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आचार्य श्रीराम शर्मा >> दर्शन तो करें पर इस तरह

दर्शन तो करें पर इस तरह

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15478
आईएसबीएन :00000

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देव अनुग्रह की उपयुक्त पात्रता प्राप्त किए बिना कोई भी व्यक्ति केवल देवदर्शन अथवा दक्षिणा-प्रदक्षिणा द्वारा मनोरथ को सिद्ध नहीं कर सकता

घोड़ा लकड़ी का नहीं, जानदार हो

 

छोटे बच्चे लकड़ी की काठी को घोड़ा बनाकर उस पर सवार होते हैं और घुड़सवार जैसा अनुभव करते हैं। उनका अपना मन बहलाव इस प्रकार होता है, पर क्या वस्तुत: इस प्रकार घोड़ा मिलने का लाभ उन्हें मिल गया? बढ़िया घोड़ा बाजार में बेचने पर कोई हजारों रुपए दे सकता है, पर वह लकड़ी का घोड़ा उस बच्चे को सौ रुपया भी नहीं दिला सकता। बढ़िया घोड़े पर सवार होकर घंटे भर में छह किलोमीटर पहुँचा जा सकता है, पर यह लकड़ी का घोड़ा तो जरा सी दूर भी भार वहन नहीं कर सकता वरन् उलटा बच्चे को ही हाथ से पकड़कर खींचता पड़ता है। मन बहलाव की बात अलग है। वह तो सस्ते से सस्ते उपकरण द्वारा भी हो सकता है। नाटक में कोई साधारण व्यक्ति भी राजा बन सकता है। राजा जैसे कपड़े पहनकर वैसा ही अभिनय करते हुए कुछ देर अपने को राजा अनुभव कर सकता है, पर वस्तुस्थिति तो वस्तुस्थिति ही रहेगी। इस प्रकार नाटक का राजा बनने से कोई व्यक्ति राज-पाट का अधिकारी नहीं बन सकता और न उसे वह सुख-सुविधा मिल सकती है जो असली राजाओं के पास होती है। देव-दर्शन से स्वर्ग-मुक्ति प्राप्त होने की आशा करना लकड़ी पर चढ़े हुए घुड़सवार जैसी मन बहलाव की भाव भरी कल्पना तो है, पर उसमें क्या कुछ तथ्य भी है, यह बात दूसरा है। इसके उत्तर प्राप्त करने के लिए हमें सोचना होगा कि जब सांसारिक छोटे-छोटे लाभों के लिए जीवन भर एड़ी से चोटी तक पसीना बहाना पड़ता है तब आध्यात्मिक लाभ जो भौतिक लाभों से अनेक गुने महत्त्वपूर्ण एवं कठिन हैं, क्या प्रतिमा दर्शन जैसे अति सरल साधन के द्वारा ही पूरे हो जाएँगे। यदि वे इतने सस्ते रहे होते तो स्वर्ग-मुक्ति जैसे लाभों का फिर कोई मूल्य ही न रह जाता। प्रतिमाएँ सर्वत्र हैं। प्रायः हर व्यक्ति कहीं न कहीं किसी न किसी देव-प्रतिमा को किसी न किसी प्रयोजन से देख ही लेता है। यदि दर्शन मात्र से मुक्ति संभव रही होती तो संसार के अधिकांश मनुष्यों को वह अनायास ही मिल गई होती और फिर तब किसी को तप, त्याग, संयम, सेवा जैसे कठिन कार्यों को करने की कोई आवश्यकता या उपयोगिता ही नहीं रहती।

अच्छा यह है हम बाल-विनोद की आदत को छोड़े और हर बात की गहराई में उतरकर उसकी वास्तविकता समझने का प्रयत्न करें। यही बुद्धिमत्ता का मार्ग है। इसी से कुछ प्रयोजन सिद्ध होता है। ईश्वर के सभी पुत्र हैं, पर उसका विशेष अनुग्रह उन्हें प्राप्त होता है जो अपनी पात्रता सिद्ध करते हैं। गुण, कर्म, स्वभाव को उत्कृष्ट एवं आदर्श बनाकर हम अपने में देवत्व बढ़ाते हैं और जहाँ देवत्व होता है वहीं देवता का अनुग्रह बरसता है। भौंरे वहाँ आते हैं, जहाँ सुगंधित पुष्प खिले होते हैं। गंदी कीचड़ में कोई भौंरा क्यों जाएगा? देवता की अनुकंपा उन आत्माओं को प्राप्त होती है जो अपने भीतर देवत्व जाग्रत करते हैं। आत्मा को परमात्मा तक पहुँचाने के लिए यह मंजिल हर हालत में पूरी करनी पड़ेगी। इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। इस मंजिल को पूरी करने में अनेक धार्मिक कर्मकांड, अनुष्ठान एवं आयोजनों की आवश्यकता पड़ती है। उसी में से एक छोटा-सा आयोजन देवदर्शन भी हो सकता है। यदि उसे करने के बाद अपना मन बदले और असुरता से विमुख होने एवं देवत्व की ओर चलने की प्रेरणा प्राप्त करे तो समझना चाहिए कि देवदर्शन सार्थक हुआ और यदि यह मान लिया जाए कि-'दर्शन से अब तक के पाप तो कट ही गए आगे जब कभी वे फिर बहुत संचित हो जाया करेंगे तो फिर कुछ किराया खर्च करके फिर दर्शन कर आया करेंगे।' तो यही मानना चाहिए कि ऐसा दर्शन उलटा भ्रम उत्पन्न करने वाला हुआ, क्योंकि पाप के दंड से छूटने की सरल तरकीब मिल जाने से मनुष्य उस ओर से निर्भय एवं निशंक हो गया। इसी प्रकार जिसने यह मान लिया कि-'देवता के दर्शन कर उससे दोस्ती गाँठ ली गई और उस दोस्ती के आधार पर स्वर्ग-मुक्ति जैसी सुविधा बिना कोई मूल्य चुकाए प्राप्त कर लेंगे।' तो भी यही कहना होगा कि इस देव-दर्शन ने हमें ऐसी भ्रांति में धकेल दिया जो कभी भी संभव नहीं हो सकती।

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