना पड़ता है, जैसे कुछ देर का मल पेट में जमा हो जाने पर उनके निकलने का काल आ जाए और बहुत जोर का मल वेग हो, तो मनुष्य को कहीं-न-कहीं उचित या अनुचित स्थान पर मल त्यागने के लिए मजबूर होना पड़ता है, उसी प्रकार यदि नियतकाल समाप्त हो रहा हो, तो वह जल्दी में कहीं-न-कहीं जन्म ले लेता है। ऐसे अवसरों पर वह मनचाही स्थिति को प्राप्त नहीं कर पाता।
गर्भ का शरीर और उसके अवयव यह पूर्णतः जीव की ही इच्छा से नहीं बनते। वह साझे का कार्य माता-पिता के रजवीर्य और जीव की इच्छा इन सबके मिलने से ही नवीन शरीर बनता है। कुम्हार और मिट्टी इन दोनों में से एक भी दोषपूर्ण होगा तो इच्छित फल की प्राप्ति न होगी। माता-पिता का रजवीर्य मिट्टी है और जीव कुम्हार। अनाड़ी कुम्हार अच्छी मिट्टी से भी खराब बरतन बनाता है और अच्छे कुम्हार का प्रयत्न खराब मिट्टी के कारण बेकार रहता है। जीव यदि उत्तम संस्कार वाला हो तो रज-वीर्य के भौतिक संस्कारों पर अपना उत्तम प्रभाव डालता है और कुछ-न- कुछ सुधार कर लेता है, इसके विपरीत कुसंस्कारी जीव उत्तम रज-वीर्य में भी कुछ-न-कुछ दोष मिला देता है। फिर भी माता-पिता के संस्कार पूर्ण रूप से मिट नहीं जाते, उनका बहुत बड़ा प्रभाव होता है। माता-पिता की भावनाओं का प्रभाव गर्भ शरीर पर पड़ता है, यदि जीव ऊँचे दर्जे का न हो तो उसे उन शारीरिक संस्कारों के क्षेत्र में ही रहना पड़ता है। देखा गया है कि व्यभिचार द्वारा उत्पन्न हुई संतान बहुधा दुष्ट होती है, क्योंकि गर्भाधान के समय माता-पिता का अंतरात्मा पाप कर्म के कारण बड़ा व्यग्र रहता है, वही संस्कार गर्भ पर भी उतर जाते हैं।
कुछ जीव किन्हीं खास दुष्ट आदतों में बुरी तरह प्रवृत्त हो जाते हैं, वे किन्हीं इंद्रियों का बार-बार दुरुपयोग करते हैं। हर बार उन्हें नरक भोगना पड़ता है, पर वे आदत से इतने मजबूर होते हैं कि दंड भोगकर उसे भुला देते हैं और फिर उसी आदत का अनुसरण करने लगते हैं। ऐसे जीवों की वे इंद्रियाँ कुछ जन्मों के लिए छीन ली जाती हैं। जैसे मध्य प्रांत के मंत्री मि० खैर को कांग्रेस की सदस्यता से पाँच साल के वंचित कर दिया गया था या जैसे बंदूक का दुरुपयोग करने वालों से सरकार लाइसेंस जब्त कर लेती है, इसी प्रकार अदृश्य सत्ता यह आवश्यक समझती है कि इसकी अमुक इंद्रियों को जब्त कर लिया जाए, ताकि वह आदत अगले जन्म में छूट जाए। जन्म से गूंगे, बहरे, अंधे, अपाहिज, नपुंसक वे होते हैं, जिनने अपनी उन इंद्रियों को अनुचित रीति से उपयोग करने की आदत डाल ली होती है। फिर भी यह भोग योनि नहीं है, जीवात्मा उनका भी जाग्रत होता है और वे चाहें तो इच्छानुसार अंधकार से प्रकाश की ओर चलने के लिए स्वतंत्र हैं। कुछ मनुष्य इतने दुष्ट होते हैं कि वे जीवनभर अपनी सारी इंद्रियों का दुरुपयोग ही दुरुपयोग करते हैं, उन्हें जड़ योनियों में जाना पड़ता है। वृक्षादि में जन्म लेना भोग योनि है। उनमें जीव तो रहता है, पर क्रियाशील चेतना का अधिकांश भाग जब्त कर लिया जाता है। इन भोग योनियों में जन्म प्राप्त होना प्रभु की ही कृपा का चिह्न है, क्योंकि बिना जड़ योनि मिले उन दुष्ट संस्कारों को भुला सकना उस अज्ञानी के लिए कठिन है, जब तक कि वह पुरानी बुरी आदतों को भूल नहीं जाता। अब उसकी उन्नति का क्रम यही से आरंभ होता है। वृक्ष के बाद कीड़े-मकोड़े फिर पशु-पक्षियों की योनियाँ धीरेधीरे पार करता है, क्रमश: अधिक ज्ञान वाली योनि को अपनाता जाता है। डार्बिन के उस मत को हम झूठा नहीं बताते, जिसके अनुसार वह कहता है कि एक छोटे-से कीड़े से बढ़ते-बढ़ते जीव पशु-पक्षियों की योनि धारण करता हुआ मनुष्य बनता है। हिंदू धर्मशास्त्र इन योनियों की संख्या चौरासी लाख मानती है। भौतिकविज्ञानी उनकी संख्या इससे भी अधिक बताते हैं। जो हो यह निश्चित है कि दुष्ट कर्म करने वाले, अपनी इंद्रियों को बार-बार अनुचित रीति से प्रयोग करने वाले जड़ योनियों में जन्म लेते हैं और फिर वहाँ से उन्नति करते-करते मनुष्य शरीर प्राप्त करने में हजारोंलाखों शरीर बदलने पड़ते हैं। किसी योनि में उन्नति क्रम रुक गया तो वह योनि एक से अधिक बार भी ग्रहण करनी पड़ती है, जैसे फेल हो जाने पर विद्यार्थी को दूसरे वर्ष भी उसी कक्षा में पढ़ना पड़ता है।
जड़ योनियों में जाने का दंड प्रायः उन्हीं जीवों को दिया जाता है, जो अत्यंत दुष्ट होते हैं और अपनी क्रियाशीलता को पतनोन्मुखी कर लेते हैं। साधारण पुण्य-पाप करते रहने वालों को दूसरी बार भी मनुष्य जन्म मिलता है, क्योंकि लाखों योनियों में भ्रमण करके उसने जो इतना ज्ञान संपादन किया है, वह इतना उपेक्षणीय नहीं है कि जरा-सी बात पर करोड़ों वर्षों तक भटकने के लिए उसी चक्कर में फिर पटक दिया जाए। मनुष्यों को बारबार यह अवसर दिया जाता है कि वे अपने अंतिम उद्देश्य परमपद को पाएँ।
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