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प्रेरक कहानियाँ

डॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15422
आईएसबीएन :9781613016817

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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

अभिमान

प्राचीन काल की बात है, किसी देश की राजकुमारी को अपने रूप और यौवन पर बड़ा अभिमान था। जब वह युवती हुई तो राजा को उसके विवाह की चिन्ता होने लगी। राजा ने राजकुमारी के विवाह करनाचाहा, अनेक राजकुमार उसे देखने के लिए आये, उनमें से अधिकांश उसका पाणिग्रहण भी करना चाहते थे। किन्तु राजकुमारी को कोई भी राजकुमार पसन्द ही नहीं आ रहा था। .

राजकुमारी का नाम था मन्दाकिनी। मन्दाकिनी के पिता को इससे बड़ी परेशानी होने लगी थी। उनका यही प्रयत्न रहा कि किसी प्रकार राजकुमारी काविवाह किसी अच्छे राजकुमार से हो जाय। जब वे अपने प्रयत्न में पूर्णतया असफल हो गये तो उन्होंने एक योजना के अन्तर्गत घोषणा कर दी, "राजकुमारी के जन्म-दिवस पर प्रातःकाल जो प्रथम व्यक्ति नगर-द्वार पर उपस्थित पाया जाएगा उसी के साथ राजकुमारी का विवाह कर दिया जाएगा।"

राजकुमारी ने जब यहसुना तो उसने पिता से असन्तोष जताया किन्तु राजा ने समझाया कि विवाह आवश्यक है, और वह जब किसी को पसन्द ही नहीं कर रही है तो कोई न कोई तो उपाय करना ही होगा। इसीलिए यह घोषणा आवश्यक हो गयी थी। युवती का किसी भी प्रकार अपने पिता के घर में रहना उचित नहीं है।

राजकुमारी का जन्मदिन आ गया। उस दिन प्रातःकाल जिस प्रथम व्यक्ति को राजसैनिक पकड़ कर लाये वह साधारण भिक्षुक था लेकिन वह युवक था और सुन्दर भी था। यही उसकी विशेषता थी। उसका मुखमण्डल प्रभावान और प्रफुल्लित दिखाई देता था।

राजा अपने वचन पालन के लिए प्रतिबद्ध था। प्रथा के अनुसार राजपुरोहित को बुलाया गया और राजा ने विधि-विधान से राजकुमारी का भिखारी युवक सेपाणिग्रहण करा दिया। राजकुमारी ने विरोध किया, किन्तु उसके हठी पिता ने उसकी एक नहीं सुनी और अपना कर्तव्य पूरा कर दिया।

राजा ने अपने जामाता को पाँच स्वर्ण मुद्राएँ देकर कहा, "युवक! तुम अपनी नवपरिणीता पत्नी को लेकर तुरन्त मेरे राज्य से बाहर निकल जाओ। यदि भविष्य में तुम दोनों में से किसी को भी इस राज्य में देख लिया गया तो उसे प्राणदण्ड भोगना पड़ेगा।"

राजा की आज्ञा थी। जामाता ने उसका पालन किया। अपनी पत्नी का हाथ पकड़ा और बाहर निकल गया। उसे न कोई खेद था और न दुःख ही। वह तो भिक्षुक जीवन जी रहा था, उसी प्रकार भविष्य में भी जी लेगा, यही उसकी धारणा थी। यह नगर न सही दूसरा नगर सही। यह राज्य न सही दूसरा राज्य सही, उसके लिए दोनों में कोई अन्तर नहीं था।

राजकुमारी मन्दाकिनी को पैदल ही पिता के राज्य से बाहर निकलना पड़ा। प्रसन्नता की बात इतनी थी कि उसका पति उससे प्यार करता था और मार्ग में उसका विशेष ध्यान रख कर आगे पैर बढ़ाता था। वह यह प्रयत्न करता कि राजकुमारी को कम-से-कम कष्ट सहना पड़े। इस प्रकार वह सपत्नीक अपने श्वसुर के राज्य से बाहर हो गया।

दूसरे राज्य में पहुँचकर एक सुरक्षित वन-स्थान पर उसने रहने का विचार किया और वहाँ एक झोपड़ी डाल दी। उसने अपनी पत्नी से कहा, "प्रिये! अब यही तुम्हारा घर है। मैं भी अब भिक्षा माँगना छोड़ दूँगा। जंगल में जो कन्दमूल और फल आदि मिलेंगे उनसे ही भरण-पोषण कर सन्तोष का अनुभव करेंगे। मैं जंगल से लकड़ियाँ काट कर ले आऊँगा, तुम बाजार में जाकर उनको बेच आना। इस प्रकार कुछ धन एकत्रित होने लगेगा।"

राजकुमारी के लिए यह कार्य कितना कठिन था, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। किन्तु बेचारी विवश थी, करती भी तो क्या करती। तदनुसार दोनों ने जीवनयापन आरम्भ किया। कठिनाई तो बहुत आयी, किन्तु समय के साथ कम होती गयी। लकड़ी बेच कर जब कुछ पैसे उनके पास जमा हो गये तो पति ने एक दिन कहा, "अब हम जंगल में रहना छोड़ कर किसी गाँव में जाकर बस जाएँ तो ठीक रहेगा।"

"जैसा आप उचित समझें।"पत्नी ने कहा। एक दिन वे निकट के किसी गाँव में जा पहुँचे। वहाँ उनको एकपुराने घर का खण्डहर दिखाई दिया, उसको उन्होंने अपना घर बना लिया। पति बाजार जाकर कुछ मिट्टी के बर्तन खरीद लाया और पत्नी से बोला, "इन बर्तनोंकोले जाकर गाँव में बेचने का यत्न करो।"

किसी युग की राजकुमारी आज बर्तनों को सिर पर रख कर बाजार में बेचने जा रही थी। उसे मन ही मन यह डर भी सताता था कि यदि उसने पति के कथनानुसार काम नहीं किया तो वह उससे रुष्ट हो जाएगा और उसे छोड़ कर कहीं भी चल देगा। वह भिखारी था, उसे कोई अन्तर नहीं पड़ेगा।

राजकुमारी बर्तन लेकर बाजार गयी और बर्तन उतार कर धरती पर रख दिये किन्तु स्वयं धरती पर बैठना उसके लिए सम्भव नहीं हो पा रहा था, उसे इस प्रकार बैठना अपना अपमान-सा लगता था।

वह बर्तनों के पास खड़ी थी कि तभी एक घुड़सवार आया और मन्दाकिनी से बर्तनों का भाव करने लगा। मन्दाकिनी खिन्न-सी खड़ी थी पर उसने अश्वारोही को बर्तनों का मूल्य बता दिया। अश्वारोही बिना बर्तन खरीदे और बिना कुछ बोले आगे बढ़ गया।

अश्वारोही ने ज्योंही अपना अश्व मोड़ा वह न जाने क्यों बिदक गया। परिणामस्वरूप उसकी ठोकर से मन्दाकिनी के सारे बर्तन चूर-चूर हो गये। फिर भी घुड़सवार ने यह सब नहीं देखा, वह तो घोड़े को वश में कर रहा था। ज्यों ही घोड़ा वश में हुआ कि उसने उसको ऐड़ लगाई और आगे बढ़ गया।

मन्दाकिनी हताश, निराश रोती-सी खाली हाथ घर लौट आयी। उसको डर लग रहा था कि आज उसका पति उससे बहुत रुष्ट होगा। घर जाकर उसने अपने पति को सारी घटना यथावत बखान कर दी। पति कुछ नहीं बोला।

दूसरे दिन पति नेकहा, "मन्दाकिनी! तुम्हें कुछ काम तो आता नहीं। इस प्रकार से हमारा गुजारा किस प्रकार चलेगा? चलो नगर में जाकर देखते हैं। राजधानी जाकर राजा की पाकशालामेंतुम्हें कोई नौकरी दिलाने का यत्न करूँगा। तुम्हारा काम बन जाएगा तो फिर मैं अपने लिए भी कोई काम ढूँढ़ लूँगा। इस प्रकार कुछ पैसे जुड़ जाएँगे तो फिर मैं कोई व्यापार कर लूँगा।"

जिस के राज्य में वे इस समय रह रहे थे, उस राजा का नाम 'रंग मोहन' था। मन्दाकिनी को जब राजा के नाम का ज्ञान हुआ तो उसको स्मरण हो आया कि किसी समय वह राजा उसकेपिता के पास उसका हाथ माँगने आया था। उस समय मन्दाकिनी ने उसको अस्वीकार कर दिया था। समय बदला और आज मन्दाकिनी को उसकी रसोइया बनने की नौबत आ गयी थी। हाय रे रूप का गर्व! राजरानी बनने वालीको रसोइया बनना पड़ रहा था।

मन्दाकिनी को राजा की पाकशाला में नौकरी मिल गयी। उसकी जब व्यवस्था हो गयी तो उसका पति अपने लिए कोई काम ढूँढ़ने चल दिया। दिन निकलते रहे और मन्दाकिनी का गर्व भी चूर होता चला जा रहा था। अब उसके व्यवहार में नम्रता आने लगी थी। परिणामस्वरूप रसोईघर की स्वामिनी उसके व्यवहार से प्रसन्न रहने लगी थी।

वसन्त पंचमी का त्यौहार आया। उस दिन की विशेषता यह थी कि वह राजा का जन्मदिन था। उस दिन राजा अपने सभी दास-दासियों को अपने पास बुला कर उन्हें पुरस्कार दिया करता था। इस प्रकार एक-एक कर सब दास-दासियाँ उसके पास जाकर पुरस्कार लेने लगीं। मन्दाकिनी को भी उपस्थित होना ही पड़ा। उसका नाम सबसे अन्त में पुकारा गया था। जब वह राजा के सम्मुख जाकर खड़ी हुई तो आश्चर्य से राजा बोला, "मन्दाकिनी! मैं तुम्हारे काम की प्रशंसा सुन चुका हूँ। मैं तुमसे प्रसन्न हूँ और तुम्हें अपनी राजरानी बनाना चाहता हूँ।"

यह सुनते ही मन्दाकिनी चौंक गयी फिरशीघ्र ही सम्भल कर बोली, "महाराज! आपको ऐसी अधर्म की बात नहीं कहनी चाहिए। आप मेरा अपमान कर रहे हैं। आपको विदित है कि मैं विवाहित हूँ। क्या हुआ यदि हम निर्धन हैं या मेरा पति पहले भिखारी था। किन्तु मेरा तो वही सर्वस्व है। हाँ, यदि आप मुझ पर प्रसन्न ही हैं तो मुझ पर उपकार कर किसी प्रकार मेरे पति का पता लगा कर उन्हें यहाँ बुलवा दीजिए। मैं यह पाकशाला छोड़ कर उनके साथ चली जाऊँगी।"

राजा ने उसको वहीं खड़ी रहने को कहा और स्वयं भीतर चला गया। थोड़ी देर बाद वही भिखारी, उसी प्रकार के चीथड़ों में बाहर निकल कर आया। मन्दाकिनी उसे देखते ही दौड़ कर उसके चरणों में गिर पड़ी। भिखारी मुस्कुराया और बोला, "मन्दाकिनी! जरा मुझे ध्यान से देखो। तुम्हें मुझ में और राजा में कुछ समानता दिखाई देती है?"

भेद खुल गया। भिखारी के वेश में स्वयं राजा रंगमोहन वहाँ बैठा था। राजा ने कहा, "मन्दाकिनी! क्षमा करना। तुम्हारे अभिमान को चूर करने का कोई अन्य उपाय ही नहीं था। तुम्हारे पिता को इसीलिए यह कदम उठाना पड़ा और हम दोनों को अनेक प्रकार के कष्ट सहने पड़े।"

मन्दाकिनी सब समझ गयी और बोली, "उस दिन मेरे मिट्टी के बर्तनों को तोड़ने वाले घुड़सवार भी आप ही थे?"

"हाँ, वह भी मैं ही था। मैं देखना चाह रहा था कि तुम्हें अभी नम्रता का व्यवहार करना आया कि नहीं।"

प्रसन्नता-भरे व्यंग्य से मन्दाकनी बोली, "बड़ा दुःख दिया आपने मुझे?"

"दुःख मैंने नहीं दिया, तुमने मुझे दिया है। यदि तुमने सीधी तरह मुझ से विवाह करना स्वीकार कर लिया होता तो फिर यह नौबत कहाँ आती?"

मन्दाकिनी झेंप गयी। उसका गर्व चूर हो गया था।  

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