लोगों की राय

आचार्य श्रीराम शर्मा >> दर्शन तो करें पर इस तरह

दर्शन तो करें पर इस तरह

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15478
आईएसबीएन :00000

Like this Hindi book 0

5 पाठक हैं

देव अनुग्रह की उपयुक्त पात्रता प्राप्त किए बिना कोई भी व्यक्ति केवल देवदर्शन अथवा दक्षिणा-प्रदक्षिणा द्वारा मनोरथ को सिद्ध नहीं कर सकता

भावनाएँ ही आधार हैं

 

मंदिरों में प्रतिष्ठापित प्रतिमाएँ मूर्तिकारों की कला और मेहनत का परिणाम हैं। वे अपने जीवन में विभिन्न देवी-देवताओं को गढ़ते, बनाते रहते हैं, पर क्या मीरा को जो लाभ 'गिरधर गोपाल' की छोटी-सी प्रतिमा ने दिया था, वह उन मूर्तिकारों को मिलता है? कारण स्पष्ट है कि मूर्तिकार केवल पत्थर को खोदता, चीरता, तराशता, घिसता है, उसकी कार्यपद्धति यहीं तक सीमित है। देवता को हृदय में बिठाने और उन भावनाओं के अनुरूप जीवन को ढालने-बदलने से उसे कुछ प्रयोजन नहीं होता, फलस्वरूप उसे वह लाभ भी नहीं मिलता जो भावुक भक्त उन्हीं प्रतिमाओं के माध्यम से प्राप्त करते रहते हैं। यही बात बुकसेलुरों और प्रेस वालों के संबंध में लागू होती है। वे किताबों का व्यवसाय मात्र करते हैं। जो मूल्य कुँजड़े की दृष्टि से आलू का है, वही इन लोगों की दृष्टि से ग्रंथों का। ऐसी दशा में स्वाध्याय द्वारा जीवन-निर्माण के प्रयत्न में लगे हुए ज्ञान-साधकों की तरह उन्हें लाभ मिल भी कैसे सकता है?

दर्शन तब तक अधूरा है, जब तक उसका दर्शन भी हृदयगम करने के लिए हम तत्पर न हों। तीर्थों में, मंदिरों में, अगणित लोग देव दर्शन के लिए जाते हैं। प्रतिमाओं को देखते भर हैं। हाथ जोड़ दिया या एक दो पैसा चढ़ावे का फेंक दिया अथवा पुष्प, प्रसाद आदि कोई छोटा-मोटा उपहार उपस्थित कर दिया, इतने मात्र से उन्हें यह आशा रहती है कि उनके आने पर देवता प्रसन्न होंगे, अहसान मानेंगे, और बदले में मनोकामनाएँ पूर्ण कर देंगे। आमतौर से यही मान्यता अधिकांश दर्शनार्थियों की होती है, पर देखना यह है कि क्या यह मान्यता ठीक है, क्या उसके पीछे कुछ तथ्य भी हैं, या ऐसे ही एक भ्रम परंपरा से भ्रमित लोग इधर से उधर मारे-मारे फिरते हें?

ईश्वर एक है, सर्वत्र व्याप्त है। उसकी उपस्थिति कण-कण में विद्यमान है। किसी स्थान में न तो वह अधिक है और न कम। भावनापूर्वक जहां भी उसे देखा जाएगा, वहाँ प्रस्तुत होगा और जहाँ भावरिक्तता रहेगी, वहाँ उसका अस्तित्त्व भी अनुभव न होगा। गंगाजल की शीशी हाथ पर रखकर झूठी कसम खाने का प्रश्न आने पर एक आस्तिक ग्रामीण की छाती दहलाने लगती है और वह बड़े-से-बड़े लाभ के लिए भी वैसा नहीं कर पाता, परंतु जिन्हें गंगा की दिव्यशक्ति के प्रति आस्था नहीं है, वे गंगा में नहाते हुए भी झूठ बोलते रहते हैं, इसमें उन्हें तनिक भी झिझक नहीं होती। गंगा-स्नान करने कराने का व्यवसाय करने वाले लोग दिनभर अनर्गल झूठ गंगा-तट पर ही बोलते रहते हैं। उन्हंन उस ग्रामीण की तरह संकोच नहीं होता जो शीशी में थोड़ा-सा गंगाजल भी हाथ पर रखते हुए तनिक-सा असत्य बोलते हुए घबराने लगता है। महत्त्व गंगा का उतना नहीं, जितना आस्था का है। आस्था न हो तो पानी का कुछ महत्त्व नहीं। कितनी ही नहरों और तालाबों में भी गंगाजल भरा रहता है, पर आस्था के अभाव में वह जल कोई धार्मिक प्रयोजन सिद्ध नहीं करता। गंगाजल का दर्शन तो उसमें नाव चलाने वाले और मछली पकड़ने वाले भी करते हैं, पर उन्हें तब तक पुण्य-लाभ कैसे मिलेगा, जब तक उस जल दर्शन के साथ-साथ भाव दर्शन भी संयुक्त एवं समन्वित न हो।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book