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प्रेरक कहानियाँ

डॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15422
आईएसबीएन :9781613016817

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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

ब्रह्मतेज

ब्रह्मर्षि पद प्राप्त करने से पूर्व महर्षि विश्वामित्र क्षत्रिय राजा के रूप में प्रसिद्ध थे। उनका क्रोधी और हठी स्वभाव जग-प्रसिद्ध था। एक बार राजा विश्वामित्र सदल-बल वन में शिकार के लिए निकले। विचरण करते हुए वे उस वन में जा पहुंचे जहाँ ब्रह्मर्षि वशिष्ठ का आश्रम था।

राजा विश्वामित्र को आया देख कर ब्रह्मर्षि ने राजा का स्वागत-सत्कार किया। राजा विश्वामित्रकोउस समय बड़ा आश्चर्य हुआ जब वन में निवास करने वाले ऋषि ने उनको वह सब भोजन दिया जोकि उनको राजभवन में प्राप्त होता था।

राजा विश्वामित्र ने इस विषय में जिज्ञासा व्यक्त कर ही दी। तब उन्हें विदित हुआ कि ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के आश्रम में नन्दिनी गौ का निवास है। उसके प्रभाव से ही यह सब सम्भव हो पाता है। राजा विश्वामित्र ने उस गाय की याचना कर डाली। किन्तु ब्रह्मर्षि किसी भी मूल्य पर नन्दिनी गौ को त्यागने के लिए तैयार नहीं हुए।

राजा विश्वामित्र हठी और उद्दण्ड स्वभाव के थे। जब ब्रह्मर्षि गाय देने के लिए तैयार नहीं हुए तो राजा ने उस गाय को बलपूर्वक ले जाने का उपक्रम किया। आश्रमवासियों ने इसका प्रतिरोध किया। आश्रमवासियों को तो विश्वामित्र की सेना ने परास्त कर दिया किन्तु जब वे नन्दिनी की ओर बढ़े तो उसने अपने पैने सींगों के प्रहार से सब को परास्त कर दिया।

विश्वामित्र को इससे बड़ी निराशा हुई। उन्होंने महर्षि वशिष्ठ पर भी अपने अस्त्रों का प्रयोग किया किन्तु महर्षि ने ब्रह्मास्त्र के बल पर उनके प्रहार को निरस्त कर दिया। विश्वामित्र कुछ सोचने के लिए विवश हो गये। शीघ्र ही विश्वामित्र की समझ में आ गया कि तपस्वी ऋषि के सम्मुख क्षत्रिय बल निरस्त हो गया है। विश्वामित्र ने तब निश्चय किया कि वे भी घोर तपस्या करके ब्रह्मर्षि पद और ब्रह्मास्त्र प्राप्त करेंगे।

विश्वामित्र ने तत्काल ही राजपाट त्याग दिया और वन की ओर प्रस्थान किया।

विश्वामित्र ने घोर तप किया। तप करते हुए जब पर्याप्त समय बीत गया तो एक दिन प्रजापति ब्रह्मा ने आकर उनसे कहा, "विश्वामित्र! आप तप तो कर रहे हैं, किन्तु आप ब्रह्मर्षि तभी हो सकतेहैं जब ब्रह्मर्षि वशिष्ठ आपको इस पद के योग्य मान लेंगे। उसके बाद ही ब्रह्मास्त्र प्राप्त हो सकता है, उससे पूर्व नहीं।"

उधर दुराग्रही विश्वामित्र थे कि तपस्यालीन होने पर भी वशिष्ठ से प्रार्थना करने जाना उन्हें अपना अपमान प्रतीत होता था। इस अवधि में जब कभी वशिष्ठ उनसे मिलते भी थे तो उन्हें राजर्षि कह कर ही सम्बोधित किया करते थे। विश्वामित्र के लिए तो उनका राजर्षि कहना जले पर नमक छिड़कने जैसा होता था। उस समय विश्वामित्र का क्रोध और भी बढ़ जाता था। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के शान्त रहने पर भी विश्वामित्र सब प्रकार से उन्हें हानि पहुँचाने का यत्न करते रहते थे। उनका अनिष्ट करने का कोई भी अवसर विश्वामित्र चूकते नहीं थे।

विश्वामित्र ने अनेक प्रकार से वशिष्ठ को वश में करने का यत्न किया, किन्तु सब व्यर्थ सिद्ध हुआ। तब राजर्षि विश्वामित्र ने घोषणा कर दी, 'मैं ब्रह्मा बनने के लिए नवीन सृष्टि की रचना करूँगा।'

राजर्षि विश्वामित्र की इस प्रकार की अनर्गल घोषणा सुन कर ब्रह्मा उनके पास आये और उनको हर प्रकार से समझाने का यत्न किया कि वे अपनी घोषणा से विरत हो जाएँ।

ब्रह्मा के समझाने पर विश्वामित्र ने नई सृष्टि रचना की बात को तो त्याग दिया किन्तु ब्रह्मर्षि वशिष्ठ से प्रतिकार लेने की दुर्भावना उनके मन से किसी भी प्रकार निकल नहीं सकी। स्वभाव बदलना बड़ा कठिन होता है।

प्रतिकार के अनेक उपाय विश्वामित्र ने सोचे किन्तु किसी पर भी कार्य करना सम्भव न जान अन्त में उन्होंने उनका वध करने का विचार बना लिया। विश्वामित्र प्रत्यक्ष रूप से तो ब्रह्मर्षि वशिष्ठ को मार नहीं सकते थे, अतः उन्होंने छिपकर उन्हें मारने की योजना बना ली।

अपने उद्देश्य के लिए एक दिन विश्वामित्र रात्रि के समय वशिष्ठ के आश्रम में पहुँच कर वहाँ किसी उपयुक्त स्थान पर छिप कर बैठ गये। महर्षि वशिष्ठ अपनी पत्नी अरुन्धती के साथ आश्रम के आँगन में स्थित वेदी के समीप बैठे हुए थे।

ब्रह्मर्षि पत्नी ने ऊपर आकाश की ओर देख कर कहा, "कैसी निर्मल चाँदनी खिल रही है।"

वशिष्ठ जी बोले, "आज की चन्द्रिका ऐसी उज्ज्वल है जैसे आजकल राजर्षि विश्वामित्र की तपस्या का तेज दशों दिशाओं को आलोकित कर रहा है।"

पास में ही पेड़ों के झुरमुट में छिपे विश्वामित्र उन दोनों में परस्पर होने वाले वार्तालाप को सुन रहे थे। वार्तालाप उन्हें स्पष्ट सुनाई दे रहा था, वे इतने निकट छिपे हुए थे। ज्यों ही वशिष्ठ के मुख से यह वाक्य निकला विश्वामित्र पर मानो घड़ों पानी पड़ गया। उनका क्रोध एकदम कपूर की भाँति विलीन हो गया। स्वयं उनका हृदय उन्हें धिक्कारता हुआ कहने लगा, 'जिससे तू रात-दिन द्वेष करता है, जिसे तू मारने आया है, वह कौन है? यह देख। वह महापुरुष अपने सौ पुत्रों के हत्यारे की भी एकान्त में अपनी पत्नी के सम्मुख प्रशंसा कर रहा है।'

विश्वामित्र को स्वयं पर ही क्रोध आने लगा था। अपने शरीर पर लदे शस्त्रास्त्रों को विश्वामित्र ने परे फेंक दिया और निश्शस्त्र होकर वे दौड़ते हए ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के समीप गये और भूमि पर दण्डवत् गिर पड़े। उनके मन में द्वेष का जो मैल जमा हुआ था वह सब अब तक धुल चुका था और वे निर्मल हो चुके थे।

ब्रह्मर्षि ने जब उनको देखा तो सहसा धरती पर से उनको उठा कर अपने गलेसे लगा लिया। द्वेष और शस्त्र त्याग कर आज तपस्वी विश्वामित्र ब्राह्मणत्व प्राप्त करचुके थे। उन्हें उठाते हुए वशिष्ठ ने कहा, "ब्रह्मर्षि! उठो!"

उस दिन के बाद ही विश्वामित्र ब्रह्मर्षि कहलाने लगे थे।

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