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आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री की शक्ति और सिद्धि

गायत्री की शक्ति और सिद्धि

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15482
आईएसबीएन :00000

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गायत्री की शक्ति और सिद्धि

सफलता और सिद्धि के कुछ लक्षण


गायत्री उपासना से तेजस्वी बुद्धि, प्रज्ञा की प्रखरता का विकास होता है। इसलिए भारतीय संस्कृति के मनीषियों ने गायत्री को एक स्वर से परम उपास्य बताया है। गायत्री उपासना के परिणाम सामान्य बुद्धि का विकास मात्र नहीं है। इससे बौद्धिक प्रखरता तो बढ़ती ही है किन्तु उपासना का जो सबसे बड़ा लाभ होता है वह है आत्म शाक्ति का विकास। शास्त्रकारों ने गायत्री उपासना को आत्मशक्ति के अभिवर्धन का सरल किन्तु श्रेष्ठतम उपाय बताया है।

गायत्री उपासना से आत्मशक्ति के विकास का लाभ सर्वथा विज्ञान सम्मत है। मनीषियों का कथन है कि साधना से एक विशेष दिशा में मनोभूमि का निर्माण होता है। श्रद्धा, विश्वास तथा साधना विधि की कार्य प्रणाली के अनुसार आतरिक क्रियाएँ उसी दिशा में प्रवाहित होने लगती है, जिससे मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार का चतुष्टय वैसा ही रूप धारण करने लगता है। भावनाओं के संस्कार अन्तर्मन में गहराई तक प्रवेश कर जाते है और गायत्री साधक की मानसिक गतिविधि में आध्यात्मिकता तथा सात्विकता का प्रमुख स्थान बन जाता है और साधक में एक सूक्ष्म दैवी चेतना का अविर्भाव होने लगता है।

इन परिवर्तनों के कारण यद्यपि साधक की आकृति या उसके शरीर में तो कोई अन्तर नहीं आता पर अभ्यंतर दृष्टि से उसमें कई परिवर्तन आ जाते हैं। आध्यात्मिक तत्वों की वृद्धि के परिणाम स्वरूप-आत्मशक्ति की अभिवृद्धि के फलस्वरूप साधक के प्राणमय, विज्ञानमय, मनोमय कोशों में जो परिवर्तन आते हैं उनका प्रभाव अन्नमयकोश पर बिल्कुल ही न हो ऐसा नहीं हो सकता। यह सच है कि शरीर का ढाँचा आसानी से नहीं बदलता पर यह भी सच नहीं है कि आन्तरिक स्थिति में परिवर्तन के चिन्ह शरीर में जरा भी दृष्टिगोचर न हों।

साधना की सफलता के कुछ चिन्ह शरीर में भी निश्चित रूप से प्रकट होते है। जैसे साधक अपने में हल्कापन, उत्साह एवं चैतन्यता अनुभव करने लगता है।

साधक जब साधना करने बैठता है तो अपने अन्दर एक प्रकार का आध्यात्मिक गर्भ धारण करता है। तन्त्र शास्त्रों में साधना को मैथुन कहा जाता है। जैसे मैथुन को गुप्त रखा जाता है, वैसे ही साधना को गुप्त रखने का आदेश किया गया है। आत्मा जब परमात्मा से लिपटती है उसका आलिंगन करती है तो उसे एक अनिर्वचनीय आनन्द आता है, इसे भक्ति की तन्मयता कहते है। जब दोनों का प्रगाढ़ मिलन होता है, एक दूसरे में आत्मसातृ होते है तो उस स्सलन को 'समाधि' कहा जाता है। आध्यात्मिक मैथुन का समाधि सुख अन्तिम स्खलन है। गायत्री उपनिषद् और सावित्री उपनिषद में अनेक मैंधुनों का वर्णन किया गया है। वहाँ बताया गया है कि सविता और अण्डे से बच्चा निकलता है, गर्भ से सन्तान पैदा होती है। साधक को भी साधना के फलस्वरूप एक सन्तान मिलती है, जिसे शक्ति या सिद्धि कहते है। मुक्ति, समाधि ब्रह्मस्थिति तुरीयावस्था आदि नाम भी इसी के है। यह सन्तान आरम्भ में बड़ी निर्मल तथा लघु आकार की होती है। जैसे अण्डे से निकलने पर बच्चे बड़े ही लुंज-पुज होते है। जैसे माता के गर्भ से उत्पन्न हुए बालक बड़े ही कोमल होते है, वैसे ही साधना पूर्ण होने पर प्रसव हुई नवजात सिद्धि भी बड़ी कोमल होती है। बुद्धिमान साधक उसे उसी प्रकार पाल-पोष कर बड़ा करते हैं जैसे कुशल माताएं अपनो सन्तान को अनिष्टों से बचाती हुई पौष्टिक पोषण देकर पालती है।

साधना जब तक साधक के गर्भ में पलती रहती है कच्ची रहती है, जब तक उसके शरीर में आलस्य और अवसाद के चिन्ह रहते हैं, स्वास्थ्य गिरा हुआ चेहरा उतरा हुआ दिखाई देता है, पर जब साधना पक जाती है और सिद्धि की सुकोमल सन्तति का प्रसव होता है, तो साधक में एक तेज, ओजम हलकापन, चैतन्य, उत्साह आ जाता है, वैसा जैसे कि कैचली बदलने के बाद सर्प में आता है। सिद्धि का प्रसव हुआ या नहीं सफलता मिली या नहीं, इसकी परीक्षा इन लक्षणों से हो सकती है यह मुख्य लक्षण नीचे दिये जाते हैं-

१- शरीर में हल्कापन और मन में उत्साह होता है।

२- शरीर में एक विशेष प्रकार की सुगन्ध आने लगती है।

3- त्वचा पर चिकनाई और कोमलता का अंश बढ़ जाता है।

४- तामसिक आहार-विहार से घृणा बढ़ जाती है और सात्विक दिशा में मन लगता है।

५- स्वार्थ का कम और परमार्थ का अधिक ध्यान रहता है।

६- नेत्रों मे तेज झलकने लगता है।

७- किसी व्यक्ति या कार्य के विषय में वह जरा भी विचार करता है तो उसके सम्बन्ध में बहुत सी ऐसी बातें स्वयमेव प्रतिभासित होती है जो परीक्षा करने पर ठीक निकलती हैं।

8-उनका व्यक्तित्व आकर्षक, नेत्रों में चमक, वाणी में बल, चेहरे पर प्रतिभा, गम्भीरता तथा स्थिरता होती है, जिससे दूसरों पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। जो व्यक्ति उनके सम्पर्क में आते है वे उनसे काफी प्रभावित होते जाते हैं तथा उनकी इच्छानुसार आचरण करते हैं।

9-साधक को अपने अन्दर एक दैवी तेज की उपस्थिति प्रतीत होती है। वह अनुभव करता है कि उसके अन्तःकरण में कोई नई शक्ति काम कर रही है।

10-बुरे कामों से उसकी रुचि हट जाती है और भले कामों में मन लगता है। कोई बुराई बन पड़ती है तो उसके लिए बडा खेद और पश्चाताप होता है। सुख के समय वैभव में अधिक आनन्द न होना और दुःख, कठिनाई तथा आपत्ति में धैर्य खोकर किंकर्तव्यविमूढ़ न होना उसकी विशेषता होती है.।

११-भविष्य में जो घटनाएं घटित होने वाली है उनका उसके मन में पहले से ही आभास आने लगता है। आरम्भ में तो कुछ हल्का सा ही अन्दाज होता है पर धीरे-धीरे उसे भविष्य का ज्ञान बिल्कुल सही होने लगता है।

१२-उसके शाप और आशीर्वाद सफल होते है। यदि वह अन्तरात्मा से दुखी होकर किसी को शाप देता है तो उस व्यक्ति पर विपत्तियाँ आती है और प्रसन्न होकर जिसे वह सच्चे अन्तःकरण से आशीर्वाद देता है उसका मंगल होता है उसके आशीर्वाद विफल नहीं होते।

१3-वह दूसरों के मनोभावों को चेहरा देखते ही पहिचान लेता है। कोई व्यक्ति कितना ही छिपावे, उसके सामने वह भाव छिपते नहीं। वह किसी के भी गुण, दोषों, विचारों तथा आचरणों को पारदर्शी को तरह अपनी सूक्ष दृष्टि से देख सकता है।

१४-वह अपने विचारों को दूसरों के हृदय में प्रवेश कर सकता है। दूर रहने वाले मनुष्यों तक बिना तार व पत्र की सहायता के अपने विचार पहुँचा सकता है।

१५-जहाँ वह रहता है, उसके आस-पास का वातावरण बड़ा शांत एवं सात्विक रहता है। उसके पास बैठने वालों को जब तक वे समीप रहते है अपने अन्दर एक अद्‌भुत शान्ति, सात्विकता एवं पवित्रता अनुभव होती है।

१6-वह अपनी तपस्या, आयु या शक्ति का भाग किसी को दे सकता है और उसके द्वारा दूसरा बिना प्रयास या स्वल्प प्रयास में ही शक्ति प्राप्त कर अधिक लाभान्वित हो सकता है। ऐसे व्यक्ति दूसरों पर शक्तिपात भी कर सकते है।

१७-उसे स्वप्न में या जाग्रत अवस्था में या ध्यान को स्थिति में रंग बिरगे प्रकाश पुंज, दिव्य धनियाँ दिव्य प्रकाश एवं दिव्य वाणियाँ सुनाई पड़ती है। कोई अलौकिक शक्ति उसके साथ बार-बार छेड़खानी, खिलवाड़ करती हुई सो दिखाई पड़ती है। उसे अनेकों प्रकार के ऐसे दिव्य अनुभव होते है जो बिना अलौकिक शक्ति के प्रभाव से साधारणत: नहीं होते।

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