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आचार्य श्रीराम शर्मा >> इक्कीसवीं सदी बनाम उज्जव भविष्य भाग-1

इक्कीसवीं सदी बनाम उज्जव भविष्य भाग-1

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15494
आईएसबीएन :00000

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विज्ञान वरदान या अभिशाप

व्यापक परिवर्तनों से भरा संधिकाल


सृष्टि के आदि काल से अब तक कई ऐसे अवसर उपस्थित हुए हैं, जिनमें विनाश की विभीषिकाओं को देखते हुए ऐसा लगता था, जैसे महाविनाश होकर रहेगा, किंतु इससे पूर्व ही ऐसी व्यवस्था बनी, ऐसे साधन उभरे, जिसने गहराते घटाटोप का अंत कर दिया। वृत्रासुर, रावण, कंस, दुर्योधन आदि असुरों का आतंक अपने समय में चरमावस्था तक पहुँचा, किंतु क्रमशः ऐसा कुछ होता चला गया कि जो प्रलंयकारी विनाशकारी दीखता था, वही आतंक अपनी मौत मर गया। देवासुर संग्राम के विभिन्न कथानक भी इसी श्रृंखला में आते हैं।

इतिहास पर हम दृष्टि डालें, तो हर युग में, हर काल में यह परिवर्तन प्रक्रिया गतिशील रही है। अभी कुछ ही दशकों पूर्व था। जब तक जनता का समर्थन उसे मिला, तब तक राजाओं का अस्तित्व बना रहा है। जब उसने इसकी हानियों को समझा, तो प्रजातंत्र का आधार खड़ा होते भी देर न लगी। कभी नारी जाति प्रतिबंधित थी। तब उसे पर्दे के भीतर रहने और पति को मृत्यु के उपरांत शव के साथ जला दिए जाने की व्यथा भुगतनी पड़ती थी, पर अब ऐसी बात नहीं रही। ऐसे ही दास प्रथा, जमींदारी, बाल-विवाह, नर-बलि, छुआछूत, जातिवाद की कितनी ही कुप्रथाएँ पिछली एक दो शताब्दियों में प्रचलन में थी, पर समय के प्रवाह ने उन सब को कर सीधा कर दिया। अगले दिनों यह गतिचक्र और भी तेज होने जा रहा है, ऐसी आशा बिना किसी दुविधा के की जा सकती है।

यह सत्य है कि पिछले समय की तुलना में अब कार्य अल्प समय में ही संपन्न होने लगे हैं। पहले जिन कार्यों के पूरे होने और व्यापक बनने में सहस्त्राब्दियाँ लगतीं थीं, अब वे दशाब्दियों में पूरे हो जाते हैं। ईसाई धर्म जिस गति से संसार में छाया वह सर्वविदित है। यही बात साम्यवादी विचारधारा के साथ भी देखी जा सकती है, जिसने सौ वर्ष के अंदर ही विश्व के दो तिहाई लोगों को अपने में समाहित कर लिया। अँग्रेजी सभ्यता अब विश्वव्यापी बन चुकी है, जबकि हजारों वर्ष पुरानी सभ्यताएँ और विचारधाराएँ मंथर गति से ही चल सकीं व विस्तार पा सकीं। यह सब समय की रफ्तार में परिवर्तन के प्रमाण हैं, जो सूचित करते हैं कि लंबे परिवर्तन चक्र अब छोटे में सिमट-सिकुड़ रहे हैं।

पाँच सी वर्ष पूर्व का यदि कोई व्यक्ति आज की इन बदली परिस्थितियों को देखे, तो उसे यही लगेगा कि वह किसी नई जगह, नई नगरी में पहुँच गया है, जहाँ मनुष्य को तथाकथित ऋद्धि-सिक्रियाँ हस्तगत हो गई हैं। विद्युत से लेकर , टेलीकम्युनिकेशन, लेसर, कंप्यूटर आदि ने धरती पर चमत्कारी परिवर्तन कर दिखाए हैं। लगता है मानवी बुद्धिमत्ता अपनी गतिचक्र के सहारे कुछ भी करने में समर्थ है। यह भी सही है कि यह गतिशीलता आने वाले समय में घटेगी नहीं, वरन् और बढ़ेगी ही। इसकी व्यापकता हर क्षेत्र में होगी। विज्ञान और बुद्धि दोनों ही इसके प्रभाव क्षेत्र में आ जाएँगे। रीति-रिवाजों और गतिविधियों में सिर्फ क्रांतिकारी परिवर्तन होंगे, वरन् उसी क्रांतिकारी ढंग से वे अपनाए भी जाएँगे। इस महान परिवर्तन का आधार इन्हीं दिनों खड़ा हो रहा है। इसे परोक्ष दृष्टि से मनीषीगण देख भी रहे हैं व पूर्वानुमान के आधार पर उस संभावना की अभिव्यक्ति भी कर रहे हैं।

पिछले दिनों कितने ही भविष्यवक्ताओं, अदृश्यदर्शियों, धर्म-ग्रंथों की भविष्यवाणियाँ-चेतावनियाँ सामने आती रही हैं। इन सब में आने वाले समय को संकटों व नवयुग की संभावनाओं से परिपूर्ण बताया है। ईसाई धर्म में 'सेवन टाइम्स' इस्लाम धर्म में 'हिजरी' की चोदहवीं सदी इन सब की संगति प्रायः बीसबीं सदी के समापन काल के साथ बैठती है। वर्तमान में प्रकृति प्रकोपों के रूप में घटित होने वाली विभीषिकाओं की संगति भी ईश्वरीय दंड प्रक्रिया के साथ कुछ सीमा तक बैठ जाती है। अस्तु, बीसवीं और इक्कीसवीं सदी के संधिकाल में विपत्ति भरा वातावरण दीख पड़े तो इसे अप्रत्याशित नहीं समझना चाहिए। ऐसे में सूजन संभावनाएँ भी साथ-साथ गतिशील होती दिखें, तो उन्हें भी छलावा न मानकर यह समझना चाहिए कि ध्वंस व सूजन, संधि वेला की दो अनिवार्य प्रक्रियाएँ हैं, जो साथ-साथ चलती हैं।

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