लोगों की राय

आचार्य श्रीराम शर्मा >> दर्शन तो करें पर इस तरह

दर्शन तो करें पर इस तरह

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15478
आईएसबीएन :00000

Like this Hindi book 0

5 पाठक हैं

देव अनुग्रह की उपयुक्त पात्रता प्राप्त किए बिना कोई भी व्यक्ति केवल देवदर्शन अथवा दक्षिणा-प्रदक्षिणा द्वारा मनोरथ को सिद्ध नहीं कर सकता

छल्लेदार चुसनी चूसने में क्या मिलेगा?

 

छोटे बच्चे जब रोते हैं और उन्हें दूध देना नहीं होता है तो ग्लिसरीन भरी हुई छल्ले वाली चूसनी उसके मुँह में लगा देते हैं। बच्चे उसे चूसते रहते हैं और यह अनुभव करते रहते हैं कि वे दूध पीने की क्रिया कर रहे हैं। बच्चे का मन बदल जाता है और वे रोने-चिल्लाने की बात छोड़ देते हैं। यद्यपि उनका पेट भरने वाली कोई बात उस छल्लेदार चुसनी में नहीं होती। उसका प्रयोजन इतना भर होता है कि बालक की तड़पन- आकांक्षा कुछ देर के लिए शांत हो जाए। ऐसा ही प्रयोजन उन छुटपुट धार्मिक क्रियाकांडों से भी पूरा होता है जो करने में अति सरल होते हैं। थोड़ा-सा समय और थोड़ा-सा पैसा खरच करके जिन्हें कोई भी पूरा कर सकता है। इन क्रियाकृत्यों का माहात्म्य इतना बढ़ा-चढ़ाकर बताया जाता है कि बाल-बुद्धि लोग उतने भर से बडी-बडी आशाएँ बाँध लेते हैं। 

हर व्यक्ति के भीतर एक आंतरिक तड़पन रहती है कि वह श्रेष्ठता प्राप्त कर ऊँचा उठे और आत्मिक विभूतियों का आनंद लाभ करे। क्षुधा एवं कामवासना जैसे शरीर को उद्विग्न करती है, उसी प्रकार आत्मा को भी उत्कृष्टता की भूख सताती रहती है। ईश्वर मिलन, ब्रह्म निर्वाण, आत्मविकास उसी आकांक्षा का नाम है। यह किसी जादू मंत्र से या क्रियाकलाप मात्र से पूरी नहीं हो सकती, वरन् एक-एक कदम अपने दोष दुर्गुणों का परिष्कार करते हुए दिव्य तत्वों के अभ्यस्त बनते हुए प्राप्त की जाती है। आत्मिक दृष्टि से श्रेष्ठ बनने के लिए हर व्यक्ति को संयम का, त्याग का, सेवा का मार्ग अपनाना पड़ता है। यह कठिन, समय-साध्य एवं श्रम-साध्य है। पग-पग पर अपने-आप से संघर्ष करना पड़ता है। कुसंस्कारों को कुचलता पड़ता है और सत्प्रवृत्तियों के अभ्यस्त बनने की साधना करनी पड़ती है। यही तो तपश्चर्या का, ईश्वर प्राप्ति की साधना का एकमात्र उपाय है। प्राचीनकाल के ऋषि-मुनि, महापुरुष एवं सद्गृहस्थ इसी साधना में निरंतर निरत रहकर आत्मिक लक्ष्य पूर्ण करते थे। वही मार्ग प्राचीनकाल में था, वही अब है। 

इसका न कोई विकल्प था और न होगा। यदि कोई सरल रास्ता रहा होता तो ऋषियों को आजीवन इस तरह कष्ट साध्य साधनाएँ नहीं करनी पड़ती। वे ऐसे ही कोई सस्ते नुस्खे ढूँढ़ लेते जैसे कि हम ढूँढ़ लेते हैं। वे भी हमारी ही तरह भौतिकता में कंठ तक डूबे रहते हुए भी ईश्वर प्राप्ति, स्वर्ग प्राप्ति, मोक्ष प्राप्ति का दुहरा लाभ प्राप्त करने से क्यों चूकते? वे हमसे अधिक बुद्धिमान थे, मूर्ख नहीं। यदि सस्ते नुस्खे कारगर होते तो उन्होंने अवश्य ही उन्हें खोजा और अपनाया होता, पर वे जानते थे कि ईश्वर के सनातन नियम अपरिवर्तनीय हैं। आत्मशोधन केबिना, आत्मनिर्माण के बिना, आत्मविकास के बिना आत्मकल्याण कदापि संभव नहीं हो सकता। इस मान्यता के आधार पर प्राचीन भारत का हर छोटा-बड़ा नागरिक अपने-अपने ढंग से जीवन-निर्माण की साधना में संलग्न रहता था और आत्मकल्याण का लक्ष्य प्राप्त करता था।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book