आचार्य श्रीराम शर्मा >> दर्शन तो करें पर इस तरह दर्शन तो करें पर इस तरहश्रीराम शर्मा आचार्य
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देव अनुग्रह की उपयुक्त पात्रता प्राप्त किए बिना कोई भी व्यक्ति केवल देवदर्शन अथवा दक्षिणा-प्रदक्षिणा द्वारा मनोरथ को सिद्ध नहीं कर सकता
प्रेरणा आवश्यक तो है, पर पर्याप्त नहीं
प्रारंभिक प्रेरणा के रूप में स्थूल दर्शन अर्थात् शरीर या प्रतिमा का देखना, एक हद तक उपयोगी हो सकता है, होता भी है। देवस्थान में जाने पर आस्तिकता के भाव उदय होते हैं, भौतिक जीवन से आध्यात्मिकता की ओर झुकाव होता है। निश्चित ही ईश्वर का स्मरण आता है। यह एक प्राथमिक संकेत लाभ है। इतने मात्र का पुण्य तो है, पर है वह राई रत्तीभर ही। श्मशान में जाने पर कुछ क्षण के लिए वैराग्य के भाव उदय होते हैं, पर वे पीठ फेरते ही विलीन हो जाते हैं। बहुत दिन बाद मरघट जाया जाए तो वे भाव फिर भी न्यूनाधिक मात्रा में उदय होते हैं, पर यदि मरघट के पास ही अपना खेत का रास्ता हो और जल्दी-जल्दी उसे देखने का अवसर मिले तो वह वैराग्य के भाव जागना भी बंद हो जाता है। तीर्थों में बाहर के लोग श्रद्धा-भक्ति पूर्वक जाते हैं और मंदिरों के दर्शन करके भावान्वित होते हैं, पर जो उन मंदिरों के आस-पास ही रहते हैं, उनके मन में कोई आकर्षण पैदा नहीं होता। आँखों के आगे अभ्यस्त रहने से साधारण वस्तुओं जैसे ही देखते रहते हैं। यदि स्थूल दर्शन में ही कोई विशेषता या महत्ता रही होती तो निश्चय ही मंदिरों के समीप रहने वाले, तीर्थों में निवास करने वाले अथवा सत्पुरुषों के साथी बनने वालों के जीवनक्रम में कोई विशेष श्रेष्ठता उत्पन्न अवश्य हुई होती, पर प्रत्यक्ष में बिलकुल भी वैसा देखने में नहीं आता। मरघट में यदि वैराग्य उत्पन्न करने की क्षमता रही होती तो उधर से बार-बार निकलने वाले व्यक्ति अवश्य ही वैरागी बन गए होते।
भगवान बुद्ध ने जीवन में प्रथम बार ही एक रोगी, एक वृद्ध एवं एक मृतक का दर्शन किया और वे जीवन-दर्शन की गहराई तक उतर गए। फलस्वरूप उन्हें अपनी विचार-पद्धति और कार्यप्रणाली में भारी हेर-फेर करना पड़ा। राजमहल को छोड़कर वे निविड़ वन प्रदेश में चले गए। विलासिता का परित्याग कर कठोर तप करने लगे। दर्शन की सार्थकता इसी में है। ऐसा ही दर्शन पुण्यफलदायक होता है। चाहें तीर्थ के दर्शन किए जाएँ चाहे देव प्रतिमा के, चाहें किसी संत सत्पुरुष के। उसे आँखों से देख भर लेना पर्याप्त न माना जाना चाहिए। कलेवर को देखना ध्यानाकर्षित करने का प्राथमिक उपचार हो सकता है, पर इतनी ही सीमा में यदि अवरुद्ध बना रहा जाए और इतने को ही पर्याप्त मान लिया जाए इतने से ही प्रचुर फल प्राप्ति की आशा बाँध ली जाए तो समझना चाहिए कि वस्तुस्थिति को समझा ही नहीं गया है। यदि कोई बालक पट्टी, कलम, खड़िया को हाथ में पकड़ते ही एक-एक कक्षा पास होने पर जो लाभ मिलेंगे, उन्हें तत्काल पाने की आशा करने लगे और एक-एक कक्षा तक की पढ़ाई करने वाली कष्टसाध्य प्रक्रिया को भुला दे तो उसे बालक की नासमझी ही कहना चाहिए। हम में से अधिकांश दर्शनार्थी प्राय: ऐसी ही नासमझी करते रहते हैं।
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