आचार्य श्रीराम शर्मा >> दर्शन तो करें पर इस तरह दर्शन तो करें पर इस तरहश्रीराम शर्मा आचार्य
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देव अनुग्रह की उपयुक्त पात्रता प्राप्त किए बिना कोई भी व्यक्ति केवल देवदर्शन अथवा दक्षिणा-प्रदक्षिणा द्वारा मनोरथ को सिद्ध नहीं कर सकता
दर्शन का उद्देश्य एवं प्रयोजन
उपर्युक्त तीन उदाहरणों से यह समझने का अवसर मिलता है कि स्कूल का दर्शन डॉक्टर की पदवी दिलाने में, अस्पताल का दर्शन रोग-मुक्ति कराने में, मंडी का दर्शन लक्ष्मी की प्राप्ति में निश्चित रूप से समर्थ है। इसलिए दर्शन की यदि प्रशंसा की जाती है, उपयोगिता बताई जाती है, आवश्यकता प्रतिपादित की जाती है तो वह यथार्थ है। इसमें तनिक भी अत्युक्ति नहीं है, पर यह भुला न देना चाहिए कि 'दर्शन की अभीष्ट मनोकामना पूर्ति' के प्रतिपादन के पीछे लंबी 'किंतु' 'परंतु' लगी हुई है और वह इतनी कठोर सचाई है कि उसकी उपेक्षा करने से प्रतिपादन की सारी दीवार ही भरभरा कर गिर पड़ती है और फिर मिथ्या कल्पना के अतिरिक्त उसका कोई स्वरूप ही नहीं बच सकता। बदनाम शेखचिल्ली की हँसी सिर्फ इसलिए उड़ाई जाती है कि सिर पर रखे घड़े से मिलने वाली मजदूरी के चंद पैसे से उसके विवाह होने, पुत्र होने और उसके साथ मनोरंजन करने तक की मनोवांछा को चंद मिनटों में ही पूरी होते देख लिया था। वह यह भूल गया था कि घड़ा ढोने की मजदूरी मिलने प रउसे कितने मनोयोगपूर्वक साधना करनी होगी, तब कहीं पैसे से मुरगी, मुरगी से गाय, गाय से भैंस, भैंस के बाद शादी, शादी से बच्चे का क्रमिक विकास होने पर उसके साथ मनोरंजन करने का अवसर आएगा। यदि यह लंबी मंजिल पूरी कर सकने का बानिक न बन सका तो उससे कल्पना के गुब्बारे उड़ाना सर्वथा निरर्थक है। सोचते कुछ भी रहा जाए पर मिलेगा कुछ नहीं। शेखचिल्ली मियाँ ने इस कटुसत्य को यदि समझ लिया होता तो संभवत: उनकी योजना उतनी ही लंबी एवं विस्तृत होती, जितनी कि अनुभवी, व्यवहारबुद्धि एवं विवेकशील लोगों की होती है। तब फिर उसकी पूर्ति में भी कोई बाधा न थी। संसार में असंख्य मनुष्य ऐसे हुए भी हैं, जिन्होंने न्यूनतम साधनों की सहायता से उन्नति के उच्चतम शिखर पर पहुँचने में सफलता प्राप्त की है। शेखचिल्ली भी वैसा कर सकता था। तब उसकी न तो हँसी होती और न बदनामी वरन् उसकी योजना को सराहा ही जाता।
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