नई पुस्तकें >> प्रेरक कहानियाँ प्रेरक कहानियाँडॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा
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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह
कपट की पराकाष्ठा
महाभारत युद्ध से पूर्व की घटना है। दुर्योधन ने कपटपूर्ण रीति से पाण्डवों को जुए में पराजित कर उन्हें वनवास के लिए विवश कर दिया था। पांडव वनवास भोग रहे थे किन्तु दुर्योधन को फिर भी चैन नहीं था। वह तो उनको पूर्णतया नष्ट हुआ देखना चाहता था। उसके लिए भाँति-भाँति के संकल्प करता रहता था। संयोग की बात कि एक दिन महर्षि दुर्वासा उसके प्रासाद में आये। दुर्योधन ने उनकी यथोचित से अधिक सेवा-सुश्रूषा की। भोजन कराया और चलते समय यथेष्ट दक्षिणा भी प्रदान की।
दुर्वासा ऋषि दुर्योधन की सेवा से बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा, "राजन्! हम तुम्हारी सेवा-सुश्रूषा से प्रसन्न हैं। कोई वर माँगो।"
महर्षि दुर्वासा के ये शब्द दुर्योधन को अन्धे को लाठी के समान सहायक लगे। उसने कहा, "आपने मेरे यहाँ पधारकर मुझ पर कृपा की। मैं चाहता हूँ कि इसी प्रकार की कृपा आप मेरे बड़े भाई युधिष्ठिर पर भी करें तो कदाचित उनको भी इसी प्रकार वरदान प्राप्त करने का अवसर सुलभ हो जाय।"
"हम अवश्य उनका आतिथ्य स्वीकार करेंगे।"दुर्वासा ने दुर्योधन को आश्वस्त कर दिया।
दुर्योधन को दिये अपने वचन के अनुसार एक दिन दुर्वासा दल-बल सहित युधिष्ठिर के वनवास गृह में जा पहुँचे। दोपहर का समय था। सभी लोग कन्दमूल खाकर विश्राम कर रहे थे। सहसा सदल-बल ऋषि को आया देख युधिष्ठिर ने उठ कर उनका स्वागत-सत्कार किया और भोजन की बात पूछी।
दुर्वासा बोले, "हम लोगों ने अभी स्नान नहीं किया है। हम नदी-तट पर स्नान के लिए जा रहे हैं, तब तक आप भोजन की व्यवस्था कीजिए।"
इतना कह कर ऋषि अपने दल सहित नदी पर स्नान के लिए चल दिये। युधिष्ठिर की स्थिति बड़ी विचित्र हो गयी थी। कुटिया में जितना भोजन था उसको तो वे लोग मिल-बाँट कर खा चुके थे। किन्तु द्रोपदी को जब इस बात का ज्ञान हुआ तो उसने सबको आश्वस्त किया।
हुआ यह था कि दुर्वासा के जाते ही भगवान कृष्ण पाण्डवों से मिलने के लिए वहाँ आ पहुँचे थे। वे समय-समय पर उनका ध्यान रखते रहते थे। अभी उनका अज्ञातवास काल आरम्भ नहीं हुआ था। यदि आरम्भ हो भी जाता तो भी श्रीकृष्ण को तो उसका ज्ञान रहता ही। पाण्डव न केवल कृष्ण के सखा थे अपितु वे उनके मित्र और नातेदार भी थे।
यह तो प्राचीन परम्परा है कि मित्र और नातेदार के यहाँ खाली हाथ कोई नहीं जाता और जब ऐसे व्यक्ति वनवास में हों तो फिर तो विशेष ध्यान रखना पड़ता है। कृष्ण तैयारहोकर उनसे मिलने गये थे। द्रोपदी को वे बहन मानते थे और अर्जुन के साथ उनकी बहन का विवाह हुआ था।
कृष्ण अपने रथ में अनेक प्रकार की खाद्य सामग्री लेकर उपस्थित हुए थे। उसी के सहारे द्रोपदी ने युधिष्ठिर को आश्वस्त किया था।
ऋषि दुर्वासा यथा समय नदी-तट पर स्नान करके पाण्डवों की कुटिया पर उपस्थित हुए। उनको अर्घ्य प्रदान किया गया और फिर उनके भोजन की व्यवस्था हुई। यथाशक्ति अतिथि-सत्कार किया गया। ऋषि दुर्वासा प्रसन्न हो गये और पाण्डवों को आशीर्वाद देकर वहाँ से विदा हुए।
दुर्योधन की योजना निष्फल गयी। दुर्वासा अप्रसन्नता में शाप देने की अपेक्षा प्रसन्नता में आशीर्वाद देकर गये थे। इस प्रकार दुर्योधन द्वारा आयोजित अनिष्ट टल गया। दुर्योधन का कपट किसी काम न आया।
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