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प्रेरक कहानियाँ

डॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15422
आईएसबीएन :9781613016817

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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

अन्न का प्रभाव

महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था और धर्मराज युधिष्ठिर सिंहासन पर विराजमान हो गये थे। किन्तु भीष्म पितामह को इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था, इसलिए वे उत्तरायण की प्रतीक्षा में अपनी मृत्यु के दिन गिन रहे थे। पितामह शर शैया पर पड़े थे और हर समय पाण्डव उनकी सेवा में लगे रहते थे। पितामह भी अपनी ओर से यथोचित उपदेश देने से चूकते नहीं थे।

एक दिन पितामह धर्मोपदेश कर रहे थे कि द्रोपदी अचानक मुस्कुरा उठी, किन्तु तुरन्त ही सम्भल गयी। पितामह ने उसकी वह मुस्कुराहट देख ली थी। आखिर उन्होंने पूछ ही लिया, "बेटी! तुम्हें हँसी क्यों आ रही है?"

द्रोपदी को लगा कि उससे अशिष्टता हो गयी है। उसे पितामह के उपदेश देते समय मुस्कुराना नहीं चाहिए था। उसने क्षमा याचना करते हुए कहा, "पितामह! मुझ से भूल हो गयी, कृपया क्षमा कर दीजिए।"

पितामह को इससे सन्तोष नहीं हुआ। उन्होंने फिर कहा, "बेटी! कोई भी शीलवती कुलवधू अपने गुरुजनों के सामने अकारण नहीं हँसती। मैं यह बात भी भली प्रकार जानता हूँ कि तुम गुणवती हो, सुशीला हो। तुम्हारा मुस्कुराना यों ही नहीं हो सकता। संकोच छोड़कर अपने मुस्कुराने का कारण बताओ।"

द्रोपदी विवश हो गयी। हाथ जोड़कर निवेदन करने लगी, "पितामह! बात बड़ी बुरी है। मुझे झूठ बोलना नहीं आता। यदि आप आग्रह कर रहे हैं तो मैं मुस्कुराने की बात बताने के लिए विवश हूँ।"

कुछ क्षण मौन रह कर उसने फिर साहस बाँध कर कहा, "आज तो आप धर्म की इतनी व्याख्या कर रहे हैं। किन्तु कौरवों की सभा में जब दुःशासन मुझे वस्त्रहीन करने में लगा था उस समय आपका यह धर्मज्ञान कहाँ चला गया था? इस समय मुझे वही बात याद हो आयी, इसलिए मुस्कुराहट आ गयी। इसके लिए मैं बार-बार आपसे क्षमा याचना करती हूँ।"

पितामह ने धैर्य से उसकी बात सुनी। उनको किसी प्रकार का क्रोध नहीं आया। उन्होंने द्रोपदी को समझाते हुए कहा, "बेटी! इसमंआ क्षमा माँगने की कोई बात नहीं है। तुमसे न अपराध हुआ है और न अशिष्टता हई है। मुझे धर्म की यह बात उस समय मालूम न थी, ऐसी भी कोई बात नहीं है। किन्तु अन्यायी, अत्याचारी दुर्योधन का अन्न खाने से मेरी बुद्धि मलिन हो गयी थी। इसीलिए उस सभा में धर्म का निर्णय करने में मैं असमर्थ था। अब अर्जुन के बाणों के लगने से मेरे शरीर का सारा दूषित रक्त बाहर निकल गया है। दूषित अन्न से बने दूषित रक्त के बाहर निकल जाने से अब मेरी बुद्धि शुद्ध हो गयी है। इसीलिए मैं धर्म का तत्व समझकर तुम लोगों को बता रहा हूँ।"

पितामह का उत्तर सुनकर द्रोपदी को सन्तोष हो गया जो अश्रद्धा थी, वह भी दूर हो गयी। साथ ही अपनी भूल का परिमार्जन कर पितामह भी सन्तुष्ट हो गये थे।  

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