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आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री की शक्ति और सिद्धि

गायत्री की शक्ति और सिद्धि

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15482
आईएसबीएन :00000

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गायत्री की शक्ति और सिद्धि

साधकों के स्वप्न निरर्थक नहीं जाते


इसका कारण यह है कि गायत्री साधक में उसकी साधना से अद्‌भुत परिवर्तन आते है। उसकी सूस शक्तियों का विकास होता है और उसके आन्तरिक क्षेत्र में आध्यात्मिकता एवं सात्विकता का प्रमुख स्थान बन जाता है। जाग्रत अवस्था की भांति स्वप्नावस्था में भी उसकी क्रियाशीलता सारगर्भित होती है और उसे सार्थक स्वप्न भी दिखाई देने लगते है।

गायत्री साधकों को साधारण व्यक्तियों की तरह निरर्थक स्वप्न प्राय: बहुत कम आते है। उनकी मनोभूमि ऐसी अव्यवस्थित नहीं होती, जिसमें चाहे जिस प्रकार के उल्टे सीधे स्वप्नों का उद्‌भव होता हो। जहाँ व्यवस्था स्थापित हो चुकी है वहाँ की क्रियायें भी व्यवस्थित होती है। गायत्री साधकों के स्वप्न को हम बहुत समय से ध्यानपूर्वक सुनते रहे है और उनके मूरल कारणों पर विचार करते रहे है। तदनुसार हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ा है कि इन लोगों के स्वप्न निरर्थक बहुत कम होते है, उनमें सार्थकता की मात्रा ही अधिक रहती है।

निरर्थक स्वप्न अत्यन्त अपूर्ण होते है। उनमें किसी बात को छोटी सी झाँकी होती है, फिर तुरन्त उनका तारतम्य बिगड़ जाता है। दैनिक व्यवहार की साधारण क्रियाओं की सामान्य स्मृति मस्तिष्क में पुनः-पुन: जाग्रत होती रहती है और भोजन, लान, वायु-सेवन जैसी साधारण बातों की दैनिक स्मृति के अस्त-व्यस्त स्वप्न दिखाई देते है, ऐसे स्वप्नों को निरर्थक कहा जा सकता है। सार्थक स्वप्न कुछ विशेषता लिए हुए होते है, उनमें कोई विचित्रता, नवीन घटनाक्रम एवं प्रभावोत्पादक क्षमता होती है। उन्हें देखकर मन में भय, शोक, चिन्ता, क्रोध, हर्ष, विषाद, लोभ, मोह आदि के भाव उत्पन्न होते है। निद्रा त्याग देने पर भी उनकी छाप मन पर बनी रहती है और चित्त में बार-बार यह जानने की जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि इस स्वप्न का अर्थ क्या है?

साधकों के सार्थक स्वप्नों को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है - (१) पूर्वसञ्चित कुसंस्कारों का निष्कासन, (२) श्रेष्ठ तत्वों की स्थापना का प्रकटीकरण, (३) किसी भी भविष्य सम्भावना का पूर्वाभास, (४) दिव्य दर्शन। इन चार श्रेणियों के अन्तर्गत विविध प्रकार के सभी सार्थक स्वप्न आ जाते है।

(१) कुसंस्कसरों को नड करने वाले स्वप्न-पूर्व सञ्चित कुसंस्कारों का निष्कासन इसलिए होता है कि गायत्री-साधना द्वारा आध्यात्मिक नये तत्वों की वृद्धि साधक के अन्तःकरण में हो जाती है। जहाँ एक वस्तु रखी जाती है वहाँ से दूसरे को हटाना पड़ता है। गिलास में पानी भरा जाय तो उसमें पहले से भरी हुई हवा को हटाना पड़ेगा। रेल के डिब्बे में नये मुसाफिरों को स्थान मिलने के लिए यह आवश्यक है कि उसमें बैठे हुए पुराने मुसाफिर उतरें। दिन का प्रकाश आने पर अन्धकार को भागना पड़ता है। इसी प्रकार गायत्री साधक के अन्तर्जगत में जिन दिव्य तत्वों की वृद्धि होती है उन संस्कारों के लिए स्थान नियुक्त होने से पुर्व नियुक्त कुसंस्कारों का निष्कासन स्वाभाविक है। यह निष्कासन जाग्रत अवस्था में भी होता रहता है और स्वप्न अवस्था में भी। विज्ञान के सिद्धान्तानुसार विस्फोटक ऊष्ण वीर्य के पदार्थ जब स्थान-च्युत होते हैं तो वे एक झटका मारते हैं। बदूक जब चलाई जाती है, तो वह पीछे की ओर एक जोरदार झटका मारती है। बारूद जब जलती है तो एक धड़ाके की आवाज करती है, दीपक बुझते समय एक बार जोर से लौ उठाता है। इसी प्रकार कुसंस्कार भी मानस लोक से प्रयाण करते समय मस्तिष्क तन्तुओं पर आघात करते है और उन आघातों की प्रतिक्रिया स्वरूप जो विक्षोभ उत्पन्न होता है उसे स्वप्नावस्था में भयंकर अस्वाभाविक अनिष्ट एवं उपद्रव के रूप में देखा जा सकता है।

भयानक हिंसक पशु, सर्प, सिंह, व्याघु पिशाच, चोर, डाकू आदि का आक्रमण होना, सुनसान, एकान्त, डरावना जंगल दिखाई देना, किसी प्रियजन की मृत्यु, अग्निकाण्ड, बाढ़, भूकम्प, युद्ध आदि के भयानक दृश्य दीखना, अपहरण, अन्याय, शोषण, विश्वासघात द्वारा अपना शिकार होना, कोई विपत्ति आना, अनिष्ट की आशंका से चित्त घबराना आदि भयंकर दिल घबड़ा देने वाले ऐसे स्वप्न जिनके कारण मन में चिन्ता, बेचैनी, पीड़ा, भय, क्रोध, द्वेष, शोक, कायरता, ग्लानि, घृणा आदि- के भाव उत्पन्न होते है,

वे पूर्व संचित इन्हीं कुसंस्कारों की अन्तिम झाँकी का प्रमाण होते है। यह स्वप्न बताते है कि जन्म-जन्मान्तरों की संचित यह कुप्रवृत्तियाँ अब अपना अन्तिम दर्शन और अभिवादन करती हुई विदा ले रही है और मन ने स्वप्न में इस परिवर्तन को ध्यानपूर्वक देखने के साथ-साथ एक अलंकारिक कथा के रूरा में किसी श्रखलावद्ध घटना का चित्र गढ डाला है और उसे स्वप्न रुप में देख कर जी बहलाया है।

कामवासना अन्य सब मनोवृत्तियों से अधिक प्रबल लै। काम भोग की अनियन्त्रित इच्छाएँ मन मेँ उठती है, उन सबका सफल होना असंभव है। इसलिए वे परिस्थितियों द्वारा कुचली जाती रहती हैं और मन मसोसकर वे अतृप्त, असंतुष्ट प्रेमिका की भांति अर्न्तमन के कोपभवन में खटपाटी लेकर पड़ी रहती है। यह अतृप्ति चुपचाप नहीं पड़ी रहती, वरन् जब अवसर पाती है, निद्रावस्था में अपने मनसूबों को चिरतार्थ करने के लिए, मन के लड्‌डू खाने के लिए, मन चीते स्वप्नों का अभिनय रचाती है। दिन में घर के लोगों के जाग्रत रहने के कारण चूहे डरते है और अपने बिलों में बैठे रहते हैं, पर रात्रि को जब घर के आदमी सो जाते है तो चूहे अपने बिलों से निकल कर निर्भयता पूर्वक उछल-कूद मचाते है। कुचली हुई काम वासना भी यही करती है और '' खयाली पुलाव खाकर किसी प्रकार अपनी सुधा को बुझाती है। स्वप्नत्वस्था में सुन्दर-सुन्दर वस्तुओं का देखना, उनसे खेलना, प्यार करना, रूपवती स्त्रियों को देखना, उनकी निकटता में आना, मनोहर नदी, तालाब, उपवन, पुष्प, फल, नृत्य, गति, वाद्य, उत्सव, समारोह जैसे दृश्यों को देखकर कुचली हुई वासनायें किसी प्रकार अपने को तृपा करती हैं। धन की, पद की, महत्व प्राप्ति की अतृप्त आकाँक्षाएँ भी .अपनी तृप्ति के झूठे अभिनय रचा करती है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि अपनी अतृप्ति के वप्रॅ को, घाव को, पीड़ा को और स्पष्ट रूप से अनुभव करने के लिए ऐसे दृश्य दिखाई देते हैं मानो अतृप्ति और भी बढ गई। जो थोड़ा बहुत सुख था वह भी हाथ से चला गया अथवा मनोवांछा पूरी होते-होते किसी आकस्मिक बाधा के कारण विप्न हो गया।

उनतृप्तियों को किसी अंश में या किसी अन्य प्रकार से तृप्त करने के लिए एवं अतृप्ति को और भी उग्र रूप से अनुभव करने के लिए उपरोक्त प्रकार के स्वप्न आया करते है। यह दबी हुई वृत्तियों गायत्री की साधना के कारण उखड़कर अपना स्थान खाली करती है। इसलिए परिवर्तन काल में वे अपने गुप्त रूप को प्रकट करती हुई बिदा होती हैं। तदनुसार साधनाकाल में प्राय: इस प्रकार के स्वप्न आते रहते हैं। किसी मृत प्रेमी का दर्शन, सुन्दर दृश्यों का अवलोकन, स्त्रियों से मिलना-जुलना, मनोवाँछाओं का पूरा होना, इच्छित वस्तुओं का और भी अधिक अभाव अनुभव होना आदि की घटनाओं के स्वप्न भी दिखाई देते है। इनका अर्थ है कि अनेकों दबी हुई अतृप्त तृष्णाएं, कामनाएं, वासनाएं, धीरे-धीरे करके अपनीं बिदाई की तैयारी कर रही हैं। आत्मिक तत्वों की वृद्धि के कारण ऐसा होना स्वभाविक भी है।

दूसरी श्रेणी के स्वप्न वे होते हैं-जिनसे इस बात का पता चलता है कि अपने अन्दर सात्विकता की मात्रा में लगातार अभिवृद्धि हो रही है। सतोगुणी कार्यों को स्वयं करने या अन्य के द्वारा होते हुए स्वप्न ऐसा ही परिचय देते है पीड़ितों की सेवा, अभावग्रस्तों की सहायता, दान, जप, यज्ञ, उपवास तीर्थ, मन्दिर, पूजा, धार्मिक कर्म-काण्ड, कथा, कीर्तन, प्रवचन माता-पिता, साधु, महात्मा, नेता विद्वान सज्जनों की समीपता, स्वाध्याय, अध्ययन आकाशवाणी, देवी-देवताओं के दर्शन, दिव्य प्रकाश आदि आध्यात्मिक सतोगुणी, शुभ स्वप्नों में मन अपने आप अन्दर आये हुए शुभ तत्वों को देखता है और उन दृश्यों से शान्ति लाभ करता है।

तीसरे प्रकार के स्वण-भविष्य में घटित होने वाली किन्हीं घटनाओं की ओर संकेत करते हैं। प्रातःकाल सूर्योदय से एक दो घण्टे पूर्व देखे हुए स्वप्नों में सच्चाई का बहुत अंश होता है। ब्रह्म-मुहूर्त में एक तो साधक का मस्तिष्क स्वस्थ होता है दूसरे प्रकृति के अन्तराल का कोलाहल भी रात्रि की स्तव्यता के कारण बहुत अंशों में शांत हो जाता है। उस समय सह तत्त्व की प्रधानता के कारण वातावरण स्वच्छ रहता है और सूक्ष्म जगत में विचरण करते हुए भविष्य का, भावी विचारों का बहुत कुछ आभास मिलने लगता है।

कभी-कभी अस्पष्ट और उलझे हुए ऐसे दृश्य दिखाई देते है जिनसे मालूम होता है कि ये भविष्य में होने वाले किसी लाभ या हानि के संकेत हैं पर स्पष्ट रूप से यह विदित नहीं हो पाता है कि इनका वास्तविक तात्पर्य क्या है। ऐसे उलझन भरे स्वप्नों के कारण होते है- (१) भविष्य का विधान प्रारम्भिक कर्मों से बनता है पर वर्तमान कर्मों से उस विधान में काफी हेर-फेर हो सकता है। कोई पूर्व निर्धारित विधि का विधान, साधक के वर्तमान कमी के कारण कुछ परिवर्तित हो जाता है, तो उसका निश्चित और स्पष्ट रूप बिगड़कर अनिश्चित और अस्पष्ट हो जाता है। तदनुसार स्वप्न में उलझी हुई बात दिखाई पड़ती है, (२) कुछ भावी विधान ऐसे हैं जो नये कमी के, नई परिस्थितियों के अनुसार बनते और परिवर्तित होते रहते हैं। तेजी, मंदा, सट्‌टा, लाटरी आदि के बारे में जब तक भविष्य का भ्रूण ही तैयार हो पाता है, पूर्णरूप से उसकी स्पष्टता नहीं हो पाती, तब तक उसका पूर्वाभास साधक को स्वप्न में मिले तो वह एकांगी एवं अपूर्ण होता है, (३) अपनेपन की सीमा जितने क्षेत्र में होती है वह व्यक्ति के अहम् की एक आध्यात्मिक इकाई होती है। इतने विस्तृत क्षेत्र का भविष्य उसका अपना भविष्य बन जाता है। भविष्य सूचक स्वप्न इस अहम् के सीमा क्षेत्र तक आपको दिखाई पड़ सकते है, इसलिए ऐसा भी हो जाता है कि जो संदेश स्वप्न में मिला है, वह अपनेपन की मर्यादा में आने वाले किसी कुटुम्बी, पड़ौसी, रिश्तेदार या मित्र के लिए हो, (४) साधक की मनोभूमि पूर्णरूप से निर्मल न हो पाई हो, तो आकाश के सूक्ष्म अन्तराल में बहते हुए तथ्य अधूरे या रूपान्तिरित होकर दिखाई पड़ते हैं, जैसे कोई व्यक्ति अपने घर से हम से मिलने के लिए रवाना हो चुका हो तो उस व्यक्ति के स्थान पर किसी अन्य व्यक्ति के आने का आभास मिले। होता यह है कि साधक की दिव्य दृष्टि दोष पूर्ण होने पर दूर चलने वाले मनुष्य पुतले से दिखाई पड़ते है पर उनकी शकल नहीं पहिचानी जाती। अब इस धुँधले, अस्पष्ट आभास के ऊपर हमारी स्वप्न माया एक कल्पित आवरण चढ़ा कर कोई झूँठ-मूठ की आकृति जोड़ देती है और रस्सी को सर्प बना देती है। ऐसे स्वप्न आधे सत्य आधे असत्य होते है। परन्तु जैसे-जैसे साधक की मनोभूमि अधिक निर्मल होती जाती है, वैसे ही उनकी दिव्य दृष्टि स्वच्छ होती जाती है और उसके स्वप्न अधिक सार्थकता युक्त होने लगते हैं।

स्वप्न केवल रात्रि में या निद्राग्रस्त होने पर नहीं आते वे जाग्रत दशा में भी आते है। ध्यान को एक प्रकार का जाग्रत स्वप्न ही समझना चाहिए। कल्पना के घोड़े पर चढ़कर हम सुदूर स्थानों के विविध, सम्भव और असम्भव दृष्य देखा करते है, यह एक प्रकार के स्वप्न ही हैं। निद्राग्रस्त स्वप्नों में अन्तर्मन की क्रियायें प्रधान होती हैं जाग्रत स्वप्नों में बहिर्मन की क्रियायें प्रमुख रूप से काम करती है। इतना अन्तर तो अवश्य है पर इसके अतिरिक्त निद्रा स्वप्न और जाग्रत स्वप्नों की प्रणाली एक ही है। जाग्रत अवस्था में साधक के मनोलोक में नाना प्रकार की विचारधाराएँ और कल्पनाएँ घुड़दौड़ मचाती है। यह भी तीन प्रकार की होती है। पूर्व कुसंसकारों के निष्कासन, श्रेष्ठ तत्वों के प्रकटीकरण तथा भविष्य के पूर्वाभास की सूचना देने के लिए मस्तिष्क में विविध प्रकार के विचार भाव एवं कल्पना चित्र आते है। जो फल निद्रित स्वप्नों का होता है, वही जाग्रत स्वप्नों का भी होता है।

कभी-कभी जाग्रत अवस्था में भी कोई सूस चमत्कारी, दैवी अलौकिक दृश्य किसी-किसी को दिखाई दे जाते है। इष्टदेव का किसी-किसी को चर्म चक्षुओं से दर्शन होता है कोई भूत-प्रेतों को प्रत्यक्ष देखते है, किन्हीं-किन्हीं को दूसरों के चेहरे पर तेजोवलय और मनोगत भावों का आकार दिखाई देता है, जिसके आधार पर वह दूसरों की आन्तरिक स्थिति को पहिचान लेते हैं। रोगों का अच्छा होना न होना, संघर्ष में हारना-जीतना, चोरी में गई वस्तु आगामी लाभ-हानि, विपत्ति-सम्पत्ति आदि के बारे में कई मनुष्यों के अन्तःकरण में एक प्रकार की आकाशवाणी सी होती है और वह कई बार इतनी सच्ची निकलती है कि आश्चर्य से दंग रह जाना पड़ता है।

यह चिन्ह तो प्रत्यक्ष प्रकट होते ही है। अप्रत्यक्ष रूप से अणिमा, लघिमा महिमा आदि योग शास्त्रों में वर्णित अन्य सिद्धियों का भी आभास मिलता है। वह कभी-कभी ऐसे कार्य कर सकने में समर्थ होता है जो बड़े ही अद्‌भुत अलौकिक एवम् आश्चर्यजनक होते हैं

जिस समय सिद्धियों का उत्पादन एवं विकास हो रहा हो, वह समय बड़ा ही नाजुक और बड़ी ही सावधानी का है। जब किशोर अवस्था का अन्त और नवयौवन का आरम्भ होता है उस समय वीर्य का शरीर में नवीन उद्‌भव होता है। इस उद्‌भव काल में मन बड़ा उत्साहित, काम-क्रीड़ा का इच्छुक और चंचल रहता है। यदि इस मनोदशा पर नियन्त्रण न किया जाय तो कच्चे वीर्य का अपव्यय होने लगता है और वह नवयुवक थोड़े ही समय में शक्तिहीन, वीर्यहीन, यौवनहीन होकर सदा के लिए निकम्मा बन जाता है। साधना से भी सिद्धि का प्रारम्भ ऐसी ही अवस्था है, जब कि साधक अपने अन्दर एक नवीन आत्मिक चेतना अनुभव करता है और उत्साहित होकर प्रदर्शन द्वारा दूसरों पर अपनी महत्ता की छाप बैठाना चाहता है। यह क्रम यदि चल पड़े तो यह कच्चा वीर्य प्रारम्भिक सिद्धितत्व स्वल्प काल में हो अपव्यय होकर समाप्त हो जाता है और साधक को सदा के लिए छूँछ एवं निकम्मा हो जाना पड़ता है।

संसार में जो कार्यक्रम चल रहा है, वह कर्मफल के आधार पर चल रहा है। ईश्वरीय सुनिश्चित नियमों के आधार पर कर्मबन्धन से बंधे हुए प्राणी अपना-अपना जीवन क्रम चलाते हैं। प्राणियों की सेवा का सच्चा मार्ग यह है कि उन्हें सत्कर्म में प्रवृत्त किया जाय, आपत्तियों को सहने का साहस पैदा किया जाय। यह आत्मिक सहायता हुई। तात्कालिक कठिनाइयों को हल करने वाली भौतिक सहायता देनी चाहिए। आत्मशक्ति खर्च करके कर्तव्यहीन व्यक्तियों को सम्पन्न बनाया जाय तो वह उनको और अधिक निकम्मा बनाना होगा। इसीलिए दूसरों की सेवा के लिए सद्‌गुण विवेकदान ही सर्वश्रेष्ठ है। दान देना हो तो धन आदि जो हो, उसका दान करना चाहिए। दूसरों का वैभव बढ़ाने में आत्मशक्ति का सीधा प्रत्यावर्तन करना अपनी शक्तियों को समाप्त करना है। दूसरों को आश्चर्य में डालना या उन पर अपनी अलौकिक सिद्धि प्रकट करने जैसी तुच्छ बातों में कष्टसाध्य आत्मबल को व्यय करना ऐसा ही है जैसे कोई मूर्ख होली खेलने का कौतुक करने के लिए अपना रक्त निकालकर उसे उलीचे! यह मूर्खता कीं हद है। अध्यात्म वादी दूरदर्शी होते है वे संसार मान-बढ़ाई की रत्तीभर परवाह नहीँ करते।

पर आजकल समाज में इसके विपरीत धारा ही बहती दिखाई पड़ती है। लोगों ने ईश्वर-उपासना, पूजा-पाठ, जप-तप को भी साँसारिक प्रलोभनों का ही साधन बना लिया है। वे जुआ लाटरी आदि में सफलता प्राप्त करने के लिए भजन करते है और देवताओं की मनौती करते है उन्हें प्रसाद चढ़ाते है! उनका उद्देश्य किसी प्रकार धन प्राप्त करना है, चाहे वह चोरी-ठगी से मिले और चाहे जप-तप भजन से। ऐसे लोगों को प्रथम तो उपासना जनित शक्ति ही प्राप्त नहीं होती और यदि किसी कारणवश थोड़ी बहुत सफलता प्राप्त हो गई तो यह उनसे ही ऐसा फूल जाते है और तरह-तरह के अनुचित कार्यों में उसका इस प्रकार अपव्यय करने लगते हैं कि जो कुछ कमाई होती है वह शीघ्र ही नष्ट हो जाती है और आगे के लिए रास्ता बन्द हो जाता है। देवी शक्तियाँ कभी किसी अयोग्य व्यक्ति को ऐसी सामर्थ्य प्रदान नहीं कर सकतीं जिससे वह दूसरों का अनिष्ट करने लग जाय।

तान्त्रिकक पद्धति से किसी का मारण मोहन, उच्चाटन, वशीकरण करना, किसी के गुप्त आचरण या मनोभावों को जानकर उनको प्रकट कर देना और उसकी प्रतिष्ठा को घटाना आदि कार्य आध्यात्मिक साधकों के लिए सर्वथा निषिद्ध है। कोई ऐसा अद्‌भुत कार्य करके दिखाना जिससे लोग यह समझ लें कि यह सिद्ध पुरूष है, गायत्री उपासक के लिए कड़ाई के साथ वर्जित है। यदि साधक चमत्कारों के चक्कर में पड़े। तो लोगों का क्षणिक कौतूहल अपने प्रति उनका आकर्षण थोड़े समय के लिए भले ही बढ़ा ले पर वस्तुत: अपनी. और दूसरों की इस प्रकार भारी कुसेवा होने लगेगी।

अत: गायत्री साधना करने वालों को उन अनेक प्रकार की अलौकिक शक्तियों के आभास होते है। उसका कारण यह है कि यह एक श्रेष्ठ साधना है। जो लाभ अन्य योग साधनों से होते है, जो सिद्धियाँ किसी अन्य योग से मिल सकती हैं, वे सभी गायत्री साधना से मिल सकती है। जब साधना थोड़े दिन श्रद्धा, विस्वास और नियम पूर्वक चलती है तो आत्म शान्ति की मात्रा दिन-दिन बढ़ती रहती है। आत्मतेज प्रकाशित होने लगता है, अन्तःकरण पर चढ़े हुए मैल छूटने लगते हैं। आन्तरिक निर्मलता की अभिवृद्धि होती है। फलस्वरूप आत्मा की मन्द पड़ी ज्योति अपने असली रूप में प्रकट होने लगती है।

अंगार के ऊपर जब राख का मोटा परत जम जाता है तो वह दाहक शक्ति से रहित हो जाता है। उसे छूने से कोई विशेष अनुभव नहीं होता, पर जब उस अंगार पर से राख का पर्दा हटा दिया जाता है तो धधकती हुई अग्नि प्रज्वलित हो जाती है। यही बात आत्मा के सम्बन्ध में है। आमतौर से मनुष्य मायाग्रस्त होते हैं, भौतिक जीवन की बहिर्मुखी वृत्तियों में उलझे रहते है। यह एक प्रकार की भस्म का पर्दा है जिसके कारण आत्मतेज की उष्णता एवं रोशनी की झाँकी नहीं होती। जब मनुष्य अपने को अन्तर्मुखी बनाता है, आत्मा की झाँकी करता है और साधना द्वारा अपने मैलों को हटा कर आन्तरिक निर्मलता प्राप्त करता है तो आत्मदर्शन को स्थिति प्राप्त होती है।

आत्मा परमात्मा का अंश है। उसमें वे सब तत्व, गुण एवं बल मौजूद हे जो परमात्मा मेँ होते है। अग्नि के सब गुण एवं बल उसकीं एक चिनगारी में मौजूद होते है। यदि चिनगारी को अवसर मिले तो वह दावानल का कार्य कर सकती है। आत्मा के ऊपर चढ़े हुए मलों का यदि निवारण हो जाय तो वही परमात्मा का प्रत्यक्ष प्रतिबिम्ब दिखाई देगा और फिर उसमें वे सब शक्तियाँ परिलक्षित होगी, जो परमात्मा के अंश में होनी चाहिए।

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