आचार्य श्रीराम शर्मा >> मरने के बाद हमारा क्या होता है ? मरने के बाद हमारा क्या होता है ?श्रीराम शर्मा आचार्य
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मरने का स्वरूप कैसा होता है....
भूत-प्रेत
भूत-प्रेत कहने से ऐसे अदृश्य मनुष्यों का बोध होता है, जिनका स्थूलशरीर भी मर चुका है। लोगों का मोटा ख्याल है कि मरने के बाद आदमी भूत बन जाता है। यह बात मृतकों के ऊपर लागू नहीं। बहुत-से मनुष्य मोक्ष प्राप्त करते हैं, कुछ स्वर्ग चले जाते हैं, कुछ विश्राम की मधुर निद्रा में सो जाते हैं। बहुत थोड़े प्राणी ऐसे रहते हैं जिन्हें भूत बनना पड़ता है। आर्य ग्रंथों में प्रेत शब्द निंदासूचक अर्थ के साथ व्यवहृत हुआ है। इसे पाप योनि माना गया है। तीन वासनाओं की उग्रता के कारण जीव परलोक यात्रा की स्वाभाविक श्रृंखला को तोड़ देता है और आगे बढ़ने की अपेक्षा पीछे लौट पड़ता है। सूक्ष्म लोक में विश्राम लेकर कृत कर्मों का फल भोगते हुए नवीन जन्म लेने के स्थान पर पिछले जन्म की ओर वापस चलता है। पूर्व जीवन से अथवा किसी प्रियजन से अत्यधिक मोह होने के कारण या किसी ईष्र्या-द्वेष में अनुरक्त होने पर मृतात्मा जहाँ-का-तहाँ ठहर जाता है। उसकी आंतरिक स्फुरणा आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है, पर वह किसी की नहीं सुनता और वहींका-वहीं अड़ा रहता है। जीवन भर की थकान, कर्मों का भार इन दोनों के कारण से वह बड़ा बेचैन रहता है। राग-द्वेष की इच्छाएँ, शरीरपात का लोभ यह सब भी कुछ कम दु:ख नहीं देते। इसके अतिरिक्त स्थूल लोक के अधिक संपर्क में रहने के कारण उसकी इंद्रियों में भी स्थूलता का अधिक भाग आ जाता है, अतएव वह भोग पदार्थ की भी इच्छा करता है, यह सब विषम स्थितियाँ मिलकर प्रेत को बड़ा बेचैन बनाए रहती हैं। वह व्याकुल, पीडित, आतुर और दुखित होता हुआ इधर-उधर मारा-मारा फिरता है।
ऐसी घटनाएँ हमारे सुनने में आती हैं कि अमुक स्थान पर भूत रहता है, बीमार कर देता है, पत्थर फेंकता है या और उपद्रव करता है। सहायता करने की अपेक्षा भूतों द्वारा हानि पहुँचाने के समाचार अधिक सुने जाते हैं। इससे प्रतीत होता है कि भूतों को मानसिक उद्वेग अधिक रहता है। इंद्रिय लिप्सा या मोह श्रृंखला में बँधने के कारण ही वे इस दुर्गति को प्राप्त होते हैं। जिन्हें स्वादिष्ट भोजनों की चाटुकारिता और मादक द्रव्यों की आदत, नाच-तमाशों में अभिरुचि, मैथुनेच्छा विशेष रूप से होती है, जिन्होंने जीवित अवस्था में इंद्रियों को इन खराब आदतों का गुलाम बन जाने दिया है, वे विवश होकर मृत्यु के उपरांत भी इन्हीं वासनाओं में ग्रसित किन्हीं अन्य व्यक्तियों को देखते हैं, तो उनके माध्यम द्वारा अपनी तृप्ति करने के लिए उन पर अपना अड्डा जमा लेते हैं और उनकी इंद्रियों द्वारा स्वयं तृप्तिलाभ करने की चेष्टा करते हैं।
कहा जा चुका है कि भूतों की वासनाएँ बहुत नीची श्रेणी की होती हैं, इसलिए वे वेश्यालय, मदिरालय या ऐसे ही अन्य त्याज्य स्थानों में विशेष रूप से मँडराते रहते हैं। इन स्थानों से संबंध रखने वाले लोगों के शरीर पर यह भूत गुप्त रूप से अपना अड्डा जमाते हैं। वे मनुष्य यद्यपि इनको पहचान नहीं पाते, पर इतना तो अनुभव करते ही हैं। त्याज्य स्थानों पर जाते ही उनकी वासना असाधारण रूप से उत्तेजित होती है।
भूत होते तो हैं, पर बहुत ही कम संख्या में होते हैं, क्योंकि भूत योनि अस्वाभाविक योनि है। यह नियत क्रम के अनुसार नहीं मृतक के मानसिक विग्रह के कारण मिलती है। भूत कभी अपना थोड़ा-बहुत परिचय देते हैं, अन्यथा जनसमाज से दूर किन्हीं एकांत स्थानों में अपनी वेदना छिपाए पड़े रहते हैं। विक्षिप्त दशा में होने के कारण वे कोलाहल से दूर रहना ही पसंद करते हैं। अपना परिचय प्रकट करने की इच्छा तो किसी को और विशेष स्थिति के कारण ही होती है।
फिर भूत-ब्याधा की इतनी चर्चा जो सुनी जाती है वह क्या है? ऐसे प्रसंगों में भ्रम के भूत ही अलग रहते हैं। एक पुरानी कहावत है कि “शंका डायन, मनसा भूत'' जिसे डर लग जाता है कि मेरे पीछे भूत पड़ा हुआ है, उसके लिए घड़ा भी भूत बन जाता है। मन में भूतों की कल्पना उठी कि पेट में चूहे लोटे। शाम को भूतों की कहानी सुनी कि रात को स्वप्न में मसान छाती पर चढ़ा। एक बार दो मनुष्यों में शर्त हुई कि रात को १२ बजे अमुक मरघट में कील गाड आए तो पचास रु० मिलें। वह मनुष्य रात को मरघट में सो गया। रात अँधेरी थी, जल्दी में वह अपने कुर्ते के कोने को कील समेत गाड़ गया, जब उठा तो उसे विश्वास हो गया कि मुझे भूत ने पकड़ लिया है। उसने डर के मारे एक चीख मारी और बेहोश होकर वहीं मर गया। इसी प्रकार अनेक बार अपना भ्रम ही भूत का रूप धारण करके दु:ख देता रहता है। ऐसे भूतों से मन के सावधान हुए बिना छुटकारा नहीं मिलता। जिन अशिक्षित जातियों में अज्ञान और अशिक्षा घर किए हुए होती है, उनको भ्रम के भूत अधिक आते हैं किंतु सुशिक्षित परिवारों में प्रायः उन्हें स्थान नहीं मिलता।
मृत आत्माएँ जब प्रकट होती हैं, स्वरूप दिखाती हैं तो वे शरीर-निर्माण की सामग्री को उन्हीं व्यक्तियों में से खींचते हैं, जिन्हें ये प्रेत दिखाई दें। प्रेतों को यह शक्ति प्राप्त हो जाती है कि वे स्थूल परमाणुओं को खींच सकें। दिखाई देने की जब उनकी इच्छा होती है, तो वे सामने वाले के शरीर की बहुत-सी सामग्री खींचकर अपना रूप बना लेते हैं। ऐसे समय पर डाक्टरी परीक्षा करके देखा गया है कि उस मनुष्य का शरीर हलका हो जाता है, तापमान और विद्युत प्रवाह घट जाता है, पाचनक्रिया और रक्त प्रवाह में मंदता आती है। जिन लोगों ने क्षति को पूरा करने के गुप्त अभ्यासों को सीख लिया है, उनकी बात दूसरी है, साधारण लोगों को भूतों का बार-बार दिखाई देना अच्छा नहीं है, इससे उन्हें ऐसे शारीरिक झटके लगते हैं, जिनके कारण वह खतरनाक दशा को पहुँच जाते हैं।
यह परमात्मा की छिपी हुई एक महती कृपा है कि मृत और जीवित मनुष्यों के मिलने में भय की यह एक बाधा खड़ी की गई है। यदि वह न होती हो मृत व्यक्ति भी घरों में ऐसे ही बैठे रहते जैसे चिड़िया, चूहे, चीटियाँ या खटमल भरे रहते हैं। इससे मृत और जीवितों का आगे का विकास रुक जाता और मोह बंधनों में जकड़े हुए जहाँ-के-तहाँ पड़े रहते। प्रभु की इच्छा है कि सांसारिक झूठे रिश्तों के मोह-पाश में अधिक न बँधे और कर्तव्यपालन करता हुआ निरंतर उन्नति के पथ पर अग्रसर होता रहे। पीछे की भूमि पर से पाँव उठा लेने के बाद ही आगे कदम बढ़ा सकते हैं। हमें पीछे की ओर नहीं आगे की ओर चलना चाहिए। भूत के पाँव उलटे होते हैं। इस कहावत का तात्पर्य यह है कि वह आगे के लिए नए संबंध स्थापित करने की अपेक्षा प्राचीन संबंधियों के मोह जाल में बँधकर पीछे की ओर लौट रहा है।
कभी-कभी मनुष्य की शारीरिक बिजली के परमाणु स्वयं स्वतंत्र प्रतिभा बन जाते हैं। स्वभावत: आप किसी घर में घुसते ही वहाँ के निवासियों की स्थिति जान सकते हैं, क्योंकि वहाँ रहने वालों के मानवीय तेज उस वातावरण में मँडराते रहते हैं और आपके मानसिक नेत्र इस बात को आसानी से पहचान लेते हैं कि यहाँ क्या वस्तु भरी हुई है। जिन स्थानों पर कोई भयंकर कार्य हुए हों, वहाँ मुद्दतों तक वैसा ही वातावरण बना रहता है। अग्निकांड, भ्रूणहत्या, कालादि ऐसे दुष्कर्म हैं जिनके कारण उस स्थान के ईंटपत्थर भी मूक वेदना से सिसकते रहते हैं। सताए हुए प्राणी की व्यथा साकार बन जाती है और जाग्रत या स्वप्न अवस्था में वहाँ के निवासियों को डराती है। कई मकानों को भुतहा समझा जाता है। वहाँ रहने वालों को भूत दिखाई देते हैं। ऐसे स्थानों पर किसी के अत्यंत हर्ष, द्वेष, क्रोध, दुःख या ममता की साकार प्रतिमाएँ ही प्रायः अधिक पाई जाती हैं, क्योंकि वास्तविक भूत कोलाहल से कुछ दूर और एकांत स्थानों में ही रहना अधिक पसंद करते हैं।
छोटी श्रेणी के भूत केवल मानसिक आघात पहुँचा सकते हैं, डरा देना या बीमार कर देना-यह उनके वश की बात है। निर्बल शक्ति होने के कारण वे न तो अपना स्वरूप प्रकट कर सकते हैं। और न किसी की अधिक क्षति कर सकते हैं। हाँ, छोटे बच्चों पर इनका आघात-प्रहार हो सकता है। दुर्वासनाओं का बाहुल्य रहने के कारण यह दूसरों के साथ बुराई ही कर सकते हैं, भलाई नहीं। मध्यम श्रेणी के भूत जो अधिक बलवान और आतुर होते हैं, वे अपने नाना प्रकार के रूप धारण कर प्रकट हो सकते हैं। वस्तुओं को इधर-से-उधर उठाकर ला और ले जा सकते हैं, किसी मनुष्य के शरीर पर अधिकार करके उसकी इंद्रियों से अपनी इच्छा पूरी कर सकते हैं तथा पागल या बीमार कर सकते हैं। ऊँची श्रेणी के वीर ब्रह्म राक्षस, वेताल, पितर आदि कुछ सहायता भी कर सकते हैं, वे छोटे भूतों का आतंक हटा सकते हैं, वर्तमान और भूतकाल की गुप्त घटनाओं को बता सकते हैं। बहुत पूछने पर भविष्य के बारे में भी थोड़ा-बहुत कहते हैं, पर वे बातें कभी-कभी गलत भी सिद्ध होती हैं। शाप-वरदान देना भूत के वश की बात नहीं है। क्योंकि उसके लिए जितने आध्यात्मिक बल की जरूरत है, वह उनमें नहीं होता।
मनुष्य शरीर के एक-एक कण में एक स्वतंत्र सृष्टि रच डालने की शक्ति भरी पड़ी है। यदि यह कभी विशेष मनोबल के साथ निकले हों और फिर वह स्थान सूना पड़ा रहे, तो बाधा रहित होने के कारण वे बीज बढ़ते, पकते और पुष्ट होते रहते हैं। हजारों वर्ष पुराने खंडहरों में किन्हीं भूत-प्रेतों का परिचय मिलता है। हो सकता है कि वे आत्मा अब तक अनेक जन्म ले चुकी हों और उनके पूर्वजन्म के यह कण उन भावनाओं की तसवीर की तरह अब तक जीवित बने हुए हों। लेकिन ऐसा होता खाली मकानों में ही है, क्योंकि वहाँ उन प्राचीन कणों की स्वतंत्र वृद्धि करने में कोई बाधा नहीं आती। जो स्थान मनुष्यों के निवास-केंद्र रहते हैं, वहाँ उनकी गरमी उन प्राचीन प्रतिमाओं को हटा देती या नष्ट कर देती है।
किन्हीं तेजस्वी आत्माओं के शाप और वरदान एक स्वतंत्र सत्ता बन जाते हैं और वह भी जीवित मनुष्यों की तरह हानि-लाभ पहुँचाते हैं। शंकर के कोप से वीरभद्र गणों का प्रकट होना, दुर्वासा के क्रोध करने पर उनकी जटाओं में से एक राक्षसी का निकलकर अंबरीष के पीछे दौड़ना, इस प्रकार के मानसपुत्र भी मूर्त रूप हो सकते हैं। किसी की 'हाय' इतनी साकार हो सकती है कि पिशाच की तरह सताने वाले का गला घोंटने लगे। वरदान, आशीर्वाद, शुभकामनाएँ चाहे हमें मूर्तिमान दिखाई न दें, पर वे देवता की तरह साथ रह सकती हैं और दुखद विपत्तियों में से भुजा पकड़कर दृश्य या अदृश्य रूप से बड़ी भारी मदद मिल सकती है। कई मनुष्य कुएँ में गिरने पर भी बेदाग निकल आते हैं या ऐसी ही अन्य प्राणघातक विपत्तियों में से साफ बच आते हैं। हो सकता है कि कोई आशीर्वाद उस समय हमारे ऊपर अदृश्य कृपा प्रकट कर रहा हो। इस प्रकार दूसरों के भले-बुरे विचार भी भूतों की भाँति अपने अस्तित्व का साकार या निराकार परिचय दे सकते हैं।
इस प्रकार अनेक जातियों के भूत-पिशाच संसार में मौजूद हैं, उसी प्रकार अदृश्य लोक में भी अनेक चैतन्य सत्ताएँ विद्यमान हैं। यह अकारण हम से नहीं टकराते, हमारे मानसिक विकार इन भूतों को अपनी ओर बुलाते हैं। भय, भ्रम, संदेह, आत्मिक निर्बलता, दुर्गुणों का बाहुल्य इन सब कारणों से भूतों को अधिकार करने का अवसर मिलता है। यदि आपकी आत्मा निर्बल नहीं है, आत्मा पापों के कारण भयभीत और शंकित बनी हुई नहीं है, तो ये बेचारे भूत आपका कुछ भी अहित न करेंगे।
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