आचार्य श्रीराम शर्मा >> इक्कीसवीं सदी बनाम उज्जव भविष्य भाग-1 इक्कीसवीं सदी बनाम उज्जव भविष्य भाग-1श्रीराम शर्मा आचार्य
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विज्ञान वरदान या अभिशाप
युवा परिवर्तन का यही समय क्यों?
युग का अर्थ 'जमाना’ होता है। जिस जमाने की जो विशेषताएँ-प्रमुखताएँ होती हैं, उन्हें "युग" शब्द के साथ जोड़कर उस कालखंड को संबोधित करने का प्रायः सामान्य प्रचलन है, यथा- ऋषियुग, सामन्त युगा, जनयुग आदि।
इसी संदर्भ में वर्तमान को विज्ञानयुग, यान्त्रिकीय युग इत्यादि कहा गया है। इसी भाँति पंचागों में कितने ही संवत्सरों के आरंभ संबंधी मान्यताओं की चर्चा है। एक मत के अनुसार युग करोड़ों वर्षों का होता है। इस आधार पर मानवी सभ्यता की शुरूआत के खरबों वर्ष बीत चुके हैं और वर्तमान कलियुग की समाप्ति में अभी लाखों वर्ष को देरी है, पर उपलब्ध रिकार्डों के आधार पर नृतत्ववेत्ताओं और इतिहासकारों का कहना है कि मानवी विकास अधिकतम उन्नीस लाख वर्ष पुराना है, इसकी पुष्टि भी आधुनिक तकनीकों द्वारा की जा चुकी है।
काल गणना करते समय व्यतिरेक वस्तुतः प्रस्तुतिकरण की गलती के कारण है। श्रीमद्भागवत, महाभारत, लिंगपुराण और मनुस्मृति आदि ग्रंथों में जो युग गणना बताई गई है, उसमें सूर्य परिभ्रमण काल को चार बड़े खंडों में विभक्त कर चार देव युगों की कल्पना की गई है। एक देव युग को ४,३२००० वर्ष का माना गया है। इस आधार पर धर्मग्रंथों में वर्णित कलिकाल को समाप्ति की संगति प्रस्तुत समय से ठीक-ठाक बैठ जाती है।
यह संभव है कि विरोधाभास की स्थिति में लोग इस काल गणना पर सहज ही विश्वास न कर सकें, अस्तु, यहाँ "युग" का तात्पर्य विशिष्टता युक्त समय से माना गया है। युग निर्माण योजना आंदोलन अपने अंदर यही भाव छिपाए हुए है। समय बदलने जा रहा है, इसमें इसकी स्पष्ट झाँकी है।
कलियुग की समाप्ति और सतयुग की शुरूआत के संबंध में आम धारणा है कि सन् १९८९ से २००० तक के बारह वर्ष संधि काल के रूप में होना चाहिए। इसमें मानवी पुरुषार्थयुक्त विकास और प्रकृति प्रेरणा से संपन्न होने वाली विनाश की, दोनों प्रक्रियाएँ अपने-अपने ढंग से हर क्षेत्र में संपन्न होनी चाहिए। बारह वर्ष का समय व्यावहारिक युग भी कहलाता है। युग संधि-काल को यदि इतना मानकर चला जाए, तो इसमें कोई अत्युक्ति जैसी बात नहीं होगी।
हर बारह वर्ष के अंतराल में एक नया परिवर्तन आता है, चाहे वह मनुष्य हो, वृक्ष, वनस्पति अथवा विश्व ब्रह्मांड सभी में यह परिवर्तन परिलक्षित होता है। मनुष्य शरीर की प्रायः सभी कोशिकाएँ हर बारह वर्ष में स्वयं को बदल लेती हैं। चूँकि यह प्रक्रिया पूर्णतया आंतरिक होती हैं, अतः स्थूल दृष्टि को इसकी प्रतीति नहीं हो पाती, किंतु है यह विज्ञान सम्मत।
काल गणना में बारह के अंक का विशेष महत्व है। समस्त आकाश सहित सौरमंडल को बारह राशियों-बारह खंडों में विभक्त किया गया है। पंचांग और ज्योतिष का ग्रह गणित इसी पर आधारित है। इसी का अध्ययन कर ज्योतिर्विद यह पता लगाते हैं कि आगामी समय के स्वभाव और क्रिया-कलाप के से होने वाले हैं, पांडवों के बारह वर्ष के बनवास की बात सर्वविदित है। तपश्चर्या और प्रायश्चित परिमार्जन के बहुमूल्य प्रयोग भी बारह वर्ष की अवधि की महत्ता और विशिष्टता को ही दर्शातें हैं। इस आधार पर यदि वर्तमान बारह वर्षों को उथल-पुथल भरा संधिकाल माना गया है, तो इसमें विसंगति जैसी कोई बात नहीं है।
अंतरिक्ष विज्ञानियों के मतानुसार सौर कलंकों के रूप में बनने-बिगड़ने, घटने-मिटने वालें धब्बों की मध्यवर्ती अवधि बारह वर्षों की होती है। वे कहते हैं कि बारहवें वर्ष सूर्य में भयंकर विस्फोट होता है, जिसके कारण विद्युत चुंबकीय तूफान में तीव्रता आ जाती है। इसका प्रभाव पृथ्वी के प्रत्येक जड़-चेतन में अपने-अपने ढंग से दृष्टिगत होता है। नदियों-समुद्रों में उफान आने लगते हैं, वृक्ष वनस्पतियों की आंतरिक सरंचना बदल जाती है। जनसमुदाय की मन:स्थति में व्यापक असंतोष दिखाई पड़ने लगता है। खगोल विज्ञानियों का कहना है कि पिछले ढाई सी वर्षों में इतने तीव्रतम सौर कलंक कभी नहीं देखे गए, जितने कि सन् १९८९-९० की अवधि में देखे गए। ‘वाशिंगटन पोस्ट में छपे इस समाचार का हवाला देते हुए, हिंदुस्तान टाइम्स के २९ अगस्त १९८८ के अंक में कहा गया है कि सौर कलंकों की इस प्रक्रिया में इतनी प्रचंड ऊर्जा निःसृत होगी, जो मौसम असंतुलन से लेकर मानसिक विक्षोभ तक की व्यापक भूमिका संपन्न करेगी। इस दृष्टि से अब इन अगले वर्षों के असाधारण घटनाक्रमों से भरा पूरा होने की आशा की जाती है!''
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