लोगों की राय

आचार्य श्रीराम शर्मा >> जगाओ अपनी अखण्डशक्ति

जगाओ अपनी अखण्डशक्ति

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15495
आईएसबीएन :00000

Like this Hindi book 0

5 पाठक हैं

जगाओ अपनी अखण्डशक्ति

मन-इन्द्रिय और ब्रह्मचर्य


श्रृंखला के पिछले लेख 'अखण्ड ऊर्जा का श्रोत उसका संरक्षण एवं संवर्द्धन' में हमने मानव मात्र को ईश्वर प्रदत्त ऊर्जा के रूप में भोजन के द्वारा प्राप्त ऊर्जा के अति सूक्ष्म रूप 'वीर्य' एवं 'रज' का अध्ययन तथा उसके संरक्षण एवं संवर्द्धन के आधारभूत पहलू 'ब्रह्मचर्य' के बारे में सरसरी तौर पर पढ़ा था। अब इस लेख 'मन-इन्द्रिय और ब्रह्मचर्य' के अन्तर्गत ब्रह्मचर्य क्या है तथा इसका हमारे मन एवं इन्द्रियों के साथ क्या सम्बन्ध है इसका विचार करेंगे।

ब्रह्मचर्य क्या है?

''कर्मणा मनसा वाचा सर्वावस्थासु सर्वदा।
सर्वत्र मैथुन त्यागो ब्रह्मचर्य प्रचक्षते।।"

'याज्ञवल्क्य संहिता' मे आया है कि सभी अवस्थाओं में मन, वचन और कर्म तीनों से मैथुन का सदैव त्याग हो, उसे ब्रह्मचर्य कहते हैं।

''ब्रह्मचर्य गुप्तन्द्रियस्थो पस्थस्य संयमः"

विषय-इन्द्रियों द्वारा प्राप्त होने वाले सुख का संयमपूर्वक त्याग करना ब्रह्मचर्य है।


मन-इन्द्रिय और ब्रह्मचर्य का आपसी सम्बन्ध

उपरोक्त चित्र में मनुष्य शरीर में स्थित वीर्याशय या डिम्बाशय को एक पात्र के रूप में दर्शाया है। पात्र में वीर्य एवं रज के एकत्रीकरण के दो मार्ग दिखाये गये हैं एक शरीर के रक्त से बने वीर्य को ले जाते तथा दूसरा

मन और इन्द्रियों के द्वारा सीधे ईश्वर द्वारा प्रदत्त ऊर्जा का मार्ग। अर्थात् वीर्य दो मार्गों द्वारा एकत्र होता है और प्रजनन क्रिया के लिए वीर्य के निकास का एक मार्ग जननेन्द्रिय के रूप में दिखाया गया है। अतः चित्र देखकर तो हमे प्रसत्रता होनी चाहिए कि यह तो बड़ी ही सुखद बात है कि वीर्य आता दो मार्गों से है परन्तु निकास का केवल एक ही मार्ग है। और यह ईश्वर की ओर से किया गया बड़ा ही उपकारी कार्य है परन्तु हम यह नहीं जानते कि वीर्य संकलन के दो मार्ग परन्तु स्खलन के पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ एवं मन बड़े ही सशक्त माध्यम हैं। मन और इन्द्रियों को जरा सी छूट दी नहीं कि वे सब चंचल होकर प्रमथन स्वभाव के कारण वीर्य स्खलन में सहायक होकर ब्रह्मचर्य को प्रभावित कर देती हैं अतः यह उपकारी तब है जब हम ईश्वर (प्रकृति) के द्वारा दिखाये मार्ग पर हम चलें अर्थात् अपने वीर्य के निकासी के मार्ग का प्रयोग केवल 'विवेक बुद्धि' का प्रयोग करते हुए ऋतु के अनुकूल सतानोत्पात्त के लिए करे।

परन्तु वर्तमान समय में जननेन्द्रिय का कार्य जैसे दिन में बीस बार पेशाब के निस्कासन के लिए होता है उसी प्रकार अविवेकी एवं कामी पुरुष इसका दुरुपयोग दिन में कई-कई बार अप्राकृतिक मैथुन के द्वारा वीर्य का निस्कासन केवल क्षणिक उत्तेजना के लिए ही करते हैं।

यही हाल स्त्रियों का भी है। वे भी अप्राकृतिक रूप से केवल रोमांच या यूँ कहें केवल कुछ क्षणों के सुख के लिए अपने महानतम 'रज' तत्व का क्षरण कर उसे नष्ट कर देती हैं। जिसके कारण स्त्री-पुरुष दोनों ही निस्तेज, स्मृतिहीन, अवसाद ग्रस्त. (Dipression), आँखों के नीचे कालापन, दुर्बलता, आलस्य, स्वप्नदोष, चेहरे पर मुँहासे, मूत्र के साथ वीर्य या रज स्खलन जैसी अनेकानेक व्याधियों से ग्रस्त होकर बड़ा ही दुखमय जीवन व्यतीत कर रहे हैं।

अब प्रश्न उठता है कि आखिर मनुष्य इस विषय में इतना अविवेकी कैसे हो जाता है कि अपना भला-बुरा समझते हुए भी ऐसी नादानी कैसे कर उठता है। तो इसके लिए एक ही बात कहनी होगी कि यह होता है केवल और केवल अज्ञान या विवेक बुद्धि न होने के कारण। और अज्ञान एवं विवेक बुद्धि का अभाव होता है सत्संग के अभाव से। इसके लिए तुलसीदास जी ने कहा है ''बिनु सतसग विवेक न होई''। परन्तु आज की पाश्चात्य सभ्यता के भौतिक ऐश्वर्य से मुग्ध नवयुवक, युवती एवं उनके अभिभावक (माता-पिता) अपने बच्चों को धाराप्रवाह अंग्रेजी में बात करते, मोबाइल पर एफ. एम. सुनते तथा कम्प्यूटर में चैटिंग करते देख बड़े ही प्रसन्न होते हैं और समाज मे बड़े ही फक्र से इस बात का बखान

करते हैं। उस समय उन्हें तथा उनकी संतानों को इस बात का जरा भी ज्ञान नहीं होता कि भइया! ये वे ही शौक व चीजें हैं जिनसे ये पश्चिमी अपना सब कुछ बरबाद कर चुके हैं उन पाश्चात्य देशों के पास केवल पैसा, भौतिक सुख ही बचा है। बाकी सब कुछ जैसे परिवार, दाम्पत्य जीवन, शारीरिक स्वास्थ्य. मानसिक शान्ति एवं आत्मिक बल यह सभी कुछ वे खो चुके हैं और घोर वेदन AIDS जैसी बीमारियों आदि के द्वारा पशुवत तड़प-तड़प के मर रहे हैं। और इनसे निजाद पाने के लिए भारतवर्ष के धर्म, योग, संगीत, अध्यात्म आदि को बड़ी तेजी से अपना रहे हैं। और हम हैं कि 'अपने धर्मग्रन्थों को बिना पढ़े, बिना समझे उनका उपहास करते हैं तथा दो टूक कह देते हैं हम ईश्वर फीश्वर को नहीं मानते। अरे भाई कौन कहता है मानो, न मानो मगर अपने को तो जानो कि तुम कौन हो पृथ्वी पर कहाँ से किसके द्वारा भेजे गये? जैसे ही इन प्रश्नों पर विचार करोगे सारा खेल ईश्वर का है, एक महाशक्ति का है जिससे आज तक कोई पार नहीं पा सका यह समझ में आने लगेगा। तब यह भी समझ मे आने लगेगा कि तुम केवल चारागाह के बीचोबीच खूँटा गाड़कर बाँधे गये पशु की भांति हो जिसे केवल खूँटे से बँधी रस्सी की हद में प्राप्त घास खाने की स्वतत्रता है और कुछ भी नहीं। तथा वो खूँटा है परिवार एवं समाज जिसके साथ तुम बंधे हुए हो। अच्छा हो उसकी हद तथा जिसने तुम्हें उस खूँटे में बाँधा है उस मालिक (ईश्वर) की सामर्थ को जान लो अन्यथा यदि उसने रस्सी छोटी करनी प्रारम्भ कर दी तो घास का एक तिनका (सुख) नहीं नसीब होगा।

अब पुनः अपने मुख्य विषय कि ब्रह्मचर्य का मन और इन्द्रियों के साथ क्या सम्बन्ध है पर आते हैं। तो इसको यहाँ एक उदाहरण से समझें-हमारा शरीर एक रथ के समान है जिसमें इन्द्रियाँ उसके घोड़े है, मन लगाम है, बुद्धि सारथी है और आत्मा रथी या रथ का मालिक है। यह सत्संग एव शास्त्रों के अध्ययन से ज्ञान होता है। परन्तु वर्तमान समय में जगत (विश्व) के विषय में सब जानना चाहते हैं। सब विश्व का भ्रमण करना चाहते हैं परन्तु अपने बारे में अपने वास्तविक घर, गंतव्य स्थान आदि के बारे में कोई भी जानना नहीं चाहता। और अपने बारे में (आत्म विज्ञान को) जाने बगैर या यूँ कहें कि अर्न्तप्रकृति को जाने बगैर केवल बाह्य प्रकृति को जानने से केवल कठिनाइयों का ही टोकरा हाथ लगेगा। अतः अपनी प्रकृति को पहले जानना होगा।

वर्तमान समय की सबसे बड़ी समस्या यह है कि प्रत्येक व्यक्ति की लगाम मन के हाथ में है जब कि होना यह चाहिए कि मन की लगाम व्यक्ति के हाथ में होनी चाहिए। अतः हमारा मन रूपी सेवक जब स्वामी हो जाता है तब मन इन्द्रियों को आदेश देने लगता है। मन ने कहा कुछ मीठा हो जाये तो हम चल पड़े कैडबरी की चाकलेट खरीदने के लिए, मन ने कहा फिल्म देखी जाए तो चल पड़े दोस्तों के साथ फिल्म देखने, भूल गये कि दो महीने बाद इण्टरमीडियट की बोर्ड की परीक्षा है। तो विषमता हुई है यह।

अतः हमारे द्वारा मन को मालिक मान लेने के कारण सभी इन्द्रियाँ मन की गुलाम हो चुकी हैं और हर इन्द्रिय का अपना विषय है जैसे आँख का काम है देखना, कान का काम है सुनना, जीभ का काम है स्वाद का ज्ञान कराना, त्वचा का काम है स्पर्श का ज्ञान कराना, नाक का काम है सूँघकर ज्ञान कराना और जननेन्द्रिय का कार्य है मूत्र का निष्कासन एव संतानोत्पत्ति के कार्य में सहायक होना। परन्तु जब ये इन्द्रियाँ मन के द्वारा शासित होती हैं तो ये पूर्णतः मन के हिसाब से चलने लगती हैं। और मन का स्वभाव अधोगामी जैसे पानी को जमीन पर डालो तो वह स्वभावतः. नीचे की ओर जाने का प्रयास करता है। उसी प्रकार मन अपने स्वभावके अनुसार स्वभागतः हमें निम्न गामी अर्थात् पशु योनि की भाँति भोगों की दिशा में घसीटता है। जैसे मन चाहेगा कि आँख सदैव गन्दे पर सुखद एवं उत्तेजक दृश्य देखे, कान सदैव उत्तेजक ध्वनि या सगीत सुने, नाक हमेशा उत्तेजक खुशबू जैसे तेज एवं उत्तेजक सेट जो हमारे सड़क पर निकलते ही सबको खूशबू के माध्यम से हमारी ओर आकर्षित कर दे। जीभ सदैव चटपटा, मसालेदार, उत्तेजक चीज पंसद करे, त्वचा सदैव स्पर्श सुख चाहे जैसे कोई चुंबन करे या अन्य ऐसे सभी कार्य जो त्वचा के लिए उत्तेजक हों। यह सारा कारोबार एक मन की ही प्रेरणा से होता है। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि हमारा सारा शरीर उत्तेजना से भर जाता है और यह भीषण उत्तेजना हमारे शरीर की समस्त नस, नाड़ियों को प्रमथित करके ह्मारे पूरे शरीर के वीर्य को उत्तेजित कर देती है जिससे यह शरीर का प्रमथन से उत्तेजित वीर्य या रज तीव्रता से वीर्याशया/डिम्बाशय की ओर दौड़ता है और इस उतेजना से वीर्याशय को पहले के वीर्य या रज को स्खलित करना पड़ता है और उसका स्थान नया वीर्य या रज वीर्याशय या डिम्बाशय में ले लेता है। इस प्रक्रिया को बारम्बार दोहराने से शारीरिक शक्ति का अधिकतर भाग व्यय होने लगता है, जिससे शरीर को कान्ति प्रदान करने वाला ओज संचित ही नहीं हो पाता और व्यक्ति शक्तिहीन एवं उत्साह हीन हो जाता है। आप शायद यह नहीं जानते होंगे कि एक बार में करीब 15 ग्राम वीर्य स्खलित होता है जो कि 30 दिन 4 घंटे में बने रक्त से निर्मित होता है। अर्थात् लगभग महीने भर की कमाई हम एक बार में गंवा देते हैं तो सोचो कितनी शक्ति हमारी इस बार-बार के अप्राकृतिक कृत्य के कारण नष्ट होती है। यदि इसी शक्ति का हम संग्रह कर सकें तो हमारा जीवन दिव्य एवंक् आनन्दमय हो उठे।

अतः ब्रह्मचर्य की पहली अनिवार्यता है शुद्ध एवं सात्विक भोजन, उसके बाद सबसे मुख्य अनिवार्यता है मन का नियन्त्रण उसके लिए मन को ईश्वर की ओर, ज्ञान की ओर, उसको कभी समझाकर, कभी डाँटकर, कभी उपवास द्वारा नियन्त्रित करना होगा। तभी उसकी अगली अवस्था आत्म सुख की ऐसी अवस्था जिसमे चाहे हमारे पास करोड़ो की सम्पदा हो या हम फक्कड़ हों, हम दुःख में हों या सुख में, कोई माने या न माने, अर्थात् सभी अवस्थाओं में एक रस रहें यह है आत्मिक स्वरूप में स्थिति। उसने जान लिया है कि जगत के समस्त कारोबार में एक हम आत्म स्वरूप छोड़ और कोई है ही नहीं अर्थात् विश्व में अमीर, गरीब, ताकतवर, निर्बल, सुखी, दुखी सभी रूपों में थें ही शक्ति रूप, वीर्य रूप मे, ऊर्जा रूप में प्रकाश रूप मे विद्यमान हूँ। अतः इस आत्म स्वरूप में स्थिति की अवस्था की प्राप्ति के लिए हमें क्रम से पहले शरीर फिर मन तथा इसके पश्चात् इन्द्रियादि पर नियन्त्रण करना होगा। इसके लिए हमें शरीर विज्ञान, मन का विज्ञान और फिर आत्म विज्ञान का क्रम से अध्ययन एवं विकास करना होगा। शरीर के लिये योग, व्यायाम, आचार-विचार एवं युक्तायुक्त आहार, मन के लिए सदृशास्त्रों का अध्ययन, महान सतों का जीवन एव उपदेशों का मनन एवं अनुकरण। आत्मा के लिए परमात्म चिंतन ईश्वर आराधन, निष्काम कर्म, सद-असत का विचार तथा ईश्वर से अपनी कमियों को दूर करने के लिए हृदय की आन्तरिकता से व्याकुल होकर प्रार्थना का मार्ग अपनाना होगा। इस साधना पद्धति से आप दिन पर दिन अपने को लक्ष्य के समीप पायेंगे।

अतः मेरे युवा मित्रों कमर कस लो और आज और अभी से एक दृढ़ संकल्प के द्वारा अपने को अपनी के लिए समर्पित कर दो। समस्त ईश्वरीय शक्ति तुम्हारे साथ है। 'उत्तिष्ठ जाग्रत वरान्निबोधत' अर्थात उठो जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न कर लो।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।


...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai