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प्रतिभार्चन - आरक्षण बावनी

सारंग त्रिपाठी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1985
पृष्ठ :40
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15464
आईएसबीएन :0

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५२ छन्दों में आरक्षण की व्यर्थता और अनावश्यकता….

आरक्षण-बावनी

 
उन पर दया करो कि जो भी बदनसीब हों।
पीड़ित हों, रो रहे हों, दर्द के करीब हों।
इसमें न जाति-पाति की दीवार उठाओ,
उनकी मदद करो कि जो सचमुच गरीब हों ॥1।।

प्रतिभा का खून हो रहा है जाति के लिए।
सूरज पे घात कर रहे हैं रात के लिए।
कैसी विचित्र हो रही अगवानी द्वार पर
दूल्हे का तिरस्कार है बारात के लिए ॥2॥
 
जो पथ-प्रदर्शक हैं वो गुमराह कर रहे।
भविष्य नई नस्ल का तबाह कर रहे।
जागो ! जवानियों जगो! ज्वलन्त रूप में
हम वक्त के हरकारे हैं, आगाह कर रहे ॥3॥

हीरे का मोल भिल्ल यहाँ आँक रहे हैं।
थोड़े से जौहरी हैं जो मुँह ताक रहे हैं।
जो सिंह स्वाभिमानी हैं, होते उन्हें फाँके,
गदहे तो पंजीरी ही मगर फाँक रहे हैं ॥4॥

सिर धुन के रो रहा है सत्य कैसा शहर है ?
इंसाफ को फाँसी, बड़ा मनहूस पहर है।
ईमान की छाती पे चढ़ी बैठी बेमानी,
कौओं को दूध-भात औ हंसों को जहर है ॥5॥

कुछ वंश मौज मारते, बाकी तो मर रहे।
अरमानों की गरदन पे छुरी हम तो धर रहे।
अपना ये लोकतंत्र क्या है साझे की खेती ?
कोई न हाँकता है गधे खेत चर रहे।।6।।

पिढ़की को आरक्षण है कि वह बाज बन सके।
चमड़े को आरक्षण है कि वह ताज बन सके।
मिचलाने लगे देख के जी जिस कुरूप को,
उसको भी आरक्षण है कि मुमताज बन सके ॥7॥

भवरों को आरक्षण है कि पतवार बन सके।
तट को भी आरक्षण है कि मझधार बन सके।
इनका जो बस चले तो नियम ऐसा बना दें,
भाटे को आरक्षण है कि वह ज्वार बन सके ॥8॥

पर्चे को आरक्षण है कि अखबार बन सके।
चिट्ठी को आरक्षण है कि वह तार बन सके।
पुरजोर इरादों की बुलन्दी तो देखिये,
पोखर को आरक्षण है पारावार बन सके ॥9॥

मरुभूमि आरक्षित है कि सैलाब बन सके।
गुड़हल का फूल भी यहाँ गुलाब बन सके।
महिमा अपार बुद्धि के ये ठेकेदार सब,
जुगनू को आरक्षण है आफताब बन सके ॥10॥

योग्यों को तो धक्के औ अयोग्यों को अंक है।
सत्ता के मठाधीश की क्यों दृष्टि बंक है ?  
चन्दन समझ के जिसको लगाया है भाल पर
इंसानियत के नाम पे वह तो कलंक है ॥11॥

सुनता हूँ बाँझ कोख में ममता नहीं होती।
जैसे हर एक सीप संजोती नहीं मोती।
वैसे सभी इंसान तो समान हैं मगर,
हर एक की क्षमता में तो समता नहीं होती ॥12॥

प्यार मिल पाता न गुस्ताखी के बल पर।
सेतु बँध पाते नहीं राखी के बल पर।
काम कुछ चल जाय पर ओलम्पिकों की दौड़ में,
कौन पाया दौड़ बैसाखी के बल पर ? ॥13॥

भारत में प्रभा कुंठिता प्रतिभा का ह्रास है।
देहरी पे तम की देर से रोता प्रकाश है।
भारत नहीं भारत, जो प्रभारत रहा कभी,
दिन में तो सूरज भी जुगनुओं का दास है ॥14॥
 
कौवे तो बिक रहे हैं बड़े ऊँचे दाम पर।
कोयल की नहीं पूछ है दमड़ी छदाम पर।
मेरा सवाल रहनुमाओं! तुम जवाब दो,
पहुंचा दिया है देश मेरा किस मुकाम पर ?॥15॥

समता तो सिर्फ नारा है आदेश नहीं है।
प्रतिभा के पनपने का तो परिवेश नहीं है।
सूरजमुखी उदास फूल तम के हँस रहे,
मुझको तो लग रहा ये अपना देश नहीं हैं ॥16॥

बढ़ती ही जा रही है अक्षमता स्वदेश की।
घटती ही जा रही है क्यों क्षमता स्वदेश की?
नारे तो एकता के, विषमता के पनारे,
दल-दल में धँसी जा रही समता स्वदेश की।।17।।
 
सोने सा देश अपना यह सबसे महान हो।
जड़ता निशा का नाश हो, व्यापक विहान हो।
ऊँचा न कोई नीचा यहाँ जाति-भेद से,
फिर देश के हर लाल को सुविधा समान हो ॥18॥

घोंघे को तो फागुन मिला, प्रतिभा को पूस है।
यह राजनीति जोंक रही खून चूस है।
वोटों का ही सौदा है आरक्षण के नाम पर,
अन्याय-पक्षपात और सिर्फ घूस है ॥19॥

करुणा-कराह, दाह-आह छाले पड़े हैं।
प्रतिभा को दाने-दाने के भी लाले पड़े हैं।
इनसे कहूँ कि उनसे, सभी से सवाल है,
नेतृत्व की जबान पे क्यों ताले पड़े हैं ? ॥20॥

सत्ता की बुद्धि पर पड़ी है भारी गाज क्यों ?
क्षमता तो धूसरित औ अक्षमता का साज क्यों?
कोई नहीं सुनता है गुहारें गरीब की,
समता विमर्दिता औ विषमता को ताज क्यों ॥21॥

सत्ता का मोह छोड़ के कुछ तो विचार लो।
प्रतिभा की हीन-दीन दशा कुछ निहार लो।
कुण्ठा के समुन्दर में तो उत्साह डूबता,
यदि हो सके तो डूबते हुये को उबार लो ॥22॥

वैसे तो रूप एक सा बगुले औ हँस का।
अन्तर में है अन्तर अपार उनके अंश का।
जब मांग आरक्षण की करें कृष्ण के वंशज,
बोलो भला क्या होगा सुदामा के वंश का ? 23॥
 
अन्याय-पक्षपात निरा बेमिसाल है।
बैठे हैं मौन पाण्डव ये क्या कमाल है ?
फिर द्रोपदी का चीर हर रहा है दु:शासन,
बनता है कौन कृष्ण !  ये युग का सवाल है।24॥
 
छाती फटी क्षमता की छक्के छूट रहे हैं।
प्रतिभा के सितारे गगन से टूट रहे हैं।
संसद कहें कि कौरवों की ये महासभा,
समता की द्रोपदी की लाज लूट रहे ॥25॥

क्या रामराज्य में कहीं था कोई आरक्षण ?
फिर भी रजक की बात पे सीता का वनगमन।
था बात का महत्व, नहीं सिर्फ जाति का,
फिर आप कर रहे हो कहो किसका अनुसरण? 26॥
 
माली ही अपना बाग जलाने पे तुले हैं।
फूलों को तो धूलों में मिलाने पे तुले हैं।
लायेंगे हम संजीवनी बहार के लिए,
पर नींव विषमता की हिलाने पे तुले हैं ॥27॥

भगवान जाने बुद्धि इनकी कैसी बनी है।
सत्ता की सुरा-सिक्त बड़ी गहरी छनी है।
आदेश ये माली का अपने बाग में कैसा ?
झर जायें सभी फूल हँसे नागफनी है ॥28॥

चंदन तो कट रहे हैं अब बबूल के लिये।
बलि फूल चढ़ रहे हैं अब तो शूल के लिये।
अब भी नहीं चेते, तो मित्र भावी पीढ़ियाँ,
धिक्कारती रहेंगी हमें भूल के लिये ॥29॥

मुखिया की भेद-भाव भरी क्यों निगाह है ?
रो-रो के आह भर रहा मधुबन तबाह है।
गाते हैं जमाने को जगाने के लिये हम,
प्रतिभा के पहरुए हैं जमाना गवाह है ॥30॥

वरदान लोकतन्त्र का अभिशाप हो गया।
ये शब्द आरक्षण का मंत्र-जाप हो गया।
कुछ जातियों में जन्म यहाँ पुण्य हुआ तो,
कुछ जातियों में जन्म मगर पाप हो गया ॥31॥
 
लग रहा है मूर्खता के भाल पर चन्दन।
हन्त हा ! निरुपाय विद्वत्ता करे क्रन्दन।
कौन भागीरथ उतारे न्याय की गंगा ?
युग-युगों तक युग करेंगे अमित अभिनन्दन।32॥
 
जब से ये दंद-फंद ही पसन्द हो गये।
सारे विकास के प्रयास मन्द हो गये।
अन्याय देख करके भी खुलती नहीं जबान,
क्यों देश के नेतृत्व के मुँह बन्द हो गये ?॥33॥

ये चल रहे कुचाल चाल भेद-बाँट की।
क्या खेल खिलाती है राजनीति नाटकी ?
यह वर्ग के संघर्ष की साजिश है घिनौनी,
कोई भी जाति फिर रहे घर की न घाट की।34॥

परिवार में पैदा ये नये भेद कर रहे।
इंसानियत के नाम पे क्यों खेद कर रहे?
सूझा है क्या इन्हें, ये सूझ-बूझ देखिये,
जिन पत्तलों में खाया है उनमें छेद कर रहे ॥35॥

क्यों बीज विषमता के विषैले ये बो दिए ?
खाई न जाति-पाँति की अब और खोदिए।
जिसने किया ऐसा कभी इतिहास गवाही,
करनी पे उसकी देश तो सदियों को रो दिये ॥36॥

हर जाति में दोनों गरीब औ अमीर हैं।
हर जाति दोनों में रईस औ फकीर हैं।
क्यों जाति का सवाल हो, केवल गरीब का ?
फिर भी बने बैठे लकीर के फकीर हैं ॥37॥

कोई न यहाँ छूत न कोई अछूत है।
यह कूटनीति-जन्य सिर्फ भ्रम का भूत है।
हम भारतीय हैं सभी कोई भी जाति हो,
हर लाल-लाल देश का माँ का सपूत है ॥38॥
 
इंसानियत को जाति की आरी से न काटो।
इंसान हो, इंसान को टुकड़ों में न बाँटो।
सामर्थ्य हो तो सिर्फ एक काम करो तुम,
देखो जहाँ दरार उसे प्यार से पाटो ॥39॥

असहाय पीड़ितों के तो सहाय बनो तुम।
निरुपाय दीन-हीन के उपाय बनो तुम।
करुणा के लिए जाति-पांति वर्ग-भेद क्या ?
अन्याय ग्रस्त-त्रस्त को तो न्याय बनो तुम ॥40॥

कोई भी जले सबकी जलन दाह एक है।
करुणा, दया औ प्रेम की तो राह एक है।
आहों में, कराहों में भला जाति-भेद क्या ?
दुखिया कोई भी हो सभी की आह एक है ॥41॥
 
अलगाव-भेद-भाव का बचाव करेंगे।
धारा जो थम रही है तो बहाव करेंगे।
अन्याय के विरुद्ध-क्रुद्ध युद्ध के लिए,
जो आँच है दिलों में तो अलाव करेंगे ॥42॥

तीन-तिकड़म में लगे जो, बैठे वे झख मारकर।
जब पैदा भेद कर पाये तो रोते हार कर।
मूर्खता की राम जाने हद्द भी होती कहीं,
कर रहे अलग पानी लोग लाठी मारकर।।43॥
 
चहिए समान रूप से हर वर्ग का रक्षण।
कुछ का है आरक्षण तो हुआ शेष का भक्षण।
संघर्ष वर्ग-भेद का नेता बढ़ा रहे,
यह लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं लक्षण।।44।।
 
विषमय ये विषमता का तो लक्षण न रहेगा।
कुछ जातियों का सिर्फ संरक्षण न रहेगा।
समता-उषा का सूर्य तो जागेगा एक दिन,
यह वर्ग-भेद-पूर्ण आरक्षण न रहेगा ॥45।।

कोई नियम अनीति से पोषित न रहेगा।
कोई नहीं शोषक यहाँ शोषित न रहेगा।
चाहे हो किसी जाति या कि धर्म का कोई।
सबका समान हक है, अघोषित न रहेगा।।46।।

यह व्यथा कब तक सम्हाली जायेगी।
आश्वासन से तो न टाली ये जायेगी।
एक दिन विस्फोट होगा देखना,
बात मेरी यह न खाली जायेगी ॥47॥

शोले छिपे हैं राख का ये ढेर नहीं है।
मर-मर के जिया करता कहीं शेर नहीं है।
आखिर कभी न कभी होगा फैसला कुछ,
देर तो हो सकती है, अंधेर नहीं है ॥48॥
 
बादल व्यथा का है तो वो कड़केगा एक दिन।
और सब्र का शीशा भी तो तड़केगा एक दिन।
जिस दिन हवायें आ के हवा करने लगेंगी,
शोला जो दबा राख में, भड़केगा एक दिन ॥49॥
 
सैलाब बढ़ा, बाँध अभी टूटने को है।
बन्धन ये सड़ चुका है, अभी छूटने को है।
कुछ सोच समझ करके करो काम नहीं तो,
संघर्ष का ये ज्वालामुखी फूटने को है ॥50॥

तूफान से लपटों के लिपटने की देर है।
संकल्प ले के सिर्फ निपटने की देर है।
फूटेगा असंतोष का ज्वालामुखी जरूर,
बिखरी हुई बारूद सिमटने की देर है ॥51।।
 
होता तो समझदार को है काफी इशारा।
कर सकता हकीकत से भला कौन किनारा?
हम सब समान एक हैं कैंची न चलाओ,
समता तो जन्म सिद्ध है अधिकार हमारा ॥52॥

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