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प्रेरक कहानियाँ

डॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15422
आईएसबीएन :9781613016817

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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

विचित्र संयोग

प्राचीन काल की बात है। उस काल में बिल्वमंगल नाम के एक बड़े तपस्वी सिद्ध हुए थे। किन्तु तपस्वी बनने से पूर्व ने बड़े दुराचारी थे। नगर की प्रसिद्ध वेश्या चिन्तामणि पर उनका ऐसा प्रेम था कि वे सदा उसके घर पर ही पड़े रहते थे।

एक दिन उनके पिता का श्राद्ध था तो उस दिन बिल्वमंगल अपनी प्रिया चिन्तामणि के पास नहीं जा सके। अनमने मन सेपिता का श्राद्ध किया । किसी प्रकार दिन बीता और उन्होंने चिन्तामणि के पास जाने का विचार बनाया।

चिन्तामणि का घर और उनके निवास के बीच एक नदी पड़ती थी। श्राद्ध समाप्त होने पर शाम होते ही वे उसके घर की ओर चल दिये। वह जब अपने घर से निकले तो बूंदाबांदी हो रही थी, किन्तु उन्होंने उसकी परवाह नहीं की। बिल्वमंगल ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते जाते थे त्यों-त्यों वर्षा भी बढ़ती जाती थी। आँधी भी चल पड़ी। रात का घना अँधेरा छा गया। हाथ को हाथ नहीं सूझता था।

घोर वर्षा में ज्यों ही वे नदी के तट पर पहुँचे तो देखा कि वहाँ कोई नाव वाला नहीं है। वर्षा के कारण वे नौकाओं को छोड़ कर अपने-अपने घर चले गये थे। वे बड़ी परेशानी में फँस गये थे। उन्होंने तैर कर पार जाने का निश्चय किया और नदी में कूद गये। संयोग की बात कि नदी में ही उनको बहाव में एक मोटी लकड़ी बहती आती दिखाई दी। उसे देख वह प्रसन्न हुए और उस पर सवार होकर वे हाथ-पैर मारते किनारे जा लगे। लकड़ी को किनारे पर छोड़ दिया।

आँधी-पानी ने इतना जोर पकड़ लिया था कि जब बिल्वमंगल चिन्तामणि के दरवाजे पर पहुँचे तो देखा कि दरवाजे बन्द हैं। आँधी-पानी के कारण चिन्तामणि ने सब द्वार और खिड़कियाँ बन्द कर ली थीं। बिल्वमंगल ने द्वार और सब खिड़कियाँ खटखटायीं किन्तु आँधी-पानी में चिन्तामणि को कुछ सुनाई नहीं दिया और द्वार नहीं खुले। वह निश्चिन्त थी कि बिल्वमंगल के पिता का श्राद्ध होने के कारण वे आयेंगे नहीं और इसी कारण वह जल्दी ही सो भी गयी थी।

बार-बार बिजली कौंध रही थी। उससे गड़गड़ाहट के साथ थोड़ा उजाला भी हो जाता था। उसी उजाले में बिल्वमंगल को खिड़की से रस्सी जैसा कुछ लटका हुआ दिखाई दिया औरखिड़की के समीप जाकर उसी रस्सी के सहारे वह ऊपर पहुँच गये।

संयोगवश वह खिड़की खुली रह गयी थी। बिल्वमंगल ने भीतर जाकर चिन्तामणि को जगाया। चिन्तामणि हड़बड़ा कर उठ बैठी और बिल्वमंगल को पानी से तर हुए सामने खड़े देख कर विस्मय करने लगी। बिल्वमंगल के शरीर से दुर्गन्ध भी आ रही थी। उसने पूछा, "इस भयंकर आँधी-तूफान में इतनी रात गये तुम कैसे आ गये? तुम्हारे शरीर से यह दुर्गन्ध क्यों आ रही है? इस समय तो नदी भी जोर से चढ़ी हुई होगी?"एक साथ चिन्तामणि ने अनेक प्रश्न पूछ लिए ।

बिल्वमंगल बोले, "नदी तो मैंने एक तख्त पर सवार होकर पार कर ली और खिड़की पर तुमने जो रस्सी लटका रखी है उसके सहारे मैं ऊपर आ गया। रही दुर्गन्ध की बात, वह मुझे तो नहीं आ रही है, तुम्हें कैसे आ रही है, यह मैं नहीं कह सकता।"

"रस्सी, कैसी रस्सी? मैंने तो कोई रस्सी खिड़की पर टाँगी नहीं थी।"चिन्तामणि आश्चर्य प्रकट करती हुई दीपक लेकर खिड़की के पास गयी तो देखा एक बड़ा सर्प वहाँ पर लटका हुआ था।

चिन्तामणि को सन्देह हो गया। तब तक आँधी-पानी थम गया था। चिन्तामणि बिल्वमंगल से बोली, "मुझे वह लकड़ी तो दिखाओ जिससे तुमने नदी पार की है।"

बिल्वमंगल बोला, "इस समय यह क्या राग ले बैठी हो तुम? अब छोड़ो भी। पार होना था हो गया, अब उस लकड़ी को क्या देखना। यह उसी की बदबू होगी।"

चिन्तामणि नहीं मानी। विवश होकर बिल्वमंगल को उसे उस स्थान पर ले जाना पड़ा जहाँ वह नदी पार करके उतरा था। उसने उस लकड़ी की ओर संकेत किया, चिन्तामणि स्तब्ध रह गयी। वह लकड़ी नहीं कोई लाश थी। उससे अब भी दुर्गन्ध आ रही थी।

चिन्तामणि का मन घृणा से भर गया। उसने कहा, "ब्राह्मण कुमार! आज तुम्हारे पिता का श्राद्ध था। फिर भी तुम इस आँधी-पानी में इस प्रकार मेरे पास चले आये। जिसके प्रेम में तुम्हें सड़े मुर्दे की दुर्गन्ध नहीं आयी, काला नाग तुम्हें रेशम की डोरी जान पड़ा, वह तुम्हारा प्रेमपात्र कौन है, यह तुम आज आँख खोल कर देख लो।

"यह जो मेरा शरीर है न यह भी इसी मुर्दे जैसा ही है। इसमें भी ऐसे ही मांस, मज्जा और हड्डियाँ आदि भरी पड़ी हैं। अरे! जितना प्रेम तुम्हारा इस मुर्दे से है, उसका एक अंश भी यदि तुम्हारा प्रेम भगवान के प्रति होता तो तुम्हारा जीवन सफल हो जाता।"ये कह कर वह मौन हो गयी।

बात बिल्वमंगल के मर्म को छू गयी। उसने वेश्या चिन्तामणि को प्रणाम किया और बोला, "आज से तुम मेरी प्रेयसी नहीं मेरी गुरु हो।"

उसके बाद बिल्वमंगल एक पलभी वहाँ नहीं रुके। वे सीधे ब्रज की ओर चल दिये। ब्रज जाकर कृष्ण की भक्ति में बस कृष्णमय ही हो गये।  

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