आचार्य श्रीराम शर्मा >> दर्शन तो करें पर इस तरह दर्शन तो करें पर इस तरहश्रीराम शर्मा आचार्य
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देव अनुग्रह की उपयुक्त पात्रता प्राप्त किए बिना कोई भी व्यक्ति केवल देवदर्शन अथवा दक्षिणा-प्रदक्षिणा द्वारा मनोरथ को सिद्ध नहीं कर सकता
देखें ही नहीं विचारें भी
'दर्शन' शब्द देखने के अर्थ में प्रयुक्त होता है। इसी शब्द का दूसरा अर्थ-विवेचना या विचारणा भी होता है। शुभ दर्शन करना अपने आप में एक अच्छी बात है, पर उसके अच्छाई के पीछे भी एक विवेचना या विचारणा सन्निहित है। हमें उस पर ध्यान देना चाहिए। जिस तथ्य के आधार पर देखने जैसी एक अत्यंत तुच्छ क्रिया को इतना महत्व मिला है, उसके संबंध में हमें अपरिचित नहीं रहना चाहिए अन्यथा फिर देव-प्रतिमाओं से लेकर संत-महात्माओं तक के दर्शन का न कोई मूल्य रह जाएगा और न कोई प्रयोजन ही रहेगा। गीता, रामायण, वेद-शास्त्रों के हम दर्शन करें, यह बहुत उत्तम है, पर देखने के पश्चात उनमें प्रतिपादित शिक्षाओं को भी सुनना-समझना चाहिए। इतना ही नहीं वरन उन शिक्षाओं को कार्यान्वित भी करना चाहिए। जो इतना कर सकेगा, उसे उपर्युक्त पुस्तकें श्रेय प्रदान करेंगी, जो माहात्म्य बताया गया है, उसे भी प्रत्यक्ष प्रमाणिक करेगी, किंतु यदि देखने भर की बात को शास्त्रों के लाभ को आधार मान लिया गया तो उतनी सी तुच्छ क्रिया से, शास्त्रों के माध्यम से मिल सकने वाला पुण्य कदापि न मिल सकेगा। पुस्तक विक्रेताओं के गोदामों में बहुमूल्य ग्रंथरत्न अनाज के बोरों की तरह भरे रहते हैं, वे उन्हें रखते, उठाते, देखते-भालते रहते हैं, पर इससे न तो उनकी ज्ञानवृद्धि में कोई सहायता मिलती है और न उनके द्वारा मिल सकने वाला पुण्य का प्रयोजन सिद्ध होता है। प्रेस वालों के यहाँ तो पुस्तकों का जन्म ही होता है। वे कंपोज करने, छापने, जिल्द बनाने तक की सारी क्रियाएँ करते हैं। गीता के प्रवक्ता भले ही कृष्ण रहे हैं, छंदबद्ध भले ही व्यासजी ने किया हो, पर पुस्तक को मूर्त रूप देने का श्रेय तो प्रेस वालों को ही है। वे भी कृष्ण एवं व्यास के बाद तीसरे नंबर के गीता-उद्गाता कहे जाएँ तो इसमें कुछ भी अत्युक्ति न होगी। फिर भी गीता, वेद-शास्त्र आदि के अध्ययन से जिस लाभ की आशा की जा सकती है, क्या वह उन पुस्तक विक्रेताओं या प्रेस वालों को मिल पाता है?
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