|
आचार्य श्रीराम शर्मा >> जगाओ अपनी अखण्डशक्ति जगाओ अपनी अखण्डशक्तिश्रीराम शर्मा आचार्य
|
5 पाठक हैं |
||||||
जगाओ अपनी अखण्डशक्ति
अखण्ड ऊर्जा का श्रोत उसका संरक्षण एवं संवर्द्धन
मनुष्य केवल एक शरीर मात्र नहीं है वरन् उसे शास्त्रों में जीवात्मा नाम से सम्बोधित किया गया है। अर्थात् जीव के शरीर में परमात्मा का, आत्मा/प्रकाश/शक्ति के रूप मे निवास।
ईश्वर ने सृष्टि के समस्त जीवों को जीवन के परिचालन के लिए 'उदर' के माध्यम से शक्ति संग्रह की व्यवस्था की है। यह शक्ति, भोजन के द्वारा उसके पावन एवं अवशोषण से उसने प्राप्त होती है। अतः शक्ति की सबसे बड़ी एवं स्कूल आवश्यकता तो यह है कि क्या, कैसे एवं कितना व कब भोजन ग्रहण किया जाये जो शरीर के लिए अधिक से अधिक गुणकारी एवं स्वास्थवर्द्ध हो।
इसके अतिरिक्त मनुष्य ही एक ऐसा विशिष्ट जीव है। जिसे ईश्वर ने सभी जीवों से परे, मन के अतिरिक्त एक बुद्धि तत्व प्रदान किया है। जिसके द्वारा वह सत्-असत्, भला-बुरा, क्या है इसका निर्णय करके अपने लिए जो श्रेष्ठ हो उसका चयन कर सकता है।
उपरोक्त बात से यह निर्णय लिया जा सकता है कि ईश्वर ने प्राणी मात्र को जीवन निर्वाह के लिए भोजन के माध्यम से ऊर्जा संग्रह की एक व्यवस्था प्रदान की है।
इसी प्रकार ईश्वर द्वारा सृष्टि के विस्तार के लिए भी एक व्यवस्था की है वह है संतानोत्पत्ति की व्यवस्था। इसमे नर एवं मादा के अदर शक्ति के उस सूक्ष्म तत्व जिसे 'नर' मे वीर्य एवं मादा मे 'रज' नाम कहा गया है के परस्पर मिलन से जीव का स्थापन होता है। ये दोनों ही तत्व वीर्य और रज शक्ति के अति सूक्ष्म रूप हैं। ये ठीक वैसे ही शरीर में मौजूद रहते हैं जैसे दूध में मक्खन। मानव शरीर में भोजन से रस, रस से रक्त, रक्त से मांस, मांस से मेद, मेद से हड्डी, हड्डी से मज्जा और मज्जा से अंत मे वीर्य एवं रज बनता है। जिस प्रकार एक सरसों के दाने से भी छोटा बरगद का बीज एक अति विशाल बरगद के वृक्ष को जन्म देता है। उसी प्रक्रार से वीर्य और रज रूपी अति सूक्ष्म अणु के मिलन से एक सम्पूर्ण मानव की संरचना होती है। परन्तु यहाँ एक बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि मनुष्य के दोनों तत्व जितने स्वस्थ, सबल एवं उत्रत होंगे, संतान अर्थात् जीव उतना ही स्वस्थ, बलिष्ठ एव तेजस्वी होगा।
अतः सबसे पहली अनिवार्यता है आहार का शुद्ध एवं स्वारथ्यप्रद होना। क्योंकि जब शरीर स्वस्थ एवं बलिष्ठ होगा तभी मानव का 'मन' भी स्वस्थ एवं बलिष्ठ होगा। जिसका मन स्वस्थ होगा उसकी बुद्धि भी संतुलित होगी। जिससे उसके अन्दर 'विवेक ज्ञान' प्रस्फुटित (उत्पन्न) होगा। विवेक बुद्धि उत्पत्र होते ही उसमें 'धर्म के प्रति जिज्ञासा' उत्पत्र होने लगेगी और यही से उसके जीवन में आत्म-साक्षात्कार की यात्रा का प्रारम्भ हो जायेगा।
अब जानिये एक अत्यन्त गोपनीय बात जो ईश्वर द्वारा केवल अपने प्रेमियों, भक्तों एवं जिज्ञासुओं के लिए ही रख रखी है। वह है ईश्वर की कृपा युक्त उनकी अनन्त शक्ति जो हमसे यह आशा एवं अपेक्षा करती है कि हम उसकी प्राप्ति के लिए कदम बढ़ाएँ और ईश्वर की यह प्रतिज्ञा है कि जो भी मेरा प्रेमी या जिज्ञासु ज्यों ही हमारी ओर अपना एक कदम बढ़ायेगा वैसे ही मैं उसकी (मनुष्य) ओर दस कदम बढ़ऊँगा। अतः हमसे मिलने तथा हमें अपनी शक्ति व भक्ति प्रदान करने के लिए वे हमसे दस गुना अधिक आतुर हैं।
इसे इस प्रकार और अधिक स्पष्ट समझा जा सकता है कि जिस प्रकार सूर्य की ऊष्मा, ऊर्जा एवं प्रकाश सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। परन्तु यदि हम अपने घर के समरत खिड़की एव़ दरवाजे बंद कर लें तो वह कैसे हम तक पहुँचेगी। इसी प्रकार जिस क्षण से हम अपनी दसों इन्द्रियों (पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय) एवं एक मन इन सभी को शास्त्र की आज्ञानुसार यदि ईश्वर की ओर मोड़ देगे तो उसी समय से परमेश्वर की अनन्त ऊर्जा एवं शक्ति हमें प्राप्त होनी प्रारम्भ हो जायेगी और उसके संरक्षण एवं संवर्द्धन द्वारा प्रकृति अपने समस्त रहस्य हमारे समक्ष उजागर करने को बाध्य हो जायेगी और हमारे समक्ष कुछ भी असम्भव न रहेगा।
अब प्रश्न उठता है कि ईश्वरीय ऊर्जा प्राप्त कैसे हो इसका एक मात्र उपाय है मन, वचन और कर्म से ब्रह्मचर्य व्रत का पालन। वैसे तो ब्राह्मचर्य पालन अति कठिन एवं दुष्कर है परन्तु संतों के अनुसार कलियुग अर्थात् जिस युग मे हम रह रहे है उस समय में ईश्वर ने हमे हुत सी सहुलियतें (Relaxations दे रखी हैं। जैसे जो भी त्रुटियाँ या गलतियाँ हमारे शरीर द्वारा जानबूझ कर की जाती हैं उनका दुष्परिणाम हमें भोगना पड़ता है और जो अनजाने हो जाती हैं उनका प्रायश्चित कर लेने पर वे ईश्वर द्वारा क्षमा कर दी जाती हैं।
इसके अतिरिक्त सबसे मुख्य बात यह है कि कलयुग में मन से हुए दुष्कर्मों या गलतियों पर कोई पाप नहीं लगता अथात् उसका दण्ड नहीं भोगना पड़ता। इसके विपरीत मानसिक पूजा, सेवा या किये गये उपकार का पुण्य कई गुना होकर मिलता है यह कलियुग के मनुष्य को ईश्वर का अनोखा पुरस्कार प्राप्त है। अतः हम सभी को इस सुअवसर का लाभ उठाते हुए आज से ही इस कार्य मे पूरे प्रयास एवं उत्साह से संलग्न हो जाना चाहिए।
इस हेतु हम सभी को अपनी दैनिक दिनचर्या कुछ इस प्रकार रखनी होगी कि चौबीस घंटे में कम से कम 'डेढ़ घंटा' सिर्फ और सिर्फ अपने लिए निकालना होगा। और इस समय को इस प्रकार नियोजित करना होगा कि प्रातः जिस समय आज तक सोकर उठते थे उससे एक घंटा पूर्व उठें। उठकर सबसे पहले सात तुलसी की पत्तियाँ अच्छी तरह चबाकर कम से कम एक गिलास पानी पिये। पानी पीने की इस प्रक्रिया को ऊषा पान कहते हैं यह पानी मौसम के अनुकूल ठंडा या गरम होना चाहिए। इसे एक गिलास से बढ़ाकर चार गिलास तक करने का प्रयास करें। यह नुस्खा आप को कम से कम एक हजार घातक बीमारियों से बचाता है। इसके पश्चात् किंग-क्वीन एक्सरसाइज या सम्राट आसन करें।
यदि अब शौच की हाजत लगी हो तो शौच से निवृत्त हो लें। अब खुली हवा में हल्की दौड, व्यायाम, प्राणायाम एवं ध्यान इनमें से सब या जो आवश्यक हो करें। इसके पश्चात् रात्रि को जल में भीग रही 20 से 25 किशमिश या चार से पाँच अंजीर चबाकर खा लें और उसको मीठा पानी पी ले। नास्ते मे सर्वप्रथम अंकुरित अनाज (मूँग, मूँगफली, मेथी, सोयाबीन, चना आदि) को ग्रहण करे इसे प्रारम्भ में अत्यधिक मात्रा में न लें। अब अपने अग्रिम कार्यक्रम में संलग्न हो जायें।
अब सायंकालीन समय मे साय 6 से 7.30 के बीच के संध्याकाल या गोधूली बेला का जो समय अनुकूल लगे उस समय कम से कम पन्द्रह से बीस मिनट ईश प्रार्थना, मन्त्र जप, ध्यान, जो रुचिकर लगे उसे पूरी आंतरिकता के साथ ईश्वर से उचित मार्गदर्शन, शक्ति एवं आत्म कल्याण हेतु प्रार्थना करे। यह जीवात्मा के लिए आत्मा का भोजन कहलाता है।
इसके पश्चात् जब निद्रा हेतु विस्तर पर जाये तो सोने के पहले किसी महान संत की वाणी, कोई ऐसा ग्रन्थ जैसे गीता, रामायण या ऐसी ही कोई अन्य पुस्तक जो मन को अच्छी पथ सही दिशा प्रदान करे पढें। ऐसा साहित्य जिसे सत्साहित्य कहते है मन को स्वस्थ, एवं प्रसन्न रखने एवं उसे सही दिशा प्रदान करने का सच्चा साधन है। इसे शास्त्रों में 'स्वाध्याय' नाम से संबोधित किया है।
यदि उपरोक्त बातों का नियमित एवं उत्साहपूर्वक अभ्यास किया जाय तो हम अवश्य ही ईश्वर की अखण्ड शक्ति के अधिकारी बनेंगे तथा अपना एवं अपनों का जीवन अवश्य सार्थक करेंगे।
ऊँ हरिः... ऊँ।
|
|||||









