आचार्य श्रीराम शर्मा >> दर्शन तो करें पर इस तरह दर्शन तो करें पर इस तरहश्रीराम शर्मा आचार्य
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देव अनुग्रह की उपयुक्त पात्रता प्राप्त किए बिना कोई भी व्यक्ति केवल देवदर्शन अथवा दक्षिणा-प्रदक्षिणा द्वारा मनोरथ को सिद्ध नहीं कर सकता
व्यवस्थित विश्व का हर कार्य व्यवस्थित
यह विश्व सुदृढ़ न्याय एवं व्यवस्था के आधार पर चल रहा है। ईश्वर यदि ऐसा ढुलमुल हो कि कर्मफल के स्थान पर छोटे-छोटे क्रियाकृत्यों को ही सब कुछ मान बैठे तो उसकी सत्ता उपहास्यास्पद बन जाएगी? यहाँ ऐसा न कभी हुआ है और न आगे होगा। विश्व न्याय और व्यवस्था पर आधारित है। ईश्वर स्वयं ही अपने आपको इसी मर्यादा में आबद्ध किए हैं। राजा स्वयं कानून तोड़ेगा तो प्रजा से उसे पालन करने के लिए वह किस मुँह से कह सकेगा? जो लोग यह आशा करते हैं कि जीवन-निर्माण की साधना के वास्तविक अध्यात्म की उपेक्षा करके देव-दर्शन जैसे छोटे उपकरण के माध्यम से इस महान लक्ष्य की प्राप्ति कर लें, वे मनसूबे बाँधने वाले बालबुद्धि लोग ही हो सकते हैं। कागज की नाव पर चढ़कर किसी नदी को पार कर सकना संभव नहीं हो सकता। रबड़ की छल्लेदार चूसनी चूसते रहने पर भी बालक का पेट नहीं भर सकता। आत्मा की यह महत्त्वाकांक्षा तो अपने आपको आदर्श एवं उत्कृष्ट बनाने वाली गतिविधियाँ अपनाने से ही तृप्त हो सकती है। यदि हम धार्मिक कृत्यों के बड़े-चढ़े माहात्म्य की कल्पना कर उससे झूठा आत्मसंतोष करने लगेंगे तो यह आत्मप्रवंचना के अतिरिक्त और कुछ भी न होगा।
तीर्थयात्रा हमें करनी चाहिए अवश्य करनी चाहिए पर उसके पीछे उतना ही प्रयोजन मन में रहना चाहिए जो वास्तविक है। वे साधन आवश्यक हैं, जिनसे मनुष्य की ज्ञान-वृद्धि होती है, अनुभव बढ़ता है, संसार का स्वरूप समझने में सहायता मिलती है, एक ही परिस्थिति में रहते-रहते जो ऊब आने लगती है, वह दूर होती है। नए-नए प्रदेशों और व्यक्तियों से संपर्क बनता है, ऐतिहासिक स्थानों एवं व्यक्तियों से प्राप्त हो सकने वाली प्रेरणा मिलती है, जलवायु बदलती है, आदि अनेक लाभ ऐसे हैं जो महत्त्वपूर्ण स्थानों की यात्रा करने से मिलते हैं। यात्रा मानव जीवन का महत्त्वपूर्ण मनोरंजन है। गरीब-अमीर उसे अपने-अपने ढंग और साधनों के अनुरूप करते हैं और करनी भी चाहिए जो स्वाभाविक एवं संभव है। अत्युक्तिपूर्ण माहात्म्य बनाना और जादू भरे प्रतिफल मिलने की मान्यता बनाना, यह दोनों ही बातें अनुपयुक्त हैं। दूध पीने से स्वास्थ्य सुधरता है यह ठीक है, पर कोई यह कहे कि दूध पीने से वकील बन जाते हैं तो यह बात अत्युक्ति पूर्ण है। इस कथन में कोई संगति हो भी सकती है तो वह इसी प्रकार होगी कि दूध पीने से स्वास्थ्य बढ़ता है, उसे अध्ययन में लगाए रहकर समयानुसार वकील बना जा सकता है। अध्ययन के श्रम वाली बात छोड़ या हटा दी जाए तो दूध पीकर वकील बनने की बात का तुक कैसे बिठाया जा सकेगा? यात्राएँ करने से मनुष्य की आत्मोन्नति, स्वर्ग-प्राप्ति आदि के बारे में भी इसी प्रकार सोचना चाहिए।
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