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आचार्य श्रीराम शर्मा >> दर्शन तो करें पर इस तरह

दर्शन तो करें पर इस तरह

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15478
आईएसबीएन :00000

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देव अनुग्रह की उपयुक्त पात्रता प्राप्त किए बिना कोई भी व्यक्ति केवल देवदर्शन अथवा दक्षिणा-प्रदक्षिणा द्वारा मनोरथ को सिद्ध नहीं कर सकता

दार्शनिक दृष्टिकोण की आवश्यकता

 

ऐतिहासिक, प्राकृतिक, कला प्रधान प्रगतिशील स्थानों को देखने के लिए मनोरंजन करने के लिए अक्सर लोगों का जाना होता है। यात्रा जहाँ एक अच्छा मनोरंजन है, वहाँ उससे ज्ञान एवं अनुभव बढ़ने का लाभ भी प्राप्त होता है। इसलिए भारत ही नहीं संसार भर के लोग अपनी रुचि एवं पहुँच के स्थानों की यात्रा करते रहते हैं और गंतव्य स्थान पर जो कुछ देखने योग्य होता है, उसे देखकर अपने कौतूहल तथा जिज्ञासा की तृप्ति का लाभ प्राप्त करते हैं। यह भी एक प्रकार का दर्शन ही है। देव-दर्शन न सही प्रकृति दर्शन, इतिहास दर्शन, कला दर्शन, प्रगति दर्शन सही। जहाँ कोई विशेषता देखते हैं वहीं लोग जाते हैं। देखते और वापिस चले आते हैं। लौटने पर अपने देखे हुए दृश्यों का दर्शन स्वजन परिजनों को सुनाते हें, कोई 'सौगात' वहाँ की होती है तो लाते दिखाई देते हैं। बस, इतने से ही उनकी यात्रा का प्रयोजन पूरा हो जाता है।

यात्रा का पूरा लाभ तब है जब उन दृश्यों के साथ संबद्ध भावनाओं का भी हम स्पर्श करें और उनसे समुचित प्रेरणा प्राप्त करें। हर स्थूल के साथ एक सूक्ष्म मौजूद है, जड़ पदार्थों के भीतर भी एक चेतना विद्यमान रहती हें। दार्शनिक इसी का दर्शन करते और कृतकृत्य होते हैं। पंचतत्वों, वृक्षों, पर्वतों, नदी, सरोवरों, वन-उपवनों में उन द्रष्टाओं की सूक्ष्म दृष्टि एक उत्कृष्ट आत्मा का दर्शन करती है। देव-दर्शन का आनंद लेती और धन्य होती है। यह दृष्टि यदि न हो तो जो कुछ घमंड की आँखों से देखा जाता है, केवल देखने भर का आँखों का हलका-सा क्षणिक मनोरंजन मात्र प्रदान कर सकता है। ईश्वर चमड़े की आँखों से नहीं, दिव्य चक्षुओं से देखा जाता है, इसी प्रकार किन्हीं विशेष स्थानों के दर्शन का भावनात्मक एवं प्रेरणात्मक लाभ दार्शनिक दृष्टिकोण से उन वस्तुओं एवं स्थानों को देखने पर ही प्राप्त होता है।

ऐसे स्थलों को देखने जब जाए तो गहराई तक प्रवेश करने का प्रयास करें। वे स्थान क्या सुनाते और दिखाते हैं, उसे बारीकी से देखें और सुनें। गाँधी जी ने बचपन में एक बार सत्य हरिशचंद्र नाटक देखा था, देखकर भावान्वित हुए और प्रतिज्ञा की कि वे हरिश्चंद्र बनकर रहेंगे। वैसा ही हुआ भी। अनेक लड़के रोज ही तरह-तरह के खेल-तमाशे, सिनेमा, ड्रामे देखते हैं, उनमें कई स्थानों पर धार्मिक प्रेरणाएँ भी होती हैं, पर वे उसे दिव्य दृष्टि के अभाव में सुन-समझ नहीं पाते, मनोरंजन मात्र करके चले आते हैं। ऐसा देखना एक कौतुक मात्र ही माना जाएगा। जिस विशिष्ट को देखने हम जाएँ उसकी विशेषता, महत्ता, प्रेरणा एवं आत्मा को भी देखने समझने का प्रयत्न करें। जिस प्रकार पानी की बूँद में रहने वाले कीड़ों को देखने के लिए खुर्दबीन यंत्र की जरूरत है, उसी प्रकार संसार में जो विशिष्ट है उसका प्रकाश प्राप्त करने के लिए हमें अपने भीतर दार्शनिक दृष्टि उत्पन्न करनी चाहिए तभी दर्शन का वास्तविक लाभ प्राप्त हो सकेगा।

ऐतिहासिक, प्राकृतिक, धार्मिक किसी भी पुण्य स्थल के विद्वान-तपस्वी व्यक्ति के दर्शन करने हम जाएँ तो उससे कुछ सीखने, समझने, प्रेरणा एवं उत्साह प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। यह प्रेरणा यदि जीवन को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करने वाली हुई तो अवश्य ही दर्शन का समुचित लाभ मिलेगा, किंतु यदि देखने जैसे कौतूहल तृप्त करने तक ही बात सीमित रही तो समझना चाहिए कि उस दर्शन का पुण्य उतना ही रहा जितना प्रत्यक्ष मनोरंजन हो सका।

दर्शन का लाभ बहुत है, पर है तभी जब उससे मिल सकने वाली प्रेरणाएँ भी हम उपलब्ध करें। दिव्य दर्शनों के लिए हमें उत्साहपूर्वक शुभ स्थानों, दिव्य व्यक्तियों एवं उपयुक्त आयोजनों के संपर्क में आते रहना चाहिए पर साथ ही दर्शन का दर्शन भी समझना चाहिए। दर्शन से यदि कुछ प्रेरणा मिले तो उससे ही हमारा भला होगा, देखने भर की क्रिया एक सामान्य शरीर आचरण है और उसका लाभ भी उसी अनुपात से नगण्य सा ही होता है।

हमारी भावना ही देवता को सामर्थ्य देती है-इसमें कुछ भी संदेह नहीं कि मूर्तियों के दर्शनों, तीर्थों की यात्रा, महापुरुषों के सान्निध्य में जाने से जो लाभ मिलता है, उसमें प्रमुखता भावना की ही होती है। अगर आंतरिक श्रद्धा, दृढ़ विश्वास, कल्याण प्राप्त करने की सच्ची अभिलाषा न हो तो चाहे रोज दर्शन किया जाए तो भी उससे कोई विशेष प्रयोजन सिद्ध न होगा। पंडा, पुजारी सदैव मंदिर के भीतर ही रहते हैं और मूर्तियों के अंग-प्रत्यंग को निकट से बहुत अच्छी तरह देखा करते हैं, पर उनको वह प्रेरणा प्राप्त नहीं होती जो एक भावुक और विश्वासी दर्शनार्थी को दूर से केवल दो-चार मिनट दर्शन करने से प्राप्त हो जाती है। इतना ही क्यों दर्शनार्थियों में से भी जो जैसी भावना रखकर दर्शनों को जाता है, वह वैसे ही परिणाम को प्राप्त करता है। बहुत से व्यक्ति नियम पालन के लिए नित्य प्रति किसी मंदिर में जाकर दर्शन कर आते हैं, पर उनको वर्षों ऐसा करते रहने पर भी कोई विशेष आध्यात्मिक लाभ नहीं मिलता। सांसारिक व्यवहार की दृष्टि से वे जैसे भले-बुरे पहले से होते हैं, दर्शनों के करते रहने पर भी वैसे ही रहते हैं। सावन के झूलों के अवसर पर हजारों व्यक्ति मंदिरों में सजावट और रासलीला आदि देखने को पहुँचते हैं। मूर्ति के सामने हाथ जोड़ देने पर भी उनको उसके प्रभाव या महत्त्व का कुछ भी ध्यान नहीं आता। वे केवल रोशनी, सजावट की सामिग्री, खेल-तमाशों तथा वहाँ की भीड़-भाड़ से ही मनोरंजन करके चले जाते हैं। इनको देव मूर्ति के दर्शन से कुछ लाभ होता है, यह किसी प्रकार समझ में नहीं आता।

इतना ही क्यों अनेक लोग तो मंदिर में जाकर वहाँ देवता के दर्शन करके कुछ सद्भावना या आत्मकल्याण का विचार करने के बजाय वहाँ भी खेलने की मनोवृत्ति प्रकट करने लगते हैं। एक शिवजी के मंदिर में शिवरात्रि के मेले के अवसर पर अनेक व्यक्ति भीतर जाकर जल चढ़ा सकना कठिन समझकर बाहर से जल भरे मिट्टी के पात्र को फेंककर मंदिर के शिखर पर मारते हैं। उनमें अधिकांश व्यक्ति इसी को अपनी विशेषता समझते हैं कि उनका फेंका पात्र ऊपर के शिखर पर जाकर ठीक तरह लग जाए। ऐसे व्यक्ति वहाँ घंटों तक खड़े होकर यही तमाशा देखते रहते हैं कि किसका पात्र शिखर में अच्छी तरह लगता है और किसका गलती से दूसरी तरफ चला जाता है या नीचे ही लगकर फूट जाता है। अगर ऐसे मनोरंजन करने वाले यह समझें कि हमको शिवजी पर जल चढ़ाने का पुण्यफल प्राप्त हो गया तो इसे विडंबना ही कहना पड़ेगा।

इस सबका कारण यही है कि फल तो भावना का होता है। देव मूर्ति तो पाषाण या धातु या लकड़ी आदि की किसी शिल्पकार के द्वारा बनाई ही गई है। किसी मंदिर में प्रतिष्ठित कर दिए जाने से वह देव की तरह मानी जाने लगी और हजारों व्यक्तियों को फल भी देने लगी अन्यथा यदि उसी मूर्ति को कोई कला प्रेमी खरीदकर अपने संग्रहालय में रख देता तो वह न देवता मानी जाती और न उसमें किसी प्रकार का फल देने की शक्ति अनुभव की जाती। इतना ही क्यों आजकल मूर्ति चोर जब किसी मंदिर में पूंजी जाने वाली प्रतिमा को चुराकर विदेशी और विधर्मी व्यक्ति यों के हाथ बेच देते हैं, जिनका उद्देश्य उसके द्वारा केवल अपनी बैठक को सजाना होता है, तो मूर्ति का दैवी प्रभाव और शक्ति भी समाप्त हो जाती है और वह मनोरंजन करने वाली एक कलाकृति मात्र समझी जाने लगती है। इन उदाहरणों से हम अंत में महाकवि रवींद्रनाथ की उस कविता के तात्पर्य को सत्य समझते हैं जिसमें कहा गया है कि मूर्ति अथवा मंदिर या उससे संलग्न रहने वाले उपकरणों का कोई महत्त्व या दैवी शक्ति मानना युक्तियुक्त नहीं, वरन जो कुछ चमत्कार है, वह सर्वत्र व्याप्त परमात्म-शक्ति का है।

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