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आचार्य श्रीराम शर्मा >> भाव बंधनों से मुक्त हों

भाव बंधनों से मुक्त हों

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15475
आईएसबीएन :00000

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सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्ति की आवश्यकता और उपाय

आलस्य-प्रमाद को जीतें, हर क्षेत्र में सफल बनें

 

मनुष्य की समग्र संरचना शरीर और मन के सम्मिश्रण से होती है। इन दोनों का जो जितना सदुपयोग कर सकता है, वही अपने लिये सम्पदायें और सफलतायें अर्जित करता है, साथ ही अपने समय और जनसमुदाय के लिये कहने लायक सुख-सुविधायें उत्पन्न करता है, स्वयं प्रगति पथ पर चलता है और अन्य असख्यों को ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने में असाधारण रूप से सहायक सिद्ध होता है; किन्तु जो इन दोनों ईश्वर प्रदत्त विभूतियों को ऐसे ही उपेक्षित पड़ी रहने देता है, या उनका दुरुपयोग करता है, वह हानि भी कम नहीं उठाता है। उससे प्रभावित लोग भी कम हानि नहीं उठाते।

समूचा मनुष्य समाज प्रकारान्तर से एक श्रृंखला में बँधा हुआ है। व्यक्ति के कृत्यों का वह स्वयं तो परिणाम भोगता ही है; पर सम्पर्क क्षेत्र भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। यह प्रक्रिया समय एवं स्थान पर सीमाबद्ध नहीं रहती, वरन् यदि वह महत्वपूर्ण हो, तो लम्बे समय तक अपना प्रभाव छोड़ती है और सुविस्तृत परिधि को अपनी लपेट ले में लेती है।

शरीर की सार्थकता इसमें है कि जितनी उसमें क्षमता है उसके अनुरूप उससे काम लिया जाय। उसे आलस्य में, अर्ध-मृतकों या अर्ध-मूच्छितों की तरह तंद्राग्रस्त स्थिति में न पड़े रहने दिया जाय। इस स्थिति को आलस्य कहते हैं। आलस्य को मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु माना गया है। वह परोक्ष रूप से वह हानि पहुँचाता है, जो हाथ-पैर कसकर किसी को बन्दीगृह में डालने पर पहुँचायी जा सकती है।

मन का कर्तव्य और उत्तरदायित्व यह है कि वह शरीर के साथ मिलकर अपने लिये सुनिश्चित कार्य पद्धति निर्धारित करे। फिर जो कुछ भी करना है, उसमें पूरी दिलचस्पी और काग्रता के साथ जुट पड़े। जिसका मन हवा में उड़ने वाले पत्ते की तरह जिधर-तिधर, अस्त-व्यस्त मारा-मारा फिरता है, किसी उपयोगी काम पर जमता नहीं, समझना चाहिये कि वह जिस काम से सम्बन्ध जोड़ेगा, उसे बर्बाद करके रहेगा। हर काम, सफलता की मंजिल तक पहुँचने के लिये समुचित शारीरिक श्रम चाहता है और साथ ही इसकी भी अनिवार्य आवश्यकता रहती है कि उसमें परिपूर्ण मनोयोग लगे। काम छोटा हो या बड़ा, उसकी सफलता के लिये शारीरिक तत्परता और मानसिक तन्मयता की आवश्यकता रहेगी। इन दोनों में जहाँ एक की भी कमी पड़ेगी, समझना चाहिये कि पैर असफलता की दिशा में उठ रहे हैं।

शरीर को श्रम से बचाने का नाम है-आलस्य और मन को निर्धारित काम की उपेक्षा करके जहाँ-तहाँ दौड़ाने को दुष्प्रवृत्ति का नाम है-प्रमाद। जहाँ इन दोनों का संयोग मिल जाय, वही समझना चाहिये कि समय की बर्बादी और काम की असफलता दोनों साथ-साथ चलेंगी और मनुष्य ऐसा कुछ भी न कर सकेगा, जिसे महत्वपूर्ण या सराहनीय कहा जा सके।

कुछ लोग विलासी प्रकृति के होते हैं। आरामतलबी उन्हें बहुत सुहाती है। समय काटने के लिये मनोरंजन का कोई शुगल ढूँढ़ते है। बेकार पड़े रहने से तो पीठ दुखने लगती है, इसलिये आलसी लोग भी आवारागर्दी के लिये निठल्ले यार-दोस्तों का जमघट लगाते हैं, उनकी आव-भगत के लिये पैसा खर्च करते हैं; अपने साथ-साथ ही घर वालों को उस कुटेब का आदी बनाते हैं। मनोरंजन के कुछ साधन तो ऐसे होते हैं, जो घर पर भी जुट सकते हैं। ताश, चौपड़, शतरंज आदि घरेलू मनोरंजन हैं। सिनेमा, पर्यटन, शिकार जैसे माधम ऐसे हैं, जिनके लिये घर से बाहर जाना पड़ता है। इनके साथ दुर्बुद्धि का और गहरा पुट लगने लगे, तो नशेबाजी, जुआ, व्यभिचार जैसी बुराइयाँ भी शामिल हो जाती हैं। यह सभी खर्चीली हैं। आलसी व्यक्ति इन प्रयोजनों में अपनी संचित पूँजी गँवा बैठते हैं या फिर जहाँ-तहाँ से कर्ज लेते हैं। यह सभी परिस्थितियाँ ऐसी हैं, जो कुछ ही दिन में आदत का रूप धारण कर लेती हैं और फिर छुड़ाये नहीं छूटती। ऐसे लोगों को कभी कोई सही उत्तरदायित्व सँभालने की विवशता आ पड़े, तो वे उन्हें आधे-अधूरे छोड़कर निरर्थक समय गँवाने वाली पुरानी आदतों की ओर भटक जाते हैं और जो काम करना था, वह जहाँ का तहाँ पड़ा बर्बाद होता रहता है। इस प्रकार छूटे हुए काम मनुष्य का मनोबल गिराते हैं और बदनामी कराते हैं। फिर नये शिरे से किसी काम को करने के लिये न उत्साह उठता है और न कोई उन्हें जिम्मेदारी सौंपता ही है। ऐसे निरर्थक समय गवांने वाले परिवारियों, सम्बन्धियों और शुभचिंतकों की दृष्टि में क्रमश: क्षोभ और घृणा के पात्र बनते जाते हैं।

विचारशीलता का तकाजा यह है कि थकान मिटाने के जितने विश्राम की आवश्यकता है, उसे छोड़कर शेष समय निर्धारित काम में पूरे परिश्रम के साथ जुटा रहे। सुलझे हुए मन का काम यह है कि ऐसे कार्यक्रम का निर्धारण करे, जिसमें शरीर और मन दोनों को परिपूर्ण काम मिले, साथ ही आजीविका उपार्जन के अतिरिक्त सद्गुणों को बढ़ाने का अवसर मिले। जीवन की नियमित कार्य पद्धति में ऐसे तथ्यों का भी समावेश होना चाहिये, जिनमें लोकहित, जनकल्याण, सतवृत्ति संवर्धन का भी समुचित समावेश हो।

किसी काम की शोभा सफलता तभी बनती है, जब उसमें शरीर की तत्परता और मन की तन्मयता का समान रूप से समावेश हो। यही वह स्थिति है, जिसमें आलस्य और प्रमाद से पीछा छुड़ाकर सर्वतोभावेन निर्धारित कृत्य या लक्ष्य में जुटा जाता हो। निर्धारण सांसारिक, आध्यात्मिक, स्वार्थपरक या परमार्थिक कैसा ही भला-बुरा क्यों न हो, पर उसकी सफलता के लिये परिश्रम और मनोयोग का समान रूप से नियोजन होना चाहिये।

यों आवश्यकता तो हर काम में साधनों की भी पड़ती है, पर उन्हें जुटा पाना या न जुटा सकना इतना महत्व नहीं रखता, जितना कि श्रम और मनोयोग। यह हर किसी के पास समान रूप से विद्यमान है। यह ईश्वर प्रदत्त है। इसे निखारने भर की आवश्यकता है। अभ्यास से वे सहज ही कार्यरत होना सीख लेते हैं। इसके उपरान्त प्रवीणता एव कुशलता भी बढ़ जाती है। अन्य भली-बुरी आदतें भीं अभ्यास से ही विकसित होती हैं। आरम्भ में शरीर और मन तन्मयता का दबाव स्वीकार करने में अनख मानते हैं; किन्तु जब उन्हें आदेश-अनुशासन मानने के लिये विवश किया जाता है, तो थोड़े ही दिनों में उन्हे 'प्रयासरत होने में भी रस आने लगता है। खाली बैठना या आधा-अधूरा काम करना स्वयं अपने आप को भी बुरा लगता है। आलस्य-प्रमाद से होने वाली हानियाँ समझ में आती हैं और उन्हें अपनाने में लज्जा प्रतीत होती है। संसार में सभी प्रगतिशील मनृष्य श्रमशीलता और एकाग्रता के आधार पर ही प्रवीणता सम्पन्न हुए हैं और लक्ष्य तक पहुँचे हैं।

साधनों का महत्व तो है, पर यदि आरम्भ में किसी के पास न हो, तो स्वल्प साधनों से भी कार्य आरम्भ किया जा सकता है। वे धीरे-धीरे भी जुटते रहते हैं। बया पक्षी आकार में बहुत छोटा होता है, पर अपना सुन्दर और सुदृढ़ घोंसला बनाने के लिये तदनुरूप तिनके जहाँ-तहाँ से चयन कर लेता है। इसके लिये ढूँढ़-खोज करने में उसे भाग-दौड़ तो बहुत करनी पड़ती है; किन्तु अन्तत: सभी सामग्री उसे देर-सवेर में मिल ही जाती है। तिनकों को मजबूती से बाँधने के लिये उसे घोड़े की पूँछ के लम्बे और मजबूत बालों की आकयकता पड़ती है। इसे वह न तो खरीदती है, न उधार माँगकर लाते। है। अपनी होशियारी से पूँछ पर जा बैठती है और काट कर लाती है। यह घोड़ा उसका खरीदा हुआ नहीं होता। वह अपनी पैनी नजर से यह पता लगा लेती है कि अभीष्ट साधन कहाँ है और बाल प्राप्त करने के लिये कितनी चतुरता का प्रयोग करना पड़ेगा। ठीक यही बात अन्य सबको अपने-अपने कार्यों के उपयुक्त साधन जुटाने के लिये करना पड़ता है। यह संयोग की बात है कि किसी को साधन जुटाने में सरलता से काम बन जाता है और किसी को एड़ी-चोटी का पसीना एक करना होता है। पुरुषार्थ की कसौटी पर जो जितना अधिक घिस जाता है, वह उतना ही खरा उतरता है। साधनों के अभाव में कभी किसी का काम रुका नहीं रहा है। योग्यता और तत्परता देखकर साधन सम्पन्न उन्हें सहायता करने में अपना भी लाभ देखते है और उसी पूँजी को कई गुनी वापिस लौटा लेते हैं।

सफल मनोरथ व्यक्तियों की जीवनचर्या का गंभीरतापूर्वक अध्ययन किया जाय, तो उनमे से प्रत्येक को घोर परिश्रमी और समग्र तन्मयता नियोजित करने की कला में प्रवीण पाया जायगा। ऐसे व्यक्तियों के द्वारा सम्पन्न हुए काम कलात्मक और सुनियोजित होते हैं। इस प्रकार का अभ्यास करने वाले आलस्य और प्रमाद रूपी दोनों शत्रुओं से बच सकते हैं और उनके द्वारा होने वाली अगणित हानियों के कुचक्र में भी नहीं फँसते। छोटे कामों को सही रीति से सम्पन्न करने वाले आगे चलकर बड़े-बड़े काम कर गुजरने की अवस्था बुद्धि अपने भीतर से ही उपार्जित कर लेते है; जबकि काम से जी चुराने वाले और जिम्मेदारी की उपेक्षा करने वाले अपनी और दूसरों की आँखो से दिन-दिन गिरते जाते हैं। मनोबल गँवा बैठने पर मनुष्य की प्रतिभा का पलायन हो जाता है। साहस टूट जाता है और कुशलता अर्जित करने का सुयोग ही नहीं बन पाता। ऐसे लोग अपना मूल्य गिरा लेते हैं और उनके द्वारा जो काम बन पड़ता है, वह भी गये-गुजरे मूल्य का फूहड़ एवं आधा-अधूरा, काना-कुबड़ा एव अस्त-व्यस्त ही होता है। ऐसी दशा मे काम का ही नहीं उसके कर्त्ता का भी उपहास ईश्वर ने मनुष्य को अनोखी विशेषताओं वाली काया प्रदान की है। ऐसे हाथ और किसी प्राणी को नहीं मिले। मन भी ऐसा मिला है, जो दूरदर्शिता और विवेकशीलता की दृष्टि से अद्भुत है। उसके गुण-कर्म-स्वभाव यदि परिष्कृत स्तर के हों, तो अनेकों का सहयोग अप्रत्याशित ढंग से खिंचता चला आता है; अभ्यास में जुट पड़े तो वह भी किसी काम में प्रवीणता प्राप्त कर सकता है। प्रश्न केवल उपलब्धियों का सदुपयोग करने भर का है। यह मनुष्य का अपना काम है कि क्षमताओं का सदुपयोग करके उन्नति के उच्च शिखर पर जा पहुँचे या फिर उन्हें आलस्य प्रमाद के कूड़े-करकट में पड़ी रहने देकर जो मिला है, उसको गँवा बैठे और निन्दा उपहास का कारण बने। जिसने आलस्य प्रमाद को जीत लिया, समझना चाहिये कि उसने अपने उज्ज्वल भविष्य का पथ प्रशस्त कर लिया। ऐसे ही लोग यशस्वी बनते हें और अपने कर्तृत्व की असंख्यों को अनुकरणीय प्रेरणा देते हैं।

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