आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री की शक्ति और सिद्धि गायत्री की शक्ति और सिद्धिश्रीराम शर्मा आचार्य
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गायत्री की शक्ति और सिद्धि
गायत्री की असंख्य शक्तियाँ
संसार में जितना भी वैभव, उल्लास दिखाई पड़ता है या प्राप्त किया जाता है वह शक्ति के मूल्य पर ही मिलता है। जिसमें जितनी क्षमता होती है वह उतना हो वैभव उपार्जित कर लेता है। जीवन में शक्ति का इतना महत्वपूर्ण स्थान है कि उसके बिना कोई आनन्द नहीं उठाया जा सकता। यहाँ तक कि अनायास उपलब्ध हुए भोगों को भी नहीं भोगा जा सकता। इंद्रियों में शक्ति रहने तक ही विषय भोगों का सुह प्राप्त किय जा सकता है। ये किसी प्रकार अशक्त हो जीय तो आकर्षक से आकर्षक भोग भी उपेक्षणीय और धृणास्पद लगते है। नाड़ी संस्थान की क्षमता क्षीण हो जाय तो शरीर का सामान्य क्रिया कलाप भी ठोक तरह नहीं चल पाता। मानसिक शक्ति घट जाने पर मनुष्य की गणना विक्षिप्तों और उपहासास्पदों में होने लगती है। धनशक्ति न रहने पर दर-दर का भिखारी बनना पड़ता है। मित्रशक्ति न रहने पर एकाकी जीवन सर्वथा निरीह और निरर्थक होने लगता है। आत्मबल न होने पर प्रगति के पथ पर एक कदम भी यात्रा नहीं बढ़ती। जीवनोद्देश्य की पूर्ति आत्मबल से रहित व्यक्ति के लिए सर्वथा असंभव ही है।'
अतएव शक्ति का संपादन भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों क्षेत्रों में सफलता प्राप्त करने के लिए नितांत आवश्यक है। इसके साथ यह भी जान ही लेना चाहिए कि भौतिक जगत में पंचभूतों को प्रभावित करने तथा आध्यात्मिक विचारात्मक, भावात्मक और संकल्पात्मक जितनी भी शक्तियों है उन सब का मूल उद्गम एवं असीम भण्डार वह महत्तत्व ही है जिसे गायत्री के नाम से संबोधित किया जाता है।
भारतीय मनीषियों ने विभिन्न शक्तियों को देव नामों से संबोधित किया है। यह समस्त देव शक्तियों उस परस शक्ति की किरणें ही है उनका अस्तित्व इस महत्व के अन्तर्गत ही है। विद्यमान सभी देव शक्तियाँ उस महत्व के ही स्फुलिंग हैं जिसे अध्यात्म की भाषा में गायत्री कहकर पुकारते हैं। जैसे जलते हुए अग्नि कुण्ड -में चिनगारियाँ उछलती है, उसी प्रकार विश्व की महान शक्ति-सरिता गायत्री की लहरें उन देवशक्तियों के रूप में देखने में आती है। समूर्ण देवताओं की सम्मिलित शक्ति को गायत्री कहा जाय तो उचित होगा।
इतिहास पर दृष्टिपात करते है तो प्रतीत होगा कि हमारे महान् पूर्वजों के चरित्र को उज्ज्वलतम तथा विचारों को उत्कृष्ट रखने के अतिरिक्त अपने व्यक्तित्व को महानता के शिखर तक पहुंचाने के लिए उपासनात्मक सम्बल गायत्री महामन्त्र को ही पकड़ा था, और इसी सीढ़ी पर चढ़ते हुए वे देव पुरुषों में गिने जाने योग्य स्थिति प्राप्त कर सके थे। देवदूतों, अवतारों, गृहस्थियों, महिलाओं, साधु, ब्राह्मणों, सिद्ध पुरुषों का ही नहीं साधारण सद्गृहस्थों का उपास्य भी गायत्री ही रही हैं। और उस अवलम्बन के आधार पर न केवल आत्म-कल्याण का श्रेय साधन किया है वरन् भौतिक सुख-सम्पदाओं की सांसारिक आवश्यकताओं को भी आवश्यक मात्रा में उपलब्ध किया है।
वेद, उपनिषद से लेकर पुराण-शास्त्रों और रामायण, महाभारत आदि तक ऐसा कोई भी आगम-निगम ग्रंथ नहीं है, जिसमें गायत्री महाशक्ति की उाभिवन्दना न की गई हो।
ऋग्वेद में ६।६२।१०, सामवेद में २।८।१२, यजुर्वेद वा. सं. में ३।३५-।२२।९-३२-२६।३, अथर्ववेद में १९।१७१।१ में गायत्री की महिमा विस्तार पूर्वक गाई गई है।
ब्राह्मणग्रन्थों में गायत्री मन्त्र का उल्लेख अनेक स्थानों पर है। यथा- ऐतरेय ब्रह्मण ४।३२।२-५।५।६-१३।८-१९१८, कौशीतकी ब्राह्मण २३।३-२६।१०, गोपथ ब्राह्मण १।१३।३४, दैवत ब्राह्मण ३।२५, शतपथ ब्राह्यण २।३।४।३९- २३।६।२।९ - १४९।१४, तैत्तरीय सं. में १।५।६।४-४।१।११।१, मैत्रायणी सं. ४।१०।३- १४९।१४।
आरण्यकों में गायत्री का उल्लेख इन स्थानों पर है- तैत्तरीय आरण्यक १।१।२१० २३।१, वृहदारण्यक ६३१४१६,
उपनिषदों में इस महामन्त्र की चर्चा निम्न प्रकरणों में - नारायण उपनिषद् ६५-२, मैत्रेय उपनिषद् ६१७९५, जैमिनी उपनिषद् ४२५१?, श्वेताश्वर उपनिषद ४।१८ ।
सूत्र ग्रंथों में गायत्री का विवेचन निम्न प्रसंगों में आया है- आस्वालायन श्रौत सूत्र ७।६।६-९।१।१८, शांखायन श्रौत सूत्र २।४।२-२।७-५।५।२- १०।६।१०।१६, आपस्तम्ब श्रौत सूत्र ६२९।१, शंखायन गुह्य सूत्र राधापर, ७६२, ६१४१, कौशिकी सूत्र ९१।६, गुह्म सूत्र २।४।२१, आपस्तम्ब गृह्य सूत्र २।४।२१, बोधायन घ. शा. २।१० १७५, मान. ध. शा. २।७७, ऋग्विधान १।१२।५ मान. गृ. स. १।२।३-४।४।८-५।२
गायत्री का महत्व बताते हुए महर्षियों ने एक स्वर से गाया है-
गायर्त्री वेदमातरम्।
अर्थात्- गायत्री वेदों की माता-ज्ञान का आदि कारण है।
इस उक्ति में गायत्री को समस्त ज्ञान-विज्ञान को, शक्ति-साधनों को, व्यक्तित्व, समाज और संस्कृति को ऊंचा उठाने वाली कहा गया हैं इन सब की गंगोत्री बता दिया गया है। कहा जा चुका है कि संसार में कुछ भी प्राप्त करने का एकमेव मार्ग शक्ति साधन है और परम कारुणिक ईश्वरीय शक्ति ने इस निखिल ब्रह्माण्ड में अपनी अनन्त शक्तियाँ बिखेर रखी है। उनमें से जिनकी आवश्यकता होती है उन्हें मनुष्य अपने प्रबल पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त कर सकता है। विज्ञान द्वारा प्रकृति की अनेकों शक्तियों को मननुष्य ने अपने अधिकार में कर लिया है। विद्युत, ताप, प्रकाश चुम्बक, शब्द अणु-शक्ति जैसी प्रकति की कितनी ही अदृश्य और अविज्ञात शक्तियों को उसने ढूँढ़ा और करतलगत किया है, परब्रह्म की चेतनात्मक शक्तियाँ भी कितनी ही है उन्हें आत्मिक प्रयासों द्वारा करतलगत किया जा सकता है। मनुष्य का अपना चुम्बकत्व असाधारण है। वह उसी क्षमता के सहारे भौतिक जीवन में अनेकों को प्रभावित एवं आकर्षित करता है। इसी चुम्बकत्व शक्ति के सहारे वह व्यापक ब्रह्मचेतना के महासमुद्र में से उपयोगी चेतन तत्वों को आकर्षित एवं करतलगत कर सकता है।
इन सभी शक्तियों में सर्वप्रमुख और सर्वाधिक प्रभावशाली प्रज्ञाशक्ति है। प्रज्ञा की अभीष्ट मात्रा विद्यमान हो तो फिर कोई ऐसी कठिनाई शेष नहीं रह जाती जो नर को नारायण, पुरुष को पुरुषोत्तम बनाने से वंचित रख सके। श्रम और मनोयोग तो आत्मिक प्रगति में भी उतना ही लगाना पर्याप्त होता है जितना कि भौतिक समस्याऐं हल करने में आये दिन लगाना पड़ता है। महामानवों को अधिक कष्ट नहीं सहने पड़ते जितने कि सामान्य जीवन में आये दिन हर किसी को सहने पड़ते है। लोभ और मोह की पूर्ति में जितना पुरुषार्थ और साहस करना पड़ता है उससे कम में ही उत्कृष्ट आदर्शवादी जीवन का निर्धारण किया जा सकता है। मूल कठिनाई एक ही है। प्रज्ञा-प्रखरता की। वह प्राप्त हो सके तो समझना चाहिए कि जीवन को सच्चे अर्थो में सार्थक बनाने वाली, भक्तिसिद्धियों की उपलब्धियों से भर देने वाली सम्भावनाओं को प्राप्त कर सकने में अब कोई कठिनाई शेष नहीं रह गई।
गायत्री महाशक्ति को तत्व ज्ञानियों ने सर्वोपरि दिव्य क्षमता कहा है। उसका अत्यधिक महाल बताया है। गायत्री-प्रज्ञातत्व का ही दूसरा नाम है। इसे दूरदर्शी विवेकशीलता एवं आत्मोत्कर्ष के लिए अभीष्ट बल प्रदान करने वाली साहसिकता भी कह सकते हैं। आत्मिक प्रगति के लिए किये जाने वाले अभीष्ट पुरुषार्थो में गायत्री उपासना को अग्रणी माना गया है यह विशुद्ध रूप से प्रज्ञा को प्राप्त करने की वैज्ञानिक पद्धति है।
'प्रज्ञा' शक्ति मनुष्य को आत्मिक दृष्टि से सुविकसित एवं सुसम्पन्न बनाती है। वह अपने जीवन स्तर को ऊंचा उठाकर महामानवों के उच्च स्तर तक पहुंचता है और सामान्य जीवात्मा न रहकर महात्मा देवात्मा एवं परमात्मा स्तर की क्रमिक प्रगति करता चला जाता है। जहाँ आत्मिक सम्पन्नता होगी वहाँ उसकी अनुचरी भौतिक समृद्धि की भी कमी न पड़ेगी। यह बात अलग है कि आत्मिक क्षमताओं का धनी व्यक्ति उन्हें उद्धत प्रदर्शन में खर्च न करके किसी महान प्रयोजन में लगाने के लिए नियोजित करता रहे और साँसारिक दृष्टि से निर्धनों जैसी स्थिति में बना रहे। इसमें दूसरों को दरिद्रता प्रतीत हो सकती है, पर आत्मिक पूँजी का धनी अपने आप में संतुष्ट रहता है और अनुभव करता है कि वह सच्चे अर्थों में सुसम्पन्न है।
गायत्री उपासना उस 'प्रज्ञा' को आकर्षित करने और धारण करने की अद्भुत प्रक्रिया है जो परब्रह्म की विशिष्ट अनुकम्पा, दूरदर्शी- विवेकशीलता और सन्मार्ग अपना सकने की प्रखरता के रूप में साधक को प्राप्त होतीं है। इस अनुदान को पाकर वह स्वये धन्य बनता है और समूचे वातावरण में मलय पवन का संचार करता है। उसके व्यक्तित्व से सारा सम्पर्क- क्षेत्र प्रभावित होता है और सुखद सम्भावनाओं का प्रवाह चल पड़ता है।
सं उतत्व: पश्यअददर्शवाचमुतत्त: श्रुवन्नशृरजोत्येनाम्।
उतो त्वस्मैतम्बा विससे जायेपत्यवउशतीसुवासा:।।
हे भगवती वाक्। तुम्हारी कृपा से ही सब बोलते हैं। तुम्हारी कृपा से ही विचार करना सभव होता है। तुम्हें जानते हुए भी जान नहीं पाते। देखते हुए भी नहीं देख पाते। जिस पर तुम्हारी कृपा होती है वही तुम्हें समझ पाता है।
यह दृश्य जगतृ पदार्थमय है। इसमें जो सौन्दर्य, वैभव, उपभोग, सुख दिखाई पड़ता है वह ब्रह्म की अपरा प्रकृति का अनुदान है। यह सब गायत्रीमय है। सुविधा की दृष्टि से. इसे सावित्री नाम दे दिया गया है। ताकि पदार्थ क्षेत्र में उसके चमत्कारों को समझने में सुविधा रहे। गायत्री की स्थूलधारा सावित्री को जो जितनी मात्रा में धारण करता है वह भौतिक क्षेत्र में उतना ही समृद्ध सम्पन्न बनता जाता है। इस विश्व में बिखरी हुई शोभा सम्पन्नता को उसी महाशक्ति का इन्द्रियों से अनुभव किया जा सकने वाला स्वरूप कह सकते है।
गायत्री की चेतनात्मक धारा सद्बुद्धि के-ऋतम्भरा प्रज्ञा के रूप में काम करती है और जहाँ उसका निवास होता है वहाँ ब्राह्मणत्व एवं देवत्व का अनुदान बरसता चला जाता है साथ ही आत्मबल के साथ जुड़ी हुई दिव्य विभूतियाँ भी उस व्यक्ति में बढ़ती चली जाती हैं। इस तथ्य का उल्लेख शास्त्रों में इस प्रकार हुआ है-
भलोकस्वास्थ गायत्री कामधेनुर्मता बुधै:।
लोक आश्रायणे नामु सर्व मेवाधि गच्छति।।
''विद्वानों ने गायत्री को भूलोक की कामधेनु माना है। उसका आश्रय लेकर हम सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं।''
तेजोऽसि शुक्रमस्वमृतमसि धामनामासि।
प्रियं देवानामनामृष्टदेवयजनमसि
गायत्र्यस्येकपदी द्विपदी त्रिपदी चतुष्यद्यपदसि
नहि पद्यसे। ते नमस्ते तुरीयाय दर्शताय पदाय परो-
रजसेऽसा वदो मा प्रापत।
हे गायत्री। तुम तेज रूप हो, निर्मल प्रकाश रूप हो, अमृत एवं मोक्ष रूप हो, चित्तवृत्तियों का निरोध करने वाली हो, देवों की. प्रिय आराध्या हो, देव पूजन का सर्वोत्तम साध्य हो।
हे गायत्री। तुम इस विस्व ब्रह्माण्ड की स्वामिनी होने से एक पदी, वेद विद्या की आधारशिला होने से द्विपदी, समस्त प्राण-शक्ति का संचार करने से त्रिपदी और सूर्य-मण्डल के अन्तर्गत परम तेजस्वी पुरुषों की आत्मा होने से चतुषदी हो। रज से परे हे भगवती! श्रद्धालू साधक सदा तुम्हारी उपासना करते हैं।
मेधासि देवि विदिताखिलशास्त्रसारा:।
जिससे समस्त शास्त्रों के सार तत्व को जाना जाता है, वह मेधा शक्ति आप ही है।
विद्या त्वमेव ननु बुद्धिमतां नराणां
शक्तिस्लमेव किल शक्तिमतां सदैव।
त्त्वं र्कोर्तिकौतिकमकामलतूउष्टिरूपा
मुक्तिप्रदा विरतिरेव मनुष्यलोके।।
गायत्र्यसि प्रथमवेदकला त्वमेव
स्वाहा स्वधा भगवती सगुणाऽर्धमात्रा।।
आम्नाय एव विहितों निगमो भवत्या
संजीवनाय सततं सुरपूर्वजानाम्।।
आप ही बुद्धिमानों में बुद्धि, बलवानों में शकित है आप ही कमला, निर्मला, कीर्ति, कान्ति, तुष्टि और मुक्ति प्रदान करने वाली है।
वेद की प्रधान शक्ति गायत्री आप ही हैं। स्वाहा, सगुण, अर्धमाता आप ही को कहते है। देवता और प्राणियों का निस्तार आप ही करती आपने ही वेद और तन्त्र-अत्यम और निगम रचे हैं।
स्मृतिस्लं धृतिस्लं त्वमेवासि बुद्धि:
जरापुष्टितुष्टी धृति: कांतिशांती।
सुविधा सुलक्ष्मीगीत: कीर्तिमेधे
त्वमेवासि विश्वस्य बीजं पुराणम्।।
उषसीं चैव गायत्रीं, सावित्रीं च सरस्वतीम्।
वेदानां मातरम् पृथ्वीमजा चैव तु कौशिकीम्।
स्मृति वृत्ति, बुद्धि, जरा, पुष्टि, तुष्टि, हति, न्:चीन्तु शान्ति, विद्या, लक्ष्मी, गति, कीर्ति, मेद्या और विश्व बीज तुम्ही हो। उषसी, गायत्री, सावित्री, सरस्वती, पृथ्वी, अज, कौशिकी उसे वेदमाता कहते है।
स्वीस्वा श्रद्धार्लिमेधा मधुमति मधुरासंशया प्रज्ञक्रांति:।
विद्या बद्धिर्बलं श्रीरतुलधनवति सौम्यवाक्यावलीच।।
अर्थात्- वह स्वस्ति, श्रद्धा, अतिमेधा, मधुमतो, मधुरा, असंशया, प्रज्ञक्रान्ति, विद्या, बुद्धि, बल, श्री, अतुल धन वाली है और अत्यंत सौम्य वचनों वाली है।
मेधा प्रज्ञा प्रतिष्ठा मृदुमम्ग्रगिरा पूर्णविद्या प्रपर्णा।
प्राप्ताप्रत्यूषचिन्ता प्रणवपरवशा प्राणिनां नित्यकर्मी।।
अर्थात् - वह मेधा की प्रज्ञा प्रतिष्ठा-मृटु और मधुर वाणी वाली, पूर्ण से अपूर्णा प्राप्त, प्रत्यूष काल में चिन्ता और प्रणव के परवशा तथा प्राणियों का नित्य कर्म स्वरूपा है।
प्रज्ञा तत्व का प्रधान कार्य मनुष्य में सत्-असत् निरूपिणी बुद्धि का विलास परिष्कार करना है। इसके मिलने का प्रथम चमत्कार यह होता है कि मनुष्य वासना-तृष्णा की प्रवृत्तियों से ऊँचा उठकर मनुष्योचित कर्म, र्क्य को समझने और तदनुसार उत्कृष्टतावादी रीति-नीति अपनाने के लिए अन्तःप्रेरणा प्राप्त करता है और साहसपूर्वक आदर्शवादी जीवन जीने की दिशा में चल पड़ता है। ऐसे व्यक्ति स्वभावत: दुष्कर्मों से विरत हो जाते है और उनके क्रिया कलाप में से फिर अवांछनीयताएँ एक प्रकार से चली ही जाती है। इस परिवर्तन को धर्मस्थापना और अधर्म निवारण के रूप में देखा जा सकता है।
य एतां वेद गायत्री पुण्यौ सर्वगुणान्विताम्।
तत्वेन भरत श्रेष्ठ, स लोके न प्रणश्यति।।
हे राजन। जो इस सर्वगुण सम्पन्न परम पुनीत गायत्री के तत्व ज्ञान को समझकर उसकी उपासना करता है उसका संसार में कभी पतन नहीं होता।
मप्तिष्क को, सिर को गायत्री का केन्द्र संस्थान बताया गया है। इस प्रतिपादन का तात्पर्य गायत्री को दूसरे शब्दों में विवेक-युक्त बुद्धिमत्ता ही ठहराया गया है। सिर उसी का तो स्थान है। कहा भी है-
अस्वाश्च बुद्धेर्महत्त्वं स्वेतरसकलकार्यव्यापकत्वाद् महैश्वर्याच्च मन्तव्यम्।
यह बुद्धि ही संसार के समस्त कार्यो में प्रकाशित है। इसी की बड़ी सामर्थ्य है।
मस्तिष्क की तीक्ष्णता-चतुरता, सूझबूझ, स्मरण क्षमता, व्युत्पन्न मति को आमतौर से बुद्धिमत्ता समझा जाता है। पर अध्यात्म के चर्चा प्रसंग में दूरदर्शी विवेकशीलता को प्रज्ञा कहा जाता है। यही आध्यात्मिक बुद्धिमत्ता है। गायत्री महाशक्ति का अवतरण इसी प्रज्ञा शक्ति के रूप में होता है। साधक को प्रत्यक्ष उपहार यही मिलता है सक वह अपनी चिन्तन क्षमता को निकृष्ट प्रयोजनों से विरत करके उस तरह सोचना आरम्भ करता है, जिससे जीवनचर्या का सारा ढाँचा ही बदल जाय और मात्र आदर्शवादी गतिविधियों को कार्यान्त्रित करने को ही संभावना शेष रहे।
सदबुद्धि से प्रेरित सुव्यवस्थित क्रिया-पद्धति और उत्कृष्ट रीति-नीति अपनाने वाला निश्चित रुप से सर्वतोमुखी प्रगति के मार्ग पर बढ़ता चला जाता है। जिन ऐश्वर्यो को प्राप्त करने के लिए लोग लालायित रहते हैं वे प्रबल पुरुषार्थ के आधार पर ही पाये जा सकते है। देवता किसी को ऊपर फाड़कर अशर्फियों का घड़ा नहीं दे जाते। वे मात्र ऐसी सतेरणा उल्लसित करते है, जिससे चिन्तन और कर्तृत्व के दोनों ही क्षेत्र सद्ज्ञान एवं सत्कर्म से ओतप्रोत हो चलें। प्रबल पुरुषार्थ से तात्पर्य इसी क्षेत्र में आगे बढ़ने से है अन्यथा सामान्य पुरुषार्थ तो दुष्ट, दुर्गुणी भी करते हो हैं। जहाँ सद्बुद्धि की प्रेरणा से सत्कर्म परायणता का प्रबल पुरुषार्थ जगेगा, वहाँ किसी को किसी वस्तु का, किसी बात का, अभाव नहीं रहेगा।
गायर्त्र हि शिर:। शिरो गायत्र्य।
अर्कवतीष गायत्रीष शिरो भवति।
सूर्य के समान तेजस्वी गायत्री का स्थान शिर है।
बुद्धिबुद्धिमतामस्मि। (गीता (9।१०)
बुद्धिमानों में बुद्धि मैं ही हूँ।
अहं बुद्धिरह, श्रीश्च धृति: कीर्ति स्मृतिस्तथा।
श्रद्धा मेधा दया लज्जा क्षुधा तृष्णा तथा क्षमा।।
अर्थात- मैं ही बुद्धि, सम्पत्ति, धृति कीर्ति, स्मृति श्रद्धा, मेधा, दया, लज्जा प्यास, क्षमा हूँ।
न देवा दण्डमादाय रक्षन्ति पशुपालवह।
यं तु रक्षितुमिच्छन्ति बुद्धया सयोजयन्ति तम्।।
ग्वाला जिस प्रकार लाठी लेकर पशुओं की रक्षा करता है उस तरह देवता किसी की रक्षा नहीं करते। वे जिसकी रहा करना चाहते हैं उसकी बुद्धि को सन्मार्ग पर नियोजित कर देते हैं।
गायत्री का निवास शिरो भाग में बताया गया है। देवताओं का निवास ब्रह्मरन्ध्र में मस्तक में बताया गया है। सैकड़ों दिव्य शक्तियों का केन्द्र होने के कारण उस केन्द्र को शतदल कमल कहते है। यह संख्या हजारों, असंख्यों हैं। इसलिए उसे सहस्र दल क्रमल कहते है।
कलुष और कल्मषों का निवारण होने पर आत्मा के भीतर की दिव्य विशेषतायें सहज ही प्रकट होती और प्रखर बनती है। अंगारे पर चढ़ी राख की परत को हटा देने पर उसकी धूमिल आभा पुन: प्रकट होती है और उसका वर्चस्व सहज ही दृष्टिगोचर होने लगता है। यही वह स्थिति है जिसमें कई प्रकार की दिव्य विशेषताओं का आभास मिलता है। दिव्य जीवन स्वभावत: रहस्यमय सिद्धिंयों का भण्डार होता है। वह अन्त:-क्षेत्र में स्वर्ग और मुक्ति जैसा आनन्द उठाता है और अपने साथ-साथ अनेकों को धन्य बनाता है। शंख का वचन है-
अभीष्ट लोकमाप्नोति प्राप्नयास्कामभीप्सितम्।
गायत्री वेद जननी गायत्री पापनाशिनी।।
गायत्या परमं नास्ति दिवि चेह न पावनम।
हस्तत्राणप्रदा देवी पततां नरकार्णवे।।
तस्मात्तामध्यसेन्नित्यं ब्राह्मणो नियत: शुचि:।
गायत्रीजाम्यनिरतं हव्यकव्येषु भोजयेत्।।
तस्मिन्न तिष्ठते जपेनैव त संसिध्येद् नात्र संशय:।
कुर्यादन्यझँ वा कुर्यान्मैत्रो ब्राह्मण उच्चते।।
उपांशु स्वाच्छतगण: साहस्रो मानसस्मृत:।
नोच्चैर्जपं बुधः कुर्यात्साविन्यास्त विशेषत:।।
सायित्रीजाष्यनिरत: स्वर्गमाप्नोति मानव:।
गायत्रीजाष्यनिरतो मोक्षोपायं च विन्दति।।
तस्मात्सर्वप्रयलैन स्वात: प्रयतमानस:।
गायत्रीं तु जपेद्भक्या सर्वपापप्रणाशिनीम्।।
गायत्री का जप करने वाला अभीष्ट लोकों को प्राप्त होता है और उसको अभीप्सित कामनायें पूर्ण होती है।
गायत्री वेद जननी है, पापों का नाश करने वाली है। इससे बड़ी पवित्र करने वाली शक्ति न इस लोक में है न स्वर्ग लोक में। नरक रूपी समुद में गिरे हुए को वह हाथ का सहारा देकर उबारती है। अतएव गायत्री की नित्य उपासना करनी चाहिए और हवन करना चाहिए। गायत्री जप करने वाला कमलपत्रवत रहता है। इसके ऊपर पाप नहीं चढ़ सकता।
गायत्री जप से निःसन्देह समस्त सिद्धियाँ प्राप्त होती है। अन्य कोई साधना न भी करे तो भी ब्राह्मण गायत्री का आश्रय लेकर पार हो जाता है। इस उपासना से स्वर्ग भी मिलता है और मोक्ष भौं। अतएव नित्य नियमित रूप से गायत्री भक्ति पूर्वक जप साधना करनी चाहिए।
गायत्री मंत्र में जिस प्रज्ञा को धिय: शब्द से संबोधित किया है और अन्त:चेतना के कण-कण में ओत-प्रोत करने की घोषणा की है, उसी की शास्त्रकारों ने अन्यत्र ऋतम्भरा प्रज्ञा 'भूमा' आदि नामों से चर्चा की है। यह शब्द सामान्य व्यवहार बुद्धि के लिए प्रयुक्त नहीं होता। चतुरता, कुशलता एवं जानकारी की जो शिक्षा स्कूलों, कारखानों एवं बाजारों में सीखने को मिलती है, 'प्रज्ञा' उससे सर्वथा भिन्न है। जिस विद्या के आधार पर आत्म-बोध होता हैं-जीवन का महत्व, स्वरूप, लत्य एवं उपयोग विदित होता है, सतृ-असत का उचित-अनुचित का भेद कर सकने वाली नीर-क्षीर विवेचनी वृत्ति विकसित होती है, उसी को गायत्री कहा जा सकता है।
गायत्री उपासना के द्वारा प्रज्ञा शक्ति प्रप्त करने के साथ-साथ साधक को सभी विशिष्ट क्षमताएँ प्राप्त होती है, जिनका वर्णन ब्रह्मविद्या के अवगाहन तथा योग-तप आदि के साधना-विधान के साथ जुड़ा हुआ है। गायत्री उपासक की आत्मिक पूँजी निरन्तर बढ़ती चली जाती है और वह यदि धैर्य और साहस के साथ आत्म संशोधन करते हुए अपने मार्ग पर बढ़ता ही चले तो एक दिन नर से नारायण स्तर पर पहुँचा हुआ सिद्ध पुरुष बन कर रहता है। कहा भी है-
योगनिद्रा योगरूपा योगदात्री च योगिनाम्।
सिद्धिस्वरूपा सिद्धानां सिद्धिदा सिद्धियोगिनी।।
विद्याविद्यावतत्विन्थ बुद्धिर्बुद्धिमतसिताम्।
मेधास्मृतिस्वरूपाचप्रतिभाप्रतिभावताम्।।
वन्या पूज्या स्तुतात्वज्जब्रह्मादीनान्च सर्वदा।
ब्रह्मण्यरूपाविप्राणा तपस्याचतपस्विनाम्।।
आप योग निद्रा, योग रूपा, योग दात्री हैं जो कि योगियों को योग प्रदान किया करती है आप सिद्धों को सिद्धियाँ देने वाली है। आप सिद्धि स्वरूपा और सिद्धियों की योगिनी हैं।
आप विद्वानों की विद्या और बुद्धिमान सत्युरुषों की बुद्धि है। जो प्रतिभा वाले पुरुष है उनकी आप मेधास्मृति और प्रतिभा के स्वरूप वाली है।
आप ब्रह्मा आदि समस्त देवताओं द्वारा पूजित है। ब्राह्मणों में ब्राह्मणत्व और तपस्वियों में तप आप ही है।
वृहदारण्यक उपनिषद में गायत्री को ब्रह्म विद्या का, वेद विद्या का, परब्रह्म शक्ति का स्वरूप बताया गया है और कहा गया है कि इस महाशक्ति का आश्रय लेकर साधक ब्रह्म तेज का अधिकारी बनता है और वह सब कुछ प्राप्त कर लेता है जो इस संसार में पाने योग्य है।
संसार में जितने भी अभाव और कष्ट है, जितनी भी आधि व्याधियों है उन सब को शक्ति की न्यूनता का प्रतिफल ही समझा जाना चाहिए। आत्म शक्ति के अभाव में मनुष्य क्री विचारणा निकृष्ट बनती है और प्रतिभा के अभाव में सुख, साधनों से वंचित रहना पड़ता है अस्तु शक्ति संचय के निरन्तर प्रयत्न करने चाहिए। भौतिक समर्थता किस प्रकार प्राप्त होती है इसे सब जानते है पर आत्मिक तेजस्विता किस प्रकार पाई जा सकती है इसका मार्ग अध्यात्म विज्ञान मेँ बताया गया है। गायत्री साधना उसी के लिए की जाती है। शक्ति के अभाव में दुर्बलता और दुर्गति होने की चर्चा इस प्रकार है-
अनमानमिद राजन्क्रर्त्तव्य सर्वथा बधैः।
दृष्ट्रवा रोगयुतान्दीनान्क्षुधितान्निर्धनाञ्छठीन्।।
जनानातर्स्तिंथा मूर्खान्पीडितान्वैरिभि सदा।
दासानाज्ञाकराकृदान्विकलान्विह्मलानथ।।
अतप्तान्भोजने भोगे सदातनिजितेन्द्रियान्।
तूष्णीधिकानशक्ताश्च सदाधिपरिपीडितान्।।
हे राजन! तुम कहीं पर लोगों को रोगी, दीन दरिद्र, भूखे, प्यासे, शठ, आर्त, मूर्ख, पीड़ित? पराधीन, सुद्र, विकल, विह्वल, अतृप्त, असंतुष्ट:, इन्द्रियों के दास, अशक्त और मनोविकारों से पीड़ित देखो तो समझना इन्होंने शक्ति का महत्व नहीं समझा और उसकी उपेक्षा- अवहेलना की है।
यों गायत्री उपासना से मिलने वाले भौतिक आध्यात्मिक लाभ अगणित प्रकार के है। उनमें ऋतम्भरा प्रज्ञा की प्राप्ति, सद्बुद्धि का विकास ही अपने आप में इतना बड़ा लाभ है कि अकेले उस आधार पर ही गायत्री को सर्वश्रेष्ठ मन्त्र कहा जा सकता है। प्राचीन महापुरुषों के अनुसार भौ यह सत्य है। गायत्री का जप विविध फलों का प्रदाता बताया गया है।
यों गायत्री बिल्कुल छोटा सा मन्त्र है। इसके तीन पाद या चरण होने से इसे त्रिपदा भी कहा गया है। गायत्री मन का सीधा सादा सा अर्थ है भगवान सविता के सर्व श्रेष्ठ तेज का हम ध्यान करते है। वह हमारी बुद्धि को सद् प्रेरणा दें। इस मन्त्र के अन्तिम चरण में (धियो यो न: प्रचोदयात) वृद्धि की माँग है। सद्बुद्धि से बढ़कर कौन सी वस्तु हो सकती है।
मानव जीवन को महत्ता बुद्धि के उत्कर्ष में है। उस बुद्धि को यदि भगवान सूर्य जैसे तेजस्वी तत्व से प्रेरणा मिल जाय, तो उससे सब प्रकार की साधन सम्पत्ति प्राप्त कर सकते है। केवल सांसारिक ही नहीं किन्तु आध्यात्मिक उन्नति भी बुद्धि को योग्य प्रकार से प्रेरणा मिलने पर ही प्राप्त होती है। स्वर्ग, आत्मा, ईस्वर, पुनर्जन्म को न मानने वाले नास्तिक बुद्धि के आधार पर अपना विवेचन करते हैं, अर्थात् बुद्धि का आदर उनको भी अनिवार्य है। ऐसी सर्वमान्य तथा सबको माननीय 'बुद्धि' को प्रेरणा मिले, इस प्रकार की प्रार्थना का प्रतिवाद नास्तिक भी नहीं कर सकते। स्वर्ग, मोक्षादि गूढू वस्तुओं में विश्वास न होने के कारण नास्तिक उनका खण्डन कर सकते है। स्वर्ग, मोक्षादि का हर एक के अनुभव में आना भी सम्भव नहीं है। मानो यही संकट देख कर कृषि ने गायत्री मन्त्र में 'बुद्धि' की ऐसी माँग रख दी है, जिसका विरोध या प्रतिवाद कोई भी नहीं कर सकता।
इस मन्त्र में 'धियः' अर्थात् बुद्धि का प्रयोग बहुवचन में किया है। 'अनेक प्रकार की बुद्धि' ऐसा अर्थ उससे निकलता है। हिन्दू संस्कृति केवल आध्यात्मिकता का विचार करती है ऐसा मानकर व्यक्ति आधिभौतिक की उपेक्षा करना अपना आदर्श बतलाते है। परन्तु ''धिय:'' शब्द के प्रयोग से उसका खण्डन हो जाता है। केवल आध्यात्मिक ही नहीं किन्तु भौतिक, आर्थिक राजकीय, सब प्रकार की बुद्धि बढ़ जाय, यह गायत्री मन्त्र की प्रार्थना है। भूत विद्या, मनुष्य विद्या, वाकोवाक्य, राशि क्षात्र विद्या, नक्षत्र विद्या, जन विद्या इत्यादि नाम उपनिषदों में पाये जाते है। अर्थात् अनेक प्रकार कीं बुद्धि-यह अर्थ 'धिय:' से लिया जाय तो उसमें अनौचित्य का कुछ भी सदेह नहीं होना चाहिए।
नास्तिक-युग में बुद्धि की श्रेष्ठता जिस प्रकार निर्विवाद है उसी प्रकार सूर्य देवता की श्रेष्ठता भी त्रिकाल अबाधित है। सूर्य को चाहे कोई देवता न माने परन्तु उसका जागतिक जीवन के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध मानना सबको अनिवार्य है। दो दिन बादल घिरे रहें और सूर्य का दर्शन न हो तो वायु दूषित बन जाती है, बीमारियों फैलतीं है। अतएव सूर्य का महत्व सुस्पष्ट है। नास्तिक भी इससे इंकार नहीं कर सकता। गायत्री मन्त्र का प्रभाव निरपवाद होने से इस विषय में भी शंका होना असंभव है। आदमी जिस-जिस चीज का ध्यान करता है उस प्रकार उसकी वृत्ति बन जाती है यह प्राकृतिक सिद्धान्त है। 'सुर्य भगवान के भास्वर तेज का हम ध्यान करते है, ऐसा गायत्री मन्त्र के प्रथम चरण का अर्थ है। ऐसे तेजस्वी पदार्थ का ध्यान करने वाले स्वयं तेजस्वी बनेगे यह मानस शास्त्र अथवा मनोविज्ञान द्वारा सत्य सिद्ध हो चुका है। किसी से न दबते हुए तेजस्वी रहने की किसकी इच्छा न होगी?
प्रब्रवाम शरद: शतम्। अदीना: स्याम शरद: शतम्।
''सौ वर्ष तक अधिकार पूर्ण वाणी से बोलते रहेगे। सौ वर्ष तक हम दैन्य रहित जीवन बितायेंगे।'' इस प्रकार की आकाँक्षायें वेद में (वाजसनेय संहिता 36-२४) भी स्पष्ट है। सूर्य तेजस्विता का प्रतीक है। वही गायत्री मन्त्र का देवता है। इस सराहनीय सर्वोच्च देवता का ध्यान मानवीय उन्नति का साथन मानने में किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। गायत्री मंत्र का देवता इस प्रकार सबके लिए सराहनीय है।
आजकल गायत्री मन्त्र का पठन गुप्तता से किया जाना आवश्यक बतलाया जाता है। एकान्त में इस मन्त्र का जप अकेले-दुकेले किया करते है। परन्तु ऊपर दिये हुए मन्त्रार्थ पर ध्यान देने से सत्य बात कुछ और ही मालूम पड़ती है। इस मन्त्र में ''धीमहि" (हम ध्यान करते हैं) और ''न:'' (हमारी) ये बहुबचन युक्त प्रयोग इस मन्त्र की सामुदायिकता पर प्रकाश डालते हैं। वास्तव में देखा जाय तो गायत्री मन्त्र सामुदायिक प्रार्थना मन्त्र है। अकेले-दुकेले में भी इस मन्त्र का जप हानि कारक नहीं, किन्तु उस समय में भी जपकर्ता को चाहिए कि वह अपने को व्यक्तिगत रूप में न मानकर समाज का एक घटक समझकर जप करे। इस प्रकार गायत्री जप जैसे बने वैसे करने की शास्त्राज्ञा है-
यथा कथचिज्जप्तैषा देवी परमपावनी।
सर्वकामप्रदाप्रोक्ता जप्ता विधिना त पनर्प।।
इस श्लोक में मार्कण्डेय ऋषि ने वज्र राजा से निश्चय-पूर्वक कहा है कि 'गायत्री जप जैसे बने वैसे करने से भी मनुष्य को पवित्र कर उसकी सब कामनाएँ सफल बना देता है, फिर वैध रीति से जपानुष्ठान करने वाले के विषय में कहना ही क्या?'' अर्थात् जीवन व्यवसाय में फँसे हुए आदमी को भी इस मन्त्र से लाभ उठाना सहज है। बड़ा विधि-विधान और आडम्बर करने पर ही गायत्री का फल मिलता हो और जैसे तैसे जप कर लेने से पाप होता हो, सर्व साधारण में फैली हुई यह धारणा गलत है। शिक्षित अशिक्षित सभी के लिए समान रूप से फलप्रद है।
इस युग की सबसे बड़ी आवश्यकता है बुद्धि विवेक। गायत्री मन्त्र इसी सामर्थ्य को बढ़ाने वाला होने के कारण सभी स्तर के व्यक्तियों के लिए उपयोगी और आवश्यक है। पूर्वोक्त श्लोक में गायत्री मन्त्र की बुद्धि विवेकदायी क्षमता को ध्यान में रखते हुए ही शास्त्रकार ने हर वर्ग के हर स्तर के व्यक्तियों को गायत्री मन्त्र का जप करने का निर्देश दिया है।
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