आचार्य श्रीराम शर्मा >> मरने के बाद हमारा क्या होता है ? मरने के बाद हमारा क्या होता है ?श्रीराम शर्मा आचार्य
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मरने का स्वरूप कैसा होता है....
स्वर्ग
जिस प्रकार पाप कर्मों का फल नरक है, उसी प्रकार शुभ कर्मों का फल स्वर्ग है। पाप क्या है और पुण्य क्या? यह प्रश्न बड़ा पेचीदा है, इस पर एक स्वतंत्र पुस्तक छपी है। इस समय तो इतना ही समझ लेना चाहिए कि प्रेम तथा हार्दिक पवित्रता के साथ किए हुए कार्य पुण्य एवं स्वार्थ पाखंड के साथ किए हुए कार्य पाप हैं। पाप-पुण्य की व्याख्या बुद्धि के द्वारा ठीक न हो सके तो भी अंतरात्मा उसे जानता है। 'गूंगा' मनुष्य यदि मिठाई और नमकीन का स्वाद न बता सके, तो भी उस स्वाद को जानता है। पुण्य कर्मों से तत्क्षण आत्मा में एक शांति प्राप्त होती है, उसके विरुद्ध पाप कर्मों में एक जलन उठती है। मजहबी कर्मकांड मन की पवित्रता में कुछ सहायता दे सकते हैं, पर वे स्वयं कोई धर्म नहीं हैं। शंख फेंकने या घड़ियाल टनटनाने से कुछ धर्म नहीं होता, इससे मनोभूमि को पवित्र करने में कुछ सहायता मिलती है। यदि किसी का मन ऐसा दुष्ट हो कि उसके अंदर दुर्भावनाएँ ही उठतीं, रहें तो कोई भी कर्मकांड उसे स्वर्ग नहीं पहुँचा सकता। अज्ञानी लोग मजहबी कर्मकांडों को स्वर्ग का साधन समझते हैं। यथार्थ में वह बहुत ही तुच्छ साधनमात्र हैं। मजहबी रीति-रिवाज धर्म नहीं हो सकते। दया, प्रेम, उदारता, सत्यपरायणता धर्म के अंग हैं। आत्मा को संतोष देने वाली आंतरिक सद्वृत्तियाँ ही पुण्य कही जा सकती हैं, उनके द्वारा ही स्वर्ग प्राप्त होना संभव है। अंधविश्वासों में पड़े रहना अँधेरे में भटकने के बराबर है। जैसे जीवन में अन्य अनेक निष्प्रयोजन कार्यों में हम अपना समय नष्ट करते हैं, वैसे कितनी ही मजहब परंपराएँ भी ऐसी ही हैं, जिनमें बिलकुल व्यर्थ समय बरबाद होता है और उनसे परलोक का रत्ती भर भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।
शुभ कायों से आंतरिक प्रसन्नता होती है, यह प्रसन्नता परलोक में स्वर्ग रूप में उसी प्रकार प्रस्फुटित होती है, जैसे पाप कर्म नरक के रूप में। नरक के विषय में जैसी हमारी कल्पना होती है, वे प्रायः वैसे ही, उससे मिलते-जुलते दिखाई देते हैं। उसी प्रकार स्वर्ग की कल्पना भी सत्य है। धर्मात्मा हिंदू को बैकुंठ, इंद्रलोक का सुख मिले और सुकर्मों से मुसलमान को गिलमाओं वाली जन्नत मिले तो कुछ आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि स्वर्ग-नरक हमारे आज के दृष्टिकोण के अनुसार कल्पना मात्र हैं, चाहे कल्पनाएँ उस समय सत्य ही प्रतीत होती हों। स्वर्ग-सुख भी नियत समय तक ही रहता है। स्वर्ग का आनंद मिलने का उद्देश्य यह है कि उसकी आत्मिक योग्यता अधिक चैतन्य एवं उत्साहित होकर आगामी जीवन में अधिक सूक्ष्म बन जाए। स्वर्ग-सुख के अधिकारी जो व्यक्ति होते हैं, उनकी तुच्छ इंद्रिय लिप्साएँ पहले ही शांत हो जाती हैं, इसलिए जैसा कि अज्ञानी समझते हैं, स्वर्गलोक इंद्रिय वासनाएँ तृप्त करने की सामग्री से ही भरपूर है, वैसा ही नहीं होता। इंद्रियों के गुलाम और वासना के कीड़े स्वर्ग-सुख से बहुत दूर रहते हैं। मद्यपान, वेश्यागमन, मैथुन आदि का नाम ही यदि स्वर्ग में हो तो ऐसे स्वर्ग के लिए इतना तप करने की कुछ आवश्यकता नहीं, वह कुछ पैसा खरच करके जहाँ भी चाहे जब प्राप्त किया जा सकता है। यथार्थ में स्वर्ग-सुख इंद्रियों का सुख नहीं, वरन अंत:करण चतुष्टय (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) का आनंद है। यह इंद्रिय-सुख की अपेक्षा बहुत ऊँचे दर्जे का है।
अध्यात्म-तत्त्व के जिज्ञासु जानते होंगे कि आत्मा में अनंत शक्ति है। ईश्वर का अंश किसी प्रकार अशक्त नहीं है। वह इच्छा मात्र से ही स्वर्ग-नरक की रचना कर लेता है, इसमें आश्चर्य और अविश्वास की कुछ बात नहीं है। ईश्वर ने इच्छा की कि “एकोहं बहुस्याम'' मैं एक हूँ, बहुत हो जाऊँ, बस वह दृश्य जगत के रूप में प्रकट हो गया। आत्मा इच्छानुसार जाग्रत अवस्था, स्वप्न अवस्था और सुषुप्ति अवस्था की रचना करता है। जन्म-मरण को स्वर्ग बनाता है, उसी प्रकार स्वर्ग-नरक का निर्माण कर लेता है, इच्छा से बंधन में बंधता है और इच्छा से ही मुक्त हो जाता है, ये सब बातें उनकी निजी शक्ति के अंतर्गत हैं।
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