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आचार्य श्रीराम शर्मा >> दर्शन तो करें पर इस तरह

दर्शन तो करें पर इस तरह

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15478
आईएसबीएन :00000

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देव अनुग्रह की उपयुक्त पात्रता प्राप्त किए बिना कोई भी व्यक्ति केवल देवदर्शन अथवा दक्षिणा-प्रदक्षिणा द्वारा मनोरथ को सिद्ध नहीं कर सकता

देव-दर्शन से भाव समन्वय

 

देव-दर्शन के साथ-साथ ये भावनाएँ अविच्छिन्न रूप में जुड़ी रहनी चाहिए कि दिव्यता ही श्रद्धा एवं सम्मान की अधिकारिणी है। हम देव-प्रतिमा के माध्यम से विश्वव्यापी दिव्यता के सम्मुख अपना मस्तक झुकाएँ उसका प्रकाश अपने अंतःकरण में प्रवेश कराएँ और जीवन के कण-कण को दिव्यता से ओत-प्रोत करें। देवता का अर्थ है-दिव्यता का प्रतीक प्रतिनिधि। आदर्शवाद देवता है, कर्त्तव्य देवता है, प्रेम देवता है, साहस देवता है, संयम देवता है, दान देवता है, क्योंकि उनके पीछे दिव्यता की अनंत प्रेरणा विद्यमान रहती है। चाहे मनुष्य हो, चाहे नदी, तालाब अथवा देव प्रतिमा, जिसमें भी हम दिव्यता देखें उसी में देवत्व भी परिलक्षित होगा और जहाँ देवतत्व हो उसका श्रद्धापूर्ण सम्मान एवं अभिवदन होना ही चाहिए। देव-प्रतिमा को जब ईश्वर का प्रतीक या प्रतिनिधि माना जाए तो उसके आगे सिर झुकेगा ही। जब कण-कण में ईश्वर विद्यमान है तो देव-प्रतिमा वाला पत्थर भी उसकी सत्ता से रहित नहीं हो सकता।

इस प्रकार देव-प्रतिमा में ईश्वर की मान्यता करके श्रद्धापूर्वक उसके आगे मस्तक झुकाने में हर्ज कुछ नहीं, लाभ ही है। जो भाव दिन में अन्य अवसरों पर बन नहीं पाता वह देव-दर्शन के माध्यम से कुछ क्षण के लिए तो प्राप्त हो ही जाता है। इस दृष्टि से यह उत्तम ही है, पर भूल यह की जाती है कि हम इतनी मात्र प्रारंभिक क्रिया को लक्ष्य पूर्ति का आधार मान लेते हैं। यह तो ऐसी ही बात है जैसे अस्पताल दर्शन से, रोग मुक्ति, स्कूल दर्शन से, ग्रेजुएट की उपाधि प्राप्त होने की आशा करना। बेशक अस्पताल रोग मुक्त करते हैं और स्कूल ग्रेजुएट बनाते हैं, पर लंबे समय तक एक क्रमबद्ध आचरण करना पड़ता है, तभी वह लाभ संभव होता है। इसी प्रकार देवदर्शन से जो प्रारंभिक उत्साह एवं ध्यानाकर्षण होता है, उसे लगातार जारी रखकर यदि आत्मनिर्माण की

मंजिल पर चलते रहा जाए तो समयानुसार वह दिन आ सकता है जब ईश्वर-दर्शन, स्वर्ग-मुक्ति आदि का मनोरथ पूरा हो जाए पर किसी तीर्थ या देव मंदिर की प्रतिमा को आँखों से देखने या पाई पैसा चढ़ा देने मात्र की क्रिया करके यह आशा करना कि-'अब हम कृतकृत्य हो गए। हमारी साधना पूर्ण होगी' सर्वथा उपहास्यास्पद है। आज लाखों तीर्थ यात्री उसी आशा से विभिन्न तीर्थों की यात्राएँ करते हैं जो जीवन-साधना की तपश्चर्या द्वारा आत्मनिर्माण का प्रयोजन पूरा होने पर ही मिल सकना संभव है।

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