आचार्य श्रीराम शर्मा >> दर्शन तो करें पर इस तरह दर्शन तो करें पर इस तरहश्रीराम शर्मा आचार्य
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देव अनुग्रह की उपयुक्त पात्रता प्राप्त किए बिना कोई भी व्यक्ति केवल देवदर्शन अथवा दक्षिणा-प्रदक्षिणा द्वारा मनोरथ को सिद्ध नहीं कर सकता
फल के लिए कर्म आवश्यक
हमें यह जानना चाहिए कि कोई प्रयोजन कर्म के द्वारा सिद्ध होता है। कर्म की प्रेरणा प्रखर विचारों से मिलती है, विचारों का उन्नयन स्वाध्याय एवं सत्संग से होता है और वैसा वातावरण जहाँ भी हो, उन व्यक्तियों, स्थानों, संतों और तीर्थों को देखना, वहाँ जाना वैसी अभिरुचि या सुविधा उत्पन्न करता है जिससे स्वाध्याय-सत्संग का लाभ मिल सके। प्राचीनकाल में तीर्थों का निर्माण इसी प्रयोजन से हुआ था। वहाँ ऋषियों का, मनीषियों का निवास रहता था और वे बाहर से आते रहने वाले जिज्ञासुओं, तीर्थयात्रियों को वह प्रेरणा, शिक्षा एवं परामर्श देते रहते थे, जिससे अभाव, कष्ट एवं उद्वेग भरा जीवन सुख-शांति, प्रगति एवं समृद्धि की दिशा में परिवर्तित हो सके। यह प्रशिक्षण ही तीर्थों का प्राण था।
ऐसे पुनीत स्थानों पर भगवान के मंदिर भी होने ही चाहिए होते भी थे। सबको सत्संग से प्रेरणा मिलती थी। कुछ दिनों उस बदले हुए वातावरण में रहकर लोग जो प्रकाश प्राप्त करते थे, उससे उनकी कार्य पद्धति ही बदल जाती थी। जहाँ जीवनक्रम बदला, वहाँ परिस्थितियों का बदलना भी स्वाभाविक ही है। शुभ दिशा का परिवर्तन मनुष्य के लिए कल्याणकारक ही होता है। तीर्थों में जाकर जिसने यह लाभ प्राप्त कर लिया, वह पुण्यफल का अधिकारी हो ही गया। उसे सत्परिणामों एवं स्वर्ग-संतोष मिलने में संदेह ही क्या?
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