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आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री साधना क्यों और कैसे

गायत्री साधना क्यों और कैसे

श्रीराम शर्मा आचार्य

डॉ. प्रणव पण्डया

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15490
आईएसबीएन :00000

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गायत्री साधना कैसे करें, जानें....

गायत्री उपासना का सरल विधि-विधान


गायत्री उपासना कभी भी किसी भी स्थिति में की जा सकती है। यह हर स्थिति में लाभदायक है। इसमें किसी तरह की हानि की गुंजाइश नहीं है; किन्तु विधिपूर्वक साधना एक महत्त्वपूर्ण बात होती है। किसी भी कार्य को विधिपूर्वक व सही ढंग से किया जाए तो उसका लाभ ठीक-ठीक ढंग से मिलता है। इसलिए गायत्री साधक को उपासना का विधि विधान, इसका उद्देश्य व न्यूनतम कर्मकाण्डों से जुड़ी भावनाओं को समझना आवश्यक है।

नियमित उपासना के लिए पूजा स्थल की स्थापना आवश्यक है। घर में एक ऐसा स्थान खोजें जो अपेक्षाकृत एकांत व शांत रहता हो। वहाँ पूजा चौकी पर साकार उपासना वाले गायत्री माता की प्रतिमा स्थापित करते हैं। निराकार में यह कार्य सूर्य का चित्र अथवा दीपक, अगरबत्ती आदि से चल जाता है। देवस्थापना के अंतर्गत शान्तिकुंज से तैयार चित्र भी इस उद्देश्य से सर्वथा उपयुक्त है।

उपासना के लिए प्रातःकाल का समय सबसे बेहतर है। जहां तक हो सके नित्य कर्म, शौच-स्नान आदि से निपट कर ही पूजा पर बैठना चाहिएउ। बीमारी, ऋतु प्रतिकूलता या किसी विवशता के कारण हाथ-पैर, मुह आदि धोकर भी बैठा जा सकता है। उपासना से जुड़ा न्यूनतम कर्मकाण्ड भावना पूर्वक पूरा करना चाहिए। यदि बाहर प्रवास में रहना हो या कोई अन्य मजबूरी हो, तो पूजा पद्धति का स्मरण और भाव करके मानसिक पूजा से काम चला सकते हैं।

पालथी मारकर सीधे ढंग से आसन पर बैठें। कष्ट साध्य आसनों से मन में स्थिरता नहीं आ पाती। बिना बिछाए जमीन पर नहीं बैठना चाहिए। कुश या चटाई आदि के आसन सर्वोत्तम हैं। माला तुलसी या चन्दन की लेनी चाहिए। पूजा स्थली पर जल से भरा कलश और सुगन्धित अगरबत्ती या दीपक जला कर रखें।

गायत्री उपासना में ये कृत्य आते हैं- 

१. आत्म शुद्धि, 

२. देव आवाहन 

३. जप- ध्यान और 

४. सूर्यार्घ्यदान।

आत्म शुद्धि

सबसे पहले आसन पर बैठकर आत्म शुद्धि के अंतर्गत शरीर, मन और प्राण की शुद्धि के लिए पाँच कर्म किए जाते हैं। इसे ब्रह्म संध्या कहते हैं। पांच कृत्य हैं- १. पवित्रीकरण, २. आचमन, ३. शिखा वंदन, ४. प्राणायाम और ५. न्यास।

१ .पवित्रीकरण- बायें हाथ की हथेली में जल लेकर उसे दाहिने हाथ से ढक लें और मंत्र पूरा होने के साथ इसे सिर और सारे शरीर पर छिड़क लें। भाव करें की इस अभिमंत्रित जल के माध्यम से हमारे ऊपर पवित्रता की वर्षा हो रही है और हम अंदर-बाहर से पवित्र हो रहे हैं।

ॐ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थागतोऽपि वा।
य: स्मरेत्पुडरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचि:।।
ॐ पुनातु पुण्डरीकाक्षः पुनातु पुण्डरीकाक्षः पुनातु।

२. आचमन - जल भरे पात्र से दाहिने हाथ की हथेली पर जल लेकर तीन बार आचमन करें। प्रत्येक आचमन के साथ इन मंत्रों का बारी- बारी से उच्चारण करें -

ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा।।१।।
ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा।।२।।
ॐ सत्य यश: श्रीर्मयि श्री: श्रयतां स्वाहा।।३।।

प्रत्येक आचमन के साथ गायत्री की तीन शक्ति धाराओं अर्थात हीं-सद्‌बुद्धि, श्रीं-समृद्धि और क्लीं-शक्ति का पान मातृ दुग्ध की तरह करने का भाव किया जाता है।

३. शिखा स्पर्श व वंदन -शिखा में गांठ लगाई जाय अथवा इस भाग को स्पर्श करते हुए भावना की जाय कि गायत्री के इस प्रतीक के माध्यम से सदा श्रेष्ठ विचार ही वहाँ स्थापित रहेंगे। इस मंत्र का उच्चारण करें-

ॐ चिद्‌रूपिणि महामाये दिव्यतेज: समन्विते।
तिष्ठ देवि शिखामध्ये तेजोवृद्धि कुरुष्य मे।।

४. प्राणायाम- इसमें श्वास को थीमि गति से, गहरी खींचकर रोकने व बाहर निकालने की किया आती है। सांस खीचते समय भावना करें कि हमारे चारों ओर फैली गायत्री की प्राणशक्ति को हम श्वास के साथ अन्दर खींच रहे हैं और रोकते समय भाव करें कि यह सूर्य के समान तेजस्वी प्राण हमारे अन्दर रोम-सेम में भर रहा है। छोड़ते समय भाव करें कि हमारे दोष दुर्गुण श्वास के साथ बाहर निकल रहे है। श्वास को बाहर रोकते हुए भाव करें की तेजस्वी प्राण मेरे पापों का नाश करते हुए बिदा हो रहा है और अन्दर सद्‌बुद्धि व तेजस्विता की वृद्धि हो रही है। श्वास रोकने की किया लेने व छोड़ने के आधा समय तक की जाती है। इस प्रक्रिया को तीन बार दोहराएं। प्राणायाम इस मंत्र के उच्चारण के बाद किया जाता है-

ॐ भू: ॐ मुवः ॐ स्व: ॐ मह: ॐ जन: ॐ तप: ॐ सत्यम्।
ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्। ॐ आपोज्योति रसोऽमृतं ब्रह्मभूर्भुवः स्व: ॐ।।

५.न्यास -इसमें बायें हथेली में जल लेकर दायें हाथ की पाचों उंगलियों को को बोया जाता है और इन्हें बारी बारी मंत्र के साथ मुँह नाक, औख्र कान, बाद, जांघ पर बायें से दायें तरफ स्पर्श किया जाता है। उद्देश्य शरीर के सभी महत्वपूर्ण अंगों व इन्द्रियों में पवित्रता की स्थापना है।

ॐ वाङ्मे आस्येऽस्तु । (मुख को)
ॐ नसोर्मे प्रार्णोऽस्तु । (नासिका के दोनों छिद्रों को)
ॐ अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु । (दोनों आँखों को)
ॐ कर्णर्योर्मे श्रोत्रमस्तु । (दोनों कानों को)
ॐ बाह्वोर्मे बलमस्तु । (दोनों बाहों को)
ॐ ऊर्वोमें ओजोऽस्तु । (दोनों जंघाओं को)
ॐ अरिष्टानि मेंऽगानि तनुस्तन्या मे सहसन्तु। (पूरे शरीर को)

न्यास के साथ आत्मशुद्धि के पांच कृत्य पूरे हो जाते हैं। इनका प्रयोग साधक में मलिनता की शुद्धि और पवित्रता की वृद्धि के लिए किया जाता है, क्योंकि शरीर, मन और प्राण से शुद्ध व्यक्ति ही देवपूजन का अधिकारी होता है।

इसके बाद देव पूजन का क्रम शुरू होता है।

नोट- यहाँ यह बात ध्यान देने की है कि आत्मशोधन के ये पाँचों कृत्य केवल गायत्री मंत्र से भी किया जा सकता है।

देव पूजन- इसमें सबसे पहले धरती माता का पूजन किया जाता है। जिस धरती पर हमने जन्म लिया, जिसकी गोद में खेलते-कूदते हुए हम बड़े हुए वह मातृभूमि प्रमुख देव है। इसलिए इष्टदेव की पूजा से पहले पृथ्वी पूजन किया जाता है। पूजन क्रम में उसी की तरह विशाल हृदय, धैर्यवान और सहनशील होने का भाव करें। पृथ्वी पर एक चम्मच जल चढ़ा कर इस मंत्र के साथ पूजन करें-

ॐ पृथ्वि त्वया मृता लोका, देवि त्वं विष्णुना धृता।
त्वं च धारय मां देवि! पवित्रं कुरु चासनम्।।

इसके बाद आदिशक्ति माँ गायत्री का भाव भरा आवाहन करें। भावना करें कि हमारी प्रार्थना के अनुरूप माँ गायत्री की शक्ति अवतरित होकर स्थापित हो रही है। आवाहन मंत्र इस तरह से है-

ॐ आयातु वरदे देवि व्यक्षरे ब्रह्मवादिनि।
गायत्रिच्छन्दर्सा मात: ब्रह्मयोनेनमोश्स्तु ते।।
ॐ श्री गायत्र्यै नमः।
आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, ध्यायामि।
ततो नमस्कारन् करोमि।

इसके बाद गुरु का आवाहन करें। गुरु भगवान का वह दिव्य अंश है, जो शिष्य का मार्ग दर्शन करता है। सद्‌गुरु के रूप में पूज्य गुरुदेव एवं वंदनीया माता जी की वंदना करते हुए उपासना की सफलता के लिए गुरु आवाहन श्न मंत्रों के साथ करें-

ॐ गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुरेव महेश्वर:।
गुरुरेव परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः।।
अखण्ड मण्डलाकारं व्याप्त येन चराचरम्।
तत्पदंदर्शितं येन तस्मै श्री गुरुवे नम:।।
ॐ श्री गुरुवे नमः।
आवाहयामि स्थापयामि पूजयामि ध्यायामि।
ततो नमस्कारम् करोमि।

देव पूजन के बाद जप और ध्यान का क्रम शुरू होता है।

जप-गायत्री मंत्र का कम से कम तीन माला जप या घड़ी से लगभग पन्द्रह से बीस मिनट के हिसाब से जप किया जाए। अधिक बन पड़े, तो और बेहतर है। सामान्य क्रम में इसे ग्यारह माला तक बढ़ा सकते हैं। जप करते समय होंठ, कण्ठ, मुख हिलाते हुए उच्चारण इतना धीमें रखें कि पास बैठा हुआ व्यक्ति भी आवाज को न सुन सके।

जप को एक प्रकार की मन को साफ करने वाली रगड़ माना जा सकता है। बार-बार घिसने पर वस्तुएं चिकनी हो जाती हैं साबुन के रगड़ने से कपड़ों की मैल छूट जाती है नहाते समय मलने पर शरीर की मैल धुल जाती है। इन सब कार्यों में एक ही काम को बार-बार दुहराया जाता है। यही काम जप द्वारा मन और अंतःकरण के साथ किया जाता है। जप करते हुए भावना की जाय कि ईश्वर का नाम लेने से हमारे दोष-दुर्गुणों की सफाई हो रही है, हम लगातार शुद्ध व पवित्र हो रहे हैं और दुर्बुद्धि की जगह सद्‌बुद्धि की स्थापना हो रही है।

गायत्री उपासना में अप के साथ ध्यान अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। जप तो मुख्य रूप से शरीर के अंग-अवयवों द्वारा किया जाता है किन्तु ध्यान में मन को ईश्वर के साथ जोड़ने व एक करने का प्रयास किया जाता है।

ध्यान-इसमें हम अपनी रुचि व स्वभाव के अनुरूप साकार या निराकार ध्यान चुनते हैं। मातृरूप में गायत्री महाशक्ति के उपासक प्रात: कालीन स्वर्णिम सूर्य में स्थित हंस पर बैठी गायत्री माता का ध्यान करते हैं। स्वयं को शिशुवत् मानकर मां के आँचल की छाया में बैठने व उनका दुलार भरा प्यार पाने की भावना की जाती है। मां का पयपान करते हुए यह अनुभूति करनी चाहिए कि उसके दूध के साथ मुझे सद्‌भाव ज्ञान व साहस-शक्ति जैसी विभूतियाँ मिल रही हैं और अपना व्यक्तित्व एक, युद्ध एवं महान् बनता जा रहा है।

स्मरण रहे कि इस ध्यान धारणा में कल्पित गायत्री माता एक नारी मात्र नहीं है, वरन् समस्त सद्‌गुणों, सद्‌भावनाओं व शक्ति-सामर्थ्य की स्रोत ईश्वरीय शक्ति हैं। क्रमश: इसी स्तर पर अपनी भावना व कल्पना को ले जाने पर ध्यान की गहराई धीरे-धीरे बढ़ती जाएगी। जिसमें माता पुत्र के बीच क्रीड़ा-कलोल भरा लेह-वात्सल्य का आदान-प्रदान होता है। यह ध्यान धीरे-धीरे भाव भूमि में उतरता जाएगा। अपनी प्रौढ़ता को भुला कर बालक रूप में अपनी भाव धारणा बनने लगे, तो समझना चाहिए की साधना की एक बड़ी मंजिल पार कर ली।

माता के पयपान में भावना उठनी चाहिए कि यह दूध एक तेजस्वी प्राण है, जो मेरे अंग-प्रत्यंग ही नहीं, वरन् मन-बुद्धि और हृदय में जड़ जमाए कुविचारों व दोष-दुर्गुणों को भस्म कर रहा है। इस पयफन का प्रभाव एक कायाकल्प करने वाले संजीवनी रसायन जैसा हो रहा है। मैं सुद्र से महान् नरपशु-नरपिशाच से नरमानव-देवमानव, नर से नारायण के रूप में विकसित हो रहा हूं। ईश्वर के सभी सदगुण मेरे व्यक्तित्व के अंग बनते जा रहे हैं। मैं तीव्रता से श्रेष्ठता की ओर बढ़ रहा हूं। मैं तेजी से पवित्रता, प्रखरता और आत्मविश्वास से भरता जा रहा हूँ।

निराकार ध्यान में गायत्री के देवता सविता का ध्यान प्रातः उगते हुए सूर्य के रूप में किया जाता है। भाव किया जाता है कि आदिशक्ति की आभा सूर्य की किरणों के रूप में अपने तक चली आ रही है और हम इसके प्रकाश के घेरे में चारों ओर से घिरे हुए हैं। ये प्रकाश किरणें धीरे- धीरे शरीर के अंग-प्रत्यंगों में प्रवेश कर रही हैं और इन्हें पुष्ट कर रहीं है। जिहार जननेन्द्रिय, नेत्र, नाक, कान आदि इंद्रियाँ इस तेजस्वी प्रकाश से पवित्र हो रही हैं और इनकी असंयम वृत्ति जल रही है। शरीर के स्वस्थ, पवित्र और स्फूर्तिवान् होने के बाद स्वर्णिम सूर्य किरणों के मन-मस्तिष्क में प्रवेश की भावना की जाती है। इस तेजस्वी प्रकाश के प्रवेश होते ही वहाँ छाए असंयम, स्वार्थ, भय, भ्रम रूपी जंजाल का अज्ञान अंधकार छंट रहा है और वहाँ संयम, सन्तुलन व उच्चविचार जैसी विभूतियां जगमगा रही हैं। मन और बुद्धि शुद्ध व सजग हो रही हैं जिसके प्रकाश में जीवन लक्ष्य स्पष्ट हो रहा है।

मन- मस्तिष्क के बाद गायत्री शक्ति की प्रकाश किरणें भावनाओं के केन्द्र हृदय स्थल में प्रवेश कर रही है। आदिशक्ति की प्रकाश रूपी आभा के उतरने के साथ जीवन का अधूरापन समाप्त हो रहा है। उसकी क्षुद्रता, संकीर्णता, तुच्छता को दूर करके वह अपने समान बना रही है। उपासक अपनी लघुता परमात्मा को सौंप रहा है और परमात्मा अपनी महानता जीवत्मा को प्रदान कर रहा है। बिछुड़े हुए गौ-बछड़े की तरह दोनों मिल रहे हैं और एकता का आनन्द उत्पन्न हो रहा है। जीवात्मा का लघु प्रकाश, परमात्मा के परमप्रकाश से लिपट रहा है और दीपक पर जलने वाले पतंगे की तरह, यज्ञ कुण्ड में पड़ने वाली आहुति की तरह अपने अस्तित्व को होम रहा है। इस मिलन से हृदय में सद्‌भावनम्मों की हिलोरें उठ रही हैं। आकांक्षाएँ-आदर्शवादिता और अच्छाई से भर रही हैं, ईश्वरीय संदेशों और नेक रास्ते पर चलने का संकल्प दृढ़ हो रहा है। आत्मा की महिमा के अनुरूप अपना चिंतन और क्रियापद्धति रखने का निश्चय प्रबल हो रहा है। अनन्त प्रकाश के आनन्द भरे सागर में खान करते हुए आत्मा अपने को धन्य व कृतकृत्य अनुभव कर रही है

सूर्यार्घ्यदान- जप-ध्यान पूरा हो जाने के बाद पूजा वेदी पर रखे छोटे कलश का जल सूर्य की दिशा में अर्घ्य रूप में इस मंत्र के साथ चढ़ाया जाता है-

ॐ सूर्यदेव सहस्रांशो तेजोराशे जगत्पते।
अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणार्ध्यम् दिवाकर:।।
ॐ सूर्याय नमः, आदित्याय नमः, भास्कराय नमः।

यहां कलश में भरा जल अपने लघु व क्षुद्र आपे का प्रतीक है तो सूर्य विराट् ब्रह्म का। अपनी जीवन सम्पदा को विराट् ब्रह्म के लिए समर्पित-विसर्जित करने का भाव सूर्यार्घ्य में है। अर्प्य चल वाष्प बनकर आकाश में उड़ता है और व्यापक बन जाता है। कहीं बादल तो कहीं ओस बिंदु बनकर बरसता है। हमारे साधन, सम्पदा एवं विभूति रूपी जीवन जल भी छोटे से कलश में सीमित न रह कर बाहर निकलें, इष्ट देव के प्रति अर्पित होकर विश्व मानव के काम आए और व्यापकता तक फैले। यही सूर्यार्घ्य का भाव एवं उद्देश्य है।

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