आचार्य श्रीराम शर्मा >> दर्शन तो करें पर इस तरह दर्शन तो करें पर इस तरहश्रीराम शर्मा आचार्य
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देव अनुग्रह की उपयुक्त पात्रता प्राप्त किए बिना कोई भी व्यक्ति केवल देवदर्शन अथवा दक्षिणा-प्रदक्षिणा द्वारा मनोरथ को सिद्ध नहीं कर सकता
देवदर्शन के पीछे दिव्य दृष्टि भी रहे
दृग दर्शन मात्र से स्वर्ग, मोक्ष, सुख, शांति, संपत्ति अथवा समृद्धि आदि का लाभ पाने का विश्वास रखने वालों की श्रद्धा को विवेक सम्मत नहीं माना जा सकता। उनकी वह अतिश्रद्धा अथवा अतिविश्वास एक प्रकार से अज्ञानजन्य ही होता है जिसे अंधविश्वास अथवा अंधश्रद्धा भी कहते हैं। श्रद्धा जहाँ आत्मा की उन्नति करती है, मन-मस्तिष्क को सुसंस्कृत एवं स्थिर करती है, ईश्वर प्राप्ति के लिए व्यग्र एवं जिज्ञासु बनाती है, वहाँ मूढ़- श्रद्धा अथवा अंध-विश्वास उसे अवास्तविकता के अंध गर्त में गिरा देती है। अंध-विश्वासियों अथवा अंध-श्रद्धालुओं को अपनी अविवेकपूर्ण धारणाओं से लाभ की अपेक्षा हानि ही अधिक होती है। आज धर्म के नाम पर जो धूर्तता देखी जाती है, उसका बहुत कुछ उत्तरदायित्व उन अंध-श्रद्धालुओं पर ही है जो धर्म के सत्य स्वरूप एवं कर्म की विधि और उसका परिणाम नहीं जानते। जनता की अंधश्रद्धा के आधार पर न जाने कितने आडंबरी एवं प्रवचंक लोग अर्थ एवं आदर का लाभ उठाया करते हैं। यही कारण है कि शास्त्रों में जहाँ श्रद्धा की प्रशंसा की गई वहाँ अंध-श्रद्धा की निंदा भी।
दर्शन करने के संबंध में भी भोले लोगों की यह अंध-श्रद्धा उन्हें दर्शन के मूल प्रयोजन एवं उससे होने वाले लाभ से वंचित ही रखती है। लाखों-करोड़ों लोग प्रतिवर्ष तीर्थों तथा तीर्थं पुरुषों के दर्शन करने देश के कोने-कोने से आते-जाते हैं। अनेक लोग तो प्रतिदिन प्रात:-सायं मंदिरों में देव-प्रतिमा के दर्शन करने जाया करते हैं, किंतु क्या कहा जा सकता है कि इन लोगों को वह लाभ होता होगा जो उन्हें अभीष्ट रहा करता है। निश्चय ही नहीं। उन्हें इस बाह्य दर्शन द्वारा एक भ्रामक आत्मतुष्टि के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिल सकता।
यदि केवल देवप्रतिमा, देवस्थान अथवा देवपुरुष को देखने मात्र से, हाथ जोड़ने, दंडवत करने, पैसा अथवा पूजा प्रसाद चढ़ा देने भर से ही किसी के पापों का मोक्ष हो जाता, दुख-दारिद्रय दूर हो जाता, पुण्य, परमार्थ, स्वर्ग, मुक्ति आदि मिल सकते, मन, बुद्धि आत्मा की उन्नति हो सकती, जीवन में तेजस्विता, देवत्व अथवा निर्द्वंदता का समावेश हो सकता तो दिन-रात देव प्रतिमाओं की परिचर्या करने वाले पुजारियों, मंदिरों की सफाई सँभाल करने वाले सेवकों को यह सभी लाभ अनायास ही मिल जाते। उनके सारे दुःख द्वंद्वों दूर हो जाते और सुख-शांति पूर्ण स्वर्गीय जीवन के अधिकारी बन जाते हैं, किंतु ऐसा देखने में नहीं आता। मंदिर के सेवक और प्रतिमाओं के पुजारी भी अन्य सामान्य जनों की भांति ही अवशेष जीवन में पड़े-पड़े दुखों, द्वंद्वों तथा शोक-संतापों को सहते रहते हैं। उनके जीवन में रंचमात्र भी परिवर्तन नहीं होता, यद्यपि उनकी पूरी जिंदगी देव-प्रतिमाओं के सान्निध्य एवं देवस्थान की सेवा करते-करते बीत जाती है।
अनेक लोगों की धारणा रहती है कि दर्शन कर लेने, फूल माला चढ़ा देने, दीपदान कर देने अथवा दंडवत प्रदक्षिणा का क्रम पूरा कर देने मात्र से ही देवता प्रसन्न होकर अभीष्ट मनोरथों को पूरा कर देंगे। इस प्रकार के भ्रांत विश्वासी यह नहीं समझ पाते कि परमात्मा के प्रतिनिधि देवता उन निकृष्ट कोटि के लोगों की तरह नहीं होते जो हाजिरी दे देने अथवा कोई भेंट-उपहार उपस्थित कर देने, प्रशंसा अथवा स्तवन वाक्यों का उच्चारण कर देने मात्र से प्रसन्न हो जाते हैं और अपनी खुशामद पसंद आदत के कारण चाटुकार के दुर्गुण नहीं देखते और अपने निकट ले लेते हैं। यदि देवताओं की प्रकृति इसी प्रकार की होती तो उनमें और साधारण अधिकारियों में कोई भेद न रहता। खुशामद सुनकर अथवा किन्हीं अन्य प्रकारों से प्रसन्न होकर वे किसी पर भी अनुग्रह कर देते।
देवताओं की प्रसन्नता, खुशामद पसंद लोभी व्यक्तियों की तरह सस्ती नहीं होती। उनकी अनुकंपा प्राप्त करने के लिए हमको को कदम-कदम पर अपने दोष-दुर्गुणों को दूर करना होगा, जीवन को पवित्र तथा पुण्यपूर्ण बनाना होगा। अपने मन, वचन, कर्मों में देवत्व का समावेश करना होगा, जिसके लिए आत्मसंयम, त्याग तथा तपश्चर्यापूर्वक जीवन-साधना करनी होगी। दिव्यता की यह उपलब्धि श्रम एवं समयसाध्य है, जिसको केवल वही व्यक्ति प्राप्त कर सकता है, जो क्षण-क्षण पर अपने आचार-विचार तथा व्यवहार में सावधान रहकर चलेगा। देव अनुग्रह की उपयुक्त पात्रता प्राप्त किए बिना कोई भी व्यक्ति केवल देवदर्शन अथवा दक्षिणा-प्रदक्षिणा द्वारा मनोरथ को सिद्ध नहीँ कर सकता।
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