आचार्य श्रीराम शर्मा >> बिना मोल आफत दुर्व्यसन बिना मोल आफत दुर्व्यसनश्रीराम शर्मा आचार्य
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दुर्व्यसनों की समस्या
माँस
किसी बड़े स्वार्थ के लिए कोई बड़ी दुष्टता कर बैठे तो बात समझ में आती है, पर अकारण, निष्प्रयोजन निरर्थक ही नहीं, उलटी हानि, बीमारी, विकृति एवं जोखिम की मूर्खतापूर्ण उपलब्धियों के लिए माँस खाया जाता हो तो दोनों ही बातें पूर्णतया अज्ञानमूलक हैं। माँस की गंध, बनावट, स्वाद सभी कुछ ऐसे हैंजो अपने असली रूप में घृणा उत्पन्न करते हैं और उसके समीप आने पर एक वीभत्सता अनुभव होती है। उबालकर चिकनाई में भुनकर मसालों की भरमार में तब कहीं वह उस लायक होता है कि उसकी असलियत छिपा सकें और मुख उसे पेट में जाने के लिए इजाजत दे सके। माँस में हिंसक जानवरों के लिए कोई स्वादिष्टता हो सकती है, पर मनुष्य की इंद्रियों के लिए तो उसमें रत्ती भर भी आकर्षण नहीं है। जो आकर्षण है वह मसाले आदि का है।
अपने बच्चों और प्रियजनों को अपनी आँखों के आगे काटे जाने और उनके करुण चीत्कार करने की कल्पना करके हम सोच सकते हैं कि माँस आखिर किस तरह प्राप्त होता है। स्वास्थ्य और स्वाद के लिए हम अपने बच्चों को मारकर खा सकें, तो ही हमें दूसरे जीवों की हत्या के लिए तैयार होनी चाहिए।
बूचरखाने में छुरी के नीचे तड़पते हुए पशु और कत्ल किये जाते मनुष्य को देखकर कोई यह अंतर नहीं कर सकता कि पीड़ा के स्तर में दोनों के बीच कोई अंतर है। पशु-पक्षी भी सिर कटते और पेट फटते समय उतना ही चीत्कार करते हैं, जितना मनुष्य करता है।
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